हिंदी के ये ख़ास कोश

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अरविंद कुमार

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सच्चे और सटीक शब्द न डाक्टर रघुबीर बना सकते थे, न भारत सरकार का कोई आयोग. ये शब्द वे बनाते हैं जो उन का इस्तेमाल करते हैँ. घुड़चढ़ी या पगफेरा जैसे या बटहरी, बरोठी या बराढ़ जैसे शब्द बनाती है आम जनता या अनपढ़ किसान मज़दूर… उन के बनाए शब्दोँ का संकलन कौन करता है कौन उन के कोश बनाता है?

समांतर कोश की रचना के बहाने हिंदी के कुछ ख़ास कोशन्हें मैं मानतूँ

 

 

हमारे देश मेँ कोश बनाने की परंपरा वेदोँ जितनी पुरानी है. पहला शब्दकोश या शब्दसूची या थिसारस वैदिक शब्दोँ का संकलन था — प्रजापति कश्यप का निघंटु. यह संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है. निघंटु  पर महर्षि यास्क का व्याख्या ग्रंथ निरुक्त  संसार का पहला शब्दार्थ कोश और विश्वकोश यानी ऐनसाइक्लोपीडिया है! इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृत अमर कोश जिसे सारा संसार जानता और पूजता है. बाद के कुछ प्राचीन और उल्लेखनीय कोशोँ में आता है अमीर खुसरो का फ़ारसी-हिंदी थिसारस ख़ालिक बारी. अमर कोश से प्रेरित यह लेकिन अपनी तरह का पहला द्विभाषी थिसारस और कोश था. कहना न होगा यह भी विश्व कोशकारिता को भारत की अनुपम देन थी.

सर मोनियर मोनियर-विलियम्स कृत अनुपम और विशाल Sanskrit-English Dictionary का केवल ज़िक्र भर कर के भारत संबंधी कोशोँ के इतिहास के और न कुछ कह कर मैं सीधे अपने और कुसुम जी के समांतर कोश की बात करता हूँ. अमर कोश के बाद यह भारत मेँ अपनी तरह का पहला कोश है. इस की रचना प्रक्रिया में सहायक शब्दकोशों की बात से इस युग के अनेक उल्लेखनीय कोशोँ की चर्चा हो जाएगी.

समांतर कोश (नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 1996) पिछली (20वीँ) सदी के अंतिम तीस वर्षों का उत्पाद है. इस से पहले हिंदी में कोई थिसारस नहीँ बना था. किसी थिसारस की हिंदी में आवश्यकता तो मुझे 1952-53 में महसूस हुई थी जब मैं 22-23 साल का संघर्षशील पत्रकार था, लेकिन इस की रचना मैँ स्वयं करूँ इस का निर्णय मेरी पत्नी कुसुम और मैँ ने 26 दिसंबर 1973 की सुबह किया था. आवश्यक संदर्भ ग्रंथ जमा करने में कुछ समय लग गया. संदर्भ ग्रंथ मतलब तरह तरह के कोश. और विषय विशेषोँ पर जानकारी देने वाले तकनीकी ग्रंथ.

1976 में जब काम शुरू हुआ तो हम ने हिंदी कोशोँ मेँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण (मेरी राय में सर्वश्रेष्ठ कोश) बृहत् हिंदी कोश (ज्ञानमंडल लिमिटेड वाराणसी) को अपना सर्वप्रमुख संदर्भ ग्रंथ बनाया. इस का पहला संस्करण संवत 2009 (यानी ईसवी 1954-55) में प्रकाशित हुआ था. तब से यह हिंदी वर्तनी के लिए मानक माना जाता है. आज के पत्रकार इस कोश मेँ हिज्जे देखने का कष्ट नहीँ करते. मुझे शक हे कि वे कोई भी कोश देखने का कष्ट भी उठाते हैं….

हम ने इस कोश का उपयोग इस लिए किया कि हम किसी भी कोटि के लिए पर्यायवाची या समांतर शब्द संकलित करने के लिए अपनी सीमित शब्द स्मृति पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे. अतः हम ने इस के पहले शब्द अंक से ह्वेल तक खंगाल डाला. जो शब्द जिस कोटि के लिए उपयुक्त लगा उस में उसे संकलित करते गए. अकसर शब्द ऐसे निकलते थे जिन के लिए हमने कोई कोटि निर्गारित नहीं की है, तो उस संदर्भ के लिए नई कोटि बनाई जाती थी. सन 55 वाले संस्करण से ले कर अब तक इस के जितने संस्करण छपें हैँ, उन में अधिकतर हमारे पास सुरक्षित हैँ.

