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मेरे पापा का बचपन – मीता लाल

In Memoirs, People by Arvind KumarLeave a Comment

मेरे पापा का बचपन – मीता लाल


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­­शब्दोँ के अनंत पथ के राही मेरे पापा अरविंद कुमार के रथ मेँ चार पहिए हैँ सपना, संकल्प, सूझबूझ, और साधना. पापा कहते हैँ उन का रथ है परिवार. शब्दवेध ब्योरा है पापा की इस पथ पर सत्तर साल लंबी यात्रा का. इस से पहले कि आप यह किताब पढ़ेँ, मैँ उन के बचपन के बारे मेँ कुछ बताना चाहती हूँ.

 

पापा का जन्म मेरठ के एक ऐसे ख़ानदान मेँ हुआ जो अपने को ऐतिहासिक मानता है – ‘लालावाला ख़ानदान. इस ख़ानदान की तीन शाखाएँ हैँ: क़ानूनगोयान, पत्थरवाले और कोरटवाले. इन तीनोँ के लोग लालावाले कहलाते हैँ.   ख़ानदान के प्रथम पुरुष के साथ एक चमत्कारी घटना जुड़ी है. कहते हैँ कि वह माँ की चिता पर उस के पेट से निकला था. उसे घी मेँ सँभाल कर रखा गया. इसलिए उस का नाम पड़ा घीराज. कुछ और नाम भी रहा होगा, पर यही नाम लोगोँ को याद है. वह बहुत मेहनती और ज़हीन रहा होगा. कहते हैँ कि वह मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का न्यायविशेषज्ञ बना. इस ख़ानदान के क़ानूनगोयान वंश मेँ पापा का जन्म 17 जनवरी 1930 की साँझ हुआ. उस दिन सकट चौथ थी. दादी रामकली उपवास से भूखी थीँ. जिस कमरे मेँ पापा का जन्म हुआ, आज घुटन भरी अँधेरी कोठरी लगता है. सात फ़ुट चौड़ा, दस फ़ुट लंबा. कोई खिड़की नहीँ. उस के बाहर दालान का हिस्सा गोबर लीप कर रसोई बन जाता   था.

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बाबा लक्ष्मण स्वरूप अजब दीवाने थे, गाँधी जी के. आज़ादी के परवाने. कट्टर पुरातनपंथी परिवेश मेँ विद्रोही. आर्यसमाजी. कामधंधा ना के बराबर. पतले छरहरे. तब छब्बीस साल के रहे होँगे. इस से कुछ साल पहले गाँधी जी ने कहा, सरकारी स्कूल छोड़ दो. बाबा ने छोड़ दिया. तब तक मैट्रिक नहीँ किया था. बाद मेँ नए राष्ट्रवादी स्कूल देवनागरी की स्थापना मेँ सहायता की और उस मेँ पढ़ कर मैट्रिक किया. किसी ने उन्हेँ मुख़्तारी पढ़वा दी. कचहरी मेँ मुख़्तारी वह कर नहीँ पाए, पर सभी उन्हेँ मुख़्तार साहब कहते थे.

गाज़ियाबाद के होली महल्ले मेँ जन्मी चौथी-पास दादी रामकली बताती थीँ कि जब बाबा से रिश्ते की बात चली तो पापा के नाना जी ने लंबा चौड़ा ख़ानदान देख कर हाँ कर दी. नाना जी का तर्क था कि घर वाले एक एक कौर छोड़ेँ, तो दादी का पेट भर जाएगा!

नाना जी कुछ बहुत ग़लत भी नहीँ थे. परिवार लंबा चौड़ा था. लेकिन दादी के पल्ले बाबा जी की कम आमदनी के सिवा कुछ नहीँ था.

