ओ घातिनी शंका, अवसाद की संतान!
क्योँ घेरती है तू मानवोँ के मन?
जो नहीँ है, क्योँ दिखाती है वही संकट?
जहाँ तू जन्म लेती है, उसी का नाश करती है.
सोमक्षेत्र. युद्ध का एक अन्य कोना.
(तूर्यनाद. कंक और गजदंत आते हैँ.)
कंक
गजदंत, यह देखो. कायर कहीँ
के! भगोड़े! ये भागते हैँ छोड़ कर
मैदान. आज अपनोँ पर उठाना पड़
रहा है हाथ मुझ को. ध्वजवाह अपना
आज मैँ ने मार डाला. भागता था छोड़
कर मैदान… और अपना ध्वज स्वयं मैँ ने
सँंभाला…
गजदंत
ज़रा सी भूल कर बैठे
हमारे आर्य शतमन्यु. भरत
पीछे हटा थोड़ा, वे चढ़ गए
आगे – बिना सोचे, बिना समझे.
भूल कर लड़ना, लूटने मेँ जुट गए
सैनिक हमारे… आनंद ने
घेरा हमेँ तत्काल.
(उशीनर आता है.)
उशीनर
भागिए, स्वामी. दौडिए, स्वामी.
छावनी मेँ, आप की, अब शत्रु की
सेनी घुसी. फूँक डाले सब शिविर.
भागिए, स्वामी. दौड़िए, स्वामी.
कंक
यह पहाड़ी है सुरिक्षत. देख तो
गजदंत, देख तो. जो जल रहे
हैँ, वे शिविर मेरे शिविर हैँ?
गजदंत
हाँ,
वे हमारे ही शिविर हैँ.
कंक
मित्र,
ले, अश्व ले मेरा. लगा दे एड़.
देख कर तो आ… कौन से सैनिक हैँ वे?
दुश्मनोँ के या हमारे?
गजदंत
बस, गया, आया.
(जाता है.)
कंक
उशीनर, सुन, इस टीले पर चढ़ तो.
देख कर बता तो क्या हो रहा है.
(उशीनर टीले पर चढ़ता है.)
मैँ ने लिया था साँस पहला आज ही
के दिन. चक्र मेरे काल का पूरा
चुका है घूम. आज ही आरंभ था.
आज होगा अंत… उशीनर, बता
तो, क्या हो रहा है?
पिंडारस
(ऊपर से) हाय, स्वामी!
कंक
क्या हुआ?
उशीनर
(ऊपर से) घिर गया, गजदंत घिर गया
सवारोँ से. भागता है वह. दौड़ते
हैँ वे. लो, निकट वे आ गए उस
के. उतर गए वे, उतर गया
वह भी. पकड़ा गया, स्वामी.
(शोर.)
सुनिए, स्वामी, यह हर्षनाद!
कंक
आ, उतर, नीचे उतर. मत देख अब
कुछ और. मैँ स्वयं भी कापुरुष हूँ.
मित्र मेरा सामने मेरे गया.
धिक! जी रहा हूँ मैँ!
(उशीनर नीचे उतरता है)
आ, यहाँ आ,
दास मेरे. गांधार मेँ मैँ ने तुझे
बंदी बनाया. था नहीँ मारा
तुझे इस शर्त पर – आदेश मेरे
तू सदा माना करेगा. आदेश
अंतिम मानना है आज तुझ को. मुक्त मैँ
तुझ को करूँगा. फिर लौट जा तू देश.
जिस से मरा विक्रम, वही तलवार
है यह. चीर दे इस से कलेजा. बोल
मत! ले पकड़! तलवार की यह मूठ, ले!
इस तरह जब ढाँप लूँ चेहरा तो घोँप
दे तलवार.
(पिंडारस तलवार घोँपता है.)
ले, विक्रम, पूरा हुआ
प्रतिशोध तेरा – उसी तलवार ने
मारा मुझे जिस से मरा तू.
(कंक मरता है.)
उशीनर
मुक्त हूँ मैँ अब. पर चाहता मैँ मुक्ति
ऐसी तो नहीँ था! आर्य! स्वामी!
लीजिए, मैँ भागता हूँ… छू न
पाएगा मुझे अब कोई सैंधव.
(उशीनर भागता है.)
(गजदंत और शूरसेन आते हैँ.)
शूरसेन
है न अनोखा संयोग, गजदंत.
शतमन्यु ने हरा दिया भरत
को, और कंक की सेना को खदेड़
दिया आनंद ने.
गजदंत
चलो, कुछ तो
है जिसे सुन कर ख़ुश होँगे कंक.
