सीधे आज की बात करें. शुद्धताप्रेमी भाषाविदों में आज गहरी चिंता व्याप रही है–हिंदी न्यूज़पेपर और टीवी चैनल अँगरेजी से लार्जस्केल पर वर्ड इंपोर्ट कर के हिंदी को अशुद्ध कर रहे हैं. वे इस में भाषाई ग्लोबलाइज़ेशन के ख़तरनाक़ तत्त्व पा रहे हैं. उन्हें डर है हिंदी घोर पतन की कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली… और…
बीसवीं सदी में हिंदी राजनीतिक संवाद की भाषा और जनता की पुकार बनी. पत्रकारों ने इसे माँजा, साहित्यकारों ने सँवारा. उन दिनों सभी भाषाओं के अख़बारों में तार द्वारा और टैलिप्रिंटर पर दुनिया भर के समाचार अँगरेजी में आते थे. इन में होती थी एक नए, और कई बार अपरिचित, विश्व की अनजान अनोखी तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक शब्दावली जिस का अनुवाद तत्काल किया जाना होता था ताकि सुबह सबेरे पाठकों तक पहुँच सके. कई दशक तक हज़ारों अनाम पत्रकारों ने इस चुनौती को झेला और हिंदी की शब्द संपदा को नया रंगरूप देने का महान काम कर दिखाया. पत्रकारों ने ही हिंदी की वर्तनी को एकरूप करने के प्रयास किए. तीसादि दशक में फ़िल्मों को आवाज़ मिली. बोलपट या टाकी मूवी का युग शुरू हुआ. अब फ़िल्मों ने हिंदी को देश के कोने कोने में और देश के बाहर भी फैलाया. संसार भर में भारतीयों को जोड़े रखने का काम बीसवीं सदी में सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, पत्रकारों, साहित्यकारों और फ़िल्मकारों ने बड़ी ख़ूबी से किया…
दुनिया भर में फैले हिंदी वाले सारे संसार से नई जानकारी और नई शब्दावली से इसे समृद्ध कर रहे हैं. हिंदी की सब से बड़ी शक्ति रही है कि हर सभ्यता और संस्कृति से विचार और शब्द अपने में समोती रहे. आज यह काम बड़े पैमाने पर हो रहा है. क्योंकि जीवंत समाज और भाषा बदलते रहते हैं. हिंदुस्तान बहुत बदला है, बदल रहा है. हिंदी बदली है, बदल रही है, बदलेगी. मैं समझता हूँ न बदलना संभव नहीं है. न बदलेगी तो इस की गिनती संस्कृत जैसी मृत भाषाओं में होगी, जिस से विद्रोह कर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना ”भाषा” में की. मैं संस्कृत भाषा की समृद्धता के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहा हूँ. संस्कृत न होती तो हमारी हिंदी भी न होती. हमारे अधिकतर शब्द वहीं से आए हैं, कभी तत्सम रूप में, तो कभी तद्भव रूप में. संस्कृत से आए शब्दों की हमारी एक बिल्कुल नई कोटि भी है. हमारे बनाए संस्कृत जैसे अनगिनत शब्द हैं जो प्राचीन संस्कृत भाषा और साहित्य में नहीं हैं. यदि हैं तो भिन्न अर्थों में हैं. इन नए शब्दों का आधार तो संस्कृत है पर इन की रचना बिल्कुल नए भावों को प्रकट करने के लिए की गई है. इन्हें संस्कृत शब्द कहना ग़लत होगा. ये आज की हिंदी की पहचान बन गए हैं. उदाहरण के लिए अंगरेजी के कोऐग्ज़िटैंस का हिंदी अनुवाद सहअस्तित्व. यह किसी भी प्रकार संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत में इसे सहास्तित्व लिखा जाता. इस शब्द के पीछे जो भाव है वह भी संस्कृत में इस विशिष्ट संदर्भ में नहीं मिलेगा.
