२० जून २००७
वाक् पत्रिका का प्रवेशांक पढ़ कर संपादक सुधीश को लिखा पत्र
ये सब सभी पुराने लेखकों पर चाहे वे तुलसीदास हों या कालीदास या मिल्टन या दाँते या प्लेटो या सुकरात सब को एक ही डंडे से हाँकने की कोशिश करते हैं। अब उन बेचारे पुराने लेखकों में से यह तो किसी का भी दोष नहीं है कि वे अपने समय में पैदा हुए, और सभी नए वादविवादों से अनभिज्ञ थे।
प्रिय सुधीश जी,
वाक् के प्रवेशांक को मिली अभूतपूर्व सफलता के लिए बधाई। आप का पहला संस्करण मैं देख नहीं पाया। देरी से मुझे उस का रीप्रिंट मिला। वह न मिल पाता तो मैं वाक् के अद्वितीय प्रवेशांक से वंचित रह जाता, और पता भी नहीं चलता कि मैं कितनी बड़ी संपदा से वंचित रह गया। आप जानते हैं पिछले कई सालों से मैं सक्रिय पठन पाठन और लेखन से स्वनिर्मित अज्ञातवास या कटाव में था, अँधरेी कोठरी में समझिए, या कहिए शब्दों के वनों उपवनों में सपत्नीक विरम रहा था। कभी कुछ पढ़ने का समय ही नहीं मिला।
निजी तौर पर मेरे लिए यह ऐसा समय है जब मैं हिंदी जगत से अपने अज्ञातवास के तीस पैंतीस सालों से निकल एक बार फिर पठन पाठन शुरू कर रहा हूँ। लिखना… वह कभी बाद में देख पाऊँगा। अभी तो बदली हिंदी का आनंद ले रहा हूँ। पचास साल पहले के साहित्यिक आंदोलनों के प्रणेता अब महागुरु बन चुके हैं, और मुग्ध शिष्य समुदायों पर आत्ममुग्धतापूर्ण प्रवचनों की बौछार लगा रहे हैं। साथ साथ एक नई सोच और स्वतंत्र चेतना अपने साथ पूरी नई सेना ले कर सामने आ रही है।
ऐसे में मुझे आप की वाक्, साहित्य अकादेमी की समकालीन भारतीय साहित्य और गौरीनाथ की बया के अंक देखने का सुअवसर मिला। इन सालों में हिंदी में जो बदलाव आए हैं और जो नई प्रतिभाएँ उभर रही हैं उन से रुबरु होने का मौक़ा मिला। समकालीन भारतीय साहित्य तो पुरानी पत्रिका है लेकिन बया और वाक् के ये दोनों प्रवेशांक थे। दोनों ही प्रशंसनीय हैं। जब मैंने वाक् खोला तो आप विश्वास नहीं करेंगे, उस के संपादकीय से ले कर अंतिम रचना ज़मीं खा गई आसमा कैसे कैसे तक ठोस सामग्री के २०८ पन्नों का लगभग एक एक शब्द मैं चाटता चला गया। मुझे एक ऐसी आलोचना पत्रिका मिली जो हर तरह की पक्षधरताओं और दुराग्रहों से मुक्त थी। जो अपने हर विषय को हर दृष्टि से देखने और परखने के लिए अपने पन्ने पेश कर रही थी। सब से बड़ी विशेषता कहें या इस अंक का मुख्य विषय, मुख्य भाग, गोस्वामी तुलसीदास को अनेक कोणों से देखने की सुंदर कोशिश है। हर विचारधारा के दिग्गज विशेषज्ञों से आप ने लिखवाया है।
भूपेश्वर सिंह ने जो कहा है कि कितने आश्चर्य की बात है कि तुलसीदास जैसे महानतम कवि पर साहित्यक आलोचना की एक भी अच्छी और संपूर्ण पुस्तक नहीं है वह कमी वाक् के प्रवेशांक ने एक हद तक पूरी कर दी है। जहाँ तक रामचरितमानस के पाठ के विस्तृत शब्दानुशब्द अध्ययन और व्याख्या का सवाल है मेरे पास मानस का एक पुराना, अब दुर्लभ, आठ भागों वाला संस्करण है। उस में एक एक दोहे और चौपाई पर अनेक विद्वानों द्वारा किए गए अर्थ एकत्रित हैं।
सब को एक डंडे से हाँकने की कोशिश
