मधुप का रचना संसार

In Culture, Fiction, Literature, Reviews by Arvind KumarLeave a Comment

 

पुस्‍तक समीक्षा

 

फुलमाया (सामाजिक उपन्‍यास). लेखक: मधुप शर्मा. प्रकाशक: आत्‍माराम एण्‍ड संस, दिल्‍ली. पृष्‍ठ संख्‍या: १४९. मूल्‍य: रु. १३५.००

अनजाने रिश्‍ते (कहानी संग्रह). लेखक: मधुप शर्मा. प्रकाशक: आत्‍माराम एण्‍ड संस, दिल्‍ली. पृष्‍ठ संख्‍या: १७६. मूल्‍य: रु. १६०.००

 

मधुप जी का जीवन अपने आप में एक रोचक उपन्‍यास है, और उस में ढेरों कहानियाँ भरी पड़ी हैं. कारण? उन के जीवन के अनुभवों की विविधता. इस विविधता में आकाशवाणी के विविध भारती कार्यक्रम से उन के लंबे समय तक का जुड़ाव तो है ही, उन की वह पैनी दृष्‍टि भी है जो हर व्‍यक्ति को गहराई से नापती है और पूरी संवेदना औऱ सहानुभूति से समझने को प्रेरित करती है और फिर उसे अपने मर्म में मज़बूती से पैठा देती है. एक वेदना भी है, जो हर उस महत्त्वाकांक्षी लेखक के मन में पैठी होती है जो निकलता है साहित्‍यकार बनने लेकिन रोटी रोज़ी के चक्‍कर में पत्रकारिता, रेडियो, फ़िल्‍मों में फँस कर लिखना भूल जाता है और जब उम्र के ढलान पर पहुँचता तो जिसे फिर अपना वह खोया सपना याद आता है जिसे पूरा करने वह जवानी में चला था. मधुप जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है.

आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद वह लेखन में लगे. ४६ में ही उन का गीत संग्रह प्रकाशित हुआ यह पथ अनंत और ४८ में छपा गद्यगीत संग्रह टुकड़े. फिर पत्रकार बन गए – आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका परख का संपादन करने लगे. गीत लेखन का शौक़ उन्‍हें मुंबई ले गया. ५२-५३ में कुछ फ़िल्‍मों में गीत लिखे (बाद में उन्‍हों ने अनेक फ़िल्‍मों में अभिनय भी किया. मुझे याद आ रहा है फ़िल्‍म बाबी में उन का प्रिंसिपल वाला रोल). बँधे बँधाए रोज़गार की तलाश उन्‍हें विविध भारती ले गई, जहाँ वे ६७ तक रहे. इस के बाद अनेक रेडियो नाटकों और कार्यक्रमों का लेखन, पत्रिकाओं में विविध लेख. इस सदी के अंतिम दशक तक पहुँचते पहुँचते, जब जीवन में कुछ स्‍थायित्‍व आ पाया, एक बार फिर साहित्‍य की ओर रुख़ किया.

इस सब से एक और बात जो उजागर होती है कि वह यह कि उन के कैरियर ने एक ओर अपनी रचनाओं को आम आदमी के लिए सहज गतिशील शैली में लिखने का अभ्‍यास डाला, तो दूसरी ओर उन्‍हें साहित्‍यिक वादोँ और दुराग्रहों से दूर रखा. न तो फ़िल्‍मों में कोरी लफ़्‍फ़ाजी के लिए कोई गुंजाइश होती है, न रेडियो आदि के लोकप्रिय कार्यक्रमों में उन दिनों किसी कथावस्‍तु को लंबा खींचने की वह प्रवृत्ति होती थी, जो आजकल टीवी पर सोप आपेराओं में लोकप्रियता भुनाने के लिए निर्माता-निर्देशकों को अपनानी पड़ती है.

अब जो मधुप जी सर्जनात्‍मक लेखन के क्षेत्र में फिर से आए हैं, तो उन के मन की उर्वरता को मानो पंख लग गए हैं. फुलमाया मधुप जी का तीसरा प्रकाशित उपन्‍यास है, तो अनजाने रिश्‍ते उन का तीसरा कहानी संग्रह. दोनों में समानताएँ अनेक हैं. उन के पात्र जीवन से उठाए गए हैं, और वे हमारे आसपास के लोगों की सच्‍ची कहानियाँ कहते प्रतीत होते हैं. कहानियाँ भी ऐसी कि एक बार उठा लो तो पूरी किए बिना चैन न मिले, और दोबारा पढ़ने को मजबूर होना पड़े. अगर उन पर लिखना हो तो एक बार और पढ़ने की आवश्‍यकता महसूस हो.