हिदी लगातार बढ़ती रही है तो इस लिए कि वह पिछली दस सदियों से अपने आप को हर बदलते समय के साँचे में ढालती रही, नए समाज की नई ज़रूरतों के अनुसार नई शब्दावली बना कर या उधार ले कर समृद्ध होती रही है. यह प्रक्रिया पिछले दो सौ साल से, सच कहें तो दो सौ नहीं, बल्कि लगभग सौ साल से शुरू हुई–जब से हिंदी को आज़ादी की लड़ाई का हथियार बनी, और इस में आधुनिक पत्रकारिता शुरू हुई. पराड़कर जी जैसे पत्रकारों ने इसे निश्चित आकार देना शुरू किया और पंडिताऊपन से दूर नई हिंदी को बढ़ाया. शिक्षादीक्षा और अंतरराष्ट्रीय शैलियों से प्रभावित साहित्यकारों ने इस में रंग भर कर सजाया संवारा सजाया. आजादी के बाद नए से नए सृजन आंदोलनों से यह समृद्ध हुई, सजीव बहसों से गुज़री. तब से हिंदी ने एक के बाद एक से बढ़ कर एक रुझान देखे हैं.
सीधे आज की बात करें. शुद्धताप्रेमी भाषाविदों में आज गहरी चिंता व्याप रही है–हिंदी न्यूज़पेपर और टीवी चैनल अँगरेजी से लार्जस्केल पर वर्ड इंपोर्ट कर के हिंदी को अशुद्ध कर रहे हैं. वे इस में भाषाई ग्लोबलाइज़ेशन के ख़तरनाक़ तत्त्व पा रहे हैं. उन्हें डर है हिंदी घोर पतन की कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली… और…
हिंदी का तीव्र विकास
जो भी हो पिठले सौ सालों में हिंदी में जो तीव्र विकास हुआ है, एक आधुनिक संपन्न भाषा उभर कर आई है, वह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है. लैटिन से आक्रांत इंग्लैंड में अँगरेजी को जहाँ तक पहुँचने में पाँच सौ से ऊपर साल लगे, वहाँ तक पहुँचने में हिंदी को मेरी राय में कुल मिला कर डेढ़ सौ साल लगेंगे–2050 तक वह संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी– सिवाए एक बात के. वह यह कि आज अँगरेजी संसार में संपर्क की प्रमुख भाषा है. इस स्थान तक हिंदी शायद कभी न पहुँचे, या पहुँचे तो तब जब भारत दुनिया का सर्वप्रमुख देश बन पाएगा. दुरदिल्ली! संख्या की दृष्टि से हिंदी बोलने वाले आज दुनिया में चौथे स्थान पर हैं. वे धरती के हर कोने में मिलते हैं. कई देशों में वे इनफ़ौर्मेशन तकनीक में मार्गदर्शक ही नहीं नेता का काम कर रहे हैं, जब कि भारत में यह तकनीक काफ़ी बाद में पहुँची. इस सब के पीछे है वह आंतरिक ऊर्जा जो हर भारतवासी के मन में है. वह ललक जो हमें किसी से पीछे न रहने के लिए उकसाती है. अँगरेजी राज के दौरान भी यह भावना हम में सजग थी. कुछ सत्ता सुख भोगी या सत्ताश्रित वर्गों के अलावा आम आदमी ने विदेशी राज को कभी स्वीकार नहीं किया.
लेकिन इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रकार और स्तर पर अंतरसांस्कृतिक संपर्क परिवर्तन और विकास का प्रेरक रहा है. भारत के आधुनिकीककरण के पीछे अँगरेजी शासन और यूरोपीय संस्कृतियों से संपर्क के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. राजा राम मोहन राय के ज़माने से ही समाज को बदलने की मुहिम भीतर तक व्यापने को उतावली हो गई थी. सुधारों के सतही विरोध के बावजूद ऊपरी तौर पर दक़ियानूसी दिखाई देने वाले लोग भी एक अनदेखी सांस्कृतिक प्रणाली से साबक़ा पड़ने पर मन ही मन अपने को बदलाव के लिए तैयार कर रहे थे. ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे आंदोलन यूरोप, सत्ता द्वारा प्रचारित ईसाइयत और विदेशी शासन कं ख़िलाफ़ और अपने आप को उस से बेहतर साबित करने के तेजी से लोकप्रिय होते तरीक़े थे. इंग्लिश थोप कर भारतीयों को देसी अँगरेज बनाने की मैकाले की नीति उलटी पड़ चुकी थी. वह केवल कुछ काले साहब बना पाई, आम जनता जिन का मज़ाक़ उड़ाती रही. मैकाल की मनोकल्पना के विपरीत अँगरेजी शिक्षा ने विरोधी विचारकों और नेताओं की एक पूरी फ़ौज ज़रूर तैयार कर दी जो यूरोप में प्रचलित नवीनतम बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को समझ कर अँगेरजी शासन के ख़िलाफ़ जन जागरण का बिगुल फूँकने लगे. इस परिप्रेक्ष्य में कई बार विचार जागता है कि अगर मैकाले न होता, उस ने अँगरेजी न थोपी होती, तो क्या हमारा देश आज भी अफ़गानिस्तान ईरान और अनेक अरब देशों जैसा मध्यकाल में रहने वाला देश न रह जाता!
