रंगनाथ सिंह
बीबीसी हिन्दी डॉटकॉम के लिए
शनिवार, 22 मार्च, 2014
आमतौर पर हिन्दी वालों की इसी बात की चिंता रहती है कि क्या हिन्दी अंग्रेज़ी का मुक़ाबला कर पाएगी. लेकिन भारत की ही कई दूसरी भाषाओं के सामने यह सवाल ज़्यादा बड़ा है कि क्या वो हिन्दी के सामने अपना अस्तित्व बचा पाएंगी.
कुछ साल पहले की बात है, दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में एक गोष्ठी थी. उपस्थित विद्वानों की चिंता का विषय था हिन्दी कैसे करे अंग्रेज़ी का मुक़ाबला.
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जब सभी विद्वान बोल चुके तो एक ख्यात पंजाबी लेखक की बोलने की बारी आई. उन्होंने अपनी बात की शुरुआत ही यह कहते हुए की कि आप लोग मुझे माफ़ करें लेकिन पंजाबी को तो अंग्रेज़ी से ज़्यादा हिन्दी से ख़तरा है!
हिन्दी प्रदेशों की तमाम भाषाओं जिन्हें बोलचाल में बोली कह दिया जाता है, उनको भी रंज है कि हिन्दी उन्हें नष्ट कर रही है. हिन्दी प्रदेश के बाहर की भाषाओं को शिकायत है कि हिन्दी उनके साथ दोयम दर्जे का बरताव करती है.
ऐसे में यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या हिन्दी ने अन्य भारतीय भाषाओं की तरफ़ खुलने वाली संवाद की खिड़की बंद कर ली है ? क्या भारत की सम्पर्क भाषा बनने की महत्वाकांक्षी अभिलाषा को पूरा करने में ख़ुद हिन्दी का दोहरा रवैया बाधक है?
साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता गुजराती के वरिष्ठ लेखक सितांशु यशश्चन्द्र कहते हैं, “गांधी जी जब थे तब अलग-अलग भारतीय भाषाओं के लेखक जितना आपस में मिलते थे और हिन्दी में जितना आते थे उससे तो अभी कम है. मुंशी प्रेमचंद और मुंशी कन्हैयालाल दोनों मिलकर हंस सामयिक चलाते थे और बहुत सा अनुवाद होता था.”
भाषाओं के बीच का अबोला बेहद घातक हो सकता है. भाषाएँ संस्कृति और विचार का वाहक होती हैं. अन्य भाषाओं से दूर रहने का परिणाम होगा अपनी ही संस्कृति और विचार का संकुचित होते जाना.
मुण्डारी और हिन्दी के युवा लेखक अनुज लुगुन कहते हैं, “एक व्यापक धरातल पर भाषाओं का आपस में सम्पर्क नहीं हो रहा है. आदिवासी भाषाओं में बड़े पैमाने पर साहित्य रचे गए लेकिन हिन्दी में उनकी उपस्थिति नहीं रही है. जैसे मुण्डारी में मेनेस राम ओड़ेया ने बिल्कुल शुरुआती दौर में पाँच खण्डों में बड़ा उपन्यास लिखा जिसकी जानकारी हिन्दी पट्टी को नहीं है.”
आदिवासी समाज का गद्य
अनुज लुगुन मानते हैं कि आदिवासियों के साहित्य के हिन्दी अनुवाद से उस समाज के दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलेगी.
लेखक अनुज लुगुन कहते हैं, “अगर हम आदिवासियों के गद्य की पड़ताल करते तो समझ पाते कि आदिवासी समाज उस पूरे परिदृश्य को उस समय कैसे देख रहा था यह समझ पाते.”
हिन्दी वाले अक्सर ही हिन्दी के विकास में ग़ैर-हिन्दी प्रदेशों के लोगों के योगदान की बात करते हैं.
साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता बांग्ला लेखक सुबोध सरकार भी मानते हैं कि हिन्दी के विकास में दूसरी भाषाओं के विद्वानों की बड़ी भूमिका रही है.
सुबोध सरकार कहते हैं, “पश्चिम बंगाल के विद्वान सुनिति कुमार चटर्जी हिन्दी का सबसे प्रारंभिक व्याकरण लिखने वाले में थे.”
