–अनुराग
‘कर्म करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. हमारा कर्म सफल होगा या नहीं, हमें इस की तो परवाह करनी ही नहीं चाहिए, हम काम पूरा कर पाएँगे या नहीँ– इस की भी चिंता नहीं करनी चाहिए.’ वह अपने कई उदाहरण देते हैं, ‘दिल्ली आ कर काम शुरू करते ही हमारे घर मॉडल टाउन में 1978 की भयानक बाढ़ आ गई. सात फ़ुट तक पानी भर आया. अगर हमारे कार्ड 10 फ़ुट ऊपर वाली मियानी में न होते, तो सारी मेहनत धरी धराई रह जाती… 1988 में मुझ पर दिल का बेहद भारी दौरा पड़ा. उस समय मैं अस्पताल मेँ ही न होता तो बच नहीं पाता. गुमनाम मर जाता. ऐसी कई घटनाएँ हरएक के जीवन में घटती रहती हैं.
मर भी जाता तो जहाँ तक मेरा सवाल है कर्म करने का पूरा आनंद तो मैं भोग ही चुका था.
आधुनिक काल में हिंदी के पहले शब्दकोश ‘समांतर कोश’ (1996), ‘द हिंदी-इंग्लिश/इंग्लिश-हिंदी थिसारस ऐंड डिक्शनरी’ (2007) जैसे महाग्रंथ और ‘अरविंद लैक्सिकन’(2011) के रूप में इंटरनैट पर विश्व को हिंदी अंग्रेजी के शब्दों का सब से बड़ा ऑनलाइन ख़ज़ाना देने वाले अरविंद कुमार अब ‘शब्दों का विश्व बैंक’ बनाने की तैयारी में जुटे हैं.
उन के डाटाबेस में हिंदी इंग्लिश के लगभग 10 लाख शब्द हैं. यहाँ शब्द से मतलब है एक पूरी अभिव्यक्ति, उस में शब्द चाहे कितने ही हों. जैसे : उत्थान पतन, आरोह अवरोह, ज्वार भाटा, rise and fall, ascent descent, going up and down, tide and ebb, up and down; नभोत्तरित होना, उड़ान भरना, टेकऔफ़ करना, go up in the sky, rise in the sky; क्षेत्र के ऊपर से उड़ना, किसी के ऊपर से उड़ना, overfly, fly across, pass over – एक एक शब्द गिनें तो शब्द संख्या दस लाख से कहीं ऊपर हो जाएगी, अनुमानतः साढ़े बारह लाख.
शब्दों को ले कर उन का जुनून अभी भी कम नहीं हुआ है. कुछ दिन पहले किसी ने उन से पूछा कि आप के डाटा में ‘तासीर’ शब्द है या नहीं. उन्हों ने चेक किया. शब्द था ‘प्रभाव’ के अंतर्गत. यह उस का अर्थ होता भी है जैसे दर्द की ‘तासीर’. वह चाहते तो इस से संतोष कर सकते थे, लेकिन उन का मन नहीं माना. हिंदी में तासीर शब्द को उपयोग आम ज़िंदगी में है तो उस का संदर्भ ‘आहार’ या ‘औषध’ की आंतरिक प्रकृति या स्वास्थ्य पर उस के ‘प्रभाव’ के संदर्भ में होता है. उन्हें लगा कि इस के लिए एक अलग मुखशब्द बनाना ठीक रहेगा. उन्हों ने सटीक इंग्लिश शब्द की तलाश शुरू कर दी. लेकिन इस में उन्हें किसी कोश से कोई सहायता नहीं मिली. प्रोफ़ेसर मैकग्रेगर के ‘आक्सफ़र्ड हिंदी इंग्लिश कोश’ में मिला– effect; action, manner of operation (as of a medicine). लेकिन ‘तासीर’ के मुखशब्द के तौर इन में से कोई भी शब्द रखना उन्हें ठीक नहीं लगा. इधर उधर चर्चा भी की, लेकिन बात नहीं बन रही थी. अंततः वह शब्द गढ़ने में लग गये. कई दिन बाद ‘तासीर’ मुखशब्द के साथ अन्य शब्द जोड़ पाए–
तासीर, असर, क्रिया, परिणाम, प्रभाव, प्रवृत्ति, वृत्ति. उदाहरण :‘उड़द की तासीर ठंडी होती है अत: इसका सेवन करते समय शुद्ध घी में हींग का बघार लगा लेना चाहिए.’
