शब्दवेध भारत को थिसारस देने वाले अरविंद कुमार की नई किताब है.
शब्दवेध अरविंद कुमार की शब्दोँ के संसार मेँ सात कृतित्वपूर्ण सत्तर सालोँ की यात्रा की ऐडवैंचर कथा है. यह कथा शुरू होती है जब पंदरह साल के किशोर अरविंद ने छापेख़ाने मेँ कंपोज़िंग सीखने के लिए बतौर बालश्रमिक पहला क़दम रखा और ले जाती है उसे पत्रकारिता की चोटी तक, और फिर उसे पैठा देती है शब्दोँ के विशाल महासागर की गहराइयोँ तक जहाँ से बीस साल बाद वह उबरता है हाथोँ मेँ भारत का पहला आधुनिक थिसारस – समांतर कोश.
अरविंद के अपने शब्दोँ मेँ ‘मेरे जीवन मेँ जो कुछ भी उल्लेखनीय है, वह मेरा काम ही है. मेरा निजी जीवन सीधा सादा, सपाट और नीरस है.’ कोशकारिता, पत्रकारिता, अनुवाद, साहित्य और सिनेमा जैसे विविध और भिन्न क्षेत्रोँ मेँ बीते अरविंद के सक्रिय सत्तर सालोँ के ज्ञानार्जन और अनुभवोँ की गाथा है शब्दवेध.
शब्दवेध मेँ संकलित हैँ 51 (इक्यावन) लेख. इन मेँ से अधिकांश स्वयं अरविंद के अपने लिखे और कुछ वे हैँ जो उन के काम के बारे मेँ कुछ विद्वानोँ ने लिखे हैँ.
शब्दवेध के संभाग
शब्दवेध की संपूर्ण सामग्री को नौ संभागोँ मेँ संकलित किया गया है. एक संभाग अगले संभाग तक सहज भाव से ले जाता है. ये हैँ:
1 पूर्वपीठिका.
2 समांतर सृजन गाथा.
3 तदुपरांत.
4 कोशकारिता.
5 सूचना प्रौद्योगिकी.
6 हिंदी.
7 अनुवाद.
8 साहित्य.
9 सिनेमा.
पूर्वपीठिका मेँ ब्योरा है कब, कैसे और किन मनोस्थितियोँ के वशीभूत अरविंद हिंदी को थिसारस देने की अपनी चिरवांछित आकांक्षा को पूरा करने माधुरी जैसी शीर्ष पत्रिका के संपादन का अपना पंचसितारा पद त्याग कर चले आए. और कहीँ से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता के बिना किस तरह उन्होँने अपना जीवन फिर से व्यवस्थित किया और एक अनचीन्हे अनदेखे पथ पर अपने महा अभियान पर निकल पड़े.
समांतर सृजन गाथा संभाग से पता चलता है उन समस्याओँ और चुनौतियोँ का जो समांतर कोश की रचना मेँ अरविंद ने झेलीँ और सुलझाईं. इन मेँ सब से महत्वपूर्ण है शब्दोँ मेँ अंतर्निहित आर्थी और समाजी संदर्भ और तद्संबंधी आधुनिक भारत की वस्तुस्थिति. इन से सफलतापूर्वक जूझने मेँ कैसे चौदह साल लगा कर समांतर कोश के लिए एक नई सर्वसमाजीय और सर्वकालीय आयोजन पद्धति निकाली गई. तदुपरांत संभाग है समांतर कोश के बाद के अरविंद के आठ और कोशोँ का. इन मेँ से प्रमुख हैँ द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी, सहज समांतर कोश, अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी और अरविंद तुकात कोश.
कोशकारिता संभाग के अंतर्गत व्याख्यात्मक रचनाओँ के विषय हैँ: संस्कृत भाषा की समृद्ध कोश परंपरा; अमर कोश, रोजेट के थिसारस और समांतर कोश के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा कोश रचना मेँ भाषायी और समाजीय संदर्भों की भूमिका; कोशरचना मेँ सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका और अनुप्रयोग; भारत मेँ कोशकारिता की वर्तमान दशा और भावी दिशा.
सूचना प्रौद्योगिकी संभाग मेँ आप पाएँगे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भाषा के उद्भव और लिपिपूर्व सूचना संरक्षण की विधियोँ से ले कर लिपियोँ के आविष्कार तथा सुधार, फिर मुद्रण तकनीक का आगमन, उस के द्वारा कोशोँ का जनसाधारण तक प्रसार और फिर कंप्यूटर की सहायता से सूचना का बहुमुखी संप्रेषण आदि से बढ़ते बढ़ते कोशकारिता के लिए डाटाबेस बनने का ब्योरा; और आज संसार की तात्कालिक आवश्यकता यानी मशीनी अनुवाद की समस्याओँ पर विचारविमर्ष और उस का धीमी गति से विकास का वर्णन.
