(दयानंद हद से ज़्यादा सहजदिल बंदा है. जो बात उस मेँ ख़ास है, वह है रीकाल recall – ऐसी छोटी छोटी चीज़ेँ याह रख पाना और फिर वक़्त पड़ने पर कह पाना जिन के वर्णन से तस्वीरेँ उभर आती हैँ. इस लेख मेँ ऐसी ऐसी बातेँ दयानंद ने लिखी हैँ जो मुझे याद ही नहीँ थीं. अपनी इस क्षमता के बल पर ही वह इतना लोकप्रिय कथाकार, उपन्यासकार बन पाया है. लगा रहता है, लगा रहता है. और हर दिन लिखता है… – अरविंद कुमार)
शब्द की नाव में, भाषा की नदी का सौंदर्य और बिंब विधान रचते अरविंद कुमार
संघर्ष, मेहनत, सज्जनता, सहजता, विनम्रता और विद्वता का संगम देखना हो तो अरविंद कुमार से मिलिए। मैं मिला था उन से पहली बार 1981 में। मई, 1981 में। कनाट प्लेस की सूर्य किरन बिल्डिंग में। तब से इस संगम में नहा रहा हूं। कस्तूरबा गांधी मार्ग पर हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के सामने इस सूर्य किरन बिल्डिंग में अरविंद कुमार से मिलने के लिए तजवीज मुझे हिमांशु जोशी ने दी थी। नौकरी की तलब में। तेईस साल की उम्र थी मेरी। सड़क फांद कर उस पार पहुंचा मैं। लिफ्ट से पांचवीं मंज़िल थी कि सातवीं, याद नहीं। पर दस मिनट की मुलाक़ात और बात में अरविंद कुमार ने मुझे सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी का प्रस्ताव दे दिया था। कि मुझे सहसा यकीन नहीं हुआ। वह संपादक थे। लेकिन पहली नज़र में मैं उन से बहुत प्रभावित नहीं हुआ। वह हैं ही इतने सरल, सहज और सामान्य कि आप तुरंत उन से प्रभावित नहीं हो सकते। सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट पत्रिका से भी तब बहुत प्रभावित नहीं था। लेकिन अब मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि अरविंद कुमार और सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट न होते मेरी ज़िंदगी में तो मैं क्या होता? होता भी भला? मेरी पहचान क्या होती? कम से कम इस तरह इतना सुखी, इतना संतुष्ट और इतनी शांति से तो न होता इस जीवन में।
अरविंद कुमार मेरी ज़िंदगी में वैसे ही उपस्थित हैं जैसे मां। ठीक वैसे ही जैसे कोई मां ही न हो तो बेटा कहां से होगा? अरविंद कुमार ने जिस तरह अनायास मुझे किसी शिशु की तरह पाल-पोस कर खड़ा किया, ज़िंदगी की जद्दोजहद और भाषा की धरती पर खड़ा होना, चलना और दौड़ना सिखाया। मेरी ग़लतियों, मूर्खताओं और लापरवाहियों को जिस तरह नज़र अंदाज़ कर वह मुझे चुपचाप निरंतर संवारते, सुलझाते और दुलराते रहे, वह कोई मां ही ऐसा करती है, कर सकती है। मुझे कहने दीजिए कि मैं माटी हूं तो वह मेरे कुम्हार हैं। अरविंद कुमार की एक बड़ी ख़ासियत यह भी है कि वह आप को बिना कुछ सिखाए भी बहुत कुछ सिखा देते हैं। सिखाते ही रहते हैं। चुपचाप। उन के पास ऐलान नहीं है, अंजाम है। विवाद नहीं है, संभावना है। अलग ही माटी के बने हैं वह। इस लिए भी कि सादगी, शार्पनेस, संयम, सहिष्णुता और समर्पण की गंगोत्री हैं अरविंद कुमार। लोकतांत्रिकता उन में कूट-कूट कर भरी हुई है। उन के साथ चौतीस-पैतीस साल की इस जीवन-यात्रा में आज भी पाता हूं कि मैं उन की अंगुली थामे चल रहा हूं और वह मुझे उसी स्नेह, उसी दुलार और उसी ममत्व से संभाले हुए चल रहे हैं। और ऐसा अनगिन लोगों के साथ वह करते रहे हैं। अब अलग बात है कि उन के साथ के तमाम लोग विदा हो चुके हैं। लेकिन वह और हम अभी शेष हैं। मैं सत्तावन का वह छियासी के। हमारे मिलने का संयोग फिर भी बना हुआ है। मेरे जीवन में उन की उपस्थिति की बहार बनी हुई है। पिता की उम्र और पीढ़ी की सारी दूरियां फलांग कर वह किसी हम उम्र मित्र की तरह मुझ से मिलते और बतियाते हैं। मैं उन्हें आदरणीय अरविंद जी, लिखता हूं चिट्ठियों में तो वह मुझे जैसे उलाहना भेजते हैं, यह आदरणीय क्या होता है, सीधे अरविंद लिखो। लेकिन मैं ऐसा कभी नहीं करता, नहीं कर सकता। आदरणीय भले लिखता हूं उन्हें पर मैं उन्हें लिखना पूजनीय चाहता हूं। मेरे मन में, मेरे हृदय में वह पूजनीय की तरह ही वास करते हैं। पूजनीय ही हैं वह। पूजनीय ही रहेंगे सर्वदा।
खैर तब मेरे पास उस समय सर्वोत्तम के साथ तीन नौकरियों के मौक़े सामने थे। दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में जहां मैं ने टेस्ट और इंटरव्यू पास किया था। लेकिन लोगों ने बताया कि वहां शोषण बहुत है। जाने का टाइम तय है, आने का नहीं। वगैरह-वगैरह। दूसरे, असली भारत में। प्रकारांतर से यह चौधरी चरण सिंह का अख़बार था। अजय सिंह इस के संपादक थे। जो बाद के दिनों में उप मंत्री रेल बने थे। मैं फिर भ्रम में पड़ गया। सर्वोत्तम में अरविंद कुमार ने ठीक दूसरे दिन ज्वाइन करने को कहा था। दिल्ली प्रेस में तीन दिन बाद का समय था और असली भारत में भी कुछ ऐसे ही था। हिमांशु जोशी के पास फिर लौटा। अपनी मुश्किल बताई। असली भारत का नाम सुनते ही वह मुंह बिदका बैठे। सरिता के लिए बोले, काम तो सीखने के लिए बहुत अच्छी जगह है पर अरविंद कुमार वहां नहीं मिलेंगे। विष्णु नागर ने बहुत साफ कहा कि अगर अरविंद जी के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा है तो इसे किसी भी तरह नहीं छोड़ना चाहिए। मैं ने दूसरे ही दिन सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट ज्वाइन कर लिया। मैं वैसे भी गोरखपुर से दिल्ली नौकरी के लिए नहीं गया था तब। क्यों कि गोरखपुर में आलरेडी मेरे पास एक छोटी सी नौकरी पहले ही से थी। जिसे मैं बी ए में पढ़ाई के साथ ही करने लगा था। संपादक था मैं पूर्वी संदेश नाम के साप्ताहिक अख़बार का। बहरहाल मेरे एक चचेरे भाई को किसी बैंक की नौकरी के लिए इम्तहान देने जाना था दिल्ली। चाचा जी जिन्हें मैं बाबू जी कहता हूं, रेलवे में बड़े बाबू थे। रेलवे का फ़र्स्ट क्लास का पास मिलता था उन्हें। तो साथ मैं भी चला गया दिल्ली घूमने। वहां घूम-घाम कर लगा कि ठीक-ठाक नौकरी तो यहां दिल्ली में भी मुझे मिल सकती है। मैं रुक गया। भाई से कहा कि,’तूं जा, अब हम एहीं रहब!’वह दो दिन और रुक गए। बहुत इफ़-बट समझाया मुझे। पर मैं ने रुकने का ठान लिया था। रुक गया। बहुत हिच के बाद वह वापस गोरखपुर चले गए।
अरविंद कुमार के साथ मैं |