effective trait, the manner in which a food item or medicine affects its consumer, effect, impact, manner of operation (as of a food item or medicine), nature, reactive nature, trait.
यह केवल एक उदाहरण है. उन के मन में हर रोज़ कुछ न कुछ नए विचार आते रहते हैं. जो भी नए शब्द सुनते और पढ़ते हैं, हर रोज़ उसे डाटा में ढूँढ़ते हैं और फिर उन के नए संदर्भ डालते हैं. कई बार रात में कुछ ख़याल में आता है. एक रात उन के मन मेँ gubernatorial शब्द उमड़ता घुमड़ता रहा. यह governor का विशेषण है.
गवर्नर के कई संदर्भ हैँ administrator, प्रशासक; controller, नियंत्रक; electricity regulator, विद्युत रैगुलेटर; ruler, शासक; speed controller, गति नियंत्रक.
कोशकार अरविंद कुमार (जन्म 17 जनवरी 1930) ने 17 जनवरी 2013 को तिरासी वर्ष पूरे कर 84वें वर्ष में प्रवेश किया.
भारत में गवर्नर का प्रमुख राजनीतिक प्रशासनिक अर्थ है representative and observer of the central government in a state– किसी राज्य मेँ केंद्र सरकार का प्रतिनिधि और प्रेक्षक. अमेरिका मेँ गवर्नर chief executive of a state है. वहाँ राष्ट्रपति की ही तरह इस पद के लिए भी चुनाव होता है. हमारे यहाँ यह प्रतिनिधि मात्र है, शासन का संचालक नहीं (यह काम हमारे यहाँ राज्य के मुख्यमंत्री का होता है). हमारे यहाँ इस के कई पर्याय हैं जैसे राज्यपाल, नवाब, निज़ाम, प्रांतपाल, सूबेदार, उप राज्यपाल, गवर्नर जनरल, चीफ़ कमिश्नर, मुख्य आयुक्त, लैफ़्टिनैंट गवर्नर, सदरे रियासत (जम्मू और कश्मीर) हैं.
अतः gubernatorial के लिए उन्हें एक स्वतंत्र मुखशब्द बनाने की आवश्यकता महसूस हुई. जब तक यह ससंदर्भ अपने आप में एक स्वतंत्र प्रविष्टि के तौर पर सही जगह नहीं रखा जाता, तब तक इस के विशेषण gubernatorial को उपयुक्त जगह नहीं रखा जा सकता. वह नहीं चाहते थे कि gubernatorial को ‘गति नियंत्रकीय’ से कनफ़्यूज़ करने का मौक़ा दिया जा जाए. उस के लिए सही जगह वहीं हो सकती है जहाँ उस का सही अर्थ स्पष्ट हो- राज्यपालीय, राज्यपाल विषयक.
आजकल वह डाटा के संवर्धन के अतिरिक्त उस के परिष्कार और साथ साथ शब्दों के अनेक रूपों को सम्मिलित करने का काम भी कर रहे हैं. जैसे- जाना के ये रूप जोड़ना- गई, गए, गया, गयी, गये, जा, जाइए, जाइएगा, जाए, जाएगी,जाएँगी, जाएंगी, जाएँगे, जाएंगे, जाओ, जाओगी, जाओगे, जाने, और go के लिए goes, going, went. (डाटा में ये सभी रूप अकारादि क्रम से रखे गए हैं.) क्योंकि हिंदी में वर्तनी की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं, अतः ‘गई’ और ‘गए’ के साथ साथ ‘गयी’ और ‘गये’ जैसे विकल्प भी जोड़ रहे हैं. ये पद्धतियाँ क्योंकि प्रचलित हैं तो इन्हें अशुद्ध भी नहीं कहा जा सकता. इस बारे में उन का कहना है कि ये भिन्न पद्धतियाँ हिंदी के किसी भी सर्वमान्य वर्तनी जाँचक के बनने बहुत बड़ी बाधा हैं.