हिंदी संभाग मेँ अरविंद बात करते हैँ मानक हिंदी वर्तनी की; स्वातंत्र्योत्तर हिंदी के तेज़ी बदलते रहने की, अपने विश्वास की हमारी हिंदी सन 2050 संसार की समृद्धतम भाषाओँ मेँ गिनी जाएगी; किस तरह पिछले सत्तर सालोँ मेँ हमारी पत्रकारिता बदली है और संप्रेषण का सशक्त माध्यम बन गई है.
अनुवाद संभाग. इस संभाग का पहला निबंध है अनुवाद मेँ थिसारसोँ की उपयोगिता का, किस तरह अनुवादक अपने कथ्य के लिए थिसारस से सहायता ले कर अनुवाद को बढ़िया बना सकता है. अरविंद कहते हैँ – ‘अनुवाद भाषाओँ के परस्पर वार्तालाप का दूसरा नाम है. अनुवाद संस्कृतियोँ के बीच संगम का काम करता है. मानव को आगे बढ़ाता है. अनुवाद से संस्कृतियाँ समृद्ध होती हैँ. मानव एक सूत्र मेँ बँधते जाते हैँ.’ दूसरी रचना गीता के अपने हिंदी अनुवाद के बारे मेँ कहते हैँ - ‘सच्चे दुभाषिए की तरह मैँ ने अपनी भूमिका केवल अनुवादक तक रखी – अपनी निजी मान्यताओँ को गीता पर नहीँ लादा है. और कोशिश की कि संस्कृत के श्लोकोँ को सहज पाठ्य बनाया जाए और अनुवाद छोटे छोटे वाक्योँ मेँ किया जाए.’
साहित्य संभाग अनुवाद संभाग को आगे बढ़ाता है. इंग्लैंड के राजकवि जान ड्राइडन के क्लासिक लेख The Art of Translating Poetry काव्यानुवाद की कला (वर्जिल, लूक्रीशियस, थियोक्रिटस और होरेस) – साहित्यिक कृतियोँ के अनुवादोँ के लिए इंग्लैंड के राजकवि (पोएट लारिएट) जान ड्राइडन द्वारा स्थापित कठोर कसौटी; शैक्सपीयर के लिए हिंदी छंद और भाषा – इंग्लिश और हिंदी छंद विधान पर सार्थक विचार; जूलियस सीज़र: एक अंश – सीज़र के वध के बाद जनमंच पर ब्रूटस और एंटनी के बीच बहस का अनुवाद; फ़ाउस्ट का काव्यानुवाद - गोएथे के नाटक के काव्यानुवाद के पहले भाग की प्रस्तुति; फ़ाउस्ट: कुछ अंश – फ़ाउस्ट का अंतस्ताप… बूढ़े फ़ाउस्ट को जवान बनाने के लिए मैफ़िस्टोफ़िलीज़ उसे ले गया चुड़ैल के बसेरे; अंधा युग: एक प्रस्तुति मन मेँ, तीन प्रस्तुतियाँ मंच पर – भारती जी के आग्रह पर लिखा गया अंधा युग की तीन प्रस्तुतियोँ का वर्णन. अंतिम देवता; जैनेंद्र कुमार – एक अंतरंग संस्मरण.
सिनेमा संभाग शब्दवेध का अंतिम संभाग फ़िल्म प्रेमियोँ और सिनेमा मेँ साहित्य को स्थान दिलाने के समर्थकोँ यह उपहार ही है. चोटी के फ़िल्म पत्रकार के रूप मेँ अरविंद ने सिनेजगत को नज़दीक से देखा परखा कलात्मक फ़िल्मोँ को समर्थन के साथ साथ उसे समांतर सिनेमा नाम भी दिया. उन की क़लम से पढ़िए 1) जन जन का सजग चितेरा – शैलेंद्र मेँ उन के काव्य, तीसरी क़सम के लिए उन के संघर्ष का मार्मिक वर्णन. 2) राज कपूर और मेरे संगम की शाम – फ़िल्म निर्माण का कलात्मक विवेचन और राज कपूर का सामाजिक नज़रिया. 3) उस के बाद मैँ किसी पहले से अपरिचित फ़िल्म वाले से अकेले मेँ क्योँ नहीँ मिला. 4) हिंदी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख सीरीज़ कैसे लिखी जाती थी. 5) सहगल वाली क्लासिक फ़िल्म देवदास की शौट बाई शौट सामाजिक समीक्षा.
विषय सूची
मेरे पापा का बचपन- मीता लाल
शब्दवेध: एक परिचय
1. पूर्वपीठिका
Ø वह सुबह
Ø टढ़े मेढ़े रास्ते
2. समांतर सृजन गाथा
Ø हंस पत्रिका मेँ 1991 मेँ छपे पाँच लेख:
1. थिसारस और मैँ
2. हिंदी और थिसारस
3. कुछ शब्द समूह और भावक्रम की समस्या
4. भगवान को भाषा मेँ कहाँ रखेँ?
