पौराणिक शब्दों के निहित अर्थ और बिंब पूरे भारत में एक हैं, और गाँवगाँव के नरनारी इन्हें तत्काल समझ जाते हैं. इन भारत की जिस शब्द संपदा का निर्माण होता है, वह हर भाषा से ऊपर है. आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी चले जाइए, किसी भी सुपढ़ कुपढ़ अनपढ़ से बात कीजिए, वह किसी भी धर्म का हो, राधा कहते ही वह समझ जाता है प्रेमदीवानी राधा का समर्पण भाव, भक्ति भाव. दुःशासन का अर्थ समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है, और उसी के साथ द्रौपदी के चीरहरण की घटना श्रोता के मन में स्पष्ट हो जाती है, और कृष्ण की याद भी तत्काल आती है जिन्होंने उस चीर को अनंत कर दिया था और दुःशासन को हार माननी पड़ी थी.
दर्शन और चिंतन के क्षेत्र में भारत ने, विशेषकर सनातन धर्म ने, विश्व को एक विशद शब्दावली दी है.
अमूर्त धारणाओं के मनन के लिए मूर्त प्रतीक और शब्द दिए हैं. उसदार्शनिक शब्दावली और बिंब विधान की बराबरी संसार की कोई अन्य संस्कृति शायद ही कर पाए.
यह शब्दावली भारत के बाहर के अनेक देशों में भी आसानी से समझी जाती है. मध्यपूर्व से ले कर सुदूर पूर्व तक ये प्रतीक काफ़ी हद तक जाने पहचाने हैं. क्योंकि प्राचीन भारतीय संस्कृति (इसे मैं हिंदू, बौद्ध, जैन, तांत्रिक नहीं कहना चाहता) का विस्तार काकेशिया पर्वतमाला से ले कर, भारत उपमहाद्वीप, दिक्षणपूर्वी एशिया में ही नहीं, उत्तर में साइबेरिया, मंगोलिया, चीन और जापान तक था.
हमारी राष्ट्रीय शब्दावली यही है. हिंदी, उर्दू, मलयालम, बांग्ला, कन्नड़ आदि की सीमाओं के पार यह शब्दावली सभी भाषाओं में पाई जाती है.
भारतीय भाषाओं में अनेक शब्द सामान्य हैं, लेकिन उनके अर्थ भिन्न हो जाते हैं. हिंदी में दारुण कहने पर तात्पर्य होता है कड़ा, कठोर, निर्दय, भयंकर… बांग्ला में इसका मुख्य और प्रचलित अर्थ है – अत्यधिक. शिक्षा से हिंदी में ज्ञानार्जन का बोध स्वाभाविक है. मराठी में इसका अर्थ है – दंड. हिंदी में मोटाा वह होता है जो गोलाई और चौड़ाई में बड़ा हो. गुजराती में मोटा बड़े को कहते हैं, जैसे मोटा सेठ का अर्थ है बड़ा सेठ, और मोटी बेन का अर्थ है बड़ी बहन.
लेकिन पौराणिक शब्दों के निहित अर्थ और बिंब पूरे भारत में एक हैं, और गाँवगाँव के नरनारी इन्हें तत्काल समझ जाते हैं. इन भारत की जिस शब्द संपदा का निर्माण होता है, वह हर भाषा से ऊपर है. आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी चले जाइए, किसी भी सुपढ़ कुपढ़ अनपढ़ से बात कीजिए, वह किसी भी धर्म का हो, राधा कहते ही वह समझ जाता है प्रेमदीवानी राधा का समर्पण भाव, भक्ति भाव. दुःशासन का अर्थ समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है, और उसी के साथ द्रौपदी के चीरहरण की घटना श्रोता के मन में स्पष्ट हो जाती है, और कृष्ण की याद भी तत्काल आती है जिन्होंने उस चीर को अनंत कर दिया था और दुःशासन को हार माननी पड़ी थी.
लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है. बहुत से पौराणिक शब्द और नाम (चाहे वे ईश्वर के पर्याय हों, या देवताओं या लौकिक कथाचरित्रों के नाम हों) अमूर्त धारणाओं के प्रतीक हैं. ऐसे बहुत से नाम देवीदेवताओं के गुणों के सूचक हैं और उनसे संबंधित घटनाओं के भी. कई बार इन शब्दों और नामों के प्रतिबिंब आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, व्याकरण और पिंगल शास्त्रों में मिलते हैं. उनमें एक पूरा सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास, कई बार राजनीतिक इतिहास भी, छिपा होता है. उनमें होती हैं जन साधारण की आकांक्षाएँ, भावनाएँ, मान्यताएँ, विश्वज्ञान की उनकी समझ, विभिन्न मतों और मठों की परस्पर प्रतिस्पर्धाएँ.