हमारे काम को नंबर दो कोश सिद्ध हुआ उर्दू-हिंदी शब्दकोश (संकलनकर्ता मुहम्मह मुस्तफ़ा ख़ाँ मद्दाह, प्रकाशक हिंदी समिति, हिंदी भवन, महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ). कई अरबी फ़ारसी शब्द हिंदी कोशोँ में नहीं मिलते, और उन पर लगाए जाने सही नुक़्तोँ की पहचान बस कहीँ कहीँ मिलती है. यहाँ तक कि श्यामसुंदर दास जी के अत्यंत उपयोगी और दस-बारह खंडों वाले हिंदी शब्द सागर (नागरी प्रचारिणी सभा) में भी नहीं. इस के संक्षिप्त संस्करण (संपादक रामचंद्र वर्मा) में भी यह कमी है. जहाँ तक मेरी जानकारी है कि उस समय के हिंदी फ़ौंटों में ये नुक़्ते लगाना एक तरह से असंभव हो गया था. अब जब टाइपसैटिंग कंप्यूटर पर होती है तो हमेँ इस ओर सही तथा पूरा ध्यान देना चाहिए. हमारे सभी कोशोँ में नुक़्ते बदस्तूर मिलते हैँ.

500 शब्द हो चुके हैं, इस लिए कुछ अन्य कोशोँ और संदर्भ ग्रंथोँ के नाम भर लिख रहा हूँ

-          केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा प्रकाशित बीसियोँ तकनीकी शब्द कोश अपनी तमाम सीमाओँ के बावजूद इन्हों ने बड़ा काम किया है और नई हिंदी की बुनियाग रखने में मदद की है. जो कमियाँ हैँ वह करने के कारण हैँ, न करने के कारण नहीँ. जो कुछ नहीं करते वे कैसी भी ग़लतियाँ नहीं करते! ठीक बात है न!

-          डाक्टर रघुवीर कृत Comprehensive English-Hindi Dictionary. मैं उन के अनेक शब्दोँ से सहमत नहीं हूँ. पर उन्हों ने नीवँ रखी तो! वह भी सुदृढ़. आज की हिंदी उन की सदा ऋणी रहेगी.

-          संस्कृत हिंदी कोश (वामन शिवराम आप्टे) (मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली)

-          अभिनव पर्यायवाची कोश (सत्यपाल गुप्त श्याम कपूर) (आर्य बुक डिपो नई दिल्ली)

-          बृहत् हिंदी पर्यायवाची शब्द-कोश  (गोविंद चातक) (तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली)

-          हिंदी पर्यायवाची कोश (डा. भोलानाथ तिवारी).इन सभी पर्यायवाची कोशोँ की सब से बड़ी कमी है इंडैक्स का अभाव.

-          हिंदी-इंग्लिश कोशोँ में मैं कुल तीन का ज़िक्र करूँगा A Practical Hindi-English Dictionary (महेंद्रनाथ चतुर्वेदी और डा. भोलानाथ तिवारी) (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली), मीनाक्षी हिंदी-अंग्रेजी कोश (डा. ब्रजमोहन और डा. बदरीनाथ कपूर) (मीनाक्षी प्रकाशन, मेरठ), तीसरा कोश है Oxford Hindi-English Dictionary (R. S. McGregor). इन तीनोँ में मुझे लगातार इस्तेमाल कर के गुण दोष परख कर मीनाक्षी हिंदी-अंग्रेजी कोश सब से अच्छा लगा. खेद है यह प्रकाशनालय अब बंद हो गया है.

 

विषय विशेष पर मैँ ने जिन कोशोँ का उपयोग किया उन में सब से मूल्यवान था

-          काशी संस्कृत ग्रंथमाला के अंतर्गत चौखंबा संस्कृत सीरीज़ आफिस, वाराणसी द्वारा प्रकाशित दस खंडों वाला वनौषधि-चंद्रोदय . इसे कहते हैं ज्ञान, मेहनत और लगन. भारतीय बाटनी पर इतना बढ़िया काम बाद में National Institute of Science Communication And Information Resources, New Delhi ने किया है. चौखंबा और इस संस्थान के मुक़ाबले केंद्रीय हिंदी निदेशालय का काम भी फीका मालूम पड़ता है.

