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वह सुबह–1 (शब्दवेध से)

In Memoirs by Arvind KumarLeave a Comment

 

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सन 1973 के दिसंबर की 27 तारीख़ की जीवन बदल डालने  वाली वह सुहानी सुबह हम कभी नहीँ भूल सकते. हम लोग बदस्तूर सुबह की सैर के लिए बंबई के (आजकल इसे मुंबई कहते हैँ, काफ़ी स्थानीय लोग तब भी मुंबई ही कहते थे. लेकिन उन दिनोँ उस महानगर का नाम बंबई था, तो) बंबई के हैंगिंग गार्डन छः बजते बजते पहुँच गए थे. मैँ, कुसुम, 13-वर्षीय बेटा सुमीत और 8 साल की बेटी मीता… यहाँ इन सब के नाम गिनाना ज़रूरी है, क्योँ कि बाद मेँ यही हमारी अटूट टीम बनने वाली थी.

उस सुबह हमेँ जो एकांत चाहिए था, वह पूरा था. यहाँ सैर पर अकसर मिल जाने वाले और फिर साथ टहलते रहने वाले गायक मुकेश उस दिन नहीँ आए थे. कोई और परिचित भी उस दिन हमेँ नहीँ मिला… अच्छा ही हुआ. हमेँ भविष्य की बातेँ करने का व्यवधानहीन एकाकी मौक़ा मिल गया.

मेरे मन मेँ पिछली रात जो आकांक्षा जगी थी, जिस के लिए हमेँ योजनाबद्ध काम करना होगा और जिस की निष्पत्ति, पूर्ति, अपूर्ति, परिणति, परिणामसभीअनिश्चित थे, मेरे कुसुम से वह कह डालने के लिए प्रकृति ने पूरी तैयारी कर रखी थी. कहेँ तो पूरा मायावी षड्यंत्र रच रखा थाहमेँ अनेक मुसीबतोँ मेँ डालने का. सुहानी हवा मन को उत्फुल्लता, स्फूर्ति, उत्साह और सकारात्मक स्वीकृति के भाव से सराबोर कर रही थी.

हैंगिंग गार्डन का एक फेरा नपे नपाए 600 मीटर का होता था. हम लोग नियम से 5 फेरे लगाते थेयानी तीन किलोमीटर… पहले फेरे मेँ कुसुम से मैँ ने कहा, मेरे मन मेँ बीस साल से एक सपना दबा है, जो बार बार मुझे याद आता है, कोँचता है… यह सपना मैँ ने पहली बार 1953 मेँ देखा था, जब मैँ 23 साल का था.

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उन दिनोँ सरिता और कैरेवान पत्रिकाओँ का संपादकीय तथा व्यवस्था कार्यालय नई दिल्ली मेँ जनपथ पर मैसर्स जगत नारायण ऐंड संस ज्वैलर्स के ज़ेवरात के शोरूम के भीतर मियानी मेँ था. किसी संपादकीय कार्यालय के लिए यह बड़ी अकल्पनीय सी जगह थी. कोई जौहरी अपने बेशक़ीमती सामान वाले शोरूम मेँ से हो कर हर ख़ास ओ आम को आने जाने की परमिशन कैसे दे सकता है! लेकिन यह बिल्कुल स्वाभाविक ही था. जौहरियोँ की उस प्रसिद्ध फ़र्म के साझीदार विजय नारायण और हमारे संपादक-प्रकाशक विश्वनाथ गहरे मित्र थे. हिंदी जगत, पाठक और पत्रकार अब सरिता के संस्थापक-संपादक के रूप मेँ केवल विश्वनाथ जी को जानता है. लेकिन अक्तूबर 1945 मेँ दशहरे पर प्रकाशित सरिता के पहले अंक के संपादक विजय नारायण थे. प्रकाशक थे विश्वनाथ. विजय नारायण और विश्वनाथ सहपाठी थे. सरिता के प्रकाशन की योजना दोनोँ ने संयुक्त रूप से बनाई थी. दोनोँ ने अपने नामोँ को जोड़ कर एक प्रकाशनालय की परिकल्पना भी की थीविश्वविजययह नाम आज भी दिल्ली प्रैस से प्रकाशित पुस्तकोँ पर चलता है. व्यापारिक व्यस्तताओँ के चलते पत्रिका को बहुत समय दे पाना विजय नारायण जी को कठिन हो रहा था. इसी लिए कुछ अंकोँ के बाद विश्वनाथ जी ने प्रकाशन के साथ साथ संपादन का भार भी सँभाला.

किसी संपादकीय कार्यालय का ज़ेवरोँ के शोरूम मेँ होना जितना अकल्पनीय हो सकता है, उस से कई गुना अकल्पनीय और अघटनीय संयोग था उस कार्यालय मेँ मेरा होना. कभी ग़ुमान तक न था कि पत्रकार बनूँगा. जीवन के दरिया मेँ थपेड़े खाता, लहरोँ के संग उठता गिरता, हिचकोले खाता, रौ के साथ अनसोचे बहता चलता मैँ बेहद हलका फुलका तिनका था. मेरे जीवन के फ़ैसले दूसरे ले रहे थे. बस, इतना है कि हर बदलती लहर के साथ हाथ पैर मारता मैँ डूबने से बचता रहा… और मन ही मन सपने बुनता रहा.