वैदिक देवताओं में विष्णु का स्थान इंद्र से कम था. इसलिए विष्णु के नामों में इंद्रानुज और उपेंद्र जैसे शब्द हैं. पूजा के स्तर पर इंद्र का महत्व भले ही कम हो गया हो, जनमानस में आजतक वह देवताओं के राजा हैं. लोग अपने नाम के अंत में इंद्र जोड़ना पसंद करते हैं.
देवता शब्द के अर्थ
स्वयं देवता शब्द के अर्थ को देखें तो मतलब है – चमकने वाला. इस अर्थ से इस ओर संकेत होता है कि आरंभ में कुछ जातियाँ या जाति समूह तारों को देवता मानते थे. आजतक यह धारणा भी चली आती है कि मर कर आत्मा स्वर्ग या आकाश में स्थापित हो जाती है. पौराणिक ग्रंथों में इसके लिए अनेक विधान हैं – किस की आत्मा केवल चंद्रलोक तक जाती है, किस की सूर्यलोक तक, किस की और भी आगे – स्वयं ब्रह्महृदय तक, जो ज्योतिष शास्त्र में आकाश के एक स्थान विशेष का नाम है. विष्णु का निवास क्षीर सागर में है और वे शेषनाग की शय्या पर विराजते हैं. क्षीर सागर आकाश में बिखरे तारों का प्रतीक है और शेषनाग हमारी आकाश गंगा का एक नाम भी है.
जब आदमी खुले आसमान के नीचे सोता था, तो उसकी निगाहें रात के तारों को देख कर विस्मय से भर जाती थीं. इसी लिए ज्योतिष संसार के पुरातनतम शास्त्रों में है. पहले मानव ने कुछ तारों और तारा मंडलों को पहचानना शुरू किया, और उन्हें नाम दिए. वह अपने दैनिक जीवन से उनका संबंध स्थापित करने लगा. उसने जाना कि ऋतुओं के परिवर्तन का सीधा संबंध तारों की गति से है. उसने आकाश गंगा की पहचान की, सौर मंडल को समझना शुरू किया, राशियों (सूर्यपथ के पड़ाव) और नक्षत्रों (चंद्रपथ के पड़ाव) को निश्चित किया, घ्रुव तारे का अडिग रहना उसके लिए एक और रहस्य था. उसी के आसपास उस ने ब्रह्महृदय की कल्पना की.
मातृकाओं द्वारा स्कंद या कुमार कार्तिकेय के मूल बीज की रक्षा, उसका जन्म, बाद में उसका देवसेना का अध्यक्ष बन जाना – ज्योतिष का एक अध्याय है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि देवसेना उत्तरी आकाश मंडल के तारों का समग्र नाम है, तो दैत्यसेना दिक्षणी मंडल के तारों का.
रामायण में प्रसिद्ध कथा है कि जनक को सीता खेत में मिली थीं. उन्हें धरती की पुत्री कहा जाता है. सीता भूमिपुत्री क्यों हैं? क्योंकि सीता शब्द का अर्थ ही है – हल की नोंक से खेत में पड़ी लकीर.
सीता की कहानी मेँ अनेक संदर्भ छिपे हैँ
रामायण में सीता की कहानी के साथ कृषि के अनेक संदर्भ प्रतीक रूप से जुड़े हैं. वास्तव में हमारी पुराणकथाएँ एक साथ कई स्तरों पर संप्रेषण करती हैं. उनमें समाज का यथार्थ कभीकभी कई सूत्रों में अलगअलग उपकथाओं में आता है, और कभी एक ही कथा के कई अर्थों में. वे सब सूत्र आपस में गुंफित हो कर ही उनके बहुरंगी और बहुआयामी आकर्षण का आधार बनते हैं. वैदिक युग में कृषि की देवी का नाम सीता था. एक स्तर पर रामायण में लांगल (हल द्वारा) कृषि को राम द्वारा दिए जाने वाले समर्थन का प्रतीक है. इसके लिए अहलित भूमि (अहल्या) का उद्धार आवश्यक था. आजतक अनेक समुदाय, विशेषकर साधुसंत, विशेष अवसरों पर ऐसा अनाज खाना पसंद करते हैं, जो खेत में अपनेआप उपजा हो. ऐसी कृषि को संस्कृत में इंद्रकृष्ट (इंद्र द्वारा हलित) कहते हैं. सीता स्वयंवर से पहले इस इंद्रकृष्ट भूमि – परती, पथराई भूमि – का उद्धार एक आवश्यक शर्त है. इसीलिए इंंद्र द्वारा दूषित और ऋषि गोतम द्वारा परित्यक्त अहल्या के पुनरुद्धार के बाद ही विश्वामित्र राम को सीता स्वयंवर के लिए मिथिला ले जाते हैं.
