शब्दवेध: क्योँ, किस के लिए
शब्दवेध सब के लिए एक अत्यंत रोचक सत्यकथा है. कैसे कोई अपनी मेहनत और लगन के, निष्ठा, संकल्प और प्रतिबद्धता के बल पर कमतरीन से कमतरीन परिस्थितियोँ मेँ से ऊपर निकल सकता है, कैसे वह संपूर्ण समर्पण भाव से जीवन की कठिनाइयोँ से जूझता अपने महान सपने साकार कर सकता है.
परिवार की आय बढ़ाने के लिए पंदरह वर्ष के किशोर ने मैट्रिक के आगे की पढ़ाई छोड़ दी. छापेख़ाने का काम सीखने वह एक प्रैस मेँ दाख़िल हुआ. शामोँ मेँ पढ़ाई कर के इंग्लिश मेँ ऐमए पास किया. तीव्र जिजीविषा और अशाम्य ज्ञान पिपासा से संचालित आगे बढ़ता वह पत्रकारिता के शिखर तक जा पहुँचा… और जब उस की एक अदम्य चाहत – हिंदी मेँ आधुनिक थिसारस की आकांक्षा – उस के मन पर हावी हो गई, तो माधुरी जैसी लोकप्रिय फ़िल्म पत्रिका, जिस की स्थापना उस ने स्वयं की थी, के संपादक की पाँच-सितारा नौकरी और अपना सब कुछ छोड़छाड़ आया. फिर बिना कहीँ से भी कैसी भी आर्थिक सहायता के पूरे बीस साल एकाकी तपस्या मेँ लगा रहा. जब वापस समाज मेँ आया तो तो भारत का पहला आधुनिक थिसारस के निर्माता के रूप मेँ प्रकट हुआ. हर तरफ़ से धन्य धन्य के बीच वह शब्दऋषि सा मान्य हो गया.
सब से बड़ी बात यह है कि अरविंद का जीवन यह तथ्य उभारता है कि सब से बड़ा हथियार है काम. कर्म के सहारे हम कठिन चुनौतियोँ और विषम समस्याओँ पर पार पा सकते हैँ.
यह जो किताब है शब्दवेध – यह अपनी तरह की विशिष्ट पाठ्य सामग्री ले कर आई है – आज के ग्लोकुलित विश्व के परिप्रेक्ष्य मेँ भारत के पुरातन और अर्वाचीन को समझने का व्यापक दृष्टिकोण देती है.
शब्दवेध कोशकारिता पर पूरा शोधग्रंथ ही है. इस से पहले कभी किसी कोशकार ने थिसारस जैसे संदर्भ आधारित कोश की अपनी रचना प्रक्रिया का विवेचन नहीँ किया है. शब्दोँ को ऐतिहासिक, सामाजिक और मानसिक आधार पर परख कर विभिन्न शीर्षकोँ और उपशीर्षकोँ मेँ संबद्ध और विपरीत कोटियोँ मेँ संकलित करने की प्रणाली पर अरविंद प्रकाश डालते हैँ. फिर बताते हैँ कि किस तरह उन्होँ ने सूचना प्रौद्योगिकी को साध कर दस लाख से भी ज़्यादा हिंदी इंग्लिश शब्दोँ और अभिव्यक्तियोँ का संसार का सब से बड़ा डाटाबेस बना डाला और फिर कैसे उस से तरह तरह के एकभाषी और द्विभाषी कोश प्रजनित (जैनरेट) किए.
संस्कृत के अमर कोश, इंग्लिश के रोजेट के थिसारस और अपने हिंदी के समांतर कोश का उन के द्वारा किया गया भाषीय और समाजीय दृष्टि से तुलनात्मक विश्वलेषण कोशकारिता साहित्य मेँ अद्वितीय है. वह आज के भारत मेँ कोशकारिता की दशा और दिशाओँ पर नज़र डालना नहीँ भूलते. कमाल यह है कि हर बात बड़ी आसानी से सहज प्रवाहशील भाषा मेँ पेश की गई है. शब्दवेध का यह विभाग भाषाविदोँ, भाषिकी मेँ शोधकर्ताओँ और छात्रोँ के लिए समान रुचि का सिद्ध होगा.