शूरसेन
कहाँ छोड़ गए थे तुम उन्हेँ?
गजदंत
यहीँ
थे. अवसाद मेँ डूबे. उशीनर
साथ था.
शूरसेन
वे तो नहीँ – धरती पर?
गजदंत
जीवित
तो नहीँ लगते. हाय!
शूरसेन
वे ही हैँ न?
गजदंत
…वे हैँ नहीँ – वे थे. कंक
नहीँ रहे. सूर्य, तू जाता है
रक्तिम आभा के साथ. रक्तिम
लहू मेँ ही हुआ कंक महान
का अवसान. हो गया अस्त सैंधवोँ का
सूर्य! ढल गया हमारा दिन. घिर
रहे हैँ बादल, धुंध, अंधकार, कष्ट.
यही था हमारे उद्यमों का अंत?
जो विजय थी हार समझे आप.
कर लिया निज अंत…
शूरसेन
यह था कुटिल
परिणाम शंका का. ओ घातिनी
शंका, अवसाद की संतान! क्योँ घेरती
है तू मानवोँ के मन? जो नहीँ है,
क्योँ दिखाती है वही संकट? शीघ्र
ही तू जड़ पकड़ती है. कभी देती
नहीँ शुभ फल. जहाँ तू जन्म लेती
है, उसी का नाश करती है.
गजदंत
उशीनर! उशीनर! कहाँ है तू?
शूरसेन
गजदंत, ढूँढ़ो उशीनर को…
मैँ चलूँ. तप्त सीसे सी ख़बर
यह सेनापति के कान मेँ डालूँ.
घोर निर्मम कर्म है यह – क्या करूँ? –
करना पड़ेगा.
गजदंत
हाँ, जाओ, शूरसेन.
खोजता हूँ मैँ उशीनर को…
(शूरसेन जाता है.)
महावीर कंक, क्योँ आप ने भेजा
मुझे? मार्ग मेँ मुझ को मिले जो
वे मित्र सैनिक थे. झूमते, उल्लास
मेँ नारे लगाते. उन्हीँ ने रखी
थी भाल पर मेरे यह विजय की माल.
यह कहा था, आप को यह दूँ. उल्लास
उन का आप तक पहुँचा नहीँ क्या?
हा, शोक! समझा आप ने कुछ और! अब
धारिए, स्वामी, यह विजय की माल.
आप के मनमीत शतमन्यु का विजय उपहार!
आर्य शतमन्यु, कहाँ हैँ आप?
देखेँ, मुझे देखेँ. मैँ! मैँ – कंक
का मीत. मैँ? यहाँ जीवित अकेला.
देवगण, मुझ को क्षमा करना…
यह सैंधवोँ की रीत… तलवार मेरे
मीत की है तू. ले, वक्ष मेँ मेरे
उतर जा…
(गजदंत मरता है.)
(तूर्यनाद. शतमन्यु, अश्वत्थ, शंबूक और इंद्रगोप के साथ शूरसेन आता है.)
शतमन्यु
कहाँ है? किधर है? शूरसेन, मेरा
कंक कहाँ है? कहाँ है?
शूरसेन
वहाँ, वह.
शोक संतप्त गजदंत के पास…
शतमन्यु
हैँ! गजदंत तो औँधा पड़ा है.
अश्वत्थ
मर गया वह.
शतमन्यु
विक्रम महानायक,
अभी तक तुम बली हो. तुम्हारी
आत्मा अब तक धरा पर डोलती है.
वह हमारे खड्ग हम मेँ घोँपती है.
(धीमा तूर्य.)
अश्वत्थ
वीर गजदंत! देखिए यह माला –
कंक के भाल पर उस ने सजाई.
शतमन्यु
इन सरीखे वीर सैंधव और हैँ क्या?
देश के अंतिम सपूतो, लो विदा.
है असंभव सिंधु माता जन सके
अब वीर तुम जैसे. नहीँ यह वक़्त
रोने का. सुन, कंक, मीत, मेरे मीत!
रोऊँगा, रोऊँगा, रोऊँगा मैँ
कभी और… कभी और… मणितीर्थ भेज दो.
हैँ पुण्य ये अवशेष. वहीँ हो कर्म
इन का. यहाँ संकट रहेगा.
इंद्रगोप, चलो. चलो, नौजवान
अश्वत्थ, चलो. पुष्पक और सुघोष
कर रहे हैँ व्यूह रचना. बजे हैँ तीन.
चलो, फिर से करेँ संघर्ष. रात
से पहले भाग्य हम फिर आज़माएँ.
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