हिंदी के माथे पर ऐसे लगी सुनहरी बिंदी
स्वभाव से मैँ बहुत संकोचशील हूँ, झिझकू स्वभाव के साथ कुछ कुछ डरपोक भी. किसी भी निजी या सरकारी पद पर बैठे लोगोँ से पहली बार बात करने मेँ मुझे डर लगता है. यूँ तो अनेक पदाधिकारी जन बड़े सहज और विनम्र होते हैँ. पर कई सत्ताधारी लोगोँ को मैँ ने अहंकारी पाया है और वे मुझ जैसे आम आदमी को दुत्कारते नज़र आते हैँ. उन से मिलने का समय भी मुश्किल से मिलता है. नेशनल बुक ट्रस्ट इतना बड़ा प्रकाशन संस्थान है, ऊपर से सरकारी. उन से बात करने मेँ मेरी तो नानी मर जाती. पर मेरे सामने डरने का मौक़ा ही नहीँ आया.
हंस संपादक राजेंद्र यादव
मासिक पत्रिका हंस के संचालक संपादक मेरे मित्र राजेंद्र यादव ने 1991 मेँ मुझे विवश कर के मुझ से रचनाधीन थिसारस पर एक लेखमाला लिखवाई थी. उस का पहला अंक पढ़ते ही राजेंद्र के ज़रिए मुझ से संपर्क किया नेशनल बुक ट्रस्ट के तत्कालीन निदेशक और मेरे नामराशि श्री अरविंद कुमार ने. तब मैँ समांतर कोश देने की स्थिति मेँ नहीँ था. तब तो पूरी तरह यह भी पता नहीँ था कि वह पूरा होगा या नहीँ. उस के कंप्यूटरीकरण की कल्पना तो तब मन मेँ थी, लेकिन कोई संभावना नज़र नहीँ आ रही थी. मैँ ने एक पत्र लिख कर उन्हेँ बताया कि काम पूरा होने मेँ अभी देरी है. कुछ साल लग सकते हैँ. तैयार होने पर आप को सूचित करूँगा. और अपना काम करता रहा.
समांतर कोश के प्रकाशक
इस बीच हमारा बेटा सुमीत जो तब पेशे से शल्य चिकित्सक था, कंप्यूटर के लिए पैसे जमा करने के इरादे से नौकरी करने ईरान चला गया. यथावश्यक साधन जुटाते ही वह भारत लौट आया, और हमेँ कंप्यूटर ख़रीदवाया. उस के लिए कार्यविधि लिखवाना भी हमारी क्षमता के बाहर था. इस लिए उस ने अपने आप किताबेँ पढ़ कर कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीखी और हमारी कार्यविधि रची.
1994 मेँ जब मुझे लगा कि कंप्यूटरीकरण संतोषजनक रूप से बढ़ रहा है और मेरे जीवन काल मेँ प्रस्तावित कोश के पूरा होने की संभावना है, तो मैँ ने पत्र लिख कर श्री अरविंद कुमार से पूछा कि क्या अब से दो साल बाद भी इस के प्रकाशन मेँ उन की रुचि होगी. तत्काल उन का उत्तर आया – हाँ. इस के बाद तो पहल उन की ही ओर से होती रही.
इस बीच हम लोग सुमीत के पास रहने बेंगलूरु चले गए. एक तो हमेँ अपने स्वास्थ्य को ले कर भय की स्थिति बनी रहती थी. (आख़िर मैँ दिल का दौरा भोग कर आपरेशन करा चुका था.) थिसारस की अनिश्चितताओँ से मन मेँ अनेक चिंताएँ रहती थीँ. दूसरे, एक सीमा तक तो काम सुमीत की अनुपस्थिति मेँ चंद्रनगर गाज़ियाबाद वाले घर मेँ हो गया था. अब काम बढ़ाने के लिए सुमीत की कंप्यूटर दक्षता दरकार थी.
डाटा का काम पूरा होते होते दिसंबर 1994 आ गया. मैँ ने अरविंद कुमार को फिर एक पत्र लिखा. एक अजीब इत्तफ़ाक़ है कि अरविंद कुमार का 1994 का हाँ वाला पत्र 14 जनवरी को लिखा गया था, और 1996 वाला एक और आग्रहपूर्ण हाँ वाला पत्र भी 14 जनवरी का ही है. दोनोँ ही पत्र मुझे मेरे जन्म दिन 17 जनवरी को मिले.
तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर शंकर दयाल शर्मा को गुलाब की पत्तियोँ की ट्रे मेँ से निकाल कर मैँ और कुसुम समांतर कोश समर्पित कर रहे हैँ
पहले संस्करण का संपादन कर के पेज बनाने मेँ और उन के लेज़र प्रिंट निकालने मेँ 1996 का सितंबर आ गया. नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक उत्साही अरविंद कुमार ने मात्र दो ढाई महीनोँ मेँ ही अठारह सौ (1800) पेजोँ की पुस्तक का मुद्रण करवा के दिसंबर मध्य तक उस का प्रकाशन कर दिया. मेरे लिए सब से हर्ष की बात यह थी कि उन्होँ ने इसे स्वाधीनता के पचासवेँ वर्ष मेँ प्रकाशित की जाने वाली ट्रस्ट की विशेष पुस्तकोँ मेँ पहली पुस्तक घोषित कर दिया. ख़ुशी की इस से भी बड़ी बात यह थी कि समांतर कोश की पहली प्रति स्वाधीन भारत के राष्ट्रपति महामहिम डाक्टर शंकर दयाल शर्मा को समर्पित की गई – 13 दिसंबर 1996 को, और उन्हेँ ने इसे सराहा.
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