अब मैं था, दिल्ली थी। अरविंद कुमार थे, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट था। अरविंद कुमार धीरे-धीरे मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हो रहे थे। वह कहते हैं न, रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरे हस्ती का सामां हो गए। तो मैं अरविंद जी का होता चला गया। हालां कि उन दिनों मेरा आलम तो यह था कि हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया। मैं नया था, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट पत्रिका भी नई-नई थी। बहुत कुछ होना था मेरी ज़िंदगी में भी, सर्वोत्तम में भी। सर्वोत्तम मंथली मैगज़ीन थी। रीडर्स डाइजेस्ट की अंग्रेजी से अनुवाद आधारित पत्रिका। तो काम-धाम का बहुत प्रेशर नहीं होता था। चार, छ महीने का रेडी मैटर उस के बैंक में रहता था। पत्रिका अमरीकी ज़रूर थी पर टाटा का मैनेजमेंट था। हफ़्ते में पांच दिन वाला दफ़्तर था। सूर्य किरन बिल्डिंग के जिस दफ़्तर में सर्वोत्तम का संपादकीय विभाग बैठता था, टाटा का ही आफ़िस था। सर्वोत्तम का नया दफ़्तर विवेक विहार के बगल में झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया, शाहदरा में तैयार हो रहा था। फ़िलहाल हम कनाट प्लेस का लुत्फ़ ले रहे थे। लंच के समय नई-नई बनी पालिका बाज़ार घूमते हुए, शाम को कनाटिंग करते हुए। बेपरवाह घूमते हुए। अरविंद जी ने शुरू में मुझे दो काम दिए। स्क्रिप्ट पढ़ने का काम और प्रेस आने-जाने का काम। बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग पर तेज़ प्रेस में सर्वोत्तम छपती थी तब। मुझे समझ में नहीं आया कि यह क्या हो रहा है। वह कहते हैं न कि नौकरी पाना तो कठिन होता ही है, नौकरी करना और भी कठिन होता है। वही हो रहा था। मैं ने दोनों ही काम में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई। मुझे लगा यह क्या काम हुआ भला। पर बेमन से करता रहा। लेकिन अरविंद जी ने कभी भूल कर भी नहीं टोका। वह उन दिनों व्यस्त भी बहुत रहते थे।सर्वोत्तम का काम तो था ही, उन का घर भी बन रहा था गाज़ियाबाद के चंद्र नगर में। उन दिनों वह गाज़ियाबाद के ही सूर्य नगर में अपने छोटे भाई सुबोध कुमार के साथ रहते थे।
सर्वोत्तम का दफ़्तर कनाट प्लेस सूर्य किरन बिल्डिंग से हट कर जल्दी ही बी-15, झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया में शिफ्ट हो गया। साहनी टायर के ठीक बग़ल में। कनाट प्लेस के दिन जय हिंद हो गए। लंच में पालिका बाज़ार की बहार चली गई। दफ़्तर साढ़े नौ बजे का था, मुझे याद नहीं कि उन दिनों कभी समय से पहुंचा होऊं। सोने में मास्टर तब भी था, लेट-लतीफ़ भी। आज भी हूं। दस, साढ़े दस हो जाता था। कभी-कभार ग्यारह भी। शिकायतें मेरी बढ़ती जा रही थीं। लेकिन मैं बेख़बर था इस सब से। राम अरोड़ा कभी-कभार लंच के समय टोकते भी कि काम-धाम तो कुछ करते नहीं, आफ़िस भी समय से नहीं आ सकते? लेकिन बाक़ी लोग चुप रहते। क्या है कि संपादक या बॉस आप पर मेहरबान हो तो सभी मेहरबान रहते हैं। वह खफ़ा, तो सभी खफ़ा। यह बहुत पुराना नियम है। हर दफ़्तर का। खैर, जल्दी ही मुझे प्रोडक्शन के काम में भी लगा दिया गया। ले-आऊट तक तो ठीक था पर ढेर सारा प्रूफ़ पढ़ना मुझे मंज़ूर नहीं था। वैसे भी अरविंद जी ने नियम बना रखा था कि अपने-अपने हिस्से के पेज़ का प्रूफ़ सब को ख़ुद फ़ाइनल करना होता था। लेकिन मुख्यत: प्रोडक्शन का काम देखने वाले महेश नारायण भारती जी घर जाने के समय शाम को अकसर ढेर सारा प्रूफ़ मेरी मेज़ पर ला कर रख देते। मैं इस की परवाह किए बग़ैर घर चला जाता था। मेरी मेज़ पर प्रूफ़ का ढेर बढ़ता जा रहा था। कारण यह था कि मैं अपने को लेखक मानता था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, पराग, कादम्बिनी , रविवार, दिनमान, पराग आदि तमाम पत्रिकाओं में छप चुका था। छपता रहता था। तो कुछ समय तक दिमाग मेरा खराब हो गया था। दर्प भी कह सकते हैं। बेवकूफी के इस सातवें आसमान उतारा अरविंद जी ने। पर धीरे-धीरे। और मुझे सरल-सहज बनाया। पर यह तो बाद की बात है। लेकिन तब के समय प्रूफ़ पढ़ना मुझे नहीं भाता था। हीनता बोध होता था। लगता था, मेरा काम प्रूफ़ पढ़ना नहीं है, सिर्फ़ लिखना है, संपादन करना है, हेडिंग लगाना है, आदि। सो इस काम को निरंतर टालता रहता था। भारती जी मुझे घूरते रहते थे। मुसलसल। लगता था कि वह इस ख़ातिर अरविंद जी से मेरी शिकायत भी करते रहते थे। लेकिन अरविंद जी ने कभी मुझ से कुछ नहीं पूछा। न कुछ कहा कभी। एक दिन कोई दस बजे मैं दफ़्तर पहुंचा। देख रहा हूं कि मेरी मेज़ की दूसरी तरफ अरविंद जी बैठे हैं और प्रूफ़ पढ़ रहे हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगा। अरविंद जी मुझे देखते ही मुस्कुराए। बोले,’भैया रे मैं आज ज़रा जल्दी आ गया था तो देखा कि कुछ प्रूफ़ पड़ा हुआ है तो सोचा कि पढ़ डालूं!’और सारा प्रूफ़ ले कर उठ खड़े हुए, मुस्कुराते हुए अपनी केबिन में चले गए। मुझे भीतर-भीतर बुरा लगा पर किसी से कुछ कहा नहीं। अरविंद जी से भी नहीं। लेकिन पूरे दफ़्तर का कैमरा मेरी तरफ़ था। मैं चुपचाप अपना काम करने लगा। उस शाम भारती जी ने कोई प्रूफ़ नहीं रखा मेरी मेज़ पर। मैं ख़ुश हुआ। दूसरे दिन मैं जल्दी दफ़्तर आ गया। कोई पौने दस बजे। सब कुछ सामान्य था। दो दिन बाद भारती जी ने फिर प्रूफ़ दिया। मैं ने उन्हें घूर कर देखा। भारती जी बुजुर्ग आदमी थे। लेकिन पिंच करने में माहिर थे। वह अकसर प्रूफ़ रखने लगे, मैं टालने लगा। लेकिन अब दफ़्तर मैं जल्दी आने लगा। एक दिन पौने दस पर आया तो फिर अरविंद जी को अपनी मेज़ के सामने बैठे प्रूफ़ पढ़ते देखा। वह अपनी रवायत के मुताबिक़ फिर मुझे देखते ही मुस्कुराए, प्रूफ़ लिए उठे और अपनी केबिन में चले गए। दूसरे दिन मैं साढ़े नौ बजे दफ़्तर आ गया। अरविंद जी फिर मेरी मेज़ पर बैठे प्रूफ़ पढ़ते मिले। तीसरे दिन भी यही हुआ। मैं शर्म से गड़ गया। घड़ों पानी पड़ गया था मुझ पर। फिर शनिवार, इतवार की छुट्टी आ गई। सोमवार को मैं साढ़े नौ बजे दफ़्तर पहुंच गया। भारती जी अपनी सीट पर मुस्तैद मिले। बाक़ी लोग भी दस मिनट में आ गए। अरविंद जी भी अपनी केबिन से निकले, मुझे देख कर मुस्कुराए। सब कुछ रूटीन में था। मैं ने सोच लिया था कि अब अगर भारती जी प्रूफ़ देंगे तो मैं तुरंत पढ़ना शुरू कर दूंगा। और यह देखिए कोई ग्यारह बजे भारती जी प्रूफ़ का एक गड्डा लिए आए, मुस्कुराए और मेरी मेज़ पर रख कर चले गए। मैं उठा, बाथरूम गया। वापस आ कर प्रूफ़ पढ़ना शुरू कर दिया। हालां कि मेरे पास स्क्रिप्ट पढ़ने का भी काम था। अब बारी-बारी मैं ने दोनों काम करने शुरू कर दिए। प्रेस जाना भी होता रहा इस बीच। सब कुछ सामान्य हो गया था। किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा।
एक दिन अचानक अरविंद जी आए मेरी सीट पर और सामने बैठ गए। ख़ूब ख़ुश होते हुए बोले,’भैया रे तुम ने यह काम बहुत अच्छा किया कि प्रूफ़ पढ़ना शुरू कर दिया। इस से भाषा की समझ बढ़ती है। शब्दों की समझ बढ़ती है। ग़लतियां पकड़ने की समझ आ जाती है। पत्रकारिता में प्रूफ़ पढ़ना बहुत ज़रूरी काम है। काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। फिर प्रूफ़ पढ़ना तो बहुत बड़ा काम है। बड़े-बड़ों की ग़लतियां ठीक करने को इस में बहुत मिलता है।’कह कर वह हंसने लगे। बोले,’मैं तो प्रूफ़ बहुत पढ़ता हूं। शुरू से।’ कह कर वह धीरे से चले गए। वह दिन है और आज का दिन है,प्रूफ़ पढ़ने में क्या किसी भी काम में मुझे कभी मुश्किल नहीं हुई। हां पर बहुत अच्छा और शार्प प्रूफ़ रीडर मैं नहीं बन पाया हूं। तमाम एहतियात के। इस बात की शर्मिंदगी आज भी महसूस करता हूं। लेकिन मुझे आज तक नहीं याद आता कि किसी काम को न करने या न कर पाने के लिए अरविंद जी ने कभी शर्मिंदा किया हो। काम सिखाने और काम करवाने का उन का तरीका ज़रूर जुदा रहा है। इतना कि इस के लिए कोई संज्ञा या विशेषण अभी तुरंत नहीं सूझ रहा। अमूमन संपादक नाम की प्रजाति हिप्पोक्रेट, क्रूर, निर्दयी, निरंकुश, तानाशाह और बेहद बदतमीज होती आई है। होती रहेगी। अब तो कई सारे मूर्ख, जाहिल भी संपादक, समूह संपादक, प्रधान संपादक होने लगे हैं। दलाली और लाइजनिंग आदि भी उस के हिस्से आ गई है। लेकिन अरविंद कुमार मेरे जीवन के इकलौते ऐसे संपादक हैं जिन में यह सारे तत्व सिरे से नदारद मिलते थे, मिलते हैं, मिलते रहेंगे। अरविंद कुमार जैसा सरल और सहज आदमी मिलना बहुत मुश्किल होता है। दुर्लभ व्यक्ति हैं अरविंद जी। हिप्पोक्रेसी उन में एक पैसे की भी नहीं है। मैं ने उन के इन्हीं गुणों से प्रभावित हो कर अपने जीवन की पहली किताब जो प्रेमचंद पर थी और 1982 में छपी थी, सरल सहज अरविंद कुमार को लिख कर समर्पित की थी। फिर इधर 2014 में जब सिनेमा पर मेरी एक किताब आई तो वह भी उन्हें समर्पित की है।
