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बाल श्रमिक से शब्दाचार्य तक की यात्रा

In Cinema, Culture, Lifestyle, Literature, Memoirs, People by Arvind KumarLeave a Comment

अरविन्द कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इसलिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुंचा।

 

अरविन्द कुमार को कड़ी मेहनत करते देखना हैरतअंगेज ही है। सुबह 5 बजे वह कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं। बीच में नाश्ता, खाना और दोपहर में थोड़ी देर आराम के अलावा वह रात तक कंप्यूटर पर जमे रहते हैं। उम्र के इस मोड़ पर इतनी कड़ी मेहनत लगभग दुश्वार है।

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–दयानंद पांडेय

 

OLYMPUS DIGITAL CAMERA         अरविन्द कुमार

पत्रकारिता और भारतीय समाज के रीयल हीरो हैं अरविन्द कुमार : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते।

 

सचमुच अरविन्द कुमार नाम की धूम हिन्दी जगत में उस तरह नहीं है जिस तरह होनी चाहिए। लेकिन काम उन्होंने कई बड़े-बड़े किए हैं। हिन्दी जगत के लोगों को उन का कृतज्ञ होना चाहिए। दरअसल अरविन्द कुमार ने हिन्दी थिसारस की रचना कर हिन्दी को जो मान दिलाया है, विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं के समकक्ष ला कर खड़ा किया है, वह न सिर्फ़ अदभुत है बल्कि स्तुत्य भी है। कमलेश्वर उन्हें शब्दाचार्य कहते थे। 1996 में जब समान्तर कोश नाम से हिन्दी थिसारस नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया तो हिन्दी में बहुतेरे लोगों की आंखें फैल गईं। क्योंकि हिन्दी में बहुत सारे लोग थिसारस के कांसेप्ट से ही वाकिफ़ नहीं थे। और अरविन्द कुमार चर्चा में आ गए थे। इन दिनों वह फिर चर्चा में हैं। हिन्दी-अंगरेज़ी थिसारस तथा अंगरेज़ी-हिन्दी थिसारस और भारत के लिए बिलकुल अपना अंगरेज़ी थिसारस के लिए। इसे पेंग्विन ने छापा है।

उम्र के 81वें वसन्त में अरविन्द कुमार इन दिनों अपने बेटे डॉक्टर सुमीत के साथ पाण्डिचेरी में रह रहे हैं। अरविन्द कुमार को कड़ी मेहनत करते देखना हैरतअंगेज ही है। सुबह 5 बजे वह कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं। बीच में नाश्ता, खाना और दोपहर में थोड़ी देर आराम के अलावा वह रात तक कंप्यूटर पर जमे रहते हैं। उम्र के इस मोड़ पर इतनी कड़ी मेहनत लगभग दुश्वार है। लेकिन अरविन्द कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ यह काम कर रहे हैं। समान्तर कोश पर तो वह पिछले 35 सालों से लगे हुए थे।

अरविन्द हमेशा कुछ श्रेष्ठ करने की फिराक़ में रहते हैं। एक सclip_image003मय टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप से प्रकाशित फिल्म पत्रिका माधुरी के न सिर्फ़ वह संस्थापक संपादक बने, उसे श्रेष्ठ फिल्मी पत्रिका भी बनाया। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप से ही प्रकाशित अंगरेज़ी फिल्म पत्रिका फिल्म फेयर से कहीं ज्यादा पूछ तब माधुरी की हुआ करती थी। माया नगरी मुम्बई में तब शैलेन्द्र और गुलज़ार जैसे गीतकार, किशोर साहू जैसे अभिनेताओं से उन की दोस्ती थी और राज कपूर सरीखे निर्माता-निर्देशकों के दरवाजे़ उनके लिए हमेशा खुले रहते थे। कमलेश्वर खुद मानते थे कि उनका फि़ल्मी दुनिया से परिचय अरविन्द कुमार ने कराया और वह मशहूर पटकथा लेखक हुए। ढेरों फि़ल्में लिखीं। आनन्द फि़ल्म जब रिलीज़ हुई तो अमिताभ बच्चन के लिए माधुरी में छपा – एक नया सूर्योदय। जो सच साबित हुआ। तो ऐसी माया नगरी और ग्लैमर की ऊभ-चूभ OLYMPUS DIGITAL CAMERA         में डूबे अरविन्द कुमार ने हिन्दी थिसारस तैयार करने के लिए 1978 में 14 साल की माधुरी की संपादकी की नौकरी छोड़ दी। मुम्बई छोड़ दी। चले आए दिल्ली। लेकिन जल्दी ही आर्थिक तंगी ने मजबूर किया और खुशवन्त सिंह की सलाह पर अन्तरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिन्दी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक हुए। जब सर्वोत्तम निकलती थी तब अंगरेज़ी के रीडर्स डाइजेस्ट से ज्यादा धूम उसकी थी।