जब हमारी अपनी भाषा हिंदी की बात आती है तो अरविंद हमेँ ले जाते हैँ पिछले सत्तर सालोँ मेँ तेज़ी से बदलती हिंदी से मिलाने. और दरशाते हैँ वैश्विक संदर्भ मेँ हिंदी का भविष्य. उन का दावा है कि 2050 तक हिंदी संसार की समृद्धतम भाषाओँ मेँ गिनी जाएगी. आँखोँ देखी पत्रकारिता के बहाने वह हमारे समाचार पत्रोँ की बढ़ती संप्रेषण शक्ति को रेखांकित कर पाते हैँ.
साहित्य प्रेमियोँ के लिए शब्दवेध के ख़ज़ाने मेँ हैँ महत्त्वशाली और संग्रहणीय सामग्री. काव्यानुवाद की कला पर इंग्लिश राजकवि जान ड्राइडन का निर्णयात्मक निबंध, तो शैक्सपीयर और फ़ाउस्ट जैसे महाकवियोँ की रचनाओँ के काव्यानुवाद पर स्वयं अरविंद कुमार का छंदविधान पर शोधात्मक लेख. साथ ही इन महाकवियोँ की जूलियस सीज़र और फ़ाउस्ट जैसी क्लासिक रचनाओँ के काव्यानुवादोँ मेँ से लंबे उद्धरण. उल्लेखनीय है कि जूलियस सीज़र के अरविंद कुमार के काव्यानुवाद को नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा के नाट्य मंडल द्वारान इब्राहिम अल्काज़ी के निर्देशन मेँ मंचन के समय इस अनुवाद को ‘ब्रीलियंट (brilliant)’ घोषित किया गया था. इसी संभाग मेँ संकलित डाक्टर धर्मवीर भारती के कालजयी नाटक अंधा युग के मंचनोँ की तुलनात्मक समीक्षा को समालोचना साहित्य का उच्चतम मानक माना जाता है, तो जैनेंद्र कुमार का एक अंतरंग संस्मरण शब्दवेध की हाईलाइट है.
फ़िल्म पत्रकारिता के सिरमौर जाने वाले अरविंद ने शब्दवेध मेँ शामिल किया है सहगल वाली अमर फ़िल्म देवदास का शौट-प्रति-शौट समाजीय और संस्कृतीय दृष्टिकोण से पुनरवलोकन. उन का कहना है कि ब्रिटिश शासन के आगमन के परिणामस्वरूप समाज मेँ आई विकृतियोँ का चित्रण है देवदास का उत्तरोत्तर पतन. भारतीय संस्कृति की मूरत से दूर जाने पर ही देवदास गिरता जाता और उस के पास वापस नहीँ लौट पाता. सिनेमा संभाग की अन्य रचनाएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीँ हैँ, जैसे गीतकार शैलेंद्र के कुछ गीतोँ की व्याख्या या फिर राज कपूर से अरविंद के संगम एक शाम.
समर्पण
शब्दोँ के संसार मेँ अरविंद कुमार के सत्तरसाला सफ़र की यह कथा समर्पित है उन के पिताजी और अम्माँ को—
मुझ मेँ आंतरिक शक्ति का बीजारोपण करने वाले
पिताजी योगी लक्ष्मण स्वरूप
और
अम्माँ रामकली
आप ही से सीखा
जो भी करो, लगन से करो, मेहनत से करो
और सामाजिक दायित्व की भावना से करो
काश, आप देख पाते समांतर कोश
जिस के लिए आप दोनोँ हमेशा हिम्मत बँधाते रहे
उस के छपने की ख़ुशी मुझ से कहीँ अधिक आप दोनोँ को होती
अरविंद कुमार कृत शब्दवेध से कुछ उद्धरण
फ़्लैप 1 पर
1973. 26 दिसंबर की रात. माधुरी फ़िल्म पत्रिका के संपादक, अरविंद कुमार देर रात एक पार्टी से लौटे. उन की आँखोँ मेँ नीँद नहीँ थी. मन वितृष्णा से भरा था. फ़िल्मी पार्टियोँ मेँ आना जाना, देर रात तक जागना –
क्योँ? किस लिए? कब तक?
