द्रोह, यूँ मुँह मत छिपा अपना.
छिपा ले अपने को दोस्ताने मेँ, मुस्कान मेँ.
नहीँ तो छिप नहीँ सकेगा तू गहरे पाताल मेँ.
धारावती. शतमन्यु का उपवन.
(शतमन्यु आता है.)
शतमन्यु
पिपीलक! पिपीलक!
पता नहीँ चलता तारोँ की चाल
से कितनी देर है भोर मेँ. पिपीलक!
उठ जाग! काश! मुझे भी यूँ नींद आती.
पिपीलक! जाग, पिपीलक!
(पिपीलक आता है.)
पिपीलक
आप ने बुलाया, स्वामी?
शतमन्यु
जा, कक्ष
मेँ दीपक जला दे. फिर यहाँ आ.
पिपीलक
जो आज्ञा, स्वामी.
(पिपीलक जाता है.)
शतमन्यु
बस, उस की मौत. हाँ, उस की मौत. मेरा
कुछ नहीँ बिगाड़ा है उस ने. पर
प्रश्न समाज का है. सम्राट बनते ही
क्या नहीँ बदल जाएगा उस
का स्वभाव? बस, यही तो प्रश्न है.
सँपोले को दाँत निकलता है
बनने पर साँप. तब सँभल के चलना
पड़ता है सब को. सम्राट बनाएँ
उसे? इस का मतलब होगा – मणिधर
को विषधर बनाना. जब जिसे
चाहे वह डँस ले, समाप्त कर दे.
एकछत्र सत्ता होती है स्वच्छंद.
यही तो दोष है… पर, विक्रम?…सच है –
विक्रम को कभी स्वच्छंद नहीँ
देखा. विवेकी है, विनम्र है…
लेकिन यह भी सच है – विनम्रता
अहंकार की सीढ़ी है. ऊपर चढ़ने
को चाहिए सब को सीढ़ी. ऊपर
पहुँच कर मन करता है छूने
को आकाश. नीचे की पैड़ी लगने
लगती है और भी नीची. ऐसे ही
बदल सकता है विक्रम भी. रोकना
होगा उसे बदलने से पहले.
प्रश्न क्या है का नहीँ, प्रश्न
है क्या हो सकता है? हमेँ मानना
होगा अभी विक्रम है अंडे मेँ
सँपोला, बाहर निकल कर बनेगा नाग.
अच्छा है – अंडा ही कुचल देँ हम.
(पिपीलक लौट कर आता है.)
पिपीलक
बत्ती जला दी है, श्रीमान. मैँ
गवाक्ष मेँ खोज रहा था चकमक,
वहाँ यह पत्र रखा था. कल शाम
नहीँ था यह.
(पत्र देता है.)
शतमन्यु
जा, सो जा. अभी शेष
है रात… कल चैत्र संक्रांति है ना?
पिपीलक
पता नहीँ, श्रीमान.
शतमन्यु
जा, पंचांग देख,
फिर बता मुझे.
पिपीलक
जो आज्ञा, स्वामी.
(पिपीलक जाता है.)
शतमन्यु
टूटते तारोँ से झिलमिला रहा
है आज आकाश. इन्हीँ के प्रकाश मेँ
पढ़ता हूँ – क्या लिखा है किसी ने…
(पत्र खोलता है, पढ़ता है.)
तू सो रहा है, शतमन्यु! उठ, जाग!
अपने को पहचान. कब तक यूँ सैंधव
गण… जाग. देश को बचा, शतमन्यु महान!
तू सो रहा है, शतमन्यु! उठ, जाग!
उलाहने ऐसे, आवाहन ऐसे,
जहाँ तहाँ मुझे मिलते रहे
हैँ. कब तब यूँ सैंधव गण…
अधूरा छोड़ दिया गया है वाक्य!
क्या कहना चाहता है लेखक…?