ख़ुशी की बात यह है कि अब हिंदी पंडिताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है, और रघुबीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. पत्रकार अब हर अँगरेजी शब्द का अनुवाद करने की मुसीबत से छूट चुके हैं. वे एक जीवंत हिंदी की रचना में लगे हैं. आतंकवादी के स्थान पर अब वे आतंकी जैसे छोटे और सार्थक शब्द बनाने लगे हैं. उन्हों ने बिल्कुल व्याकरण असंगत शब्द चयनित गढ़ा है, लेकिन वह पूरी तरह काम दे रहा है. आरोप लगानेै वाले आरोपी का प्रयोग वे आरोपित व्यक्ति के लिए कर रहे हैं. अगर पाठक उन का मतलब सही समझ लेता है, यह भी क्षम्य माना जा सकता है. तकनीकी शब्दों या चीज़ों या नई प्रवृत्तियों के नामों के अनुवाद में सब से बड़ी समस्या एकरूपता की होती है. कोई रेडियो को दूरवाणी लिखेगा, कोई आकाश वाणी, कोई नभवाणी, तो कोई विकीर्ण ध्वनि… मेरी राय में नए अन्वेषणों का अनुवाद अनुपयुक्त प्रथा है. स्पूतनिक का अनुवाद नहीं किया जा सकता. गाँधी चरखे या अंबर चरख़े को अँगरेजी में इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. इंग्लैंड में आविष्कृत कताई मशीन स्पिनिंग जैनी को हिंदी में कतनी छोकरी नहीं कहा जा सकता. ख़ुशी है कि रेलगाड़ी को लौहपथगामिनी लिखने वाले अब नहीं बचे.
नई जीवन शैली जीने वाली नई पीढ़ी की जीवंत भाषा
दैनिक पत्रों के मुक़ाबले टीवी की तात्कालिकता निपट तात्कालिक होती है, विशेषकर समाचार टीवी में. यह तात्कालिकता ही हमारी भाषा के नए सबल साँचे में ढलने की गारंटी है. नई भाषा की एक ख़ूबी है कि वह नई जीवन शैली जीने को उत्सुक नवयुवा पीढ़ी की भाषा है. यह पीढ़ी 1947 के भारत की हमारी जैसी पीढ़ी नहीं है. पर मुझ जैसे अनेक लोग हैं जो इस बदलाव के साथ बदलते आए हैं और बदलते ज़माने के साथ बदलते रहे हैं औ अपने आप को उस के निकट पाते हैं.
मैं नहीं समझता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा दरिद्र होती गई है. मैं तो कहूँगा कि वह हर दिन समृद्ध हो रही है. नए ज़माने के नए शब्द बेहिचक, बेखटके, बेधड़क, निश्शंक, पूरे साहस के साथ ला रही है. 20 जुलाई के हिंदुस्तान और 23 जुलाई के दैनिक जागरण (दोनों नई दिल्ली) से कुछ शब्द देता हूँ: हॉॅट शॉट, बॉलीवुड, ट्रेलर, चैनल, किरदार, समलैंगिक…, एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति), दिल्ली विवि (विश्वविद्यालय), रजिस्ट्रार, फ़्लाईओवर, स्टेडियम, पासवर्ड, इनफ़ोटेनमैंट, सब्स्क्राइबर, नैटवर्किंग, डयारैक्ट टु होम (डीटीएच). सेंट्रल लाइब्रेरी, ओपन स्कूल, हाईवे, इन्वेस्टमैंट मूड, प्रॉपर्टी, लिविंग स्टाइल, लोकेशन, शॉपिंग सेंटर… आज अँगरेजी अँगरेजी इस लिए है कि उस ने दुनिया भर के शब्द अपने में समेटे. आप को आश्चर्य होगा कि अँगरेजी में अधिकतर तारों के नाम अरबी से लिए गए हैं. हिंदी के शब्दों की उस में भरमार है. यही ख़ूबी हमारी हिंदी की भी है. पिछली सदियों में हम ने हर भाषा से शब्द लिए, अब बढ़ते विश्व संपर्क के कारण और यकायक तकनीकी विस्फोट के कारण यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो गई हैं.