यह तो हुई क्रिया पदों के रूपोँ की बात. अब संज्ञाओं को लें तो गौरैया के लिए गौरैयाएँ, गौरैयाओँ, गौरैयाओं; प्रांत/प्रदेश के लिए प्रदेशोँ, प्रदेशों, प्रांतोँ, प्रांतों. (वर्तनी की अनेकरूपता यहाँ भी देखने को मिलती है- अनुनासिक और अनुस्वार के भिन्न प्रचलनोँ के कारण.)
सुबह पाँच बजे से
उन का दिन सुबह पाँच बजे शुरू हो जाता है. लगभग सन् 1978 से. और तभी कुल्ला मंजन कर के शुरू हो जाता है डाटाबेस पर काम. काम सुबह पाँच बजे से शुरू हो कर शाम के लगभग साढ़े छह बजे तक चलता है. लेकिन लगातार नहीं. बीच बीच मेँ छोटे छोटे ब्रेक लेते रहते हैं. कभी शेव करने और नहाने के लिए, कभी नाश्ते के लिए, कभी यूँ ही ऊब मिटाने के लिए दस पंद्रह मिनट, कभी दोपहर खाने के लिए. लगभग चार पाँच बजे छोटा सा काफ़ी ब्रेक. और साढ़े छह बजे पूर्ण विराम. अब रात के साढ़े नौ या दस बजे तक एकमात्र मनोरंजनपूर्ण कार्यक्रम ही देखते हैं – स्टार प्लस पर. बीच मेँ आठ से साढ़े आठ बजे तक समाचार.
सर्दी के चार महीने वह बेटे सुमीत के पास आरोवील आ जाते हैं. आजकल वह सपत्नीक वहीं हैं. वहाँ उन्हें अख़बार सुविधा से नहीं मिल पाते. इसलिए सुबह काम के बीच कभी इंटरनैट पर इंग्लिश और हिंदी समाचारोँ पर सरसरी नज़र डालना, कभी ई मेल देखना और हर दिन लगभग पंद्रह बीस मिनट फ़ेसबुक पर छोटी मोटी टीका, मित्रों की मेल पर पसंद का निशान, किसी किसी पर छोटी सी टिप्पणी भी उनकी दिनचर्या में शामिल है. निकट के नगर (दूरी 5.5 किलोमीटर) पुडुचेरी में कभी कभार ही कोई हिंदी फ़िल्म आती है. अतः आरोवील में वह समय बच जाता है. कभी कभी ऊब मिटाने के लिए टीवी पर पुरानी फ़िल्म देख कर काम चला लेते हैं.
चंद्रनगर (गाज़ियाबाद) में रहने के दौरान दिल्ली गाज़ियाबाद क्षेत्र में बने सिनेमाघरों में अकसर सुबह 12 से पहले की फ़िल्में देखते हैं.
हम सब साथ साथ
कोशकारिता के अपने जुनून के लिए अरविंद कुमार ने 1978 में ‘माधुरी’ की जमी जमाई नौकरी छोड़ी. तब से वह केवल इसी काम में लगे हैं. किसी से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली और कोई रचनात्मक सहयोग भी नहीं लिया. जो काम करोड़ों के बजट और लम्बे चौड़े स्टॉफ के बाद भी कोई संस्था नहीं कर पा रही है, उसे अरविंद कुमार ने कर दिखाया.
अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार, बेटी मीता और बेटे सुमीत के साथ.
अरविंद कुमार इतना बड़ा काम कर पाए इसकी एक वजह उन्हें परिवार का पूरा सहयोग मिलना ही है. वह बताते हैं कि अम्मा पिताजी ने कभी उन के किसी फ़ैसले का विरोध नहीं किया. ‘सरिता’, ‘कैरेवान’ की छोड़ी तो उन्हों ने उन के निर्णय का स्वागत ही किया. ‘माधुरी’ के लिए मुंबई गए, तो वे ख़ुश थे. छोड़ कर आए तो भी ख़ुश. जो भी उन्हों ने किया, उन के अम्मा पिताजी के लिए स्वीकार्य था.
उन के निजी परिवार एकक ने तो इस से भी आगे बढ़ कर, उन के काम में हाथ बँटाया. जब 1973 में ‘माधुरी’ की अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ने की बात की, तो पत्नी कुसुम ने बड़े उत्साह से न केवल उन का समर्थन किया, बल्कि बाद में पूरा सहयोग किया. आरंभ में उनकी भूमिका अरविंद कुमार के बनाए कार्डों का इंडैक्स बनाने की थी. बाद में वह अरविंद कुमार की ही तरह हिंदी कोश में ‘अ’ से ‘ह’ तक जाते जाते वस्तुओं, वनस्पतियों और देवी देवताओं के नामों को सही कार्ड बना कर दर्ज़ करने लगीं. अरविंद कुमार का कहना है कि ‘शब्देश्वरी’ (पौराणिक नामों का थिसारस) का ढाँचा मेरा है और अधिकांश शब्द तो कुसुम के ही हैँ– नाम हम दोनों का है.’
1976 में नासिक में गोदावरी नदी में सपरिवार स्नान कर के उन्हों ने ‘समांतर कोश’ का शुभारंभ रिकार्ड करने के लिए एक कार्ड बनाया. उस पर पहले उन्हों ने, फिर पत्नी कुसुम, बेटे सुमीत (सोलह साल) और बेटी मीता (दस साल) ने दस्तख़त किए. एक तरह से यह उन सब की गवाही का दस्तावेज बन गया. शायद यही कारण है कि जब भी सुमीत और मीता सहयोग करने लायक़ उम्र में पहुँचे तो अपनी अपनी तरह से पूरी सहभागिता के साथ उन के काम के साथ जुड़ते गए.
अरविंद कुमार 1978 में ‘माधुरी’ की नौकरी छोड़ कर सपरिवार दिल्ली मेँ मॉडल टाउऩ वाले घर में आ टिके. सुमीत का दाख़िला मुंबई के एक प्रतिष्ठित डॉक्टरी के कालिज में हो चुका था. वह पढ़ाई के दिनों वहीं रहते. मीता नवीं में सरकारी स्कूल में दाख़िल हो गईं. धीरे धीरे सुमीत ने डॉक्टरी पढ़ाई में सर्जरी में दो गोल्ड मैडल जीते, और कुछ महीनों बाद वह दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में रैज़िडैंट सर्जन बन गए. वहाँ कंप्यूटर लगाए जा रहे थे. यहीं से ‘समांतर कोश’ के काम की तकनीक बदलने की शुरूआत हो गई. कंप्यूटर देख कर सुमीत की समझ में यह बात आ गई कि मम्मी पापा जो कार्डों पर काम कर रहे हैं, उस तरह तो वह काम कभी पूरा ही नहीं हो पाएगा. उन्हों ने अपने पिताजी यानी अरविंद कुमार को इस के लिए सहमत करने की मुहिम ही चला दी.