मैं जो असल बात कहना चाहता हूँ वह इस से थोड़ा हट कर है। आज से नहीं पिछले पचास साठ सालों से आलोचना खेमेबंदियों में बँट गई है। कोई मार्क्सावादी है, कोई आधुनिकतावादी, कोई उत्तरआधुनिकतावादी, और बहुत सारे सशक्त दलित साहित्य से जड़े और दलित विमर्श में संलग्न हैं, तो नारी विमर्शक भी कम नहीं हैं। ये सब हर पुराने लेखकों पर चाहे वे तुलसीदास हों या कालीदास या मिल्टन या दाँते या प्लेटो या सुकरात सब को एक ही डंडे से हाँकने की कोशिश करते हैं। अब उन में से किसी का भी दोष नहीं है कि वे अपने समय में पैदा हुए, और सभी नए वादविवादों से अनभिज्ञ थे। वे मार्क्स से सदियों पहले हुए और उन्हों ने मार्क्सवाद का पालन या समर्थन नहीं किया, तो इस के ख़तावार वे तो नहीं ही हैं। रचनाकार अपने देश और काल में रचना करता है। वह हर साधारण मनुष्य की तरह होता है जो अपने सामाजिक परिवेश की जंज़ीरों में जकड़ा पैदा होता है। उन में सहज भाव से जीता है या छटपटाता है, या जंज़ीरें तोड़ता है और समाज को बदलता है। लेकिन यह बदलाव उतना ही हो सकता है जितना उस परिवेश में संभव था। माक्र्सवाद हो या गांधीवाद या अंबेडकारवाद या कोई और वाद– ये भी अपने काल की सीमाओं से बँधे होते हैं। और केवल एक सीमा तक ही आगे देख सकते हैं। माक्र्स उत्तर मध्यकालीन यूरोपीय औद्योगिक क्रांति से बनते नए पूंजीतंत्र से आगे नहीं देख पाए। उन के दिमाग में समाज के केवल चार वर्ग ही हो सकते थे। यह कुछ ऐसा ही है जैसे ब्राह्मणों द्वारा सृष्ट विधान में चार वर्ण ही हो सकते थे। यह अलग बात है कि दोनों ही अपने वर्गीकरण में अपर्याप्त और असफल रहे। माक्र्स ने दास कापिटल में मूल सिद्धांत प्रतिपादित किया था — उत्पादन के साधनों में परिवर्तन के साथ साथ समाज में व्यवस्था के रूप बदलते हैं। लेकिन जब उन्हों ने ऐंजेल्स के साथ मैनिफ़ेस्टो की रचना की तो उत्पादन साधनों में नए गुणात्मक परिवर्तनों के अभाव में भी श्रमिक क्रांति की और नए साम्यवादी समाज के आविर्भाव की कल्पना कर ली! यह एक यूटोपिया ही कहा जा सकता है। उन के अनुसार यह क्रांति सर्वाधिक औद्योगिक देश इंग्लैंड में होनी चाहिए थी–हुई पिछड़े सामंती रूस में…. माक्र्स सपने में भी दूसरी और तीसरी औद्योगिक क्रांतियों की कल्पना नहीं कर सकते थे, और सूचना क्रांति की बात सोच पाना तो तब पूरी तरह अकल्पित थी… यह थी उन के देश काल की सीमा, वहाँ से वे इथना आगे की बात सोच ही नहीं सकते थे।
लेकिन जो अनेक आंदोलनों के, विचारों के प्राचीन महान और मेधावी नेता थे, उन के सामान्य अंध अनुयायी उन के द्वारा प्रतिपादित जीवन सत्यों से अलग सत्य स्वीकार करने को अब भी तैयार नहीं होते। किसी भी माक्र्सवादी के लिए शैेक्सपीयर स्वीकार्य शिरोधार्य हो सकता है क्योंकि माक्र्स ने उस की प्रशंसा की थी। गोएथे नहीं। वेद व्यास नहीं, वाल्मीकि नहीं, और तुलसीदास… राम भजो जी! हाँ, रामविलास जैसे भी हैं, लेकिन कितने? आलोचक का काम यह देखना होना चाहिए कि कोई ऐतिहास लेखक अपने देश और काल में जितना उदार हो सकता था उतना हुआ या नहीं।
इसी बात का एक पहलू दूसरे कोण से भी है। जनता का कोण, आम आदमी का नजरिया। आम आदमी को विद्वानों की वही बातें स्वीकार्य होती हैं, उन्हों से वास्ता और उन्हीं से काम होता है जिन का उस के ठोस धैनिक सामाजिक जीवन से मतलब होता है। जिस की जो बात जितनी उसे पसंद आती है वह उतनी ही उसे स्वीकार करता है।
हम तुलसी को देखते हैं तो राम को भी देखते हैं