बाद में सीता के लिए राम खर दूषण का नाश करते हैं. खर दूषण का एक अर्थ है – खेत में उगी खर पतवार. इसे निर्मूल किए बिना फ़सल अच्छी नहीं हो सकती. सीता की अग्निपरीक्षा वाले वृत्तांत में उत्तर भारत में होलिका दहन पर होने वाली एक कृषि प्रथा की ओर भी संकेत है. रात में जब होली जलती है, लोग बाँसों के छोर पर अनाज के सिट्टे बाँध कर लाते हैं, होली की आग में उन्हें भूनते हैं और घरघर जा कर आपस में वे भुने दाने बदलते हैं. वास्तव में यह उस फ़सल की गुणवत्ता की अग्निपरीक्षा होती है, जो उनके खेतों में हुई है.
देवीदेवताओं से जुड़ी वस्तुओं से, उनके अपने रूपों के वर्णन से, भी हमें बहुत कुछ पता चलता है. वे भी उन पात्रों या देवीदेवताओं की कल्पना करने वालों के बारे में हमें बताते हैं.
इंद्र के वज्र की कल्पना क्या हमें कुछ नहीं बताती? पाषाण काल में मानव के हथियार थे पत्थर के टुकड़े. ये टुकड़े बनाने के लिए एक ख़ास दक्षता की आवश्यकता होती थी. उस युग का मानव अपने देवता के पास एक ऐसे वज्र की कल्पना करे जो महाघातक हो, तो इसमें अनोखा क्या है? अब इंद्र के साथ आप वे सब कल्पनाएँ भी जोड़ लीजिए जिन का संबंध वर्षा से है, क्योंकि इंद्र वर्षा के देवता भी हैं. बादलों में दिखाई देने वाला धनुष जैसा आकार सहज ही इंद्रधनुष बन जाता है, और विद्युतपात उनका वज्र. इंद्र का हाथी ऐरावत सफ़ेद है. इस कल्पना के काल तक आर्यों ने हाथी को पालतू बना लिया होगा. सफ़ेद हाथी की दुर्लभता ने ऐरावत को सफ़ेद हाथी बना दिया, जो एक प्रकार से सफ़ेद बादल भी हो सकता है. लेकिन इंद्र अश्वारोही भी हैं. स्पष्ट है कि इंद्र को पूजने वाले अश्वारोही थे.
विष्णु और शिव के धनुष सूर्य की खराद पर क्यों बनाए गए?
सूर्य, कुंती (कीली), कर्ण (तिरछी रेखा या आड़ी परछाईं) और व्यास (आधार रेखा) के नामों में कोई ज्यामितीय संदर्भ है या धूपघड़ी का प्रतीक?
असुर आदि के नाम, विशेषकर दैत्यों के नाम और उनसे जुड़ी कहानियों में अनेक उपमान मिलते हैं. क्या कंस का नाम किसी समृद्ध कांस्य संस्कृति की ओर संकेत कर रहा है, जिस के साथ कृषकों और गोपालकों का टकराव था? बाल कृष्ण पर पड़ी आपदाओं में बहुत सारे ऐसे प्रतीक हैं जो उन संकटों की ओर संकेत करते हैं जो बच्चों को झेलने पड़ते थे. आयुर्वेद में शिशु रोगों को पूतनाएँ कहा गया है. चेचक की बीमारी का एक सफल उपचार था – माँ का दूध पीना. इसी मान्यता को हम कृष्ण द्वारा पूतना वध की कहानी में देखते हैं.
अभी तक हमारे सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन या तो पुरातत्त्व के आधार पर होता रहा है या उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों के पाठ के आधार पर. परंपरा, जनश्रुति और भाषाशास्त्र को ऐसे अध्ययनों में लगभग नगण्य स्थान मिलता रहा है.
जनप्रथाओं और जनश्रुतियों को जनस्मृति में संघनित इतिहास कहें तो अत्युक्ति न होगी. हमारे बहुत से प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो गए हैं. जनश्रुतियों में उनकी कुछ झलक मिलती है. देवताओं के अनेक नामों में ये कहानियाँ प्रतिबिंबित होती हैं. अतः पौराणिक नामों के आग्रहहीन भाषाशास्त्रीय अध्ययन से हम बहुत कुछ जान सकते हैं.
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अध्ययन में ऐसे नामों की उपयोगिता को समझ कर, समांतर कोश की रचना के बाद मैं ने और मेरी पत्नी कुसुम ने पौराणिक नामों का विशालतम संकलन – शब्देश्वरी - तैयार किया है.