 

मेरे तीन पड़बाबा थे. मैँ ने उन मेँ से किसी को नहीँ देखा. मेरे अपने पड़बाबा नत्थूसिंह. उन से छोटे परीक्षित सिंह. वह म्युनिसिपलटी मेँ कुछ थे. सब से छोटे राधेलाल वकील. राधेलाल जी का घर गली मेँ पापा वाले घर के सामने था. परिवार कहने को ज़मीँदार था. नामचार की ज़मीन थी मलियाना गाँव मेँ. हर साल कुछ अनाज आदि आता था. उस के हिसाब किताब मेँ मेरे वाले पड़बाबा नत्थूसिंह लगे रहते थे. पड़दादी का नाम अब किसी को नहीँ मालूम. फ़ालिज की मारी चार साल लगातार बिस्तर से लगी रहीँ. अकेले दादी ने उन की सेवा की. दो कुँवारे देवरोँ और दो कुँवारी ननदोँ को भी सँभाला.

बाबा जी के बड़े भाई ब्रजमोहन लाल पंजाब पीडब्लूडी मेँ इंजीनियर थे. बाद मेँ चीफ़ इंजीनियर बने, राय साहब, राय बहादुर. बाबा जी के दो छोटे भाई थे, जो तब पढ़ रहे थे. दयानंद ओवरसियर बने, सदानंद अकाउन्टैंट. दोनोँ मेरठ से बाहर चले गए. दोनोँ कुँवारी बहनोँ की शादी मेरठ मेँ ही हो गई. चार विवाहित बहनेँ और भी थीँ.

पापा के जन्म के कुछ ही महीने बाद बाबा जेल जाने वाले थे. जेल से छूटते तो बाबा छापेख़ाने खोलते, कभी एक रिश्तेदार के साथ साझेदारी मेँ, तो कभी किसी दूसरे के साथ. कोई भी प्रैस कभी अच्छा नहीँ चल पाता. साझी अपने घर बैठे रहते. बाबा काँग्रेस के काम के साथ साथे छापेख़ाने का संचालन करते. ग्राहकोँ से बिल उगाहना उन जैसोँ के बस का नहीँ था. अधिक से अधिक मासिक आय बीस-पच्चीस रुपए निकल पाती. कभी कभी तो दस पंदरह. साझीदारोँ से मनमुटाव रहता. छापेख़ाने बंद होते रहते. दादी ने मुहावरा बनाया था: साझा, गू खा जा!’

समृद्ध रिश्तेदारोँ की बोलियाँ और ताने उलाहने सुनती दादी घरबार सँभाले रहतीँ.

 

तो यह था विशाल संयुक्त परिवार जहाँ पापा का जन्म हुआ. पापा के दो छोटे भाई हुए: विनोद और सुबोध. तीन बहनेँ: सरोज, मनोरमा और उषा. (सरोज बुआ को मैँ ने कभी नहीँ देखा. 1943 मेँ वह रीढ़ की तपेदिक़ से जाती रही थीँ.) आज के मुक़ाबले बेहद सस्ता ज़माना था. पर इतना सस्ता नहीँ कि सात जनोँ का टब्बर बाबा जी की कम आय मेँ गुज़ारा कर सके. पर दादी ने कभी किसी को तंगी महसूस नहीँ होने दी. जो भी था, उस मेँ परिवार ख़ुश था. कभी भूखा नहीँ सोया.

दादी की लकड़ी की मसालदानी मेँ कुल चार ख़ाने थे. नमक, हल्दी, कुटा धनिया, खटाई. मँझले पड़दादा की मसालदानी मेँ कई और भी ख़ाने थे. पापा को याद है, एक बार उन्होँ ने दादी से पूछा था, गरम मसाला क्या होता है. दादी ने कहा था, बेकार की चीज़ है.

पापा की पढ़ाई पास ही के महल्ले पत्थरवालान की म्युनिसिपल पाठशाला मेँ हुई. ख़ानदान मेँ पापा पहले थे जिन की शिक्षा का माध्यम हिंदी थी. बड़े बुज़ुर्गोँ का कहना था, कोरी हिंदी वाला आगे कैसे बढ़ेगा! एक मौलवी साहब उर्दू पढ़ाने घर आने लगे. पापा को उर्दू का अच्छा ज्ञान है, पर उर्दू मेँ केवल अपना नाम लिख पाते हैँ.