अरविंद कुमार |
अंगरेजी सर्वदा से मेरी दुखती रग रही है। आज भी है। और सर्वोत्तम अंगरेजी से हिंदी अनुवाद पर आधारित पत्रिका। अंगरेजी में निरक्षर मुझ जैसे का कोई काम ही नहीं था सर्वोत्तम के आंगन में। पर अरविंद जी मुझे प्रेस, प्रोडक्शन और स्क्रिप्ट के काम के साथ संपादन की मुख्य धारा में भी ले आए। नवंबर, 1980 में सर्वोत्तम का प्रवेशांक आया था, जिसे परिचय अंक का नाम दिया था अरविंद जी ने। अक्टूबर और नवंबर, 1981 में सर्वोत्तम का अंक निकला तो उस में जो पुस्तक इन दो अंकों में छपी, वह एलेक्स हेली के मशहूर उपन्यास रूट्स का हिंदी अनुवाद था। ग़ुलाम शीर्षक से। इस की प्रेस कापी और संपादन की ज़िम्मेदारी मुझे दी थी अरविंद जी ने तब। अमरीकी नीग्रो की इस संघर्ष गाथा में एलेक्स हेली ने औपनिवेशिक अमरीका में अपने पुरखों को दंत कथाओं के मार्फ़त खोजा था, अपने वंश को खोजा था, अपने अफ़्रीकी पुरखे कुंटा किटे के बचपन की खुरदरी ज़मीन को खोजा था, वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला दुर्लभ विवरण है। सांकल द्वारा खूंटे में बंधे रहने वाले कुंटा के संघर्ष को, गुलाम के तौर पर उस की ख़रीद फरोख्त का लोमहर्षक विवरण कैसे आंखों से सरसर आंसू बहाता रहता है, वह मुझे आज भी भूला नहीं है। सर्वोत्तम में एक परंपरा सी थी अपने पाठकों को साल में डायरी के साथ एक सर्वोत्तम पुस्तक उपहार में देने की। जिसे सर्वोत्तम ख़ुद छापता था। सर्वोत्तम सूक्तियां छप चुकी थी जिसे भारती जी ने संकलित किया था। दूसरे साल सर्वोत्तम मुशायरा प्रकाशित करने की योजना बनाई अरविंद जी ने। प्रकाश पंडित ने जिसे संपादित किया था। इस में दुनिया भर के शायरों के प्रतिनिधि कलाम संकलित किए थे प्रकाश पंडित ने। इस की प्रेस कापी भी बनाने के लिए अरविंद जी ने मुझे चुना। भारती जी को यह अच्छा नहीं लगा। राम अरोड़ा ने भी कमेंट पास किए। लेकिन बाक़ी लोगों ने प्रोत्साहित किया। ऐसे ही तमाम काम अरविंद जी जब-तब मुझे सौंपते रहते थे। तब जब कि सर्वोत्तम की संपादकीय टीम का सब से कनिष्ठ सदस्य था। अनुभव, उम्र और योग्यता तीनों में। तेईस साल की उम्र थी मेरी तब। लेकिन अरविंद जी मुझे सर्वदा बराबरी में बिठा कर बात करते थे। अपना प्रेम और दुलार बेहिसाब मुझ पर लुटाते रहते थे। कई बार अपनी अंबेस्डर में बिठा कर मुझे यहां-वहां दिल्ली में घुमाते रहते। हर चीज़ के बारे में बताते रहते। 26 जनवरी को राजपथ पर होने वाली गणतंत्र की परेड भी उन के साथ देखी है। मेरा नया-नया विवाह हुआ था। तो सपत्नीक गया था। इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री थीं, जैल सिंह राष्ट्रपति। एक अमरीकन संपादक आए थे। बिलकुल राष्ट्रपति के सामने बैठने की जगह मिली थी। वह वहां एकदम सुबह-सुबह जाना आज तक मन में बसा हुआ है। छोटी-छोटी बात बाद के दिनों में कैसे बड़ी-बड़ी याद बन कर जीवन में उपस्थित हो जाती हैं। यह अब समझ में आता है। जब मूड में होते तो भीड़ भरी जामा मस्जिद के पीछे करीम के होटल में भी मुग़लई खाने पर अरविंद जी ले जाते। वैसा मुग़लई खाना मुझे लखनऊ में भी आज तक नहीं मिला है, जैसा करीम के यहां मिलता था। करीम की खीर भी ग़ज़ब की होती थी। कई बार सिनेमा भी दिखाने ले गए वह मुझे। उन दिनों में भी वह माधुरी के लिए समीक्षा लिखते थे। सिनेमा का उन का शौक आज भी बना हुआ है। वह अकसर नई फ़िल्मों को देख कर अब भी अपनी राय फ़ेसबुक पर लिखते ही रहते हैं। उन की एक बात कभी नहीं भूलती । जैसे कोई काम होता, किसी से कोई बात करनी होती या कुछ और भी करना होता तो अगर अगला व्यक्ति उन से कहता, कोई फ़ायदा नहीं। तो वह छूटते ही पूछते,’एक बार कर लेने में नुकसान क्या है?’तो वह हर काम, अगर उस में नुकसान नहीं है तो कर लेने में यकीन करते हैं। एक तरह से उम्मीद में सर्वदा यकीन करते हैं।
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार, बेटे डाक्टर सुमीत कुमार, बेटी मीता लाल के साथ |
उन दिनों दिल्ली में मैं अकेला ही रहता था। विवाह नहीं हुआ था। एक दिन अचानक अपेंडिक्स का दर्द उठा। अस्पताल गया। डाक्टर ने तुरंत भर्ती होने के लिए कहा। और बताया कि कल आपरेशन होगा। आपरेशन शब्द सुनते ही मेरा सारा दर्द काफूर हो गया। लेकिन जब डाक्टर ने जब बताया कि अपेंडिक्स बर्स्टिंग पोजीशन में है। तब मैं ने डाक्टर के फ़ोन से ही अरविंद जी को आफिस में फ़ोन कर बताया। अरविंद जी पूरी संपादकीय टीम के साथ थोड़ी देर में ही हास्पिटल आ गए। डाक्टर से मिले। सारी व्यवस्था देखी। चौबीस घंटे के लिए दो चपरासी मेरी सेवा में लगा दिए। दफ़्तर के टी ए, डी ए पर। दवा आदि का सारा ख़र्च दफ़्तर के ज़िम्मे कर दिया। ठीक होने तक मुझे स्पेशल लीव दे दी। ताकि वेतन न कटे। दूसरे दिन आपरेशन थिएटर जाने से पहले वह आ गए। आपरेशन के बाद जब तक मैं होश में नहीं आया जमे रहे। बिलकुल पिता की तरह देख-रेख करते रहे। मेरे पिता जी को भी गोरखपुर फ़ोन कर के बता दिया। पिता जी भी बाद में आ गए। हमारे मकान मालिक ने भी बहुत मदद की। लगा ही नहीं कि मैं दिल्ली में अकेला हूं। अरविंद जी के इतने उपकार हैं मुझ पर कि कई जनम में भी उस से मुक्त नहीं हो सकता। जब वह यह महसूस करने लगे कि सर्वोत्तम में मेरे लिखने की ललक पूरी नहीं हो रही तो वह मुझे किसी दैनिक में नौकरी दिलाने ख़ातिर प्रयासरत हुए। यशपाल कपूर जो उन के गहरे मित्र थे, उन के पास भी भेजा। उन दिनों दिल्ली से नवजीवन छपने की बात चल रही थी। अक्षय कुमार जैन के पास भी भेजा। टाइम्स आफ़ इंडिया के रमेश जैन के पास भी। कि तभी जनसत्ता की हलचल शुरू हुई। मैं जनसत्ता आ गया। अरविंद जी बहुत ख़ुश हुए। इस बीच मेरा विवाह भी हो गया था। एक दिन उन्हों ने अपने घर लंच पर बुलाया। पत्नी के साथ। हर महीने कुछ न कुछ पैसा बचाने की सलाह दी। इस के लिए उन्हों ने बैंक में एक मंथली आर डी खोलने की बात बताई। उन की यह तरक़ीब मेरी ज़िंदगी में बहुत काम आई। आती ही रहती है। बाद में मैं लखनऊ आ गया, तब भी अरविंद जी से संपर्क कभी नहीं टूटा। चिट्ठी-पत्री निरंतर जारी रही। फ़ोन आता-जाता रहा। मैं दिल्ली जाता ही रहता हूं। एक बार अरविंद जी भी सपत्नीक लखनऊ आए। यहां तक कि जब वह अपने डाक्टर बेटे सुमीत जी के साथ जगह-जगह घूम रहे थे, रह रहे थे। सिंगापुर से लगायत अमरीका तक। यहां तक कि जब अमरीका में 11 सितंबर को आतंकवादी कार्रवाई हुई तब के दिनों अरविंद जी अमरीका में ही रह रहे थे। मैं बहुत चिंतित हुआ। उन को मेल पर चिट्ठी लिखी। उन का फ़ोन आ गया। कहने लगे, भैया रे मैं बिलकुल ठीक हूं, चिंता को कोई बात नहीं। फिर बताने लगे कि उस दिन उस बिल्डिंग में भी वह गए थे। पर हादसे के बहुत पहले ही वहां से निकल चुके थे। मेरे उपन्यास जब आए तो अरविंद जी ने थिसारस की तमाम व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर न सिर्फ़ मेरे उपन्यास पढ़े बल्कि उन की समीक्षाएं भी लिखीं, इंडिया टुडे में।