कब तक यूँ सैंधव गण दबते
रहेँगे?… एक बार सिंधु देश को बचाया
था मेरे पुरखोँ ने लटूषक से… वह
बनना चाहता था सम्राट! खदेड़ा
था उसे मेरे ही पुरखोँ ने… उठ
जाग. देश को बचा. मुझे पुकारा
गया है देश के नाम पर. मेरे
देश, मैँ देता हूँ वचन. सिंधु देश के
लोगो, यह ललकार स्वीकार है मुझे.
(पिपीलक आता है.)
पिपीलक
आर्य, मीन राशि मेँ कल करेँगे
भगवान भास्कर प्रवेश. कल ही है
चैत्र संक्रांति…
(नेपथ्य मेँ खटखटाहट.)
शतमन्यु
ठीक है. देख, कौन है द्वार पर?
(पिपीलक जाता है.)
कंक, जिस दिन से तू ने उकसाया
है मुझे विक्रम के विरोध मेँ, सो
नहीँ पाया हूँ मैँ एक भी रात…
कुछ भयानक करने के विचार से
उस भयानक के किए जाने तक
बीतता है जो कुछ… मानव के मन पर…
कल्पना का जाल है, स्वप्न विकराल है.
होता रहता है मन और मनोरथ
के बीच वादविवाद, जैसे किसी राज्य
को घेर ले अचानक कोई शत्रु,
व्यक्ति का मन रहता है आक्रांत…
(पिपीलक आता है.)
पिपीलक
श्रीमान कंक हैँ द्वार पर. क्या आज्ञा
है?
शतमन्यु
वह अकेले हैँ क्या?
पिपीलक
और भी हैँ.
शतमन्यु
पहचानता है तू उन्हेँ?
पिपीलक
जी, नहीँ.
कानोँ तक यूँ बँधे हैँ उष्णीश.
उत्तरीयोँ से ढँपे हैँ चेहरे.
स्पष्ट नहीँ है कोई पहचान.
शतमन्यु
आने दे उन्हेँ.
(पिपीलक जाता है.)
तो यह होता है
षड्यंत्र … सब के सब अपशकुन,
बुरे से बुरे लक्षण, घूम रहे
हैँ खुले आम आज की काली रात मेँ…
लेकिन, षड्यंत्र, तू? तू निकला है
मुँह को छिपाए. षड्यंत्र, कहाँ
छिपेगा तू दिन के उजाले मेँ?
द्रोह, यूँ मुँह मत छिपा अपना. छिपा
ले अपने को दोस्ताने मेँ, मुस्कान
मेँ. नहीँ तो छिप नहीँ सकेगा तू
गहरे पाताल मेँ.
(षड्यंत्रकारी आते हैँ. इन मेँ हैँ कंक, चाणूर, भगदत्त भट्टारक, चंडीचरण, महीधर वर्मन और गुणाकर.)
कंक
यूँ रात मेँ हम आ धमके! नमस्कार
स्वीकार करेँ. आप को हम ने जगा
तो नहीँ दिया?
शतमन्यु
नहीँ, नहीँ… यूँ
घंटे भर से टहल रहा हूँ.
जागा हूँ मैँ सारी रात. तुम्हारे
साथ जो आए हैँ, इन से परिचय का
सौभाग्य है क्या मुझे?
कंक
जी, सभी
को जानते हैँ आप. और इन सब के मन
मेँ महान सम्मान के पात्र हैँ आप.
मनोकामना हम सब की है – आप भी
अपने को वही समझेँ जो आप को
समझते हैँ हम सिंधु देश के लोग… ये हैँ
गुणाकर.
शतमन्यु
स्वागत है इन का.
कंक
आप हैँ
भगदत्त भट्टारक.
शतमन्यु
मित्र, स्वागत है.
कंक
यह चाणूर. यह चंडीचरण. और यह –
महीधर वर्मन.
शतमन्यु
स्वागत है सब का…
कौन सी चिंता है जो करक रही
है आप की आँखोँ मेँ? किस कारण देर
रात तक जाग रहे हैँ आप?
कंक
एक पल आप सुनेँगे मेरी बात.
(शतमन्यु और कंक के बीच कानाफूसी.)