स्वाभाविक है कि कुछ इसे महापतन मानेंगे. पर यही आज की बोलचाल की भाषा है. यह कोई नई बात नहीं है. पुरानी पीढ़ी नई के तौर तरीक़ों से नाख़ुश रही है. हम लोग पिछले कई दशकों से रघुवीरी प्रभाव से आक्रांत रहे हैं. डाक्टर रघुवीर ने तकनीकी शब्दावली जो प्रणाली सामने रखी, उस के आधार पर अनेक समितियों ने हिंदी में नई शब्दावली देने का (सच कहें तो गढ़ने का) भागीरथ प्रयास किया है. उन्हों ने जो शब्द दिए, मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है. हमारे सामने रातोरात अँगरेजी की समृद्ध तकनीकी शब्दावली कि निकट पहुँचने की चुनौती थी. अँगरेजी को यह शब्दावली विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ साथ मिली थी. हमारे पास सदियों तक इंतज़ार करने की सुविधा नहीं थी. इस लिए वह सब भी ज़रूरी था.
भाषा विद्वान नहीं बनाते
लेकिन यह भी सच है कि भाषा विद्वान नहीं बनाते, भाषा बनाते हैं भाषा का उपयोग करने वाले… आम आदमी, मिस्तरी, करख़नदार या फिर लिखने वाले. घुड़चढ़ी शब्द विद्वान नहीं बना सकते, न ही वे मुँहनोंचवा बना सकते हैं. कार मेकेनिकों ने अपने शब्द बनाए हैं, पहलवानों ने कुश्ती की जो शब्दावली बनाई है (कुछ उदाहरण: मरोड़ी कुंदा, मलाई घिस्सा, भीतरली टाँग, बैठी जनेऊ) वह कोई भी भाषा आयोग नहीं बना सकता था. विद्वानों का काम होता है भाषा का अध्ययन, विश्लेषण…
आज देश के साथ साथ हिंदी पत्रकारिता एक नए मोड़ पर खड़ी है.
एक पाठक का पत्र: दैनिक भास्कर 26 मार्च 2007
हिंदी का महत्व
-सुशील जिंदल भोपाल:
"यह ख़ुशी की बात है कि नई सदी में लोग हिंदी का महत्व समझने लगे हैं. यही कारण है कि दिनोंदिन हिंदी के पाठकों की संख्या में वृद्धि हो रही है. ऐसा होना ही चाहिए क्योंकि अपनी भाषा में कोई भी बात ज़्यादा गहराई और सूक्ष्मता से अर्थ प्रदान करती है. हिंदी के सर्वे तो यही कह रहे हैं कि इस की लोकप्रियता को प्रचार की ज़रूरत नहीं है. यह अपने आप आगे बढ़ रही है. अँगरेजी भाषा क्योंकि तकनीकी है और रोज़गार में फ़ायदेमंद है, इसलिए विश्व में स्थान रखती है."