जीवन मेँ बड़े बड़े मौक़े मिले. हर साल अपने को अनुभव के नए मुक़ाम पर पाया. पर जो चाही, वह नौकरी कभी नहीँ मिली. हमेशा रीजैक्ट किया गया. रीजैक्ट होता रहा, तभी तो जहाँ था वहीँ मेहनत करता उठता रहा, और दूसरे बुलाते रहे…

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पंदरह साल का मैँ 1 अप्रैल 1945 को कनाट सरकस के ऐम ब्लाक मेँ दिल्ली प्रैस की इमारत मेँ बाल श्रमिक की हैसियत से दाख़िल हुआ था. पाँच ही दिन पहले मैँ ने दिल्ली बोर्ड से मैट्रिक (दसवीँ) का आख़िरी परचा दिया था. रिज़ल्ट आने मेँ डेढ़ दो महीने थे. मेरे लिए तय था कि आगे नहीँ पढ़ सकूँगा. नून तेल लकड़ी की जंग मेँ मात खा कर मेरठ शहर से दिल्ली आए पिताजी लक्ष्मण स्वरूप के आर्थिक हालात अच्छे नहीँ थे

मेरा जन्म 17 जनवरी 1930 को संतान के संकट दूर करने वाली माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी यानी सकट चौथ की शाम को वैश्य अग्रवालोँ की (तीन शाखाओँ वाले) लालावाले वंश शृंखला की क़ानूनगोयान शाखा मेँ मेरठ शहर के लाला के बाज़ार की क़ानूनगोयान गली मेँ एक घुटनभरे कोठरीनुमा कमरे मेँ हुआ था… माँ रामकली उपवास से भूखी थीँ. हमेशा की तरह पिताजी स्वाधीनता के किसी आंदोलन मेँ व्यस्त थे और नवंबर मेँ जेल जाने वाले थे. (जेल मेँ उन के साथ बंद थे भविष्य मेँ स्वाधीन भारत के होने वाले पहले शिक्षा मंत्रीमौलाना आज़ाद.)

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पिताजी (लक्ष्मण स्वरूप) आज़ादी की लड़ाई मेँ लगे रहते थे, अम्माँ (रामकली) जैसे तैसे घर चलाती थीँ

पुरातनपंथी बनियोँ के बीच स्वभाव से विद्रोही पिताजी गाँधीभक्त और कट्टर आर्य समाजी थे. मैट्रिक पास करने से पहले गाँधी जी की एक पुकार पर उन्होँ ने सरकारी स्कूल छोड़ दिया था. आंदोलन के अंतर्गत नए खुले देवनागरी स्कूल से मैट्रिक किया. किसी ने कचहरी मेँ मुख़्तार बनवा दिया. मुख़्तारी नहीँ चलनी थी, नहीँ चली. दिन रात आज़ादी की और समाज सुधार की धुन थी. कई छापेख़ाने शुरू और बंद किए. करते भी क्या? गाँठ मेँ पैसा नहीँ था.

मतलब यह कि सन 1942 अँगरेजोँ  भारत छोड़ो वाला आंदोलन आने से पहले पिताजी दिल्ली आ चुके थे. अँगरेजी सरकार की दिल्ली छावनी मेँ कोई बेहद छोटा काम कर रहे थे. करौल बाग़ मेँ देव नगर के ब्लाक नंबर पाँच के अट्ठावनवेँ घर मेँ रहते थे. अलस्सुबह, हाथ मेँ खाने का थैला थामे, अपने जैसे सैकड़ोँ के साथ सराय रोहिला स्टेशन जाते. छावनी स्टेशन उतर कर फिर दूर दफ़्तर तक एड़ियाँ घिसते. मन की भड़ास निकालने का मौक़ा मिलता तो काँग्रेस की मीटिंगोँ मेँ जाते. खद्दर पहनते. देशभक्ति की बातेँ करते. तनख़्वाह बेहद नाकाफ़ी थी. तीन बेटोँ और तीन बेटियोँ को पालना आसान नहीँ था. मेरे दसवीँ मेँ आने से पहले ही मुझ से छोटी बहन सरोज रीढ़ की टीबी का शिकार हो चुकी थी. अब हम पाँच भाई बहन थे.

आगे क्या? मेरी आगे की पढ़ाई के संसाधन पिताजी के पास नहीँ थे. पिताजी के बड़े भाई ब्रजमोहन लाल सुप्रसिद्ध सिविल इंजीनियर और राय बहादुर थे. उन का प्रस्ताव था कि मेरी ओवरसियरी की पढ़ाई के लिए वह आर्थिक सहायता करेँगे. अम्माँ का कहना था कि आम तौर पर बेईमानी का पेशा है ओवरसियरी. अरविंद को कोई ऐसा काम नहीँ करना. इस के अतिरिक्त भी एक कारण था. पिताजी की निरंतर कम आमदनी के कारण लगातार ताने सुनने वाली अम्माँ किसी का अहसान नहीँ लेना चाहती थीँ. अम्माँ यह भी नहीँ चाहती थीँ कि जीवन भर मैँ किसी के किसी भी तरह के कृपाभाव से ग्रस्त रहूँ. यह मैँ भी अब तक नहीँ चाहता. जो भी करता हूँ अपने बलबूते पर करता हूँ.

तय हो गया कि मैँ अब कोई काम करूँगा. तो आगे किं पढ़तव्यम्?

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