लेकिन हिन्दी वाले इस तर्क का हमेशा ही अपने पक्ष में प्रयोग करते हैं. शायद ही कभी इस पर चर्चा होती है कि हिन्दी वालों ने दूसरी भाषाओं के विकास के लिए कितना और क्या किया है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत में हिन्दी की भूमिका को लेकर कुछ ज़्यादा ही मंसूबे बांधे जाते हैं. ख़ासकर तब जब अंग्रेज़ी वैश्विक भाषा के रूप में अपनी जगह मजबूत करती जा रही है.
बांग्ला लेखक सुबोध सरकार कहते हैं, “हम अंग्रेजी के बिना रह सकते हैं लेकिन हिन्दी के बिना नहीं रह सकते. अंग्रेजी तो बड़े लोगों की भाषा है, ग़रीबों की भाषा है हिन्दी. ग़रीब की भाषा ही असली भाषा है. बड़े लोगों की भाषा कोई भाषा नहीं है.”
कौन सी हिन्दी?
टी विजय कुमार कहते हैं कि अगर आप हिन्दी की बात करेंगे तो मैं पूछूँगा कि कौन सी हिन्दी ?
लेकिन हिन्दी की इस भूमिका के बारे में पूछने पर उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर टी विजय कुमार कहते हैं, “मुझे लगता है कि हिन्दी बेल्ट की जो हिन्दी है वो आर्टिफिशियल ज़बान है. अगर आप हिन्दी को सम्पर्क भाषा बनाने की बात करेंगे तो मेरा सवाल होगा कि कौन सी हिन्दी.”
वहीं संताली लेखक श्यामचरन टुटु कहते हैं, “भारत में हिन्दी ज़रूरी है लेकिन भारत से बाहर जो हो रहा है उसे जानने के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है.
लेकिन हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध के बारे में हिन्दी के लेखकों की क्या राय है?
हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह नहीं मानते कि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं से दूर जा रही है.
केदारनाथ कहते हैं, “भारत की कोई ऐसी भाषा नहीं है जो हिन्दी जितनी दूसरी भाषाओं के प्रति उत्सुक हो. मैं कह सकता हूँ कि आधुनिक भारतीय साहित्य कामचलाऊ इतिहास केवल हिन्दी अनुवाद के आधार पर लिखा जा सकता है.”
दक्षिण भारत और हिन्दी
साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता से सम्मानित भारतीय लेखक
लेकिन केदारनाथ यह जोड़ना नहीं भूलते, “बांग्ला, मराठी, पंजाबी और एक हद तक उड़िया से ठीक अनुवाद हो रहा है लेकिन दक्षिण भारत की भाषाओं से सही साहित्यिक हिन्दी में अनुवाद नहीं हो रहा है.”
साहित्य अकादमी के वर्तमान अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी केदारनाथ सिंह से सहमत हैं.
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं, “आंकड़े बताते हैं भारतीय भाषाओं से सबसे ज़्यादा अनुवाद हिन्दी में होते हैं उसके बाद मलयालम और उड़िया में. ये भाषाएँ बहुत संवेदनशील भाषाएँ हैं. ये भाषाएँ दूसरी भाषाओं से बहुत ज़ल्दी अनुवाद करती हैं.”
लेकिन दक्षिण भारत की भाषाओं से हिन्दी के तुलनात्मक रूप से दूर होने का कोई हल भी है ?
इस सवाल पर केदारनाथ सिंह कहते हैं, “त्रिभाषा फॉर्मूला को हिन्दी वालों ने ठीक से लागू नहीं किया. अभी उत्तर प्रदेश में कुछ कॉलेजों में कुछ समय पहले शुरू हुआ है कि हम त्रिभाषा परिभाषा के तहत केवल दक्षिण भारत की भाषाओं को रखेंगे लेकिन यह केवल एक शुरुआत है.”
हमने जिन लेखकों से बात की उनमें से ज़्यादातर को हिन्दी से एक शिकायत ज़रूर थी कि हिन्दी में ‘राष्ट्रभाषा‘ की दावेदारी का दंभ है.
सितांशु यशश्चन्द्र कहते हैं, “हिन्दी को गर्व से नहीं, स्नेह से दूसरी भाषाओं के पास जाना चाहिए. हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा‘ की दावेदारी का अहंकार छोड़ना होगा.”
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