भगदत्त भट्टारक
इधर है पूर्व. क्योँ? यहीँ से तो
फूटेगा दिन का उजाला?
चाणूर
नहीँ!
चंडी
क्षमा करेँ, मित्र. काले मेघोँ
की कोर पर जो धूमिल सी रेखा है,
यही तो है भोर की दूती.
चाणूर
नहीँ!
जिधर है मेरे खड्ग की नोँक, बस,
यहीँ से उगेँगे भगवान भास्कर.
यह काष्ठा है कुछ उत्तर की ओर. और
दो मास बाद इधर, दिक्षण की ओर,
निकलेगा आग का धधकता गोला.
जिसे कहते हैँ धुर पूर्व, इधर
है – संसद की ओर…
शतमन्यु
आप सब हाथ देँ एक एक कर के मुझे.
कंक
आइए, मित्रो, हम सब शपथ लेँ…
शतमन्यु
नहीँ, शपथ नहीँ… शपथ से क्या
होगा? हमारी प्रेरणा हैँ जन गण
के व्याकुल मुखमंडल, हमारे मन
की पीड़ा, इस युग का अँधेरा. नहीँ
हैँ ये पर्याप्त किसी के लिए तो,
अब भी समय है, वह छोड़ दे हमारा
साथ. घर जाए, आराम से सो जाए.
अत्याचार को पनपने दे, शासन का
पंजा अपनी ओर बढ़ने दे.
पूरा विश्वास है मुझे. हम सब मेँ
धधकती है सम्मान की ज्वाला. इस
ज्वाला से बनता है इस्पात. यह वह
ज्वाला है जो पुरनारी को बना
देती है रणचंडी. देशवासियो,
सैंधवो, मित्रो, बोलिए – देश सेवा
मेँ चाहिए क्या हमेँ शपथ का
सहारा? सैंधव वही है जो हार
जाता है प्राण, पर हारता नहीँ है प्रण.
वह कौन सी शपथ होगी सत्य को
जो सत्य से जोड़ेगी? ले कौन सी
बैसाखी युद्ध मेँ डटेँगे हम?
शपथ लेते हैँ पंडे पुजारी.
शपथ लेते हैँ लुच्चे मदारी.
शपथ लेते हैँ डाकू लूटेरे.
शपथ लेते हैँ डरपोक और कायर.
शपथ लेते हैँ वही लोग… संदेह
करते हैँ जिन की निष्ठा पर मानव.
मनोरथ महान है हमारा. इस
पर लगाओ मत लांछन. मनोबल
अटूट है हमारा. इस पर उठाओ
मत शंका. सच्चे सैंधव हैँ हम.
हर प्रण अटूट है हमारा.
कंक
क्योँ, आचार्य केदार को भी क्योँ
न ले आएँ हम साथ? मेरी समझ
मेँ, वे पूरा साथ देँगे हमारा.
चाणूर
हाँ, मत छोड़ो उन्हेँ.
चंडी
हाँ, मत छोड़ो.
महीधर वर्मन
हाँ, हाँ, ठीक है! अच्छा है! हमारी
अनुभवहीनता को मिल जाएगा यूँ
उन के पके बालोँ का सहारा.
पितामह के बड़प्पन से हम को
मिलेगा जनता का आदर सम्मान.
लोग समझेँगे – उन के अनुभव ने
किया होगा मार्गदर्शन हमारा.
शतमन्यु
छुओ मत उन्हेँ. दूर भी मत रहो
उन से. दूसरोँ के पीछे तो कभी
नहीँ चलेँगे वे.
कंक
तो फिर छोड़ो
उन्हेँ.
चाणूर
सही है. ठीक नहीँ हैँ वे.
भगदत्त
अकेला विक्रम मरेगा? या उस
के साथी भी?
कंक
ठीक प्रश्न उठाया
भगदत्त ने. मैँ तो समझता हूँ
बचना नहीँ चाहिए आनंद
भी. विक्रम का मुँहलगा है वह.
चालाक है वह. विशाल हैँ उस के
साधन. उन्हेँ बढ़ा सकता है वह.