पढ़ने मेँ होशियार थे. पाठशाला मेँ शिक्षकोँ की आँखोँ के तारे थे. गणित मेँ सोलह तक के पहाड़े पापा को कंठस्थ थे. सवाल हल करने के वह अपने तरीक़े निकाल लेते थे. सवाल भी कैसे होते थे! बीस तक दो अंकोँ तक के जोड़घटा के. जैसे: पाँच जमा छह? पंदरह मेँ से नौ कम? पापा ने एक बात नोट की. हर सवाल के बीच मेँ होता था दस. पाँच होता है दस मेँ से पाँच कम. अब अगर पाँच मेँ छह जोड़ना है, तो छह मेँ से पाँच कम कर दो. बचा एक. जोड़ हुआ: एक जमा दस ग्यारह! घटाना हो तो भी यही तरक़ीब. पंदरह मेँ से नौ घटाए तो? नौ होता है दस मेँ से एक कम. तो पंदरह के पाँच मेँ एक जोड़ दो. जवाब होगा छह! इंस्पैक्टर पाठशाला का निरीक्षण करने आते. अध्यापक जी पापा को खड़ा कर देते. निरीक्षक जी पूछते, सोलह मेँ से नौ. निरीक्षक जी के मुँह से नौ निकला नहीँ कि पापा तपाक से बोलते सात! निरीक्षक प्रभावित!

 

इस काल की दो रोमहर्षक घटनाएँ पापा अभी तक नहीँ भूले हैँ:

एक: मेरठ मेँ जन्माष्टमी पर फूलडोल (झाँकी) सजाने का रिवाज़ था. शायद अब भी हो. अपने घर सजावट करने के बाद लोग दूसरे घरोँ के फूलडोल देखने निकलते. छोटे पड़बाबा राधेलाल के घर का बड़ा फाटक परली तरफ़ सड़क पर खुलता था. उस मेँ उन का नीचे से दूसरा बेटा जयप्रकाश फूलडोल सजाने मेँ बड़ी मेहनत करता था. उन के घर मेँ बिजली भी थी. पापा तीसरी कक्षा मेँ थे. उस साल साजवट के लिए बल्बोँ वाली लड़ी फैली थी, बल्ब अभी नहीँ लगाए गए थे. एक ख़ाली होल्डर मेँ पापा की बाएँ हाथ की तर्जनी उंगली (अँगूठे से पहली उंगली) चली गई. स्विच औन था. पापा को बिजली ने पकड़ लिया. धड़ाम से गिरे और छटपटाने लगे. उन दिनोँ मेरठ मेँ बिजली का डीसी करंट था. उंगली होल्डर से चिपकी रही. पापा के गिरने से बल्बोँ वाली लड़ी सौकट से निकल गई. तो करंट बंद हो गया. उंगली होल्डर से निकल गई. लेकिन पापा देर तक काँपते रहे. चार दिन गफ़लत मेँ रहे. बाबा जी सीने से चिपकाए सहलाते रहे. पापा पूछते थे: ‘बिजली होती ही क्योँ है? सरकार से कह कर बंद करवा दो!’ उस उंगली मेँ नाख़ून के पास की त्वचा मेँ अभी तक निशान है.

दो: दादी अपने सारे दमित क्रोध और झुँझलाहट पापा को मारपीट कर निकालती थीँ. पापा ने शायद कोई झूठ बोला था, या कुछ और. किसी का उलाहना सुन कर दादी ने उन्हेँ बुरी तरह पीटा, एक अँधेरी कोठरी मेँ बंद कर दिया. पापा तीन चार दिन बुख़ार से तपते तड़पते रहे. दादी की मारपीट दिल्ली मेँ देवनगर मेँ बंद हुई, जब पापा दसवीँ मेँ दाख़िल हो गए थे.

काँग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलनोँ मेँ व्यस्तता तथा आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता के साथ साथ छापेख़ाने का संचालक होने के नाते बाबा जी के मेरठ से निकलने वाले पत्रपत्रिकाओँ के संपादकोँ से अच्छे संबंध थे. दो एक मेँ वह लिखते भी थे. मुफ़्त मेँ उप संपादन भी करते. कई बार पापा को उन के संपादकोँ से मिलवाते भी थे. शाम के समय नियमित रूप से पुस्तकालय ले जाते. किताबेँ और पत्रिकाएँ पढ़वाते. नौचंदी के मेले मेँ किताबेँ ख़रीदवाते. कभी कभी अपने साथ प्रैस ले जाते. रास्ते मेँ संसार का ज्ञान देते. मेहनत और देशभक्ति का पाठ पढ़ाते.