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ |
अरविंद कुमार सर्वदा श्रेष्ठ संपादकों में शुमार किए जाते हैं। हिंदी जगत का सौभाग्य है कि दो श्रेष्ठ पत्रिकाओं के वह संस्थापक संपादक हुए। एक टाइम्स आफ़ इंडिया की फ़िल्म पत्रिका माधुरी दूसरी रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट। माधुरी के पहले वह दिल्ली प्रेस में काम करते थे। जहां उन्हों ने बतौर बाल श्रमिक का करना शुरू किया था। डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ़ रीडर, उप संपादक से होते हुए सहायक संपादक हुए। कैरवां जैसी अंगरेजी पत्रिका की लांचिंग भी उन्हों ने की। सरिता, मुक्ता, चंपक, कैरवां सभी के प्रभारी। दिल्ली प्रेस में काम करते हुए ही इवनिंग क्लास में पढ़ते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय से अंगरेजी साहित्य में एम ए भी किया। यहीं रहते हुए उन्हें रमा जैन ने टाइम्स आफ़ इंडिया ग्रुप से प्रस्तावित हिंदी फ़िल्मी पत्रिका का संपादक बनने के प्रस्ताव दिया। वह दिल्ली छोड़ कर मुंबई चले गए। माधुरी शुरू की। चौदह साल तक वह माधुरी के संपादक रहे। शैलेंद्र और राज कपूर जैसे लोगों से उन की गहरी मित्रता हुई। माधुरी हिंदी फ़िल्म पत्रिकाओं में श्रेष्ठ पत्रिका ही भर नहीं थी, सिनेमा और साहित्य की सेतु भी थी। अरविंद कुमार ने अनुवाद भी बहुत सारे किए हैं। इब्राहिम अल्काज़ी जैसे मशहूर डाईरेक्टर के लिए भी अनुवाद किए, जिन का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से सफल मंचन हुआ। हिंदी थिसारस के लिए उन्हों ने माधुरी जैसी पत्रिका और फ़िल्मी दुनिया की रंगीनी वाली ज़िंदगी को गुडबाई कर दिया। मुंबई छोड़ दिल्ली चले आए। माडल टाऊन में रहने लगे। पैसों की दिक्कत आई तो खुशवंत सिंह की सलाह पर सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संपादक बन गए। खुशवंत सिंह के सुपुत्र राहुल सिंह तब भारत में रीडर्स डाइजेस्ट के संपादक थे।
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार, बेटे डाक्टर सुमीत कुमार, बेटी मीता लाल |
सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट हिंदी की पहली अंतरराष्ट्रीय पत्रिका थी। उस समय सवा लाख से अधिक उस की प्रसार संख्या थी। रीडर्स डाइजेस्ट का यह हिंदी संस्करण था सर्वोत्तम। रीडर्स डाइजेस्ट के तब दुनिया भर में 36 भाषाओं में 48 संस्करण थे। भारत से अंग्रेजी और हिंदी दोनों में। उर्दू में भी निकलने की चर्चा हुआ करती थी तब के दिनों। सर्वोत्तम के संपादक भी सर्वोत्तम थे अरविंद कुमार। विशुद्ध अनुवाद आधारित पत्रिका का बिलकुल हिंदीमय होना आसान नहीं था। पर अरविंद कुमार इसे आसान बनाए हुए थे। उन के काम करने का तरीका, उन की प्लैनिंग, हिंदी भाषा के प्रति उन का समर्पण, एक-एक बात की डिटेलिंग, रीडर्स डाइजेस्ट के नार्म्स सब कुछ मिल कर एक ऐसा अनूठा गुलदस्ता तैयार करते थे कि पाठक झूम-झूम जाते थे। रीडर्स डाइजेस्ट का मुख्यालय न्यू यार्क में था। दुनिया भर के संस्करण वहीं से संचालित होते थे। सारी संपादकीय सामग्री, फ़ोटो आदि वहीं से आते थे। लेकिन सभी संस्करणों को अपने ढंग से सामग्री चयन करने और प्रस्तुत करने की पूरी आज़ादी थी। काम करने का रास्ता अरविंद जी इसी आज़ादी में से निकाल लेते थे। जैसे अर्जेंटाइना के पत्रकार और’-ला ओपिनियन के प्रधान संपादक जैकोबो टीमरमैन ने आतंकवादी तानाशाही के ख़िलाफ़ जेल से जो किताब लिखी तो इस को सर्वोत्तम में छापने के लिए अरविंद जी ने उस का हिंदी अनुवाद उर्दू और हिंदी के पत्रकार मनमोहन तल्ख़ से करवाया। राम अरोड़ा ने उसे ख़ूब मेहनत से संपादित किया, मनमोहन तल्ख़ को मीठी-मीठी गालियां देते हुए, लगातार उन की ऐसी-तैसी करते हुए। इस सब में बहुत समय लगा। ललित सहगल ने राम अरोड़ा के इस संपादन को जांचा। पर अरविंद जी ने भी उसे फिर से जांचा और फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर नज़्म के उन्वान ख़ूने दिल में डुबो ली हैं अंगुलियां मैं ने से शीर्षक लगाया। हिंदी में इस शीर्षक को टाईप करवाने के बजाय आर्टिस्ट से लेटरिंग करवाई , तो यह किताब सर्वोत्तम के जनवरी, 1982 अंक में छप कर बोल उठी। इसी तरह तमाम किताबों पर वह इसी तरह, इसी मुहब्बत से मेहनत करते-करवाते। डान ट्रू की पुस्तक मेरे अपने गरुण, ग्रेबियल राय की हृदय के बंधन, जैसे शीर्षक वह किसी परदेसी रचना पर चस्पा कर देते थे। आलवियो बारलेतानी की रेल वाला कुत्ता, बेन विडर और डेविड हैपगुड की जासूसी कथा नेपोलियन की हत्या किस ने की, जान पियरसन की मशहूर पुस्तक द लाइफ़ आफ़ ईआन फ़्लेमिंग का अनुवाद जेम्स बांड का आख़िरी शिकार या फिर लारी कोलिंस और दोमिनिक लापियेर की लिखी किताब फ्रीडम एट मिडनाईट का हिंदी अनुवाद आज़ादी आई आधी रात जैसी एक से एक बेहतरीन रचनाएं। रचनाओं से भी बेहतर अनुवाद और उस का संपादन, उस की प्रस्तुति। एक-एक लाईन, एक-एक शब्द और एक-एक पैरे पर पूरी टीम मेहनत करती थी। ऐसे जैसे किसी खेल में एक गेंद पर पूरी टीम न्यौछावर हो। हर किसी का ध्यान उस एक गेंद पर हो। हर कापी, हर किसी की नज़र से गुज़रती। अरविंद जी की किसी ग़लती पर भी कोई ध्यान दिला सकता था। और वह मुसकुराते हुए सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। लेकिन दिलचस्प यह कि अरविंद जी किसी की ग़लती सीधे-सीध नहीं निकालते थे। अगर कहीं कुछ उन को खटकता तो वह उस के पास आ कर उस की मेज़ पर झुकते हुए धीरे से कहते कि, भैया रे, अगर इस को इस तरह लिख दें तो कैसा रहेगा? या इस शब्द की जगह अगर यह शब्द रख दें तो कैसा रहेगा? सामने वाला बाग़-बाग़ हो जाता था। वह अकसर ऐसा करते थे। मुझे नहीं याद आता कि चिट्ठी लिखवाने के लिए टाइपिस्ट को अपनी केबिन में बुलाने के अलावा कभी किसी और संपादकीय सहयोगी को अपनी केबिन में वह बुलाते रहे हों। वह ख़ुद सब की सीट पर मुस्कुराते हुए पहुंच जाते थे। बात लंबी होती तो बैठ जाते थे। कोई ख़ुद-ब-ख़ुद उन की केबिन में चला जाए तो बात और थी। दरवाज़ा सर्वदा खुला ही रखते वह। शीशे का केबिन था, बाहर से भी सब कुछ साफ-साफ दीखता था। अरविंद जी के पास छुपाने के लिए कुछ था ही नहीं। उन की उदारता लेकिन इस सब पर भी भारी थी। घटनाएं बहुतेरी हैं। पर कुछ घटनाएं कभी नहीं भूलतीं।
अमूमन सब से पहले आ जाने वाले अरविंद जी एक दिन कोई ग्यारह बजे दफ़्तर आए। उन के भीतर दाख़िल होते ही राम अरोड़ा भन्नाए। फुल वाल्यूम में बोले,’अरविंद तुम ने दफ़्तर को क्या बना रखा है?’