अंततः अरविंद कुमार सहमत हुए. लेकिन कंप्यूटर के लिए उन के पास पैसे नहीं थे. उधार लेने की हिम्मत भी नहीं थी, और संभावना भी नहीं थी. बेरोज़गार को कौन आर्थिक सहायता देने का ख़तरा मो लेता. आख़िर कुछ बचत करने के लिए सुमीत ने साल डेढ़ साल ईरान में काम ले लिया. यथावश्यक राशि जमा होते ही वापस आ गए.
1993 में कंप्यूटर ख़रीदा गया. अब उस के लिए साफ़्टवेयर चाहिए था जिसे प्रोग्राम कहते हैं. ‘समांतर कोश’ के लिए एक ख़ास तरह के प्रोग्राम की ज़रूरत होती है. यह प्रोग्राम डाटाबेस बनाता है– यानी विशेष प्रकार की सूची, तालिका. अकेला डाटाबेस बनना काफ़ी नहीं होता. उसे वांछित रिपोर्ट में तब्दील करना होता है. इस काम के संदर्भ में मतलब है- थिसारस बनाना. इन दोनों ही कामों के लिए अलग अलग प्रोग्राम चाहिए होते हैं. ये दोनों ही क़ीमती होते हैं. और अरविंद कुमार के बूते से बाहर थे. अतः सुमीत ने ही हिम्मत की. उन्हों ने किताबें पढ़ पढ़ कर जाना कि डाटाबेस बनाने के लिए उस समय फ़ाक्सप्रो नाम का प्रोग्राम सब से अच्छा है. इधर उधर संपर्क बना कर उस का प्रबंध कर लिया. अब फ़ाक्सप्रो से क्या काम कैसे लेना है– यह अरविंद कुमार और सुमीत को तय करना था. फिर उस काम के लिए एक उपप्रोग्राम या कंप्यूटरी भाषा मेँ ऐप्लिकेशन लिखनी थी जो फ़ाक्सप्रो पर काम कर सके. अब फिर किताबें पढ़ कर ख़ुद ही सीख कर पहले एक प्रारंभिक ऐप्लीकेशन सुमीत ने बनाई. जैसे जैसे ‘समांतर कोश’ की ज़रूरतें बढ़ती गईं, सुमीत उस में नए नए मौड्यूल जोड़ता गए. अब तक अरविंद कुमार के पास 60,000 कार्डों पर ढाई लाख सुव्यवस्थित शब्द जुड़ चुके थे. उस डाटा को कंप्यूटरित करने के लिए डाटा प्रविष्टि कर्मचारी रखा. वह बड़ा मेहनती निकला, और लगभग बेचूक टाइप करने वाला. लगभग नौ दस महीनों मेँ उसने वह काम पूरा किया. अब और शब्द जोड़ने थे.
1951 से ही अरविंद कुमार हिंदी में टाइपिंग करते आ रहे थे. ‘सरिता’, ‘कैरेवान’ में अपनी सभी रचनाएं उन्हों ने टाइपराइटरों पर लिखी थीं. इसका फायदा यह हुआ कि उन्हें कंप्यूटर डाटा में नए शब्द जोड़ने में बहुत ज़्यादा समय नहीं लगा. इस बीच सुमीत बंगलौर में डॉक्टरी करने चला गया था.
