कला वह है जो कलाकार करें और हम अ-कलाकारों पर थोपें क्योंकि उनकी हर करनी को कला कहने और पुरस्कारने वाले कलामर्मज्ञ मौजूद हैं. आप और हम मूरख बनें तो बनें, कला-करतार और कला-भरतार चिंता क्यों करें! दुनिया बनती ही रही है बनाने वाले चाहिएँ.
कहते हैं एक कलाकार ने शहंशाह अकबर के लिए भी अनोखी कलाकृति बनाई थी. महीने भर एकांत कला और धन सेवन के बाद उसने अकबरे आज़म को अपने अज़ीम फ़न का दीदार कराया. बादशाह सलामत ने देखा: मट्टी की भीत पर गोबर लिपा है. उस पर झाड़ुओं के छापे, कीरमकाटे और घसीटे बने हैं. सम्राट के पूछने पर फ़र्शी सलाम बजा कर कल्लादराज़ साहबे फ़न ने फ़रमाया, हुज़ूर, यह मैदाने जंग में आपकी फ़तह का मंज़र है. अगला सवाल था, जंग कहाँ है? जवाब था, आप जीत चुके हैं. जब पूछा गया, हम कहाँ हैं, तो बताया गया, दुश्मन भाग रहा है, आप उसके घोड़ों की पूँछें देख रहे हैं.
इसी तरह अमरीका के ‘महान’ चित्रकार ऐंडी वारहोल ने एक महान कलात्मक फ़िल्म बनाई–सुबह सबेरे कैमरा एक बड़ी इमारत के सामने खड़ा कर दिया गया, शाम तक कल्लाकार उसमें रील पर रील भरवाता रहा. आठ घंटों का ठहरा ठहरा सा जो शाहकार सामने आया, उसकी तारीफ़ में कल्ला-भरतारों ने जो पुल बाँधे, वे धरती से आसमाऽऽन तक पहुँच गए. हमारे हजरत मकबूल फ़िदा हुसैन भी कम नहीं हैं. बड़ी बड़ी हीरोइनों को ले कर कई फ़िल्लम बना चुके हैं, जिनके आने से पहले अख़बार वाले कालम पर कालम काले पीले करते रहते हैं.
आप को यह सब याद करवाने का मौक़ा मुझे हाल में मिला. अमरीका में मायमी हैरल्ड के स्तंभकार डेव बैरी का एक मज़मून पढ़ कर मेरे कल्लाचक्षु पूरी तरह खुल गए… उसका अनुवाद पेशे ख़िदमत है…
एक नवीनतम कला समाचार
इंग्लैंड से, या ग्रेट ब्रिटेन से, या यूनाइटेड किंग्डम से – गर्ज़ यह कि आजकल वहाँ के लोग अपने देश को जिस भी नाम से पुकारते हों, हमें नवीनतम कला समाचार मिला है.
आपको शायद याद हो, जब हमने पिछली बार बिरतानिया के कलाक्षेत्र पर दृष्टिपात किया था तो वहाँ के लोगों ने अपना एक बड़ा पुरस्कार प्रदान किया था. राशि थी २० हज़ार पाउंड (लगभग ३० हज़ार डालर) (भारतीय मुद्रा में लगभग १४-१५ लाख रुपए). कलाकार का नाम था मार्टिन क्रीड. कृति का नाम था – ‘जलती बुझती रोशनी’. इस कृति में एक ख़ाली कमरा बनाया गया था, जिसमें बिजली जल बुझ रही थी.
जी. इस कृति के लिए उसे १५ लाख की अमानत मिली. क्यों? क्योंकि इस में वह ख़ूबी थी जिसकी तलाश उच्च कोटि के हर कलानक्कू को रहती है. इस ख़ूबी की सब बड़ी ख़ूबी यह है कि साधारण इनसान इसे कला मानने की भूल कभी नहीं कर सकता. इसे देख कर आम लोग यही पूछेंगे – कला कहाँ है, और बत्तियों को क्या हुआ है?
जनता को तो पुराने ढर्रे की तस्वीरें पसंद आती हैं, जिन्हें देख कर कला की मौजूदगी का कुछ सूराग़ तो मिले. तभी तो रोम के सीस्तीन गिरजे में महान कलाकार माइकेल एंजीलो के भित्तिचित्र इतने लोकप्रिय हैं. इनसे जनता के प्रभावित होने के कई कारण हैं. नंबर १, उनमें आदमी आदमी नज़र आते हैं. नंबर दो, उन्हें माइक ने बनाया है. हम लोग दीवारें रँगते हैं, तो बाल रंग से भर जाते हैं. हम सोचते हैं माइक ने यह सब कैसे किया होगा. इसीलिए तो पब्लिक सीस्तीन गिरजे को महान मानती है और मुँह बाए चित्रों को ताकती रहती है. फिर आगे बढ़ जाती है, आम तौर पर लंच खाने.