मैं ने क़त्‍ल किया है, कोई गुनाह नहीं किया…

कचहरी में यह बयान था फुलमाया का. वह फुलमाया जो नेपाल के किसी गाँव में जन्‍मी थी, और अनेक अनाथ-सनाथ नेपाली लड़कियों की तरह मूर्ख बन मुंबई में ग़लत धंधों में फँसने पहुँच गई थी. फँस नहीं पाई थी, और दोबारा फँसना नहीं चाहती थी.

उसे क़त्‍ल करने की और यह बयान देने की ज़रूरत जो पड़ी, तो उस की भी एक अनोखी वजह बन गई थी. चकलेवासियों के चंगुल से बच निकलने की उस की सचित्र कहानी संयोगवश किसी पत्रिका में छप गई थी. अपने आप को सजग और सामाजिक पत्रकार समझने वाला जो क़लम बाबू उसे माहिम स्‍टेशन के बाहर मिल गया था, और जिसे अपने फ़ीचर के लिए उसे जैसे परित्‍यक्त पात्रों की तलाश रहती थी, उस की कहानी लिख कर अपने सामाजिक दायित्‍व के ग्रंथि भाव से मुक्त हो गया था, लेकिन फुलमाया के फिर से खोज लिए जाने के सूत्र सारे में बिखेर गया था.

फुलमाया की पूरी कहानी किसी संिक्षप्‍त समीक्षा में लिखना पुस्‍तक और पाठक के साथ अन्‍याय होगा. इतना ही कहा जा सकता है कि कहानी का मर्म इसे पूरा पढ़ कर ही समझा जा सकता है. हाँ, इतना कहना अवश्‍य है कि यह कहानी जानी पहचानी पगडंडियों पर नहीं चलती. न तो गँवार फुलमाया प्रसिद्ध फ़िल्‍म अभिनेत्री बनती है, न हत्‍यारिन फुलमाया जेल की कोठरियों में लंबा जीवन बिताती है. वह हमें समाज के अनेक वर्गों में ले जाती है और समाज के अनेक रूप दिखाती है, उस के जीवन में जो भी पात्र आता है वह हमारा जाना पहचाना है.

यही बात अनजाने रिश्‍ते की कहानियों के पात्रों के बारे में कही जा सकती है और उन के कथा तत्त्व के बारे में भी. हम ने आरंभ में ही देखा कि कभी पहले मधुप जी ने गद्यगीत भी लिखे थे. इस कहानी संग्रह की कई कहानियाँ कहानी होने साथ साथ गद्यगीत भी हैं. असल में मधुप जितने कहानीकार हैं, उतने ही गीतकार भी. सुख की फुहार, और उस ने कहानी लिखी, और वो चली गई, पुराने स्‍लीपर, नारियल वाला बँगला - ऐसी कहानियाँ हैं जिन का विचार लेखक के मन में किसी कविता की तरह कौंधा होगा, जो छंदबद्ध या अछंद काव्‍य बनते बनते कहानियाँ बन गया.

अन्‍य कहानियाँ भी अपनी कथानकता के बावजूद लेखक के मन की किसी पीड़ा, संवेदना, हर्ष, शोक, करुणा आदि की कथामय अभिव्‍यक्तियाँ हैं. यहाँ हम एक ऐसी माँ से मिलते हैं, जो अभावों से ग्रस्‍त जीवन जीते जीते अपने और अपने बच्‍चों के लिए आत्‍मनिर्भरता का महल खड़ा कर लेती है, पर उस के बेटे… एक और माँ है जिस ने धनी परिवार में रहने से इस लिए इनकार कर दिया कि वहाँ नवजात बेटियों को बेटों जैसा सम्‍मान नहीं मिलता, जिस ने अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर डाक्‍टर बनाया, और जब एक दिन उस के अपने पति पर… यहाँ अनेक पति हैं, अनेक पत्‍नियाँ है, नौकर हैं, मालिक हैं… ये सब हमारी आँखों के सामने बदलते समाज का चलचित्र दिखा रहे हैं… और हम हैं कि देखते रहना चाहते हैं. यहाँ हमें ऐसे जानवर मिलते हैं, जिन में मानवीय संवेदनाएँ हैं. इसी बात को एक और तरह से भी कह सकते हैं कि हम एक ऐसे लेखक से मिलते हैं जो हर जगह मानवीय संवेदनाएँ तलाश लेता है, और उसी शक्तिशाली भावनाओं के साथ पाठक तक पहुँचा सकता है जो उस के अपने मन में जगी थीं.

कहने को बहुत कुछ कहते रहा जा सकता है, एक एक कहानी के बारे में विस्‍तार से लिखा जा सकता है. एक ही वाक्‍य में जो बात कहना है वह यह है – मधुप जी, आप ने देर में लिखना शुरू किया है, लेकिन आप लिखते रहें, लिखते रहें, लिखते रहें…

© अरविंद कुमार

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