बुरे वार मेँ भी, शतमन्यु,
तुम करते हो अच्छा भाषण.
घोँप रहे थे तलवार जब विक्रम के
सीने मेँ, कह रहे थे : विक्रम की जय हो!
सोमक्षेत्र.
(भरत सैंधव, आनंदवर्धन और उन की सेनाएँ आती हैँ.)
भरत
मन की सभी मुरादेँ मिल गईँ
हमेँ. तात आनंद, आप का विचार
था, शत्रु नीचे नहीँ उतरेगा.
रहेगा वह कपिंजल पर्वत पर.
नहीँ हुआ वैसा. उतर आया.
ललकारा तक नहीँ हम ने, लड़ने
चला आया हम से सोमक्षेत्र.
आनंद
हूँ!
जानता हूँ मैँ - क्या है उन के मन मेँ.
चाहते हैँ वे हम से दूर रहना, पर
करने चले आए हैँ साहस का
दिखावा. बस यूँ ही – हमेँ डराने.
(संदेशवाहक आता है.)
संदेशवाहक
सेनापतियो, तैयार! चला आ रहा
है शत्रु दनदनाता. युद्ध की
रक्तिम ध्वजा फहरा दी है उस ने.
कुछ करना होगा तत्काल.
आनंद
भरत, तुम सँभालो समतल वाम पक्ष.
भरत
नहीँ, मैँ रहूँगा दाहिनी ओर.
वाम पक्ष संभालेँ आप.
आनंद
संकट की इस
घड़ी मेँ काटते हो बात?
भरत
बात नहीँ
काटता हूँ. पर जो कहा है होगा
वही.
(नेपथ्य से प्रयाण की धुन.)
(नगाड़ा. तूर्यनाद. शंखनाद. शतमन्यु, कंक और सेनाएँ आती हैँ. साथ मेँ हैँ इंद्रगोप, गजदंत और शूरसेन.)
शतमन्यु
वे खड़े हैँ. करना चाहते हैँ बात.
कंक
रुक जा! सावधान! गजदंत, कर आएँ
हम बात.
भरत
तात आनंद, युद्धध्वजा
फहरा देँ हम?
आनंद
नहीँ, भरत, करने दो
उन्हेँ आघात. हम देँगे उत्तर. पर
पहले वे करना चाहते हैँ कुछ बात.
भरत
सावधान! संकेत की प्रतीक्षा करो.
शतमन्यु
आघात से पहले संभाषण! क्योँ?
भरत
भाषण का मोह तो तुम्हेँ है, हमेँ
नहीँ.
शतमन्यु
बुरे वार से तो अच्छा है
अच्छा भाषण.
आनंद
बुरे वार मेँ, शतमन्यु,
तुम करते हो अच्छा भाषण.
घोँप रहे थे तलवार जब विक्रम के
सीने मेँ, कह रहे थे : विक्रम की
जय हो!
शतमन्यु
आनंद, अभी तो देखने
हैँ तेरे वार. लेकिन, तेरा भाषण!
मधुवन से भी चुरा लेता है मिठास.
आनंद
साथ मेँ डंक भी.
शतमन्यु
और भनभनाहट भी.
डंक मारने से पहले क्या ख़ूब
भनभनाता है तू.
आनंद
पापी, ग़द्दार!
नहीँ भनभाया तू, विक्रम के
सीने मेँ जब तू ने घोँपी तलवार?
बंदरोँ की तरह निपोर रहा
था खीसेँ, कुत्तोँ की तरह हिला
रहा था दुम, और दासोँ की तरह
चूम रहा था चरण… अधम चाणूर!
गीदड़ की संतान! छिप कर पीठ पर उस
ने किया था वार! सब के सब चाटुकार!
कंक
चाटुकार! देखा, शतमन्यु! क्योँ आप ने
नहीँ मानी मेरी बात? क्योँ बच
रहा यह दुष्ट – कहने को यह बात!
भरत
तो करो काम की बात. करो आघात.
बातोँ मेँ मत बहाओ पसीना.
तलवारोँ से खेलो ख़ून की होली.
ग़द्दारो, लो खीँच ली मैँ ने तलवार.
विक्रम के शरीर मेँ किए थे तुम
ने तैँतीस घाव. हर घाव का बदला
ले कर बुझेगी इस की प्यास… या जब जान
ले लोगे मेरी – तुम, पापी, ग़द्दार!
शतमन्यु
ग़द्दार! वे होँगे तेरे शिविर मेँ.
मारेँगे वही तुझे.
भरत
हाँ, हाँ. कब
मार सकती है मुझे तेरी तलवार?
शतमन्यु
बड़े से बड़ोँ को नहीँ मिलती
इस से अच्छी मौत.
कंक
छोकरा कहीँ का!
चला आया लड़ने. साथ ले आया
कलंदर, भांड.
आनंद
नहीँ गई अब तक
कंक की कसयाहट.