अतः अरविंद कुमार दंपति भी सुमीत के पास बंगलौर चले गए. वहाँ जाना इसलिए भी ज़रूरी था कि अब भी उन्हें हर दिन नई आवश्यकताओं के लिए प्रोग्राम को परिष्कृत करवाना होता था और यह सुमीत ही कर सकते थे. 1990 मेँ मीता की शादी हो चुकी थी. अतः वे सुमीत के पास जाने के लिए स्वतंत्र थे. 1994 में बंगलौर जा पहुँचे. वहाँ 11 सितंबर 1996 को ‘समांतर कोश’ का काम पूरा हुआ. (इस बीच यह भी तय हो चुका था कि नेशनल बुक ट्रस्ट से किताब छपेगी.) उधार के पैसों से पूरे ‘समांतर कोश’ के प्रिंट आउट निकाल कर तीनों नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक अरविंद कुमार (उन का नाम भी अरविंद कुमार था) को सौंपने दिल्ली आए. अक्टूबर में प्रिंट आउट दिए. प्रिंट आउट मिलते ही अरविंद कुमार (निदेशक, नेशनल बुक ट्रस्ट) ने मुद्रण विभाग को आदेश दिया कि कोई बड़ा प्रेस तीनों शिफ़्टोँ के लिए बुक कर लें. पाँच हज़ार कापियों के लिए काग़ज़ इकट्ठा ख़रीद लें ताकि सभी 1,800 पेजों में एक सा काग़ज़ रहे और काग़ज़ न होने के बहाने छपाई न रोकनी पड़े. किताब दिसंबर तक आनी ही चाहिए– राष्ट्रपति जी को समर्पित करने की तारीख़ 13 दिसंबर वह पहले ही समय ले चुके थे– किसी और को बताए बग़ैर!
और इस तरह से ‘समांतर कोश’ के रूप में एक अनमोल ख़ज़ाना हिंदी को मिल गया.
समांतर कोश का पहला सैट स्वीकार करते राष्ट्रंपति शंकर दयाल शर्मा.
पर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. यह तो केवल पूर्वकथा सिद्ध हुई. सुमीत को सिंगापुर मेँ कंप्यूटर की नौकरी मिल गई. बंगलौर से अरविंद कुमार दंपति चंद्रनगर (गाज़ियाबाद) वापस आ गए.
अब मीता का कहना था कि अपने डाटा में इंग्लिश शब्दों का समावेश करें. यह बेहद ज़रूरी है. वह इंग्लिश मीडियम से पढ़ रही अपनी बेटी तन्वी को हिंदी सिखातीं तो इंग्लिश के हिंदी शब्द और पर्याय नहीं मिल पाते थे. अरविंद कुमार तत्काल मीता से सहमत हो गए. काम को आगे बढ़ाने का ज़िम्मा भी मीता ने लिया– ‘समांतर कोश’ की एक प्रति पर हाशियों पर सभी मुखशब्दों के इंग्लिश अर्थ लिख दिए. यही ‘द पेंगुइन इंग्लिश हिंदी/हिंदी इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी’ की शुरूआत बनी.
अब तक सुमीत सिंगापुर की एक साफ़्टवेयर कंपनी मेँ सीनियर वाइस प्रेज़िडैंट बन चुके थे, और मलेशिया की राजधानी क्वालालंपुर के एक अस्पताल के संचालन का कंप्यूटरन करवा रहे थे. अरविंद दंपति उस के पास गए तो वहीं उस ने डाटा में इंग्लिश अभिव्यक्तियाँ शामिल करने की ऐप्लिकेशन की पहली प्रविधि लिखी.
कर्म आजीवन आनंद है
अरविंद कुमार के जीवन के तीन मंत्र हैं—
1. मेहनत.
2. मेहनत.
3. मेहनत
यानी कर्म, कर्म, कर्म. गीता का यह श्लोक हर जगह उद्धृत किया जाता है—
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
यहाँ कृष्ण केवल सकाम और निष्काम कर्म के संदर्भ में बात कर रहे हैं. अरविंद कुमार इस के इहलौकिक अर्थ के साथ कुछ और भी जोड़ कर देखते हैं. वह कहते हैं कि ‘कर्म करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. हमारा कर्म सफल होगा या नहीं, हमें इस की तो परवाह करनी ही नहीं चाहिए, हम काम पूरा कर पाएँगे या नहीँ– इस की भी चिंता नहीं करनी चाहिए.’ वह अपने कई उदाहरण देते हैं, ‘दिल्ली आ कर काम शुरू करते ही हमारे घर मॉडल टाउन में भयानक बाढ़ आ गई. सात फ़ुट तक पानी भर आया. अगर हमारे कार्ड 10 फ़ुट ऊपर वाली मियानी में न होते, तो सारी मेहनत धरी धराई रह जाती. इसी प्रकार मुझे 1988 में दिल का बेहद भारी दौरा पड़ा. उस समय मैं अस्पताल मेँ ही न होता तो बच नहीं पाता. गुमनाम मर जाता. ऐसी कई घटनाएँ जीवन में घटती रहती हैं. यूँ मर भी जाता तो जहाँ तक मेरा सवाल है मैं कर्म करने का पूरा आनंद तो लगतार भोग रहा था. तो मैं कहता हूँ— ‘कर्म आजीवन आनंद है.’