क्योँ? किस लिए? कब तक?
उन के मन मेँ वही पुराना सपना फिर जागा – हिंदी मेँ थिसारस का सपना. उन्होँ ने सोचा था कि कभी ना कभी कोई ना कोई हिंदी के लिए ऐसी महत्वपूर्ण किताब ज़रूर बनाएगा. लेकिन किसी ने यह काम तब तक नहीँ किया था… तभी विचार कौँधा: मैँ ही थिसारस बनाने के लिए पैदा हुआ हूँ. सपना मेरा है. कोई ग़ैर क्योँ पूरा करेगा! सफ़र मेरा है, मुझे ही तय करना होगा!
अरविंद कुमार ने हिंदी के पहले थिसारस पर काम 1976 मेँ शुरू किया और बीस साल बाद 1996 मेँ समांतर कोश बना कर हिंदी मेँ इतिहास बना दिया.
पूर्वपीठिका से उद्धरण
टाइम्स आफ़ इंडिया की फ़िल्म पत्रिका माधुरी का संपादक पद छोड़ने की ‘हिमाक़त’ कर के मेरे लौट आने की ‘सनसनीख़ेज’ ख़बर मेरे दिल्ली पहुँचने से पहले ही पत्रकार जगत मेँ फैल चुकी थी. (टाइम्स की ओर से मेरी विदाई का आधिकारिक सचित्र समाचार नवभारत टाइम्स मेँ छप चुका था.)
परिवार के ही नहीँ, बहुतेरे मिलने जुलने वाले, दोस्त अहबाब मुझे मूर्ख समझ रहे थे. पीठ पीछे कुछ भलेमानस मुझे पागल भी कह रहे थे. एक रिश्तेदार तो अम्माँ से यहाँ तक पूछ बैठे कि फ़िल्म पत्रिका के संपादन काल मेँ मैँ कितना कमा और बचा लाया हूँ (मतलब था कितनी ‘ऊपरी कमाई’ कर लाया हूँ). जवाब ग़ुस्से से भुनी अम्माँ ने दिया था, ‘मेरा बेटा इतना कमा लाया है कि सात पीढ़ियाँ भी खपा नहीँ पाएँगी!’
सिनेमा संभाग से उद्धरण
राज कपूर और मेरे संगम की शाम – मैँ ने फ़िल्मोँ के बारे मेँ बहुत कुछ जाना और सीखा
…यहाँ शुरू हुआ मेरा और राज कपूर का एक दूसरे को निजी तौर पर समझने और परखने का, निस्संकोच बातचीत का, दौर. राज ने कहा, “हमारे पीछे मशीन आपरेटर के पास मेरी सभी फ़िल्मोँ के गीतोँ का संकलन हैँ. तुम जो भी गीत देखना चाहो, उस का नाम लो.” मैँ ने कहा कि मैँ आवारा फ़िल्म का वह गीत देखना चाहता हूँ जिस मेँ जब जज रघुनाथ अपनी गर्भवती पत्नी को जग्गा डाकू के अड्डे पर चार दिन रहने के अपराध पर निकाल देता है, तो बरसाती रात मेँ सड़क पर दुकान के थड़े पर बैठे भैया लोग गा रहे हैँ – गीत के बोल तो मुझे याद नहीँ, पर कुछ ऐसे हैँ – किया कौन अपराध त्याग दई सीता महतारी.
राज कपूर चौँक गए. पास ही रखे टेलिफ़ोन का चोँगा उठा कर आपरेटर को आदेश दिया, और मेरे सामने चल रहा था मेरा पसंदीदा सीन. और गीत…
पतिवरता सीता माई को / तू ने दिया बनवास / क्योँ न फटा धरती का कलेजा / क्योँ न फटा आकाश / जुलुम सहे भारी जनक दुलारी
सच कहेँ तो यही गीत आवारा फ़िल्म का मर्म था, उस का थीम सौंग था. यह गीत फ़िल्म को सीता बनवास और लवकुश प्रसंग का प्रतीक बना देता है.