हमेँ बेहद सता सकता है वह.
ठीक तो यही होगा – विक्रम के साथ,
लगे हाथ, आनंद…
शतमन्यु
नहीँ. कंक, नहीँ!
इस से लग जाएगा क्रांति को बट्टा.
पापी और क्रूर कहे जाएँगे हम.
सिर उतारने के बाद काट डालना हाथ!
हत्या कर डालना आवेश मेँ और फिर
बाद मेँ निकालना मन की भड़ास! हम
देश के पुजारी हैँ. बूचड़ नहीँ
हैँ हम. हमारा विरोध विक्रम की
भावना से है. काश, कहीँ मिल जाए
हमेँ विक्रम की भावना. विक्रम के
घात से बच जाएँ. शोक तो यही
है – विक्रम को बहाना पड़ेगा
लहू, विक्रम की भावना की वेदी
पर. सज्जनो, विक्रम को मारना है
हमेँ – साहस के साथ, क्रोध मेँ नहीँ.
बोटियाँ नहीँ काटनी हैँ हमेँ.
हमेँ तो चढ़ानी है आहुति
विक्रम की, गणतंत्र की वेदी पर.
डालने नहीँ हैँ कूकरोँ को कौर.
लोग कहेँगे, हमारे विवेक ने
तत्काल कर लिया उन्मत्त आवेश
पर नियंत्रण. हमारा कार्य माना
जाएगा देश की सेवा. एक भी
उँगली नहीँ उठेगी हमारी
नीयत पर. हत्यारे नहीँ माने
जाएँगे हम. हम माने जाएँगे
उद्धारक. देश के, जनता के, सेवक.
कोई नहीँ कहेगा – मारा है
विक्रम को हम ने ईर्ष्या से. आनंद?
भूल जाओ उसे. क्या कर सकता है
अकेला आनंद? कट गया विक्रम
का सिर तो क्या कर लेगा उस का हाथ!
कंक
फिर भी मैँ डरता हूँ उस से. उस की
रग़ रग़ मेँ भरा है विक्रम का राग.
शतमन्यु
कंक, भूल जाओ उसे. वह
इतना ही रागी है विक्रम का, तो
उस के बिछोह मेँ घुलने दो उसे!
वाह! क्या ही सुंदर अंत होगा राग-
रंग प्रेमी का, भोगी विलासी का.
गुणाकर
उस से भय कैसा? रहने दो उसे!
फिर डूब जाने दो भोग मेँ, विलास मेँ.
(घंटे बजते हैँ. पहले टनटनाहट. फिर घंटे.)
शतमन्यु
शांत. घंटे गिनो…
कंक
तीन बज गए.
गुणाकर
तो अब चलेँ…
कंक
लेकिन अभी पक्का
नहीँ है – विक्रम आज की बैठक मेँ
आएगा या नहीँ. अंधविश्वासी
सा होता जा रहा है आजकल वह
कुछ. मिथकोँ और सपनोँ मेँ, रीति मेँ,
रिवाज़ोँ मेँ होता जा रहा है
आजकल विश्वास. आज के ये अनोखे
शकुन, भयानक लक्षण और उस के
शुभचिंतकोँ की मनुहारेँ – रोक
न लेँ उसे संसद मेँ आने से.
भगदत्त भट्टारक
चिंता मत करो. अच्छा लगता है
उसे सुनना – कैसे ठगे जाते
हैँ तृष्णा से मृग, दर्पण से भालू,
खेड़े से हाथी, और कैसे ठगे
जाते हैँ चमचोँ से नरेश. लेकिन
जब मैँ कहता हूँ, महावीर विक्रम,
आप पर निष्फल हैँ चमचोँ के तीर,
तो वह कहता है, ‘हाँ!’ और चल जाता
है उस पर चमचागीरी का तीर. उस
के मानस को मोड़ सकता हूँ मैँ. ले
ही आऊँगा उसे कल संसद मेँ.
कंक
नहीँ. सब चलेँगे उसे लाने.