सपना शब्दों के विश्व बैंक का
उन का कोश अरविंद लैक्सिकन (http://arvindkumar.me) इंटरनैट पर है. यहीं रुका तो नहीँ जा सकता – मैं ने पूछा तो अरविंद कुमार ने जवाब दिया.
आजकल वह एक तरफ़ तो डाटा के संवर्धन और परिष्कार में लगे हैं तो साथ ही साथ अकारादि क्रम से आयोजित ‘हिंदी-इंग्लिश हिंदी-कोश’ के लिए प्रविष्टियों का चयन कर रहे हैं. ऐसे थिसारसों में इंडैक्स की ज़रूरत नहीं होती. अतः वे अपनी सहजता के कारण लोकप्रिय होते जा रहे हैं. (राजकमल से प्रकाशित उन का ‘अरविंद सहज समांतर कोश’ की लोकप्रियता इस का सबूत है.) यह द्विभाषी कोश-थिसारस कालिज तक के छात्रों की सभी ज़रूरतें पूरी कर सकेगा. उन का विश्वास है कि यह काम मार्च 2014 तक पूरा हो जाएगा.
अरविंद कुमार के कई और सपने हैं. उन में एक महान सपना है ‘शब्दोँ का विश्व बैंक’ यानी ‘वर्ल्ड बैंक आफ़ वर्ड्स’. उन का कहना है कि ‘यह अभी परिकल्पना और आधारभूत काम करने की स्थिति में है. एक बात ज़ाहिर है यह काम मेरे जीवन मेँ पूरा होना संभव नहीं है. मेरा काम है इस का आधार तैयार खड़ा करना. यह काम शुरू होने के बाद कई पीढ़ियाँ ले सकता है और इस के लिए अंतररष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होगी. समय सीमा तो बन ही नहीं सकती. समांतर कोश के लिए दो साल की सीमा तय की थी. लग गए बीस साल! अभी तो पहले विश्व शब्द बैंक की आधार शब्दावली तय करनी है.
मेरे पास हिंदी और इंग्लिश अभिव्यक्तियों का जो विश्व में सब से बड़ा डाटा है, उस के सहारे हिंदी के माध्यम से हम भारत की सभी भाषाएँ जोड़ सकते हैं. इंग्लिश डाटा के सहारे बाहर की भाषाएँ मिलाई जा सकती हैं. भारत में सब से पहले मैं दक्षिण की सर्वप्रमुख भाषा तमिल से आरंभ करना चाहूँगा– इस के लिए तमिल सहयोगियों की तलाश निजी स्तर पर चल रही है. विदेशी भाषाओं में प्राथमिकता संयुक्त राष्ट्रमंडल की किसी भी आधिकारिक भाषाओं को दी जाएगी. फ्राँसीसी पहले आनी चाहिए.
‘इस परिकल्पना का आधार है यूनिकोड का अवतरण. इस के आने के बाद ही यह सोच पाना सम्भव हो सकता था. ऐसे किसी बैंक का महाडाटा बनने का सब से बड़ा लाभ यह होगा कि हम जब चाहें संसार की किन्हीं दो या अधिक भाषाओँ के थिसारस कोश बना सकेंगे– जैसे तमिल हिंदी फ़्राँसीसी, या भारत की बात लें तो ज़रूरत हो तो गुजराती बांग्ला हिंदी, या फिर मलयालम हिंदी….’
