डाक्टर राजेंद्र प्रसाद सिंह

In Culture, History, Language, Memoirs by Arvind KumarLeave a Comment

सर जी

आम आदमी की भाषा में पूछा जा सकता है कि पुष्पक विमान थे, तो कहीं दो पहियों वाली छोटी सी काम की सवारी साइकिल का ज़िक्र तक कहीं क्यों नहीं मिलता?

विश्व की 95 भाषाओं के 95 शब्द…!

 

अरविंद कुमार

 

पहले मैँ ने नाम पढ़ा था… कमलेश्वर ने दैनिक हिंदुस्तान में उन पर लेख लिखा था। उन पर नहीं, उत्तरपूर्वी प्रदेशों की भाषाओं के बारे में — राजेंद्र जी की पुस्तक भारत में नाग परिवार की भाषाएँ के बारे में — लिखा था। लेख का शीर्षक था पूर्वोत्तर का लोकधर्मी लोकतंत्र

कमलेश्वर ने बताया था कि उक्त पुस्तक में इन धारणाओं को निर्मूल साबित किया गया है कि आर्य यानी आज के हिंदू इस देश के मूल निवासी नहीं है। मेरी मान्यता भी है कि यही ऐतिहासिक तथ्य और सत्य है। पुरातात्त्विक आधार पर भारत में कोई ऐसे सटीक प्रमाण नहीं मिले हैं कि यहाँ (यहाँ क्या पूरे विश्व में कोई मानव सभ्यता लाखों करोड़ों साल पहले विद्यमान थी)। हमारे पौराणिक गल्पकार कुछ भी कहते रहें, मनोकल्पित युगों मन्वंतरों चतुर्युगियों की करोड़ों अरबों खरबों साल की लंबाई बताते रहें, हर मन्वंतर में होने वाले वेद व्यासों की गिनती करते रहें। ऐसी बातें समाज के एक वर्ग के उस खोखले दंभी आत्मगौरव की सूचक मात्र हैं जो आर्यों को भारत का एकमात्र मूल निवासी सिद्ध करना चाहती है और उन्हें संसार का गुरु सिद्ध करने की नाकाम कोशिश करती है (इस का मतलब यह नहीं है कि उन की बौद्धिक उपलब्धियाँ कम थीं । मुझे यह मानने में कोई एतराज़ नहीं कि हमारे यहाँ आध्यात्मिक और सामाजिक चिंतन उत्कृष्ट था, संसार के महानतम चिंतकों में उन का स्थान है और रहेगा।) पर हमारे पुराणों में या ऐसे ही प्राचीन ग्रंथों में काल संबंधी जो अवधारणाएँ हैं, हम अधिक से अधिक उन्हें उर्वर मस्तिष्कों की फ़ैंटेसी ही कह सकते हैं। जैसे पुष्पक विमान को ही लें… या ऐसी ही कोई चीज़ और जैसे उड़ने वाला क़ालीन … सब मानव के सपने हैं या कथापात्रों में चमत्कारिक शक्तियाँ आरोपित करने की कोशिशें हैं। इन फ़ैंटेसियों का मानव मस्तिष्क के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान और आवश्यकता हमेशा रहा है और रहेगा, पर ये सत्य हैँ इस के तो कोई ठोस आधार हैं नहीं। आम आदमी की भाषा में पूछा जा सकता है कि पुष्पक विमान थे, तो कहीं दो पहियों वाली छोटी सी काम की सवारी का ज़िक्र तक कहीं क्यों नहीं मिलता?)

 

राजेंद्र प्रसाद जी से पहली मुलाक़ात हुई केंद्रीय हिंदी संस्थान (आगरा) की हिंदी लोकशब्द कोश परियोजना के सिलसिले में। इस के अंतर्गत हिंदी परिवार की 49 भाषाओं के शब्द कोश बनने थे। भोजपुरी कोश उन में पहला था। परियोजना में मैं एक नियतकाल के लिए अवैतनिक प्रधान संपादक था, राजेंद्र भोजपुरी के संपादक थे।

तो जैसा कहा, उन के नाम से परिचित था, विचारों से सहमत और प्रभावित भी था, पर दो बरसों में परिचय जितना बढ़ता गया, उन से और उन की विदुषी पत्नी शशिकला से जितनी गहराई बढ़ती गई, यह समझ में आ गया कि यह शख़्स और यह परिवार अपने में कुछ अनोखा उत्साह, विशद ज्ञान समेटे है। कुछ बड़ा कर के रहेगा। वह हमेशा मुझे सर कहते थे, चाहे मैं कितना ही कहूँ कि हद से हद मुझे दादाअंकल या कुछ और कहो। पर वह सर से नहीं हिले। मैं उन्हें सर जी कहने लगा। पर यह सर जी उन के लिए सार्थक है। भाषाशास्त्र का अप्रतिम भंडार राजेंद्र के मस्तिष्क में है। इतनी कम उम्र में इतना ज्ञान दुर्लभ है।