-          आयुर्विज्ञान पारिभाषिक कोश (केंद्रीय हिंदी निदेशालय).

-          भैषज्य संहिता अत्रिदेव विद्यालंकार (हिंदी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ)

-          इतिहास परिभाषा कोश (वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग भारत सरकार)

-          भारतीय इतिहास कोश सच्चिदानंद भट्टाचार्य (हिंदी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ)

-          भारतीय तथा पाश्चात्य रंगमंच पंडित सीताराम चतुर्वेदी (हिंदी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ)

-          रंगमंच शेल्डान चेनी (अनुवाद – श्रीकृष्णदास)  (हिंदी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ)

-          संगीत शास्त्र के. वासुदेव शास्त्री  (हिंदी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ)

 

मैं अभी अपने द्वारा प्रयुक्त कोशोँ की गिनती कराता रह सकता हूँ. पर सूची कितनी ही उपयोगी हो, ऊबाऊ हो जाती है. अंत में एक बहुत हीन रोचक विषय के एक कोश का ज़िक्र ज़रूर करूँगा

-          आधुनिक मल्लयुद्ध हरफूल सिंह (डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली) इस पुस्तक रूपी कोश मेँ आधुनिक कुश्ती के 1,000 दाँव पेंचों के इंग्लिश और हिंदी नाम दिए गए हैं. मुलाहज़ा फ़रमाइए:

मल्ल पछाड़ (Waist Lock High Lift), रग्गा कुंदा (Opposite Grip Lift and Twist), लमलेट कुंदा (Flat Hook), कुक्कर सांडी (Cross Bar ½ Nelson), हाथपछाड़ (Cross Arm Lock Lift), नंगा हाफ्ता (Double Nelson), गधा लेट (Side Swing)…

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसे सच्चे और सटीक शब्द न डाक्टर रघुबीर बना सकते थे, न भारत सरकार का कोई आयोग. ये शब्द उन्होंने बनाए हैँ जो इन का इस्तेमाल करते हैँ. इसी प्रकार घुड़चढ़ी या पगफेरा जैसे या बटहरी, बरोठी या बराढ़ जैसे शब्द वे ही बना सकते थे. ये शब्द बनाती है आम जनता या अनपढ़ किसान मज़दूर… उन के बनाए शब्दोँ का संकलन कौन करता है कौन उन के कोश बनाता है?

 

सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव ने शब्दों का महत्व समझ लिया था. आदमी समझ गया था कि शब्द का महत्व केवल क्षणिक नहीं है. शब्द आमने सामने वालों के बीच की ही कड़ी नहीं है. शिकार करने वाले समूह की तालमेल की, आदेश आदान प्रदान की ही चीज़ नहीं है. इस से कहीं बड़ी चीज़ है. शब्द के ज़रिए हम मन के गहरे भाव कह सकते हैं, पूजा पाठ कर सकते हैं, दार्शनिक ग्रंथ रच सकते हैं. शब्द दूर दूर तक जाएगा… एक समुदाय से दूसरे तक, एक पीढ़ी से दूसरी तक… गाँवों, शहरों, ज़िलों, देशों को पार करता हुआ, सभ्यताओं को लाँघता हुआ काल की सीमाओं के परे सदियों तक, युगों तक…

आदमी यह जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है. सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं. शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था. इस के लिए उस ने उपकरण बनाए. ये उपकरण कोश कहलाते हैं, शब्दकोश, शब्दार्थ कोश. मोटे मोटे शब्दों में कहें तो कोश भी एक तरह की पुस्तक है. इस में शब्दों को संकलित किया जाता है, इकट्ठा किया जाता है.

संसार के सब से पहले शब्द संकलन भारत में ही किए गए. हमारी यह परंपरा वेदों जितनी पुरानी है. कम से कम पाँच हज़ार साल पुरानी. वैदिक युग में रचित महर्षि प्रजापति कश्यप का निघंटु  संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है. निघंटु  पर महर्षि यास्क का व्याख्या ग्रंथ निरुक्त  संसार का पहला संयुक्त शब्दार्थ कोश और विश्वकोश यानी ऐनसाइक्लोपीडिया है! इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन  या त्रिकांड  जिसे सारा संसार अमर कोश  के नाम से जानता और पूजता है.

