003 पूर्वपीठिका

In Memoirs, ShabdaVedh by Arvind KumarLeave a Comment

(शब्दवेध से)

- वह सुबह - 27 दिसंबर 1973. मुंबई की मालाबार हिल पर हैंगिंग गार्डन. मैँ ने कुसुम को बताया अपना एक पुराना सपना: हिंदी मेँ किसी थिसारस का सपना. फ़्लैशबैक मेँ हम 1953 मेँ पहुँच जाते हैँ जब मैँ ने दिल्ली मेँ 23 वर्ष की उम्र मेँ चाहा था कि हिंदी मेँ भी थिसारस होना चाहिए. और फिर इस से भी पहले मेरठ मेँ मेरे जन्म 1930 तक… 1945 मेँ दिल्ली प्रैस मेँ बाल श्रमिक के तौर पर मेरे प्रशिक्षु डिस्ट्रीब्यूटर नियुक्त होने तक… उन दिनोँ छपाई के लिए कंपोज़िंग कैसे होती थी – आज की कंप्यूटरी पीढ़ी को समझाने के लिए सचित्र ब्योरा… दिल्ली प्रैस के संपादन विभागोँ तक कैसे पहुँचा और फिर… माधुरी मेँ दस साल बाद 26 दिसंबर 1973 की रात हिंदी थिसारस की 1953 वाली आकांक्षा मुझे क्योँ याद आई.

- टेढ़े मेढ़े रास्ते - मई 1978. हमारा सामान मालगाड़ी के दो कनटेनरोँ मेँ लादा जा रहा है. दोपहर के खाने के बाद हमेँ ऐंबैसेडर कार से दिल्ली के लिए रवाना होना है. इस के लिए हमेँ तपता विंध्याचल पार करना है. नीचे पथरीली भूमि जल रही है, ऊपर आसमान आग बरसा रहा है. रास्ता दुर्गम उतार चढ़ावोँ से भरा है. सड़कोँ पर काम चल रहा है, जगह जगह मार्ग मेँ डाइवर्ज़न हैँ – यानी पक्की सड़क से उतर कर कच्चे ऊबड़खाबड़ रास्ते जिन पर कार मुश्किल से चलती है. यहाँ तक कि एक जगह बेचारी ऐंबैसेडर ठप हो जाती है. हम ने नहीँ सोचा था कि जिस मंज़िल की ओर हम निकल पड़े हैँ, उस तक पहुँचना भी इतना ही कठिन होगा.

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