5. आत्मा से परमात्मा तक, ब्रह्मा से विष्णु तक
Ø समांतर कोश की रचना मेँ काम आए ये कोश
Ø समांतर कोश का नाम कैसे बना
Ø समांतर कोश छपा इस तरह
Ø एक शानदार परंपरा: भारत और थिसारस
Ø स्वतंत्रता के पचासवेँ वर्ष मेँ: समांतर कोश
Ø समांतर कोश: प्रस्तुति
Ø समांतर कोश का आविर्भाव: एक ऐतिहासिक क्षण
Ø समांतर कोश को पलटना शब्द महोत्सव मेँ से गुज़रने जैसा है
Ø बृहत् समांतर कोश: क्योँ और क्या
3. तदुपरांत
Ø शब्देश्वरी: प्रस्तुति
Ø पौराणिक नामोँ मेँ गूढ़ अर्थ छिपे हैँ
Ø अरविंद सहज समांतर कोश
Ø द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी
Ø भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोक शब्दकोश
Ø अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी
Ø नया उत्तम कोश
Ø अरविंद तुकांत कोश
Ø अरविंद तुकांत कोश का आयोजन
4. कोशकारिता
Ø संस्कृत, अँगरेजी और हिंदी थिसारस: सहज समाजीय संदर्भ
Ø कोशकारिता: हमारी राष्ट्रीय दशा और दिशा
Ø डाक्टर हरदेव बाहरी हैँ, रहेँगे
Ø अरविंद कुमार अपने डाटा मेँ नए शब्द कैसे जोड़ते हैँ
5. सूचना प्रौद्योगिकी
Ø सूचना प्रौद्योगिकी और कोशकारिता
Ø मशीनी अनुवाद: संसार की तात्कालिक आवश्यकता
6. हिंदी
Ø मानक हिंदी वर्तनी
Ø हिंदी मेँ इंग्लिश कैसे लिखेँ?
Ø तेज़ी से बदलती हिंदी
Ø आँखोँ देखी पत्रकारिता
7. अनुवाद
Ø कोश, समांतर कोश और अनुवाद
Ø गीता का मेरा हिंदी अनुवाद
8. साहित्य
Ø काव्यानुवाद की कला
Ø शैक्सपीयर के लिए हिंदी छंद और भाषा
Ø जूलियस सीज़र: एक अंश
Ø फ़ाउस्ट काव्यानुवाद
Ø फ़ाउस्ट: कुछ अंश
Ø अंधा युग: एक प्रस्तुति मन मेँ, तीन प्रस्तुतियाँ मंच पर
Ø अंतिम देवता – जैनेंद्र कुमार
9. सिनेमा
Ø जन जन का सजग चितेरा… शैलेंद्र
Ø राज कपूर और मेरे संगम की शाम
Ø माधुरी कब, क्योँ, क्या, और मैँ
Ø हिंदी फ़िल्म अध्ययन: माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग
Ø हिंदी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख
Ø देवदास
मेरे पापा का बचपन
शब्दोँ के अनंत पथ के राही मेरे पापा अरविंद कुमार के रथ मेँ चार पहिए हैँ – सपना, संकल्प, सूझबूझ, और साधना. पापा कहते हैँ उन का रथ है परिवार. पापा ने शब्दोँ की दुनिया मेँ पहला क़दम पंदरह साल की उमर मेँ रखा था. शब्दवेध उन के काम के सत्तर सालोँ का लेखाजोखा है. इस से पहले कि आप यह किताब पढ़ेँ, मैँ उन के बचपन के बारे मेँ कुछ बताना चाहती हूँ.
वह सुबह
सन 1973 के दिसंबर की 27 तारीख़ की जीवन बदल डालने वाली वह सुहानी सुबह हम कभी नहीँ भूल सकते. हम लोग बदस्तूर सुबह की सैर के लिए बंबई के (आजकल इसे मुंबई कहते हैँ, काफ़ी स्थानीय लोग तब भी मुंबई ही कहते थे. लेकिन उन दिनोँ उस महानगर का नाम बंबई था, तो) बंबई के हैंगिंग गार्डन छः बजते बजते पहुँच गए थे. मैँ, कुसुम, 13-वर्षीय बेटा
पहले यह याद करना था. फिर यह जानना था कि टाइप कई तरह के होते हैँ. उन के फ़ौंट होते हैँ. फ़ौंट यानी अक्षर लिखने की शैली – अखरावट. किसी भी फ़ौंट मेँ सामान्य (रैग्युलर), बोल्ड (मोटा), आइटैलिक (तिरछा) और बोल्ड आइटैलिक (मोटा तिरछा) रूप होते हैँ.
आजकल छपाई का काम कंप्यूटर पर होता है. उस मेँ टाइपोँ का काम नहीँ होता. इस लिए आज
हिंदी और थिसारस
थिसारस है क्या बला? उस की आवश्यकता क्योँ है?
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