आज संसार के भाषाविद मानते हैं कि भाषा अध्ययन के क्षेत्र में पहला काम भारत में हुआ–ईसा से पाँच सदी पहले, यानी अब से ढाई हज़ार साल पहले–पाणिनी ने संस्कृत में अष्टाध्यायी में 3,959 नियम बना कर बड़ा काम किया. ईसा पूर्व तीसरी सदी में थोटीकाप्पियार ने थोटाकाप्पियम  नाम का महान तमिल व्याकरण लिखा. यदि और भी पहले जाएँ तो आज से 5,000 साल पहले प्रजापति कश्यप ने संसार का पहला विषयक्रम से संकलित थिसारस निघंटु  बनाया. बाद में महर्षि यास्क ने निरुक्त  के ज़रिए संसार का पहला शब्दार्थ कोश और ऐनसाइक्लोपीडिया दिया. यही क्यों! संसार का पहला विषयक्रमानुसार संकलित बृहद थिसारस अमर कोश हमारे यहाँ छठी शताब्दी में बना. और बाद में अमीर खुसरो ने भारत में ही संसार का पहला द्विभाषी थिसारस बनाया ख़ालिक बारी. अपने ज़माने की परंपरा के अनुसार अमर कोश की तरह और उस से प्रेरित यह कोश भी कविता के रूप मेँ लिखा गया.

 

ऐसा नहीं है कि इस के बाद हमारे यहाँ कोश बनने बंद हो गए. लेकिन क्रांतिकारी मोड़ आया ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़माने में. शासकों की सब से बड़ी आवश्यकता थी शासितोँ की भाषाओँ को समझना, साथ ही ईसाई धर्म प्रचारकोँ की ज़रूरत थी बाइबिल के अनुवाद और ईसाई धर्म का प्रचार हमारी भाषाओँ मेँ करना. बहुत से कोश बने, लेकिन सब से महत्वपूर्ण और अभी तक काम को है–  

 

अँगरेजी में कोशकारिता का नया युग सतरहवीं सदी में आरंभ हुआ. 1604 में रौबर्ट कौड्री  का कोश टेबल ऐल्फाबैटिकैल  (Robert Cawdrey‘s Table Alphabeticall) बना. इस में कुल तीन हज़ार शब्द थे. लेकिन इस से पश्चिमी सभ्यता में कोशों का आधुनिक युग आरंभ हुआ. इस के पचास साल बाद बना 1656 मेंटामस ब्लौंट का ग्लौसोग्राफिया (Thomas Blount‘s Glossographia). पर यह भी आधुनिक कोशों की कोटि में नहीं आता.

टामस ब्लौंट के सौ साल बाद आधुनिक कोशों की नीवँ डाली 1755 में सैमुएल जानसन ने. उन की डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज  (Samuel Johnson’s Dictionary of the English Language) प्रकाशित हुई. इस ने कोशकारिता को नए आयाम दिए. पहली बार अँगरेजी के बहुत सारे शब्द एक साथ एक सुनिश्चित क्रम से सामने आए. यह कोश सचमुच आधुनिक कोशकारिता का जनक है. शब्दों को अकारादि क्रम से रखा गया थाअँगरेजी के   से ज़ैड  तक. इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं. हालाँकि कई बार ये व्यक्तिगत और गुप्त कटाक्ष भी हो जाती थीं. एक उदाहरण आज भी बताया जाता है. जानसन और बौसवैल के क़िस्से प्रसिद्ध हैं. बौसवेल जानसन का अंधभक्त प्रशंसक, अनुमोदक और साथी था. जानसन इंग्लैंड में लंदन के रहने वाले थे और बौसवैल स्काटलैंड का. जब ओट्स  शब्द आया तो जानसन ने फ़िकरा जड़ दियाएक अनाज जो इंग्लैंड में घोड़ों को खिलाया जाता है और स्काटलैंड में जिस से आदमी पोषित होते हैं!