राम अरोड़ा की यह बदतमीजी भरी बात सुनते ही मैं ही क्या, सभी हैरत में पड़ गए। पर अरविंद जी मुस्कुराए। बड़े प्यार से बोले,’हुआ क्या राम!’
‘सुबह से चाय नहीं मिली।’राम अरोड़ा की पिच वैसी ही थी।
‘क्यों?’
‘दूध ही नहीं है।’
‘ओह! तो मैं दूध अभी ले आता हूं।’कह कर अरविंद जी उलटे पांव लौट गए। दूध ले कर लौटे। चाय बनवाई, बैठ कर सब को पिलवाई। फिर अपनी केबिन में गए। भारी कदमों से। ललित सहगल बोले,’राम तू भी कभी-कभी एनफ़ कर देता है। वह भी आज अरविंद जी के साथ!’ ललित जी के इस कहे में सब की सहमति थी। पर राम तो राम ही थे।
राम अरोड़ा को असल में नौकरी आदि की बहुत परवाह नहीं थी। न किसी से शिष्ट व्यवहार की ज़रूरत वह समझते। मनबढ़ वह शुरू से थे। कब किस के साथ वह बदमगजी कर दें, वह ख़ुद भी नहीं जानते थे। चेहरे पर चेचक के दाग़ लिए राम अरोड़ा चूंकि बैचलर थे, विवाह की उम्र कब की पार कर चुके थे। कोई ज़िम्मेदारी उन पर नहीं थी, सो अपनी लंपटई में लपेट कर वह बदतमीजी भी सब से कर लेते थे। राम अरोड़ा के बड़े भाई विद्यार्थी जी लंदन में रहते थे। समय-बेसमय राम अरोड़ा को पैसे भी भेजते रहते थे। सो राम अरोड़ा को किसी किसिम का आर्थिक फ़र्क भी कभी नहीं पड़ता था। कहानियां लिखने का भी शौक़ था। मुंबई में कुछ दिन रहे थे। कमलेश्वर के साथ समांतर आंदोलन में लगे रहे थे, इस का भी उन्हें गुमान बहुत था। दिलीप कुमार का एक इंटरव्यू लेने का उन का एक क़िस्सा भी उन दिनों बहुत चलता था। कि किसी बात पर दिलीप कुमार ने राम से कहा कि आफ्टरआल आप दिलीप कुमार से बात कर रहे हैं। तो पलट कार राम अरोड़ा ने भी दिलीप कुमार से कहा कि आप भूल रहे हैं कि आप भी राम अरोड़ा के सामने बैठे हैं और राम अरोड़ा से बात कर रहे हैं। इस क़िस्से में कितना सच था कितना झूठ मैं नहीं जानता। पर यह ज़रूर जानता हूं कि अकड़ और बदतमीजी में दिलीप कुमार और राम अरोड़ा दोनों ही बीस हैं। संयोग से दोनों ही से मेरा पाला पड़ा है। पर सब के बहुत घेरने पर राम अरोड़ा ने सर्वोत्तम में रहते हुए ही विवाह कर लिया।
अरेंज्ड मैरिज के बावजूद उन्हों ने कोर्ट मैरिज की। अरविंद जी के नेतृत्व में उन की अंबेसडर में बैठ कर हम भी कोर्ट मैरिज में पहुंचे थे। और शाम को लाजपत नगर में आयोजित रिसेप्शन में भी। जहां उन्हों ने पत्नी के साथ बैठ कर हवन आदि भी किया था। मिसेज राम अरोड़ा सुंदर बहुत थीं और दिल्ली टेलीफोन में जूनियर इंजीनियर थीं तब के दिनों। रफ़-टफ रहने वाले राम अरोड़ा विवाह के बाद बन-ठन कर आने लगे थे। कुछ दिन तक। सब ठीक-ठाक चल रहा था। कि अचानक सब कुछ गडमड हो गया।
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ |
अमरीका से रीडर्स डाइजेस्ट के एक संपादक आए थे। अकसर कोई न कोई संपादक आते ही रहते थे। पर इन संपादक से अरविंद जी की ख़ास दोस्ती थी। सो इंतज़ाम भी ख़ास किया था उन्हों ने। लैप्चू चाय तक मंगवाई गई थी। मैं चाय नहीं पीता। बहुत समय से। टीन एज से। उस समय भी नहीं पीता था। पर जब सब को चाय सर्व की गई तो रवायत के मुताबिक़ मैं ने सर्वदा की तरह हाथ जोड़ लिया। ललित सहगल ने ज़ोर दे कर कहा,’पांडेय यह चाय नहीं है, लैप्चू है। एक बार पी कर तो देखो। नहीं बाद में पछताओगे कि लेप्चू मिली थी पीने को, नहीं पी!’ पी ली थी मैं ने भी लैप्चू। जाने कितने हज़ार रुपये किलो आती थी उस 1982 में। ललित जी बताते रहे थे। बड़ी-बड़ी पत्तियों वाली यह चाय छानी भी नहीं जाती। बिन छाने पी जाती है। खैर बहुत सारी बातें हुईं। बिलकुल जश्न के मूड में सब लोग थे।
अरविंद जी ने उस अमरीकन संपादक के स्वागत में अपने घर पर एक शानदार लंच दिया था। सर्वोत्तम की पूरी संपादकीय टीम भी इस लंच में उपस्थित थी। लंच में अमरीकन मिजाजपुर्सी के फेर में वाइन और ह्विस्की भी हाजिर थी। सब ने उस का लुत्फ़ लिया। राम अरोड़ा ने कुछ ज़्यादा ही। पता लगा कि वह धकाधक नीट भी ले बैठे थे। लंच बाद सब लोग ख़ुश-ख़ुश दफ़्तर लौटे। बातचीत होने लगी। जाने किस बात पर उस अमरीकन संपादक से राम अरोड़ा अचानक उखड़ गए। हत्थे से उखड़ गए। चीख़ने-चिल्लाने लगे, यू बास्टर्ड, यू सी आई ए एजेंट, यू सी आई ए पीपुल जैसी बातों पर आ गए। अरविंद जी की केबिन से किसी तरह उन्हें बाहर लाया गया। हर किसी ने उन्हें संभालने और समझाने की कोशिश की। पर हर किसी को उन्हों ने ललकार लिया, डपट लिया। बदतमीजी की। गाली-गलौज पर उतर आए। जश्न मिट्टी में मिल गया था। कोई दो घंटे से अधिक समय तक वह दफ़्तर में तूफ़ान खड़ा किए रहे। फोन कर उन के कुछ दोस्तों को बताया गया कि फोन पर ही उन्हें लोग समझा दें। पर वह फ़ोन पर आते ही भड़क जाते। कहते रखो फ़ोन अभी एक सी आई ए एजेंट को सबक़ सिखा दूं! आदि-आदि। हार कर उन की पत्नी को संपर्क किया गया। पत्नी ने फ़ोन पर उन्हें समझाया और घर आने को कहा। राम अरोड़ा ने चिल्ला कर कहा,’तुम भी उस सी आई ए एजेंट से मिल गई हो!’उन को भला-बुरा कहा और फ़ोन उठा कर पटक दिया। टिपिकल शराबियों की तरह वह तूफ़ान मचाते रहे। जब थोड़ी उतर गई तो किसी तरह घर गए। इस पूरे दृश्य में अरविंद जी का संयम, विवेक और धैर्य कसौटी पर था। लेकिन वह चुप रहे। निर्विकार। जैसे कुछ हुआ ही न हो। वह चाहते तो सिक्योरिटी गार्ड को बुला कर राम अरोड़ा को दफ़्तर से उठवा कर बहार फिंकवा देते। पुलिस बुला कर बंद करवा देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया। दूसरे दिन सभी लोग दफ़्तर आए। लेकिन राम अरोड़ा दफ़्तर नहीं आए, उन का इस्तीफ़ा आया। जिसे अरविंद जी ने तुरंत मंज़ूर नहीं किया। हफ़्ते भर तक उन का इंतज़ार किया। बड़ी तकलीफ के साथ लोगों से कहा कि उसे समझाओ। लेकिन राम अरोड़ा को समझाने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। हफ़्ते भर बाद उन का इस्तीफ़ा मंज़ूर हो गया।
अपने लाडले धेवते के साथ अरविंद कुमार और कुसुम कुमार |