लेकिन थिसारस के काम में फिर बाधा आ गई। अन्तत: सर्वोत्तम छोड़ दिया। अब आर्थिक तंगी की भी दिक्कत नहीं थी। डॉक्टर बेटा सुमीत अपने पांव पर खड़ा था और बेटी मीता लाल दिल्ली के इरविन कॉलेज में पढ़ाने लगी थी। अरविन्द कुमार कहते हैं कि थिसारस हमारे कंधे पर बैताल की तरह सवार था, पूरा तो इसे करना ही था। बाधाएं बहुत आईं। एक बार दिल्ली के मॉडल टॉउन में बाढ़ आई। पानी घर में घुस आया। थिसारस के लिए संग्रहित शब्दों के कार्डों को टांड़ पर रख कर बचाया गया। बाद में बेटे सुमीत ने अरविन्द कुमार के लिए न सिर्फ कंप्यूटर ख़रीदा बल्कि एक कंप्यूटर ऑपरेटर भी नौकरी पर रख दिया। डाटा इंट्री के लिए। थिसारस का काम निकल पड़ा। काम फ़ाइनल होने को ही था कि ठीक छपने के पहले कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ख़राब हो गई। लेकिन ग़नीमत कि डाटा बेस फ्लापी में कॉपी कर लिए गए थे। मेहनत बच गई। और अब न सिर्फ़ थिसारस के रूप में समान्तर कोश बल्कि शब्द कोश और थिसारस दोनों ही के रूप में अरविन्द सहज समान्तर कोश भी हमारे सामने आ गया। हिन्दी-अंगरेज़ी थिसारस भी आ गया।

अरविन्द न सिर्फ़ श्रेष्ठ रचते हैं बल्कि विविध भी रचते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं के नामों वाली किताब शब्देश्वरीकी चर्चा अगर यहां न करें तो ग़लत होगा। गीता का सहज संस्कृत पाठ और सहज अनुवाद भी सहज गीतानाम से अरविन्द कुमार ने किया और छपा। शेक्सपियर के जूलियस सीजरका भारतीय काव्य रूपान्तरण विक्रम सैंधवनाम से किया। जिसे इब्राहिम अल्काज़ी जैसे निर्देशक ने निर्देशित किया। गरज यह कि अरविन्द कुमार निरन्तर विविध और श्रेष्ठ रचते रहे हैं। एक समय जब उन्होंने राम का अंतर्द्वंद्वकविता लिखी थी तो पूरे देश में आग लग गई थी। सरितापत्रिका, जिसमें यह कविता छपी थी, देश भर में जलाई गई। भारी विरोध हुआ। सरिताके संपादक विश्वनाथ और अरविन्द कुमार दसियों दिन तक सरिता द़फ्तर से बाहर नहीं निकले क्योंकि दंगाई बाहर तेजाब लिए खड़े थे।

राम का अंतर्द्वंद्वको लेकर मुकदमे भी हुए और आन्दोलन भी। लेकिन अरविन्द कुमार ने अपने लिखे पर माफी नहीं मांगी। न अदालत से, न समाज से। क्योंकि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं लिखा था। एक पुरुष अपनी पत्नी पर कितना सन्देह कर सकता है, ”राम का अंतर्द्वंद्वमें राम का सीता के प्रति वही सन्देह वर्णित था। तो इसमें ग़लत क्या था? फिर इसके सूत्र बाल्मिकी रामायण में पहले से मौजूद थे। अरविन्द कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इसलिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुंचा।

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अरविंद कुमार – कंपायूटर और पठन

कमलेश्वर अरविन्द कुमार को शब्दाचार्य ज़रूर कह गए हैं। और लोग सुन चुके हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि अमरीका सहित लगभग आधी दुनिया घूम चुके यह अरविन्द कुमार जो आज शब्दाचार्य हैं, एक समय बाल श्रमिक भी रहे हैं। हैरत में डालती है उनकी यह यात्रा कि जिस दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में छपी राम का अंतर्द्वंद्व कविता से वह चर्चा के शिखर पर आए उसी दिल्ली प्रेस में वह बाल श्रमिक रहे।

वह जब बताते हैं कि लेबर इंस्पेक्टर जांच करने आते थे तो पिछले दरवाज़े से अन्य बाल मज़दूरों के साथ उन्हें कैसे बाहर कर दिया जाता था तो उनकी यह यातना समझी जा सकती है। अरविन्द उन लोगों को कभी नहीं समझ पाते जो मानवता की रक्षा की ख़ातिर बाल श्रमिकों पर पाबन्दी लगाना चाहते हैं। वह पूछते हैं कि अगर बच्चे काम नहीं करेंगे तो वे और उनके घर वाले खाएंगे क्या? वह कहते हैं कि बाल श्रम की समस्या का निदान बच्चों को काम करने से रोकने में नहीं है, बल्कि उनके मां-बाप को इतना समर्थ बनाने में है कि वे उनसे काम कराने के लिए विवश न हों। तो भी वह बाल मजदूरी करते हुए पढ़ाई भी करते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंगरेज़ी में एम. ए. किया। और इसी दिल्ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ रीडर, उप संपादक, मुख्य उप संपादक और फिर सहायक संपादक तक की यात्रा अरविन्द कुमार ने पूरी की। और कारवांजैसी अंगरेज़ी पत्रिका भी निकाली। सरिता, मुक्ता, चंपक तो वह देखते ही थे। सचमुच अरविन्द कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ़ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी। तिस पर उनकी सरलता, निश्छलता और बच्चों सी अबोधता उन की विद्वता में समुन्दर-सा इज़ाफा भरती है।

दयानंद पांडेय

17 जनवरी 2011

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