असली आधुनिक कोश आया इस के इक्यावन साल और रौबर्ट कौड्री  के दो सौ साल बाद 1806 में अमरीका से. नोहा वैबस्टर  की ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज  (Noah Webster’s A Compendious Dictionary of the English Language) प्रकाशित हुई. इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था. साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया. इस कोश का संक्षिप्त इतिहास देना मैं आवश्यक समझता हूँ. इस से कोशों का व्यवसाय आरंभ हुआ… वैबस्टर ने बीस साल लगा कर अपने कोश का संपादन और विस्तार किया. सत्तर साल की आयु में सन 1828 में उस का नया संस्करण प्रकाशित हुअमेरिकन डिक्शनरी आफ़ द इंग्लिश लैंग्वेज (American Dictionary of the English Language). इस में 70,000 मुख शब्द थे. अपने कोशों के लिए वैबस्टर ने 20 भाषाएँ सीखीं ताकि वह अँगरेजी शब्दों के उद्गम तक जा सके. आप को जान कर आश्चर्य होगा और प्रसन्नता भी कि उन भाषाओं में एक संस्कृत भी थी. तभी उस कोश में अनेक अँगरेजी शब्दों का संस्कृत उद्गम तक वर्णित है. वैबस्टर का सहायक था जोसेफ़ ऐमर्सन वूस्टर (Joseph Emerson Worcester). वह वैबस्टर का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन गया. 1829 में ही उस ने वैबस्टर के कोश का संपादित और संक्षिप्त रूप प्रकाशित कर दिया. उधर वैबस्टर अपने पुत्र विलियम जी. वैबस्टर की सहायता से अपने कोश का परिवर्धन और संपादन करता रहा. यह रिवाइज़्ड संस्करण 1840-41 में प्रकाशित हुआ. इस में कई हज़ार नए शब्द जोड़े गए थे.

भाषा की ही तरह शब्दकोश एक सामाजिक उपकरण है. यह भाषा के कोड से भी आगे बढ़ कर शब्दों में छिपे भावों को समझने की कुंजी है. कोश का निर्माण सामाजिक गतिविधि है, और सामूहिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने का साधन है. अगर कोश न हों तो बीस कोस पर या बीस साल बाद शब्द बेमानी हो जाएँगे, क्योंकि उन के अर्थ बदल चुके होंगे. तब बीस कोस उधर के या बीस साल बाद के लोगों के भावों को सटीक ढंग से समझने के लिए आदमी को हमेशा कोशों की आवश्यकता होगी. कोशों की संरचना समाज की अवश्यकताओं के अनुसार ही होती है.

आधुनिक कोशों में शब्दों को अकारादि क्रम से रखा जाता है. गद्य लेखन के इस युग में यही प्रणाली सब से सही है. पाठक को पता होता है कि कोई शब्द उसे कहाँ मिलेगा. पहले ए. ए  पूरा हो जाए तो बी  से शुरू होने वाले शब्द. आज जब हम किसी कोश के बारे में सोचते हैं तो यही क्रम हमारे मन में होता है. इसे ही हम कोशों का स्वाभाविक क्रम समझते हैं. पहले ऐसा नहीं था. तब अनेक कोश अंतिम अक्षर के क्रम से बनाए जाते थे. इस का कारण भी समाज की आवश्यकताओं में था. जब तक मुद्रण कला नहीं आई थी, पुस्तकों की प्रतिलिपि कराना बड़ा महँगा काम था. इस लिए अधिकतर ज्ञानविज्ञान के ग्रंथ भी काव्य में रचे जाते थेक्यों कि छंद याद रखना आसान है, गद्य के लंबे पैराग्राफ़ याद करना मुश्किल. छंद में तुक मिलाने के लिए लेखकों को चाहिए थे ऐसे कोश जिन में सारे शब्द तुक क्रम से लिखे गए हों, और बहुत सारे पर्यायवाची दए गए हों, ताकि छंद विधान में मात्राओं का, वज़न का ध्यान सहज हो. यही कारण है कि गद्य में लिखित निघंटु  में कुल 1,800 शब्द हैं, लेकिन 8,000 शब्दों वाला अमर कोश  काव्य ग्रंथ है. यही कारण है कि रामायण महाभारत  जैसे विशाल ग्रंथ काव्य में लिखे गए.