एक चपरासी थे तिवारी जी। हमारे गोरखपुर के ही थे। सर्वोत्तम के प्रसार प्रबंधक अजय दयाल की सेवा में तैनात थे। मेरी ही सिफ़ारिश पर नियुक्त हुए थे तिवारी जी। अजय दयाल इलाहाबाद के थे। क्रिश्चियन थे। हमारे गोरखपुर में उन की ससुराल थी। सेंटेंड्रयूज डिग्री कालेज गोरखपुर के प्रिंसिपल की बिटिया थीं उन की पत्नी। सो अजय दयाल को गोरखपुर की सद्भावना में तिवारी जी ख़ुश रखते थे। एक बार क्या हुआ कि अरविंद जी का चपरासी कन्हैया बीमार पड़ गया कि अपने बिहार के गांव चला गया था। तो तिवारी जी को कन्हैया की जगह अरविंद जी की सेवा में तैनात किया गया। कुछ दिनों के लिए। तिवारी जी अनपढ़, जाहिल और गंवार तो थे ही एक दिन किसी बात पर अरविंद जी से अभद्रता कर बैठे। मैं भी उस दिन छुट्टी पर था। तिवारी जी को लगता था कि अजय दयाल के आगे सर्वोत्तम में कोई नहीं है। अरविंद जी की सरलता में उन का बड़प्पन, उन की विद्वता वह नहीं देख पाए। अजय दयाल को पता चला तो उन्हों ने मुझे इस बारे में सूचित करते हुए बताया कि तिवारी को निकाल रहा हूं। मैं ने कहा, बिलकुल ठीक कर रहे हैं आप। अरविंद जी जैसे संत व्यक्ति के साथ जो आदमी बदतमीजी कर सकता है, उसे नौकरी में रखना भी ठीक नहीं है। दूसरे दिन अजय दयाल अरविंद जी के पास आए और तिवारी के ख़िलाफ़ दो लाइन लिख कर देने को कहा। ताकि अगर लेबर डिपार्टमेंट तक बात पहुंचे तो एक आधार रहे, उन के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए। यह सुनते ही अरविंद जी अपनी कुर्सी पर से उठ खड़े हुए। बोले,’भैया रे अगर उसे निकाल दिया, तो वह गरीब आदमी खाएगा क्या! उस का परिवार क्या करेगा?’
अरविंद जी ने तिवारी के ख़िलाफ़ कुछ भी लिख कर देने से इंकार कर दिया। तिवारी की नौकरी तब बच गई। तिवारी ने जब यह सब सुना तो दौड़ कर अरविंद जी के पास आए और उन के दोनों पांव पकड़ कर रोने लगे। अरविंद जी ने उसे समझाया और कहा,’भैया रे, जाओ मेहनत से काम करो। लेकिन अब किसी और के साथ ऐसा नहीं करना।’ तिवारी जी सचमुच तब से बदल गए। बहुत बदल गए। विनम्र हो गए। मुझे सुदर्शन की कहानी हार की जीत के बाबा भारती याद आ गए। बाद में मैं ने भी अरविंद जी से तिवारी की बेवकूफी के लिए क्षमा मांगी तो वह हंसने लगे। सच अरविंद कुमार जैसे लोग न तब होते थे न अब होते हैं। आगे भी भला कहां होंगे। कैसे होंगे। अरविंद कुमार तो इसी लिए हमारे जीवन में एक ही हैं। दूसरा कोई नहीं।
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ |
सर्वोत्तम में तरह-तरह की रचनाएं होती थीं। विज्ञान से जुड़े लेख हर अंक में होते थे। कथा-कहानी का खंड भी। एक सर्वोत्तम पुस्तक भी हर अंक में होती थी। ढेर सारे लेख, चालू लेख, गंभीर लेख। फ़ोटो-फीचर, जीवन शैली, लतीफ़े, टिट-बिट आदि। हर लेख, हर रचना का अंगरेजी पाठ बड़ी बारीक़ी से अरविंद जी बांचते। फिर तय करते कि इस का अनुवाद कौन बेहतर ढंग से कर सकता है। सब की क्षमता से जैसे वह परिचित थे। वह चाहे मुंबई में रहता हो पटना, दिल्ली या देहरादून में। देश भर के सर्वोत्तम अनुवादकों को उन्हों ने सर्वोत्तम से जोड़ रखा था। हर विधा के लोगों को इस सरलता और चाव से उन्हों ने जोड़ रखा था कि अनुवाद जैसा काम जो तब बहुत शुष्क माना जाता था, सर्वोत्तम में वह सरस हो गया था। कौन था ऐसा जो हिंदी में अनुवाद करता हो और सर्वोत्तम से जुड़ा न हो। लोग फख्र करते थे यह कहते हुए कि हम सर्वोत्तम के लिए अनुवाद करते हैं। और फिर हम तो इसी सर्वोत्तम में अरविंद कुमार के साथ काम करते थे।
अरविंद कुमार के साथ काम करना उन दिनों दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में फख्र का सबब था। हर संपादक, हर पत्रकार अरविंद जी का नाम सुनते ही आदर भाव में डूब जाता था। सर्वोत्तम में अनुवाद का पारिश्रमिक भी बहुत अच्छा था। सम्मान सहित था। किसी को भुगतान के लिए कभी तगादा भी नहीं करना पड़ता था। बहुत से लोग अग्रिम भुगतान भी ले जाते थे। कुछ लोग तो अग्रिम भुगतान भी लंबा ले गए, अनुवाद भी नहीं किया। ऐसा भी हुआ कई बार कि लोगों ने ग़लत अनुवाद किए, भ्रष्ट अनुवाद किए लेकिन उन का भुगतान कभी नहीं रोका गया। यह अरविंद जी की सदाशयता थी। बस बहुत हुआ कि आगे से उन को और काम नहीं दिया गया। लेकिन कुछ तो ऐसे समर्पित अनुवादक थे जो न सिर्फ़ समय सीमा में अनुवाद कर देते थे, सर्वोत्कृष्ट अनुवाद भी करते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने काम के बल पर दो हज़ार, तीन हज़ार, पांच हज़ार रुपए महीने भी अनुवाद कर के ले लेते थे। उस समय अख़बारों में इतना वेतन भी नहीं होता था। पर कई सारे फ्रीलांसर्स के लिए सर्वोत्तम तब के दिनों एक आदर्श जगह बन गई थी। कई लोग नौकरी में रहते हुए भी यह काम करते थे। भुगतान पत्नी या बच्चों के नाम से लेते थे।
अरविंद कुमार |
सर्वोत्तम में भाषा, वर्तनी, बोलचाल की भाषा पर भी ज़ोर तब बहुत था। अरविंद जी पत्रिका में किसी को एक सूत भी इधर-उधर नहीं होने देते थे। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की वर्तनी को सर्वोत्तम में कड़े अनुशासन के साथ फालो किया जाता था। मैं तो आज भी करता हूं। करता रहूंगा। जब आप एक बार असली देसी घी खा लेते हैं तो मुश्किल होता है जुबान पर किसी और स्वाद का ठहरना। भाषा की सादगी, लोच, प्रवाह और सदाशयता के संस्कार बड़ी मुश्किल से मिलते हैं किसी को। मुझे अरविंद जी ने दिए। अनायास दिए। शब्द की सत्ता, वर्तनी की इयत्ता और भाषा की सजगता सिखाई। बताया उन्हों ने कि सारी कलाबाज़ी, शार्ट कट और फ़रेब धरे रह जाते हैं। अंततः काम ही शेष रहता है। अपने काम से ही आदमी की पहचान बनती है। काम ही लोगों को याद रह जाता है। जीवन जीने की कला और संकट से जूझने की, लगातार काम में लगे रहने की आदत भी अरविंद जी ने मुझे सिखाई।
सफलता और योग्यता का फ़र्क भी उन के साथ रह कर ही जाना। जाना कि शार्ट कट और बेवकूफियां कितना कष्ट देती हैं, इन से कैसे पूरी तरह दूर रहना चाहिए। दिखाऊ सफलता आदि का कोई मतलब नहीं होता। टीम को कैसे विश्वास में ले कर काम किया जाता है, उन से यह भी सीखा। अब अलग बात है यह सब चीजें उन के समय में तो बहुत काम की थीं और आदमी को बहुत दूर तक ले जाती थीं, जैसे कि उन को ले भी गईं। आज की तारीख़ में हिंदी में अरविंद कुमार जैसा भाषाविद कोई एक दूसरा नहीं है। उन के जितना काम किसी एक दूसरे के पास नहीं है। आगे भी खैर क्या होगा। लेकिन हमारे समय की पत्रकारिता में, हमारे समय के लेखन में यह सारे मानक देखते-देखते ही बदल गए हैं। रैकेटियर्स की जैसे बन आई है। पत्रकारिता और लेखन दोनों ही जगह। और हम या हमारे जैसे अनेक जन कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! की विवशता में फंसे किसी तरह बस यह सब कुछ ठिठक कर देखते ही रह गए हैं। पत्रकारिता और लेखन में सफलता के औजार बदल गए। बदलते ही जा रहे हैं।