शब्देश्वरी कोई पहली कोशिश नहीं है, लेकिन…
पौराणिक नामों का समांतर कोश बनाने की शब्देश्वरी कोई पहली कोशिश नहीं है. यह लगभग पाँच हज़ार साल पहले निघंटु से शुरू हुई थी. उसमें वैदिक शब्दों का संकलन विषयक्रम से किया गया था. उसके अंतिम अध्याय में देवताओं के नाम हैं. उसे संसार का सब से पहला समांतर कोश या थिसारस होने का गर्व प्राप्त है. निघंटु की रचना किस ने की — यह पता नहीं है. पुराण प्रेमी जन उसे प्रजापति भगवान कश्यप की रचना मानते हैं. कुछ लोग उसे परंपरा से प्राप्त शब्दावली मानते हैं. महर्षि यास्क ने निघंटु की व्याख्या की थी. इस व्याख्या का नाम निरुक्त है.
बाद में संस्कृत में ऐसे अनेक कोश बने. उनमें अमर सिंह का अमर कोश शीर्षस्थ माना जाता है. लेकिन उसका विषय विस्तार अपने समय का पूरा समाज और भाषा थी. उसके संिक्षप्त कलेवर में यह संभावना नहीं थी कि सभी पौराणिक नामों को समेटा जा सके. यही कारण है कि उसमें ब्रह्मा के लिए केवल २०(९ शब्द हैं, विष्णु/कृष्ण के लिए ३९(७ शब्द हैं और शिव के लिए ४८(४. प्रसंगवश, अमर कोश में ब्रह्म का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. ईश्वर का पर्याय है शिव, विष्णु का कृष्ण. राम का कोई स्वतंत्र उल्लेख नहीं है. तीन रामों (परशुराम, बलराम और दाशरथि राम) को एक अर्धाली में टाल दिया गया है.
पौराणिक नामों के संकलनों की परंपरा में विष्णु और शिव के सहस्रनाम प्रसिद्ध हैं. लेकिन उनकी विषय वस्तु एक ही देवता तक सीमित है.
शब्देश्वरी में हर देवीदेवता के लिए ऊपरोक्त ग्रंथों से कहीं अधिक नाम हैं. उदाहरण के लिए इसमें ब्रह्मा के लिए ११६, तो विष्णु के लिए १,६८० नाम मिलेंगे, और शिव के लिए २,३३०, इन में अगर रुद्र आदि के नाम भी जोड़ लें तो यह संख्या २,४११ हो जाती है. यही नहीं. इसमें कुछ और प्रमुख नामावलियों की संख्या इस प्रकार है : ईश्वर ५६६, आत्मा १०२, ब्रह्म १५१, निर्गुण ब्रह्म ५२, ओम् ४०, माया ४७, सरस्वती १०७, लक्ष्मी १२१, राम ११९, सीता ६८, कृष्ण ४११, अर्जुन ८५, कर्ण ८०, बलराम १००…
जहाँ तक विषय वस्तु की विशदता का प्रश्न है – इसमें ईश्वर, आत्मा, देह, पुरुष आदि से ले कर त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, विष्णु के सभी प्रमुख अवतार, महेश/शिव) के, देवयोनियों में अप्सराओं से ले कर यक्षों, वानरों, विद्याधरों के, प्रजापतियों, मनुओं, ऋषियों मुनियों के, असुरों, दानवों, दैत्यों, राक्षसों के, ग्रहों, लोकों और स्वर्ग, नरक और मोक्ष के पर्यायवाची या समांतर शब्दों का संकलन है.
यह संकलन थिसारस या समांतर कोश वाले क्रम से किया गया है यानी हर देवीदेवता से संबंधित नामों को उससे संबद्ध अध्याय में यथास्थान संकलित किया गया है, जैसे शिव नामक अध्याय में शिव के नाम तो मिलेंगे ही, सती, पार्वती, दुर्गा, गणेश, स्कंद, रुद्र आदि के नाम भी उसी अध्याय में हैं.
शब्देश्वरी में पौराणिक पात्रों और कल्पनाओं के नामों के संकलन का उद्देश्य है – जगह जगह फैली इस तरह की सामग्री को एक जगह लाना और भारतीय संस्कृति के एक महत्वपूर्ण पक्ष के पुनराकलन की भूमिका तैयार करना.
हाँ, यह एक अलग बात है कि आजकल जब पुराने नामों का फ़ैशन बढ़ता जा रहा है, नामकरण के अवसर पर न केवल सामान्य परिवार, बल्कि पुरोहित भी इसे बड़े काम की चीज़ पाएँगे.
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आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
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