सादे शब्दकोश कई तरह के होते हैं. किसी भाषा के एकल कोश, जैसे हिंदी से हिंदी के कोश या अँगरेजी से अँगरेजी के. इन कोशों में एक भाषा के शब्दों के अर्थ उसी भाषा में समझाए जाते हैं. बहुत सारे कोश द्विभाषी कोश होते हैं. जैसे संस्कृत से अँगरेजी के कोश, जैसे सन 1872 में छपी सर मोनिअर मोनिअर-विलियम्स की (बारीक़ टाइप में 8.5“x11.75 आकार के तीन कालम वाले 1 हज़ार तीन सौ तैंतीस पृष्ठों की अद्वितीय संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी  या आजकल बाज़ार में मिलने वाले ढेर सारे अँगेरेजी हिंदी कोश. इन का उद्देश्य होता है एक भाषा जानने वाले को दूसरी भाषा के शब्दों का ज्ञान देना. जिस को जिस भाषा में पारंगत होना होता है या शब्दों को समझने की ज़रूरत होती है, वह ऐसे कोशों का उपयोग करता है. मोनिअर विलियम्स के ज़माने में अँगरेज भारत पर राज करने के लिए हमारी संस्कृति और भाषाओं को पूरी तरह समझना चाहते थे, इस लिए उन्हों ने ये कोश बनाए या बनवाए. आज हम अँगरेजी सीख कर सारे संसार का ज्ञान पाना चाहते हैं तो हम अँगरेजी से हिंदी के कोश बना रहे हैं.

शब्दकोश और थिसारस में अंतर

मोटे मोटे शब्दों में कहें तो कोश हमें शब्दों के अर्थ देता है. अच्छा कोश हमें शब्द का मर्म समझाता है. किसी एक शब्द के एक या एकाधिक अर्थ देता है. लेकिन ये एकाधिक शब्द कोई बहुत ज़्यादा नहीं होते. अच्छे और बड़े कोश भाषा समझने के लिए शब्दों की व्युत्पत्ति भी बताते हैं. कुछ कोश प्रिस्क्रिपटिव या निदानात्मक निदेशात्मक कहलाते हैं. वे यह भी बताते हैं कि अमुक शब्द आंचलिक है, सभ्य है या अशिष्ट. वे शब्द के उपयोग की विधि भी बताते हैं. ऐसे आधिकारिक कोश मैं ने हिंदी में नहीं देखे हैं. हिंदी कोशों में तो परिभाषाएँ भी अपूर्ण सी होती हैं. जैसे, आम  के बाद लिखा होगा एक प्रसिद्ध फल. यह कोई परिभाषा तो नहीं ही है. पर यह बात छोड़िए…. अभी तो हम कोश क्या काम करता है, इस की बात कर रहे हैं. मैं ने कहा कि कोश तो हद से हद किसी शब्द के हिज्जे बताने तक जाता है. यानी अगर हम कोश में ग़लत हिज्जों से कोई शब्द खोज रहे हैं तो वह नहीं मिलेगा.सही हिज्जों से खोजेंगे तभी मिलेगा. यह खोज भी ट्रायल ऐंड ऐरर बेसिस पर ही हम कर पाते हैं. शब्दकोश से हमें लेखन में सहायता नहीं मिलती. अनुवाद में भी उस से जो सहायता मिलती है वह आधी अधूरी होती है.

इस से बढ़ कर थिसारस हमारे मन के उन भावों को जिन के लिए हमें शब्द याद नहीं आ रहा,या उन वस्तुओं और भावों के लिए जो हमारे मन की किसी बात से संबद्ध तो हैं लेकिन जिन्हें या तो हम भूल रहे हैं या जानते तक नहीं, हमें उन की जानकारी देता है, उन के शब्द देता है. वह हमें लेखन में मदद पहुँचाता है. कोई कोई शब्द ऐसा होता है जो मैं जानता हूँ कि भाषा में है, कोश में है, मेरी ज़बान के अगले सिरे पर रखा है. लेकिन याद नहीं आ रहा, तो नहीं आ रहा. दिमाग़ परेशान हो जाता है. लाख जतन करूँ तो भी वह शब्द मैं कोश में नहीं खोज सकता, नहीं ही खोज सकता. यहाँ कोई कोश कोई सहायता नहीं करता. ऐसे अवसरों पर थिसारस, जैसे हमारा समांतर कोश, काम आता है. इस प्रकार कोश और थिसारस दोनों का क्षेत्र अलग है. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

हम एक सूत्र वाक्य में कह सकते हैं शब्दकोश शब्द को अर्थ देता है, थिसारस देता है विचार को शब्द.