अरविंद जी ने सिखाया था कि सारी कलाबाजी और शार्ट कट धरी रह जाती है, अंतत: काम ही शेष रहते हैं। अपने काम से ही आदमी की पहचान बनती है। काम ही लोगों को याद रह जाता है। हम अरविंद जी की इस बात को अपनी धरोहर मानते हैं। अभी भी इसी बात पर अडिग हैं। रहेंगे। अपने आने वाले साथियों को भी यही बात समझाते रहते हैं। पर अब यह सब सुनता कौन है? ऊब जाते हैं आज के लोग ऐसी बात सुन कर। सब को शार्ट कट फ़रेब और कलाबाज़ी आदि रास आने लगी है। पत्रकारिता में भी, लेखन में भी। पर अरविंद जी की काम सचमुच सिर चढ़ कर बोलता है इस सब के बावजूद। अरविंद जी की सदाशयता और स्वीकार्यता का अनुमान इसी एक बात से लगा लीजिए कि वह माधुरी से हटने के बाद भी बरसों तक हर अंक में फ़िल्म समीक्षा लिखते रहे थे। इसी तरह रीडर्स डाइजेस्ट से हटने के बाद भी रीडर्स डाइजेस्ट ने अपने दुनिया भर के संस्करणों में उन के और उन के थिसारस पर बड़ी सी स्टोरी छापी। वर्ष 2012 में। पर्सनालिटी के तहत। उन्हें वंडरफुल वर्डस्मिथ शीर्षक से नवाज़ा। वह सचमुच ही वंडरफुल वर्डस्मिथ तो हैं ही हैं, वंडरफुल आदमी भी हैं।
सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट का फलक तो बड़ा था ही, अरविंद जी का भी फलक बहुत बड़ा है। उन दिनों वह बड़ा काम कर रहे थे। साधना कर रहे थे। तपस्या कर रहे थे। जैसे भागीरथ अपनी प्रजा के कल्याण खातिर धरती पर गंगा लाए थे वैसे ही हिंदी की पृथ्वी पर हिंदी जन के कल्याण खातिर अरविंद कुमार थिसारस लाने के काम में लगे हुए थे। यह हमें क्या बहुतों को तब नहीं पता था। पर वह थिसारस पर गहन काम कर रहे थे। सर्वोत्तम में शब्द संपदा सर्वोत्तम धन कालम, नियमित छपता था। कुसुम कुमार नाम से। अरविंद जी की पत्नी का नाम कुसुम कुमार है, तब यह हम नहीं जानते थे। पर यह ज़रूर अंदाज़ा लगाते थे कि यह कालम अरविंद जी ही लिख रहे हैं।
वह तो नेशनल बुक ट्रस्ट से समांतर कोश छपने के बाद में पता चला कि पति-पत्नी दोनों मिल कर हिंदी थिसारस पर बरसों से काम कर रहे थे। पति-पत्नी ही क्यों बाद के दिनों में तो उन के बेटे सुमीत जी, बेटी मीता लाल जी भी इस काम में लग गए। आज भी लगे हुए हैं। अरविंद जी ने हिंदी थिसारस पर जो काम किया है, करते जा रहे हैं, वह अतुलनीय है।
हिंदी में इकलौते हैं अरविंद कुमार। कमलेश्वर अरविंद कुमार को शब्दाचार्य कहते थे। मैं उन्हें शब्दों का साधक कहना चाहता हूं, तपस्वी कहना चाहता हूं। मुझे यह भी कहने दीजिए कि अरविंद कुमार हिंदी की वह धरोहर हैं जो सदियों में किसी भाषा को नसीब होते हैं। उन्हें हिंदी थिसारस पर अप्रतिम काम करने के लिए बुकर और नोबल जैसे पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए। पर उन्हें अभी तक साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ, व्यास आदि सम्मान भी नहीं मिले। इस लिए कि अरविंद कुमार ने सिर्फ़ और सिर्फ़ काम पर ही सर्वदा ध्यान दिया है। जुगाड़ या प्रचार आदि पर नहीं। उन में एक पैसे का कोई दिखावा नहीं है।
अरविंद कुमार पूरी तरह नास्तिक हैं। बावजूद इस के उन्हों ने गीता का सहज अनुवाद भी संस्कृत में ही किया है। इस लिए कि उन के पिता गीता पढ़ते थे लेकिन उस की संस्कृत कठिन होने के कारण वह कई शब्द सही ढंग से उच्चारित नहीं कर पाते थे। भारतीय देवी-देवताओं के अनेक नाम वाली पुस्तक शब्देश्वरी भी लिखी है। अरविंद कुमार असल में ठस विचार वाले व्यक्ति नहीं हैं। किसी बात पर अड़ कर रहना उन का स्वभाव नहीं है। सर्वदा लचीला और खुला व्यवहार रहा है उन का। सोच-विचार में भी वह सर्वदा पारदर्शी रहे हैं।
अरविंद कुमार हिंदी के कुछ उन गिनती के लेखकों में भी हैं जो प्रकाशकों को पूरी सख्ती से क़ाबू रखते हैं। अपनी एक पैसे की रायल्टी की बेईमानी नहीं करने देते। अनुबंध में ही साफ लिखवा देते हैं कि अगर एक साल में एक निश्चित संख्या से कम किताब बिकी तो हम किताब वापस ले लेंगे। कम से कम पंद्रह प्रतिशत की रायल्टी। तो प्रकाशकों की यह बीमारी, मनमानी और मनबढ़ई अरविंद कुमार के साथ नहीं चल पाती कि किताब बिकती नहीं है। बड़े-बड़े प्रकाशक लोग उन्हें एडवांस रायल्टी थमा आते हैं। क्यों की किताब तो बिकती है।
एक बार पेंग्विन जैसे प्रकाशक ने उन से यह धांधली किताब कम बिकने के नाम पर करने की कोशिश की। अरविंद जी ने बिना एक दिन की देरी किए पेंग्विन से किताब वापस ले ली। द हिंदी-इंग्लिश डिक्शनरी और थिसारस तीन खंड में पेंग्विन ने छापा था। इसे वापस लेने पर बची हुई किताबों को भी लेने की बाध्यता रखी प्रकाशक ने तो अरविंद जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
आज की तारीख़ में अरविंद जी की बेटी मीता लाल अब अरविंद जी की नई किताबों की प्रकाशक बन गई हैं। मीता लाल ने अरविंद लिंग्विस्टिक प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले इस साल अरविंद वर्ड पावर छाप कर, सस्ते दाम में बेच कर नया कीर्तिमान कायम किया है। 1350 पृष्ठ की यह डिक्शनरी मात्र 595 रुपए में। हिंदी प्रकाशकों की बेईमानी और मक्कारी पर लगाम लगाने की यह बड़ी कामयाबी है। उन का थिसारस अरविंद लेक्सिकन आन लाइन है ही। जाने कितने कापी राईटर, अनुवादक आन लाइन उस का नियमित लाभ लेते हैं। वह एक समय अकसर कहते थे कि पुरबियों ने हिंदी को ख़राब कर रखा है। विद्वानों ने हिंदी को जटिल बना रखा है। उन दिनों अंगरेजी से हिंदी के लिए फादर कामिल बुल्के और हरदेव बाहरी की डिक्शनरी ही हिंदी में सुलभ थी। जो बरसों से क्या अब भी संशोधित नहीं हैं। अपने प्रथम संस्करण से ही जस की तस है। इतने सारे शब्द हर साल अंगरेजी और हिंदी में आते रहते हैं पर यह डिक्शनरी अद्यतन नहीं हुई हैं। अरविंद जी इस पर झल्लाते बहुत थे। इस का एक बड़ा कारन यह भी है प्रकाशक कामिल बुल्के या हरदेव बाहरी जैसे लोगों को रायल्टी ही नहीं देते थे। एकमुश्त कुछ पैसा भीख की तरह थमा दिया। बाकी खुद कमाते रहे। हर साल छापते और बेचते रहे। सर्वोत्तम में अरविंद जी ने उन दिनों वेब्सर्स की डिक्शनरी मंगा रखी थी। उस के सारे वॉल्यूम सर्वोत्तम में थे। साइंस से लगायत उच्चारण तक के।
तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा को समांतर कोष भेंट करते अरविंद जी, कुसुम जी |