उन का कहना है कि इस परिकल्पना का आधार है– संसार में विकसित कंप्यूटरी तकनीक. संसार की सारी लिपियों के लिए एक ही कीबोर्ड को सक्षम करने वाली यूनिकोड को विश्व की सर्वसम्मति से स्वीकृति. परिणामतः अब हम अपने डाटा में अनगिनत भाषाएँ और अनगिनत शब्दकोटियाँ समो सकते हैं. हर नई भाषा की शब्दावली जोड़ने के लिए एक विशेष प्रविधि बनाई है डॉक्टर सुमीत कुमार ने. और यह लगातार विकसित होती रह सकती है. अभी तो अरविंद कुमार डाटा को अपडेट करते करते उस में से आधारभूत शब्दावली का चयन कर रहे हैं. उन का कहना कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है. अगले साल तक इस के लिए कोई प्रणाली विकसित हो पाएगी.
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि. की स्थापना
अरविंद कुमार ने अक्टूबर 2010 में कंपनी अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि. की स्थापना की. कंपनी का उद्देश्य है- भारतीय भाषाओं को संसार भर में ले जाना. अरविंद कुमार इस के संस्थापक और शब्द संकलन प्रमुख हैं. अन्य सदस्य हैं कुसुम कुमार, सुमीत और मीता लाल. मीता लाल कंपनी की सीईओ हैं. सुमीत इस के तकनीकी पक्ष के अध्यक्ष हैं.
अब यह कंपनी अरविंद कुमार के सभी कोशों और अन्य रचनाओं की सर्वाधिकारी है. इस ने पेंगुइन से उन के महाकोश ‘द पेंगुइन इंग्लिश हिंदी हिंदी इंग्लिश थिसारस ऐँड डिक्शनरी’ के सभी अधिकार ले लिए हैं. इस पुस्तक की बिक्री यही कंपनी कर रही है.
अरविंद कुमार की कई पुस्तकें राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित हुई हैं. उन सब पर भी अरविंद कुमार का सर्वाधिकार है, प्रकाशकों के पास केवल एक बार तीन साल के लिए मुद्रण अधिकार है. उन में एक ‘सहज समांतर कोश’ के बारे में उन का एग्रीमैंट कुछ इस प्रकार का है– यदि वे लोग हर तीन साल मेँ एक नियत संख्या में किताब बेच पाए तो अगले तीन सालों के लिए उन्हें उस के पुनर्मुद्रण का अधिकार मिल जाएगा. अतः यह कोश उन के पास तब तक चलता रहेगा, जब तक वह निर्धारित संख्या में वह किताब हर वर्ष बेच पाते हैं.
नेशनल बुक ट्रस्ट से ‘समांतर कोश’ वापस लेने की उन की कोई इच्छा नहीं है. अब तक एनबीटी उस के छह मुद्रण कर चुका है. और हर साल नियमित रूप से अच्छी रायल्टी घर बैठे भेजता रहता है.
21 जून 2011 की शाम को अरविंद कुमार को दिल्ली की हिंदी अकादेमी ने शलाका सम्मान दिया, उसी दिन थाईलैंड से सुमीत कुमार ने अरविंद लैक्सिकन को www.arvindkumar.me पर ऑनलाइन कर दिया.
अरविंद कुमार अकारादि क्रम से संयोजित जिन इंग्लिश-हिंदी और हिंदी-इंग्लिश थिसारसों पर भी काम कर रहे हैं. वे उन की कंपनी 2014-15 में प्रकाशित कर पाएगी. इन कोशों की एक ख़ूबी है इंग्लिश में भारतीय शब्द बड़े पैमाने पर संकलन. उन का कहना है कि हमारे छात्र कब तक ऐसे इंग्लिश कोशों पर निर्भर करते रहेंगे जिन में हमारी संस्कृति ही न हो. ïïï
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