अब मैं अपने को तुलसीदास तक सीमित करता हूँ। कोई तुलसीदास को राम से काट नहीं सकता। हम तुलसी को देखते हैं तो राम को भी देखते हैं। सदियों से राम और सीता की कहानी हजारों बार बदली गई है। उत्तर भारत में इस के जो दो सब से बड़े रूप मान्य हैं वे हैं वाल्मीकि और तुलसी। विद्वानों की बात छोड़ दें तो आम आदमी वाल्मीकि को आदिकवि के रू प में जानता और मानता है। कुछ लोगों ने वाल्मीकि को अंत्यजों के गौरव का प्रतीक भी मान लिया है। यह ग्ग़लत भी नहीं है। लेकिन बात यह है आम आदमी के लिए वाल्मीकि और तुलसी की रामकथाओं में कोई अंतर नहीं है। मुझ जैसे लोग वाल्मीकि के आधार पर सीता के निष्कासन आदि पर राम का अंतर्द्वंद्व या सीता की अंतर्ज्वाला लिखते रहें या हिंदुत्ववादी नेता सीता की अग्नि परीक्षा को ढाँपने का कितना प्रयत्न करते रहें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आम आदमी यह मानने को तैयार नहीं है कि राम कुछ ग़लत कर सकता था। तुलसी ने राम को जिस रूप में पेश किया है वह लगभग वही है जो आज आम आदमी का सपना है।
राम दरबार में सिंहासनरूढ़ राम और सीता के पास खड़े तीनों भाई और नीचे चरणवंदना करते हनुमान के चित्र को मैं अर्द्धसत्य कहता रहा हूँ। वाल्मीकि के अनुसार सीता राजगद्दी पर कितनी देर बैठी, शायद एक बार या कुछ महीने। बाद में तो वह निर्वासित कर दी गई। लेकिन आम आदमी सीता का इस तरह निष्कासन हुआ था यह मानने को तैयार नहीं है, वह नहीं चाहता कि ऐसा हो या ऐसा हुआ होगा। वह इस यथार्थ को असत्य मान कर राम दरबार के बहुप्रचलित चित्र को ही सही मानता है । यह आकांक्षा का, स्वप्न का सत्य या वह यूटोपिया है जो तुलसीदास ने पेश किया।
यही नहीं, तुलसीदास ने वाल्मीकि के राम को कई जगह बदला है और बार बार बदला है, सोच समझ कर बदला है। वाल्मीकि के लिए राम एक कथा पात्र था, तुलसी के लिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम। वाल्मीकि का राम युवराज अवस्था में सुबह का समय यारों दोस्तों के साथ, मित्र मंडली के साथ या मुग़लिया ज़बान में कहें तो मुसाहिबों के साथ हँसता खेलता मनोरंजन करता है। तुलसी का राम सुबह उठ कर पहले मातापिता के पैर छूता है, फिर लक्ष्ममण के साथ मिल कर अयोध्या का नगरकाज देखता है। लेकिन यह तुलसीदास द्वारा किए गए सूक्ष्म परिवर्तनों को दर्शाता है। युवराज बनाए जाने की घोषणा के बाद जब सुमंत उत्सवों की योजना के बारे में विचार विमर्श करने के लिए आ रहे होते हैं तो वाल्मीकि का राम खिड़की से आते सुमंत को देख कर आशंकित हो उठता है कि कहीं पिताजी ने इरादा तो नहीं बदल दिया! तुलसी में ऐसी कोई संभावना नहीं है। तो यह है कुछ छोटे से उदाहरण जो वाल्मीकि और तुलसी के मूल उद्देश्यों की ओर इशारा करते हैं। राम के चरित्र चित्रण में ये ऐसे परिवर्तन हैं जिन पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया।
ठीक है तुलसीदास ने बहुत सारी बातें लिखी हैं जो आज के युग में नहीं चल सकतीं, उस युग में भी होनी नहीं चाहिए थीं। सच यह है कि वे थीं। और मानिए कि आम आदमी इन को रीजैक्ट कर चुका है। ढोल गँवार शुद्र पशु नारी चौपाई बोल कर इन सब के साथ दुर्व्यवहार करने वाले लोग अब भी गाँवों में मिल जाएँगे। लेकिन समाज के संयुक्त प्रयासों से उन की संख्या कम होती जा रही है। आम आदमी तो असल में मानस को सिर्फ धार्मिक कथा के तौर पर सुनता है। चौबीस घंटों में अखंड पाठ हो जाता है। कथावाचक और कथाश्रोता दोनों ही जैसे किसी अज्ञात भाषा को सुन रहे हों और पूरी बात उन के सिर से गुजर जाती है। बीच बीच में बडे उत्साह से भाव विभोर हो कर बोलो श्री राम की जय और कुछ चौपाइयों को कीर्तन के रूप में गाया भर जाता है। असली बुलावा धर्म कर्म का होता है, और आकर्षण होता कथावाचक को चढ़ावे का, श्रोताओं का प्रसाद का… यह सब एक क्लब जैसा बन जाता है….