सिनेमा संभाग से उद्धरण
जन जन का सजग चितेरा… शैलेंद्र – आज़ाद हिंदुस्तान के दिल की धड़कन
शैलेंद्र का कथ्य था: दीन दुःखी मानवता का अँधेरोँ से निकल कर उजले जीवन की ओर सतत प्रयाण. देव आनंद की कालजयी फ़िल्म गाइड मेँ वह कल के अँधेरोँ से निकलने की बात करते हैँ. राज कपूर की आवारा का अविस्मरणीय स्वप्न दृश्य और उस के गीतोँ का एक एक बोल इस का सर्वोत्तम उदाहरण है.
शैलेंद्र जिस ने उस भारतीयता को परिभाषित किया जिस के दरवाज़े और खिड़कियाँ चारोँ दिशाओँ मेँ खुले हैँ, जो सारे संसार से अपनी पसंद का और अपनी ज़रूरत का हर प्रभाव और हर संस्कार लेने को तैयार है, और साथ ही साथ जिस मेँ अपना अपनापन बनाए रखने की आंतरिक शक्ति है. इस अस्मिता को शैलेंद्र ने राज कपूर की ही फ़िल्म श्री 420 के लिए इन शब्दोँ मेँ कहा था:
मेरा जूता है जापानी,
ये पतलून इंगलिस्तानी,
सर पे लाल टोपी रूसी,
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी.
सच तो यह है कि यह गीत आज़ाद हिंदुस्तान का मैनिफ़ैस्टो था, वह देश जो बड़े आत्मविश्वास के साथ खुली सड़क पर सीना ताने अपने सपनोँ को पूरा करने के सफ़र पर निकल पड़ा था. उस के लिए चलना जीवन की कहानी था और रुकना मौत की निशानी. वह फटेहाल था, लेकिन उस बिगड़े दिल शाहज़ादे की तमन्ना एक दिन सिंहासन पर जा बैठने और दुनिया को हैरान कर देने की थी.
अरविंद कुमार कृत शब्दवेध मैँ कैसे पाऊँ…
जल्दी बुक कराने पर छूट : 25%
मुद्रित मूल्य : ₹799.00
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आप देँगे: ₹600 + ₹150 = ₹750 only
Email MEETA LALL AT meeta@arvindlexicon.com
Or call her at 098.100.16568 ShabdVedh
फ़ेसबुक पर शब्दवेध
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मेरे पापा का बचपन
शब्दोँ के अनंत पथ के राही मेरे पापा अरविंद कुमार के रथ मेँ चार पहिए हैँ – सपना, संकल्प, सूझबूझ, और साधना. पापा कहते हैँ उन का रथ है परिवार. पापा ने शब्दोँ की दुनिया मेँ पहला क़दम पंदरह साल की उमर मेँ रखा था. शब्दवेध उन के काम के सत्तर सालोँ का लेखाजोखा है. इस से पहले कि आप यह किताब पढ़ेँ, मैँ उन के बचपन के बारे मेँ कुछ बताना चाहती हूँ.
वह सुबह
सन 1973 के दिसंबर की 27 तारीख़ की जीवन बदल डालने वाली वह सुहानी सुबह हम कभी नहीँ भूल सकते. हम लोग बदस्तूर सुबह की सैर के लिए बंबई के (आजकल इसे मुंबई कहते हैँ, काफ़ी स्थानीय लोग तब भी मुंबई ही कहते थे. लेकिन उन दिनोँ उस महानगर का नाम बंबई था, तो) बंबई के हैंगिंग गार्डन छः बजते बजते पहुँच गए थे. मैँ, कुसुम, 13-वर्षीय बेटा
पहले यह याद करना था. फिर यह जानना था कि टाइप कई तरह के होते हैँ. उन के फ़ौंट होते हैँ. फ़ौंट यानी अक्षर लिखने की शैली – अखरावट. किसी भी फ़ौंट मेँ सामान्य (रैग्युलर), बोल्ड (मोटा), आइटैलिक (तिरछा) और बोल्ड आइटैलिक (मोटा तिरछा) रूप होते हैँ.
आजकल छपाई का काम कंप्यूटर पर होता है. उस मेँ टाइपोँ का काम नहीँ होता. इस लिए आज
हिंदी और थिसारस
थिसारस है क्या बला? उस की आवश्यकता क्योँ है?
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