पेश हैं कुछ ही दिनों के हिंदी न्यूज़ पेपरों से कुछ नमूने
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मुलायम को ईसी का नोटिस
चंडीगढ़ में यूटी काडर का राज
रेल टिकट में एडवांस बुकिंग का घपला
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सेना के अस्पतालों पर क्राइम ब्रांच की नज़र
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पति पत्नी और लैपटौप
सुपर पावर बनने से भारत की साख बढ़ी
दिल्ली डायरी
क्रेडिट कार्ड का सही इस्तेमाल करने के नुस्खे
कैरियर समाचार
Test your ability
Mind your language
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पर्सनैैलिटी डेवलंपमैंट — भावनाओं को व्यक्त करने की शक्ति शक्ति
दैनिक भास्कर WORLD CUP License to Thriil 007
वर्जन – टू क्रिकेट ट्वेंटी-20 क्रिकेट
र्बड्स आई डिजाइन (रेमंड)
अमर उजाला
क्या फ़िक्स था भारत बांग्ला देश मैच
जनता जानेगी प्रत्याशी की क्राइम हिस्टरी
गेम सो पर भारी रकम र्ख़च कर भी
गेटमैन की मौत
अक्षरों की धुन पर खेल रहा है इंडिया (अंताक्षरी)
हरियाणा पुलिस की टीम ने पाया…
हेल्पलाइन
क्रेडिट कार्ड से मेडिक्ल्म का भुगतान
पाक में (मुख्य न्यायाधीश) के सस्पेंशन पर टेंशन
बनिए डिटेक्टिव
अमर उजाला कैरियर plus 21 मार्च 2007
Quote from Gandhi
Freedom is not worth having it if it does not include the freedom to make mistakes
Turning Point
guidance
बीवीएससी में स्कोप (बैचलर आफ़ वेटरिनरी साइंस)
Interview problem
Fellow Programme in Mangement
Make English your cup of tea:
Difference Between Horrible, Horrific
इग्नू के सरल डेवलपमैंट कोर्सेज
हिंदुस्तान शोटाइम बौलीवुड डायरी
क्या हम कूपमंडूक मानसिकता से जकड़े रहेंगे?
आज जब न्यू यार्क में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा तब भी क्या हम उसी कूपमंडूक मानसिकता से जकड़े रहेंगे? और टनल विज़न से लंबी चौड़ी दुनिया को देखते आँकते रहेंगे? हाथी के एक पाँव या सूंड को पूरा हाथी समझते रहेंगे? अब भी समझेंगे कि सन 47 से पहले के हिंदुस्तान के बाशिंदे हैं जो अंगरेजी विरोध को आज़ादी की लड़ाई का नारा बना रहे थे, और हिंदु सुस्लिम नज़रिए से उर्दू को भी शौसकों द्वारा लादी भाषा समझने की ग़लती करते रहेंगे? हम यह कब समझेंगे कि आज हिंदुस्तान वह नहीं रहा जो हिंदी के वयोवृद्ध नेताओं और अलमबरदारों को याद है. वे अभी तक उस दास मानसिकता से ग्रस्त हैं जो आज़ादी से पहले थी. यह वह डिसकनक्ट है जो 1947 से नेता और जनता के बीच बढ़ता जा रहा है. साठादि दशक में भी वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के नाम पर उग्र हिंदी आंदोलन चला रहे थे. जुलूस निकाल रहे थे, कुछ समर्थकों को ले कर दंगे भड़का रह थे. अँगरेजी का अंधा विरोध कर रहे थे, रोमन लिपि में लिखे स्थान नामों को इंग्लिश कह कर काला पोत रहे थे. तब भी नेता पीछे थे, जनता आगे थी. जनता, जनता ही क्यों नेताओं की संतान भी, अँगरजी पढ़ने सीखने को उतावली थी. कई बार लगता है कि हमारे नेताओं को पुराने नारों से चिपके रहने की आदत पड़ गई है. ज़मीनी परिवर्तन को समझने में वे कम से कम दो तीन दशक लगाते हें.
आज का हिंदुस्तान 15 अगस्त 1947 से पहले का बूढ़ा ग़ुलाम हिंदुस्तान नहीं है. आज का नौजवान हिंदुस्तानी संख्या में कुल आबादी का सब से बड़ा हिस्सा है. कम पढ़ालिखा कारीगर हो या बड़े शहरों में नए उभरे संपन्न अँगरेजी पढ़ा लिखा बीपीओ में काम करने वाला लड़का लड़की हो, किसी इंटरनेशनल कंपनी में मैनेजर हो या किसी भी छोटे बड़े गाँव कस्बे शहर के व्यापारी का बेटा बेटी हो, नौजवान बदल हया है. उस की जीवन शैली अब लाइफ़ स्टाइल बदल गई है. उस की ज़रूरतें बदल गई है. वह क्या खाता पीता है, पहनता है. कैसी फ़िल्में देखता है–सब कुछ बदल गया है. जेब में मोबाइल है, रेस्ताराओं में, फ़ास्ट फ़ूड बूथों में, मालों में मौज मस्ती उस की तमन्ना है या शौक है. उसकी सवारी बदल गई है. चालढाल बदल गई है. बोली बदल गई है.
आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
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