शब्दों को अधिक और अधिक जानने की लालसा

शब्दों के प्रति, शब्दों के इतिहास के प्रति उन में अधिक और अधिक जानने की लालसा है। हिंदी का, हिंदी साहित्य का ज्ञान तो भरपूर है ही (मेरे लिए आतंकप्रद है–पिछले चालीस सालों से मेरा समकालीन साहित्य से संबंध लगभग छूट ही गया है। स्वनामधन्य साहित्यकारों, लेखकों, संपादकों को निजी तौर पर अच्छी तरह मित्र भाव से जानता हूँ, पर उन का नया कुछ पढ़ा नहीं है। कारण बस इतना है कि मैं और मेरी पत्नी समांतर कोश, शब्देश्वरी, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी जैसे कोशों की रचना में, उन के लिए डाटा संकलन में प्रतिदिन कम से कम 8-10 घंटे व्यस्त रहे, रहते हैं… कभी कभार दैनिक पत्र और कुछ पत्रिकाएँ ही सरसरी नज़र से देख भर लेते हैं)। मुक़ाबले में हिंदी के साथ साथ भोजपुरी क्षेत्र और भाषा इतिहास, जीवन, साहित्य की जानकारी उन की साँसों में बसी है।

भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश कोश का निर्माण राजेंद्र प्रसाद सिंह के बग़ैर इतना अच्छा नहीं हो पाता। (हमें उस की कमियाँ पता हैं। वे क्यों है यह आंतरिक समीक्षा का विषय है। मैं इस पर सार्वजनिक बहस शुरू करना नहीं चाहता। न ही राजेंद्र जी ऐसा चाहेंगे।) यह अपनी क़िस्म की पहली त्रिभाषी सशक्त शुरूआत है। यह संसार भर में फैले भोजपुरी-भाषियों को एक नए अनुभव से परिचित कराएगा, और मारीशस, फीजी जैसे देशों के अपनी भोजपुरी कोशों के लिए माडल का काम देगा। इस कोश में शब्दों के उपयोग के जो उदाहरण दिए गए हैं, वे सर जी के लोक साहित्य और भद्रलोकीय समाज की गहरी समझ से ही संभव था।

95 भाषाओं का यह कोश

उन के पास जो शब्द संपदा का अंबार है उसी का परिणाम है प्रस्तुत 95 भाषाओं को कोश। इस से पहले मैं ने मेहता पब्लिशिंग हाउस (पुणें) से प्रकाशित विश्वनाथ दिनकर नरवणे द्वारा संपादित भारतीय व्यवहार कोश (1961) देखा था। सोलह भारतीय भाषाओं के उस कोश के लिए हर भाषा से विद्वान चुन कर पहले से प्रदत्त शब्दावली दे कर शब्द मँगाए गए थे। पर राजेंद्रजी का कोश उन के निजी ज्ञान का परिणाम है, और उस से कहीं आगे जाता है। विश्व की 95 भाषाओं के 95 शब्द…!

मेरी राय में यह बस शुरूआत है… धीरे धीरे यह कोश बढ़ता जाएगा। इस कोश में उन्हों ने वही concepts सम्मिलित की हैं जिन के शब्द सभी 95 भाषाओँ में हैं। उदाहरण के लिए इस में रोटी शब्द नहीं है — क्योंकि जापानी भाषा में यह concept है ही नहीं। इस से यह केवल समानताएँ दिखाने का ही कोश है। मैं इस मामले में उन से सहमत नहीं हूँ। यदि भाषा विशेष में ऐसे शब्दों को ब्लैंक छोड़ दिया जाता, तो हमें संस्कृतियों की पारस्परिक तुलना करने का सौभाग्य प्राप्त होता, और कोश का आकार भी बढ़ जाता। मैं अपील ही कर सकता हूँ कि भविष्य में इन शब्दों को भी सर जी स्थान दें।

एक बात और… इग्नू (इंदिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी) ने भोजपुरी भाषा के पहले सुगठित पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनाने के लिए सर जी को चुन कर अपनी दूरदर्शिता और गुणग्राहकता का ही परिचय दिया है।

 

अभी उन की उम्र ही क्या है! मुझे दिखाई दे रहा है कम से 75 और सालों तक भोजपुरी समाज और भाषा के क्षेत्र में उन का अंतरराष्ट्रीय योगदान…

आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ

©अरविंद कुमार

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