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उस ज़माने मेँ स्कूल कम थे, पढ़ने वाले भी कम थे. चौथी मेँ पापा पूरे मेरठ शहर मेँ नंबर एक आए. नौचंदी मेले पर उन के लेख को सर्वोत्तम माना गया. बाबा जी पापा की क्षमताओँ से कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हो गए. वह चाहते थे जल्दी से जल्दी पढ़ कर अरविंद उन का सहारा बन जाए. घर पर कामचलाऊ इंग्लिश पढ़ा कर पापा को मेरठ के वैश्य हाई स्कूल ले गए. हैड मास्टर दुबलिश साहब ने पापा से कुछ सवाल पूछे. गणित के और इंग्लिश के. पापा को सातवीँ कक्षा मेँ दाख़िल कर लिया. वहाँ पापा के दो साल अच्छे नहीँ रहे. एक दम चौथी से सातवीँ कक्षा तक छलाँग लगाने के कारण नंबर कम आते रहे. वहाँ से आठवीँ पास करने के बाद बाबा जी ने पापा को देवनागरी स्कूल मेँ नवीँ मेँ दाख़िला दिला दिया.

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उसी साल कुछ परिवर्तनकारी घटित हुआ. मेरठ मेँ ग़रीबी से थक कर बाबा जी दिल्ली चले आए – काम की तलाश मेँ. दादी और बच्चे मेरठ मेँ ही रहे. कुछ समय बाद चार साल से फ़ालिज से अपाहिज़ पड़दादी चल बसीँ. पापा को याद है. सब रो रहे थे. चार बेटोँ की माँ के अंत समय कोई बेटा पास नहीँ था. अपरोक्ष आक्षेप बाबा जी पर ही था क्योँ कि बाक़ी तीन तो रहते ही बाहर थे. जो भी हो, दादी के कंधोँ पर जो बोझ था असहाय पड़दादी की सेवा का, वह उतर गया. पड़बाबा को पापा के इंजीनियर ताऊ जी अपने साथ ले गए. अब दादी मेरठ से बँधी नहीँ थीँ. दादी सहित परिवार को बाबा जी दिल्ली ले गए. पापा को मेरठ मेँ मेरे बिचले पड़दादा के पास छोड़ गए. अकेले पापा का मन नहीँ लगता था. पढ़ाने वाला कोई नहीँ था. पापा नवीँ मेँ फ़ेल हो गए.

यह अच्छा ही हुआ. कक्षा मेँ फिसड्डी चल रहे थे. पापा भी बाबा जी और दादी के पास आ गए. भाई बहनोँ के साथ सब दिल्ली के करोल बाग़ मेँ देवनगर के पाँचवेँ ब्लाक के अठावनवेँ मकान मेँ रहने लगे. आजकल जैसी भीड़ तब वहाँ नहीँ थी. नया शहर, नया माहौल. कहाँ मेरठ का तंग गलियोँ वाला क़स्बाती वातावरण, कहाँ करोल बाग़ की खुली चौड़ी सड़केँ, महानगरीय वातावरण. सरकारी नौकर, क्लर्क, अफ़सर, व्यापारी, दुकानदार. पापा करोल बाग़ के गुरुद्वारे मेँ नए खुले खालसा हाई स्कूल मेँ दाख़िल हुए. सहपाठी सभी धर्मोँ के – हिंदू, मुसलमान, सिख. कुछ सहपाठी आसपास के गाँवोँ से भी आते थे, साइकिलोँ पर. यहाँ पुरानी कमियाँ पूरी हो गईं. पापा अव्वल रहने लगे. दसवीँ (मैट्रिक) की बोर्ड की परीक्षा मेँ उन्हेँ चार विषयोँ मेँ डिस्टिंक्शन मिला.

यहाँ से शुरू हुआ उन की ज़िंदगी का नया अघ्याय.

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