अब लोग आधुनिक कला को सहने लगे हैं. बस, एक सीमा तक — क्योंकि अकसर उसके रंग उनके अपने घरों की सजावट से मेल खाते हैं. ऐसे चित्रों को देखते देखते लोग सोचते है कि उनके घर के सोफ़े के पीछ टँगे वे कैसे लगेंगे. और जहाँ तक जनता का सवाल है, कितना अच्छा हो कि अजायबघर वाले इन तस्वीरों के सामने सोफ़े भी डाल दिया करें ताकि उनमें धँस कर आराम से परखा जा सके.
यही वे बातें हैं, जिनसे पेशेवर कलानक्कू परेशान हो जाते हैं. वे यह कैसे ग़वारा कर सकते हैं कि उन्हें भी वही ‘कलाकृति’ पसंद आए जो किसी भी राहचलते बुद्धू को अच्छी लगे! इसीलिए जैसे जैसे जनता आधुनिक कला को स्वीकार करती जाती है, ये नक्कू अब उस तरह की कला को पसंद करने लगे हैं जिसे जनता पसंद कर ही न सके – जैसे ‘जलती बुझती रोशनी’.
अब आती है वह नवीनतम सूचना जो कुछ समय पहले बिरतानवी कल्ला जगत से आई है. आप समझेंगे मैं मनघड़ंत हाँक रहा हूँ. कई बार शक होता है कि कहीं सचमुच यह मेरे मन की कोई गंदी उड़ान तो नहीं है! पर मैं जानता हूँ कि यह कोरी कल्पना नहीं है. मेरे सामने लंदन का टैलिग्राफ़ अख़बार खुला है. उसमें लिखा है –
‘‘टेट गैलरी ने जनता के पैसे से एक कृति को २२,३०० पाउंड अता फ़रमाए हैं जो, विश्वास कीजिए, मात्र उत्सर्ग है.’’ (अनुवादक की ओर से… अँगरेजी शब्द है ऐक्सक्रीमेंट, जिसका अर्थ है मलोत्सर्ग.)
जी. ब्रिटेन के प्रतिष्ठित कला संग्रहालय टेट गैलरी ने देश की जनता के टैक्स में से २२,३०० पाउंड (लगभग रु १५ लाख ६० हज़ार) उस चीज़ पर लगाए हैं जो कलाकार की बेहद एकांत और व्यक्तिगत … है. चलिए हम कहते हैं जो उसकी निजी अभिव्यक्ति है. यह महान कलाकार हैं इटली के पीयरो मात्सोनी जो सन १९६३ में संसार से कूच कर गए थे, लेकिन जाने से पहले अपनी ‘कलाभिव्यक्ति’ से ९० डिब्बों को मालामाल कर गए थे. टैलिग्राफ़ का कहना है कि ‘इन डिब्बों को आधुनिकतम औद्योगिक विधि से सीलबंद किया गया था और संसार के प्रमुख संग्रहालयों में वितरित किया गया था.’
अब मान लीजिए कोई अपनी ऐसी अभिव्यक्ति, जिसे औद्योगिक विधि से सीलबंद किया गया हो, आपको, जी, आपको दे, तो आप पुलिस में रपट देना चाहेंगे. (इस विषय पर भारतीय पाठकों को अभिनेता कमलाहासन की संवादहीन फ़िल्म ‘पुष्पक’ शायद याद आ रही हो.) इसीलिए तो आप आम आदमी हैं. आपमें और पेशेवर कलामर्मज्ञ में यही तो अंतर है. कला संग्रहालय ने इसे ख़रीद लिया. टैलिग्राफ़ का कहना है टेट के साथ साथ न्यू यार्क के म्यूज़ियम आफ़ माडर्न आर्ट ने और पैरिस के पौंपीदू म्यूज़ियम ने भी इसके लिए पैसा दिया है.
जो भी हो, मेरे मन की आँखों के सामने ब्रिटेन का बेचारा नागरिक है. टैक्स अदा करने के बाद जो कुछ भी उसके पास बच पाता है, उससे वह गुज़रबसर कर रहा है. और तभी एक दिन सुबह… अख़बार दबाए वह बाथरूम का रास्ता अपनाता है. वहाँ बैठे बैठे वह पढ़ता है कैसे कलानक्कुओं ने उसकी मेहनत की कमाई – इस! – कला पर लगाई. वह बेचारा ग़ुस्से से पागल हो उठता है. अख़बार फेंक देना चाहता है… तभी, वहाँ बैठे बैठे…
…उसे कला का स-मल सपना आता है. अचानक उसकी खोपड़ी में पैठता है कि यह तो स्वर्णिम अवसर है… वह भी भारी रक़म कमा सकता है.
यह मैं क्या कह रहा हूँ? इसे तो कला की तस्करी कहा जाएगा.
आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
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