भरत
तात आनंद,
चलो. छोड़ो. ग़द्दारो, ललकारते
है तुम्हेँ हम. साहस है तो आओ
मैदान मेँ. या जब फिर कभी हिम्मत
हो, तो चले आना जौहर देखने.
(भरत, आनंद और उन की सेनाएँ जाते हैँ.)
कंक
लो, अब चल पड़ी आँधी
प्रलय का घोर घन गर्जन
लगा है दाँव पर सब कुछ
लहर पर झूलता जीवन
शतमन्यु
इंद्रगोप, सुन तो.
इंद्रगोप
(आगे बढ़ता है) स्वामी?
(शतमन्यु और इंद्रगोप अलग हट कर बात करते हैँ.)
कंक
शूरसेन.
शूरसेन
(आगे बढ़ता है) क्या आदेश है, सेनापति?
कंक
शूरसेन, आज मेरा जन्मदिन है.
कंक ने था आज ही के दिन प्रथम
संसार देखा. हाथ दो, नरवीर, अपना.
साक्षी बनो तुम. संग्राम तो करना
पड़ेगा, पर नहीँ मन साथ मेरा.
सब नागरिक अधिकार, स्वाधीनता हम
सैंधवोँ की, एक ही मुठभेड़ मेँ हो
दाँव पूरा – क्या सही है यह कसौटी?
और तुम यह जानते हो, मित्र मेरे –
अंधविश्वासी नहीँ मैँ. शकुन, अच्छे
या बुरे होँ, माने नहीँ मैँ ने
कभी. पर, न जाने क्योँ, आज मुझ को,
विपरीत लक्षण दिख रहे हैँ, और उन
मेँ हो रहा विश्वास मुझ को.
थे सौभाग्य के सूचक गरुड़ दो.
मार्ग मेँ ध्वजदंड पर वे आ
विराजे. थे शौक़ से स्वीकार करते
बलिभोग सारे, जो उन्हेँ सैनिक
खिलाते. साथ चलते आ रहे थे.
पर न जाने क्योँ, कहाँ, कब छोड़ वे
हम को सिधारे. और अब आकाश मेँ
मँडरा रहे हैँ चील कौवे, नोँचने
को तन हमारे. छा रही है मौत
की विकराल छाया.
शूरसेन
हैँ सभी विश्वास
ये मिथ्या.
कंक
सत्य इन को मानता मैँ
भी नहीँ हूँ. और मुझ मेँ पूर्ण है
संग्राम का उत्साह. संकटोँ से जूझने
तत्पर खड़ा हूँ…
शतमन्यु
तो, इंद्रगोप ठीक
है यह…
कंक
आर्यवर शतमन्यु, हमारे
देश के नेता… हैँ हमारे साथ सारे
देव. मित्र, साथ थे सुखशांति मेँ हम,
साथ भोगेँगे विजय भी. पर सभी
परिणाम रण के हैँ अनिश्चित.
हार का मुँह देखना हम को पड़े,
तो यह मिलन अंतिम मिलन होगा
हमारा. क्या करेँगे आप ऐसी
आपदा मेँ?
शतमन्यु
है कर्म मेँ, बस, कर्म मेँ
विश्वास मेरा. परिणाम की चिंता
कभी करता नहीँ मैँ… मौत से डरता
नहीँ मैँ. आत्मा मरती नहीँ. पर
स्वयं ही मौत को वरना – नहीँ
स्वीकार मुझ को. महावीर नंद ने जब
वरी थी मौत, मुझ को वह साहसहीन
लगी थी. कुत्सित थी वह मौत. भयभीत
पलायन थी वह मौत. जो पड़ेँगी
आपदाएँ – मैँ सहूँगा. और अंतिम
श्वास तक संघर्ष मैँ करता रहूँगा.
कंक
एक पल को मान लेँ –
हम हार जाएँ. वे आप को बंदी
बना लेँ, शृंखला से हाथ बाँधेँ, पैर
बाँधे, भाल पर कालिख लगाएँ और
फिर पूरे नगर मेँ वे निकालेँ…
शतमन्यु
नही, कंक! नहीँ! नहीँ!
ऐसी बात मत बोलो! नहीँ, नहीँ!
धारावती मेँ इस तरह मैँ चल नहीँ
सकता… यही सोचो – हमेँ अब चैत्र
की उस क्रांति को संपूर्ण करना है.
पर अब मिलन कब हो हमारा – कौन
जाने? तो, मित्रवर, मिल लो गले.
विदा, अलविदा. दोस्तो अलविदा.
फिर मिले तो फिर हँसेँगे. मिल ना
पाए तो – यह विदा सुंदर विदा है.
कंक
विदा, अलविदा. दोस्तो, अलविदा
फिर मिले तो फिर हँसेँगे. मिल ना
पाए तो – यह विदा सुंदर विदा है.
शतमन्यु
तो, चलो, आगे बढ़ो, नरवीर, तुम
सेना सँभालो… अंत अपने हर
किए का, काश, मानव देख पाता. हर्ष
की, पर, बात यह है – आज संध्या पूर्व
ही हम देख लेँगे अंत अपना…
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