मैं एक मोटा सा उदाहरण लेता हूँ. मान लीजिए मुझे रात  का कोई पर्यायवाची चाहिए, या दिन  का, या राम का, या रावण का… या मुझे समय बताने वाले किसी उपकरण का नाम चाहिए, तो क्या वह कोश में मिल सकता है? मैं जानता हूँ, और आप भी जानते हैं, कि इस दिशा में कोई भी कोश हमारी कैसी भी सहायता नहीं करता. यहाँ काम आता है थिसारस.

थिसारसकार यह मान कर चलता है कि उसे काम में लाने वाले आदमी को, जैसे भुलक्कड़ मैं या कोई और लेखक, अनुवादक, विज्ञापन लेखक, या आपहमें भाषा आती है. हम एक समाज विशेष में रहते हैं. आज के संदर्भ में हम विश्व समाज में रहते हैं. हमें भाषा तो आती है लेकिन हमें किसी संदर्भ विशेष में किसी ख़ास शब्द की तलाश है. स्पष्ट है कि ऊपर की परिस्थिति में मुझे रात  का कोई शब्द याद होगा ही. नहीं तो मुझे शाम  याद होगी, सुबह  याद होगी. या दिन  याद होगा. अब मुझे क्या करना है? बस थिसारस के अनुक्रम खंड में इन में से कोई एक शब्द खोज कर उस का पता नोट करना है. हमारे थिसारसों में क्यों कि थिसारस खंड और अनुक्रम अलग अलग जिल्दों में हैं, तो बस वह पेज खोल कर अपने सामने रखना है जहाँ वह शब्द है और उस का पता लिखा है. उस पते पर थिसारस में जा कर मुझे अगर रात याद थी, तो सारे संबद्ध शब्द मिल ही जाएँगे. अगर कोई और शब्द याद था जैसे शाम, सुबह  या दिन  तो भी मैं एक दो पन्ने आगे पीछे पलट कर वहीं पहुँच जाऊँगा जहाँ रात  के सारे शब्द लिखे हैं. ये सभी उदाहरण मैं ने अपने समांतर कोश  से लिए हैं.

पश्चिमी देश हमेशा दावा करते हैं कि कोशकारिता का आरंभ वहाँ हुआ था. वहाँ कोशों के किसी इतिहास में भारत का ज़िक्र नहीं होता. स्वयं रोजट इस भ्रम या सुखभ्रांति में थे कि उन का थिसारस संसार का पहला थिसारस है. लेकिन पुस्तक छपते छपते उन्हों ने सुना कि संस्कृत में किसी अमर सिंह ने यह काम छठी सातवीं सदी में ही कर लिया था. कहीं से अमर कोश  का कोई अँगरेजी अनुवाद उन्हों ने मँगाया और भूमिका में फ़ुटनोट में टिप्पणी कर दी कि मैं ने अभी अभी अमर कोश  देखा, बड़ी आरंभिक क़िस्म की बेतरतीब बेसिरपैर की लचर सी कृति है. काश, वह यह बात समझ पाए होते कि हर कोश की तरह अमर कोश भी अपने समसामयिक समाज के लिए बनाया गया था. इस विषय पर मेरा एक बृहद लेख संस्कृत अँगरेजी और हिंदी थिसारस : सहज समांतर समाजीय संदर्भ  भारतीय अनुवाद  परिषद के पत्रिका के अनुवाद के कोश विशेषांक  (जून 1998) में 31 पेजों में छपा था. उस की कुछ ज़ैरोक्स प्रतियाँ यहाँ रखवा दी हैं, आप चाहें तो देख सकते हैं. आप चाहें तो भारतीय अनुवाद परिषद को आर्डर दे कर उस की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवा भी सकते हैं.

समांतर कोश

ऊपर वाला लेख समांतर कोश के प्रकाशन के बाद की रचना है. वह मैं ने मूलतः अँगरेजी में लिखा थातोक्यो में थिसारसों पर हुए विश्व सेमिनार में. इस का आयोजन जापानी भाषा संस्थान की ओर से किया गया था. वहाँ हम दोनों कुसुम और मैं अतिथि थे. हम दोनों ही एकमात्र जीवित थिसारसकार थे जिन्हों ने अपने दम पर एक पूरा थिसारस बना डाला था, और उस की रचना में बीस साल लगाए थे.  उस कानफ़रेंस में मुझे प्रमुख सत्र (प्लेनेरी सेशन) का अध्यक्षभी बनाया गया था. वहीं मैं ने यह निबंध पढ़ा था.

 

 

 

 

 

 

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