जनता नज़रअंदाज कर के मारती है
तो यह है जनता का सत्य। जनता किसी विचार धारा को नजरअंदाज कर के मारती है।
कितने मुसलमान हैं जो क़ुरान पर हूबहू चलते हैं। कितने मुल्ला मौलवी हैं जो बीड़ी सिगरेट को हाथ नहीं लगाते। हालाँकि हजरत मोहम्मद का चित्र मिस्र में प्रचलित है, अन्य इस्लामी देशों में वह हराम है। इस्लाम में जीवित प्राणियों की तस्वीरें पूरी तरह वर्जित हैं। इनसान तो क्या पशुपिक्षयों के चित्र भी नहीं बनाए जा सकते। लेकिन इस्लाम के कट्टर उग्र सिपहसालार ओसामा बिन लादेन अपनी तस्वीरें और वीडियो शौक़ से बनवाते और प्रचारित करते हैं। इसी तरह कितने आर्यसमाजी हैं जो सत्यार्थ प्रकाश का हूबहू पालन करते हैं। कितने हैं जिन्होंने स्वामी जी के बनाए हुए विवाह योग्य उम्र के आदेशों का पालन किया है। कितने निस्संतान पुरुषों ने नियोग प्रथा से संतान लाभ के लिए सार्वजनिक या गुप्त आयोजन किए हैं। फिर भी वे दिन रात दयानंद दयानंद रटते रहते हैं। इसी तरह कितने लोग हैं जो तुलसीदास की हर बात पर चलते हैं? उन के लिए तो राम राज्य ऐसे स्वर्ग की कल्पना है जहाँ सब लोग मेहनत करेंगे और मेहनत का उचित फल पाएँगे। रोग और व्याधियाँ उन से दूर रहेंगी। (जब कि कहा गया है कि नया स्वर्णयुग या सत्ययुग कलिकाल के बाद ही आ सकता है।) तुलसी ने वर्णों को जीवन का आदर्श रूप बताया है, लेकनि वे सब सामंजस्यपूर्वक रहते हैं। आज हालत यह कि तुलसी के पुजारी तमाम बनिए ब्राह्मण सफ़ाई विभाग में काम करने के कारण शुद्र हो चुके हैं। कितनों की जूते की दुकानें हैं। कितने बनिए गोचर्म का निर्यात कर रहे हैं!
तुलसी पर आप ने जो छापा है मैं उस के एक एक लेख के ब्योरे में नहीं जाना चाहता। मुझे डाक्टर धर्मवीर का लेख तुलसी की याद आना बहुत पंसद आया। सब से अच्छे लेखों में विनय पत्रिका पर परमानंद श्रीवास्तव और रामस्वरूप शर्मा अपनी बात कहने में पूरी तरह सफल रहे। शायद यही तुलसी असली तुलसी है। लेकिन विनय पत्रिका को बिल्कुल ही एक नए रंग और रूप में ढाला है अनामिका ने डासत ही बीत गई निसा सब में। उन्हों ने तुलसी के आत्मसंकट को इतनी खूबी से पिरत्यक्ता रत्ना पर स्थानांतरित कर के और रत्ना को सीता से जोड़ कर तमाम विद्ववत्तापूर्ण आलोचनाओं को जो दिल दिया है वह इस अंक की सब से मर्मस्पर्शी उपलब्धि है।
अंत में मैं इतना ही कहूँगा कि काश समालोचक विद्ववत्ता के दंभ और बौद्धिक कसरतों से ऊपर उठ कर या उलटे तरीक़े से कहें तो नीचे अंतराल में पैठ कर दिल से भी कुछ काम लिया करें।
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आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
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