सर्वोत्तम की टीम में कोई बहुत बड़े नाम नहीं जुड़े हुए थे। पर एक से एक अनूठे लोग थे। जैसे समुद्र से कोई सीपी खोजे अरविंद जी ने ऐसे ही लोगों को खोज कर जोड़ रखा था।
ललित सहगल नाटककार थे। हत्या एक आकार की जैसा दुर्लभ नाटक उन्हों ने लिखा था। आकाशवाणी के नाटक विभाग की नौकरी वह छोड़ चुके थे। देवानंद जैसे अभिनेता निर्देशक के लिए वह काम कर चुके थे फ़िल्मों में। बिना लाग-लपेट के साफ-साफ बात करने वाले ललित सहगल एरिस्टोक्रेटिक अंदाज़ से रहते थे। अनुवाद में उन का हाथ ऐसे चलता जैसे नदी में पानी। वह सर्वोत्तम के सहायक संपादक थे।
दूसरे सहायक संपादक थे सुशील कुमार। इलाहबाद के थे। वह लपेटते बहुत थे इधर-उधर की। मेथी के साग पर हरदम फ़िदा रहने वाले सुशील कुमार अरविंद जी के सरिता के दिनों के साथी थे। मेहनती और अरविंद जी के विश्वासपात्र। अब अलग बात है बाद के दिनों में सर्वोत्तम का संपादक बनने के लिए उन्हों ने जो जोड़-तोड़ किया उस से अरविंद जी का विश्वास खंडित ही नहीं हुआ, तार-तार हो गया। अरविंद जी जैसे सदाशय व्यक्ति को जो दुःख उन्हों ने अंतिम समय में दिया, उस का ज़िक्र भी अब वह नहीं करते। मन खटास से उन का भर जाता है। ऐसे और भी कुछ लोग अरविंद जी के जीवन में आए हैं पर अरविंद जी ऐसे लोगों को बिसार देने के आदी हैं। परंतु उन दिनों जब मैं सर्वोत्तम में था तब के दिनों सुशील कुमार, सुशील ही थे। राम अरोड़ा का ज़िक्र कर ही चुका हूं।
नवभारत टाइम्स, दिल्ली में तब के व्यूरो चीफ़ रहे ललितेश्वर श्रीवास्तव के पुत्र अरुण कुमार थे। चाणक्यपुरी में विनय मार्ग पर रहते थे। खाने-खिलाने के शौक़ीन। अकसर किसी न किसी बहाने अपने घर बुलाते रहते थे।
शक्तिपाल केवल थे। दुबले पतले इतने कि तब के दिनों दिल्ली में उन के नाम का हिंदी में ही अनुवाद कर के लोग मज़ा लेते थे ताक़त पाल सिर्फ़। शक्तिपाल केवल बहुत कम बोलते थे। बहुत धीरे से बोलते थे। चपरासी तक से अंगरेजी गांठते थे। ब्रिटिश लहज़े की अंगरेजी बोलने में युद्धरत रहते थे। रीडर्स डाइजेस्ट की छपाई का काम देखने वाले मिस्टर भाटिया कभी-कभी आते तो कहते यार शक्ति कभी तो पंजाबी भी बोल लिया कर। ललित सहगल भी कहते कि यह देख, यह सारे लोग यहां भोजपुरी बोलते हैं, पुरबिया बोलते हैं, तो तू हमसे पंजाबी बोल। ललित जी से तो नहीं पर मिस्टर भाटिया से शक्ति पाल केवल धीरे से अंगरेजी में ही कहते,’एक्चुअली आई वाज बार्न इन लाहौर। बट माई मदर टंग इज इंग्लिश!’लेकिन उन की इस मदर टंग से लोग आज़िज बहुत रहते थे।
राम अरोड़ा और शक्ति पाल केवल अगल-बगल ही बैठते थे। राम अरोड़ा की लंपटई और बदतमीजी भी उन की मदर टंग का कुछ नहीं कर पाती थी। एक बार उन की इस मदर टंग की कलई उतारने के लिए ही लोगों ने मदिरा महफ़िल की। दो तीन पेग के बाद उन से पंजाबी बोलने का इसरार हुआ। और वह फिर अपना वही टेप चला बैठे,’आई वाज बार्न इन लाहौर। बट माई मदर टंग इज इंग्लिश। किसी ने धीरे से कहा की मदर टंग तो नहीं तेरी फ़ादर टंग ज़रुर इंग्लिश लगती है। इतना सुनना भर था कि शक्ति पाल गाली गलौज पर आ गए। जितनी भी पंजाबी गालियां उन के पास थीं, सारी खर्च कर दीं। लोगों ने कहा, शक्ति अब तेरी गालियों का क्या बुरा मानना। पर आज तेरी मदर टंग इंग्लिश नहीं, पंजाबी है, यह तो पता चल गया। बाद के दिनों में उदय सिनहा आए। अरविंद जी द्वारा लांच की गई दिल्ली प्रेस की पत्रिका कैरवां में काम कर चुके थे। वहीं से सर्वोत्तम आए। अरविंद जी इस नाते उन को महत्व देते थे। मेहनती और शार्प भी थे उदय। जब-तब अंगरेजी बोल कर सब को प्रभाव में लेने की फ़ितरत वाले, जे एन यूं के पढ़े लिखे पटना वासी उदय महत्वाकांक्षी भी बहुत थे। वह सब कुछ एक साथ साध लेना चाहते थे। साधा भी। पर इस फेर में कटहल की खेती की जगह वह पपीते की खेती कर बैठे। स्वाभाविक रूप से उन के झूठ भी बढ़ने लगे। अरविंद जी उन के इस झूठ आदि से जल्दी ही बिदकने लगे थे।
हम लोग समझते थे कि संपादकीय टीम में महेश नारायण भारती ही सब से उम्र दराज़ हैं। उन की उम्र अरविंद जी से भी ज़्यादा है। अरविंद जी भी उन्हें उम्र वाला वह आदर देते थे। बिहार निवासी, मैथिल भाषी भारती जी वैसे भी राहुल सांकृत्यायन के सहयोगी रहे थे। हिंदी के प्रचार प्रसार खातिर कुछ समय दक्षिण भारत में भी रहे थे। पर जब उन का जन्म-दिन आया तब पता चला कि वह तो अरविंद जी से कुछ साल छोटे हैं। मैं ने बाद में पूछा भारती जी से। ऐसा कैसे हो गया कि आप इतने बुजुर्ग दीखते हैं। तो भारती जी, अरविंद जी की तरफ बड़े रश्क से देखते हुए बोले, जवानी में अगर मैं भी संपादक हो गया होता तो ज़रूर मैं भी नौजवान दीखता। सच यह है कि 86 वर्ष की इस उम्र में भी अरविंद कुमार अपने काम के बूते आज भी नौजवान दीखते हैं। तो वह यह सिर्फ़ ज़ुबानी ही नहीं कहते कि यह आदरणीय क्या होता है, मुझे सीधे अरविंद लिखो। यह उन की नौजवानी की नई कैफ़ियत है!
अरविंद कुमार |
आप यकीन करेंगे भला कि इस छियासी बरस की उमर में भी अरविंद कुमार कंप्यूटर पर घंटों काम करते हैं, किसी नौजवान की तरह। किसी दीवाने की तरह। शब्दों का यह साधक, शब्दों का यह संन्यासी, शब्दों का यह महात्मा, शब्दों की दुनिया को सुंदर बनाता हुआ कंप्यूटर के की बोर्ड को ऐसे साधता है जैसे कोई हरिप्रसाद चौरसिया बांसुरी बजाता है, जैसे कोई शिव कुमार शर्मा संतूर, कोई बिस्मिल्ला खान शहनाई बजाता है। जैसे कोई बड़े गुलाम अली खां आलाप ले रहे हों, कुमार गंधर्व कबीर को गा रहे हों, भीमसेन जोशी मिले सुर मेरा तुम्हारा गा रहे हों। ऐसे ही हमारे अरविंद कुमार शब्दों को उन के सुरों में बांध कर, सुर से सुर मिला कर अपने थिसारस के साज़ पर उन शब्दों के नए-नए अर्थ, नई-नई ध्वनियां, नए-नए विन्यास और नित नए उल्लास रचते हैं। शब्दों का आलाप, शब्दों का संगीत और उस का एकांत रचते हैं। किसी कबीर की तरह शब्द की नाव में, भाषा की नदी का सौंदर्य और बिंब विधान रचते हैं
एक अंतिम सच यह भी है कि सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट, अरविंद कुमार और उन की नौजवानी के, उन की फ़िल्मी दुनिया के, उन की शब्द साधना के इतने सारे क़िस्से, इतने सारे बिंब और उन के पर्याय मेरे पास उपस्थित हैं कि सारा कुछ लिखूं तो बाक़ायदा एक महाकाव्य बन जाए। पर अभी इतना ही। प्रणाम अरविंद जी। शब्दों के महर्षि, मेरे हरदिल अजीज अरविंद जी, कोटिश: प्रणाम।
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