शतमन्यु
तो फिर सुबह आठ बजे सब…
कंक
ठीक है.
आठ से देर न हो. कोई चूक न हो.
महीधर वर्मन
नागराज मणिभद्र चिढ़े बैठे
हैँ विक्रम से. जब वे कर रहे
थे महाभोज का गुणगान, तो फटकार
दिया था विक्रम ने. कमाल है! हम
मेँ से किसी को ध्यान नहीँ आया
उन का…
शतमन्यु
वाह, महीधर! मुझे बहुत
चाहते हैँ वे. मैँ ने की है उन की
सेवा. मैँ मना ही लूँगा उन्हेँ.
जाते जाते होते जाना उन के घर.
भेज देना उन्हेँ मेरे पास. मना
लूँगा मैँ उन्हेँ.
कंक
भोर हो आई. अब
चलेँगे हम. मित्रो, सब बिखर जाओ.
लेकिन याद रहे जो कहा है सब ने.
सब दिखा दो सच्चे सैंधव हैँ हम.
शतमन्यु
मित्रो, मुखमंडल खिले होँ, थकन
न हो. झलक न हो मुँह पर मनोरथ
की. अभिनेताओँ सा उत्साह हो.
कोई चूक न हो. सब को नया दिन
शुभ हो.
(सब जाते हैँ. मंच पर अकेला शतमन्यु.)
पिपीलक, फिर सो गया! भरनींद! सो,
सो ले! भोग ले निष्कंट नींद. तुझे न
देश की चिंता है, न समाज का बोझ.
इसी लिए सोता है तू! सो, सो,
जी भर कर सो!
(रत्ना आती है.)
रत्ना
आर्यपुत्र, स्वामी!
शतमन्यु
देवी, यह क्या? जाग गईँ अभी
से आप? ठीक नहीँ है आप का स्वास्थ्य.
अच्छा नहीँ है आप का यूँ भोर की
शीतल बयार मेँ आना.
रत्ना
क्योँ चुपचाप
छोड़ दी आप ने मेरी सेज. कल शाम
छोड़ दी आप ने भोजन की थाली. बस…
टहलते रहे आप – सोचते, छोड़ते
निःश्वास, हाथोँ को सीने पर बाँधे.
मैँ ने पूछा : क्या बात है? शून्य मेँ
लगे ताकने आप. मैँ ने फिर पूछा,
सिर खुजाने लगे आप, पटकने
लगे पैर. मैँ ने फिर पूछा, रहे
मौन आप. झुँझला कर हिलाया हाथ,
जाओ! हटी मैँ. चाहा नहीँ मैँ
ने धीरज आप का परखना. आप
को हुआ है क्या? कैसा अवसाद है?
खाते नहीँ आप अब. हँसते नहीँ
आप अब. सोते नहीँ आप अब. कुछ तो
बताइए – आप को हुआ है क्या?
शतमन्यु
कुछ नहीँ हुआ मुझे. स्वास्थ्य
कुछ ठीक नहीँ है.
रत्ना
समझदार हैँ आप,
रोगी नहीँ हैँ आप. होता कोई
रोग, तो करते उपचार आप.
शतमन्यु
वही कर
रहा हूँ मैँ. देवी! रत्ना! जाओ,
सो जाओ.
रत्ना
श्रीमान शतमन्यु
रोगी हैँ – उपचार है चिपचिपी भोर
मेँ गीली घास पर टहलना! रोगी
हैँ, तभी चोरोँ से खिसक आए
आप मेरी सेज से! रात भर टहले हैँ
सनसनाती हवा मेँ!…
नहीँ, प्रिय शतमन्यु! नहीँ. यह
रोग काया का नहीँ है. यह रोग है
मन का. क्या है यह रोग, यह चिंता?
बँधे थे जब एक सूत्र मेँ हम लोग,
तो निष्ठा के वचन दिए थे आप
ने! याद है, आप ने क्या कहा था तब?
अर्धांगिनी समझेँगे मुझे आप.
छिपा कर नहीँ रखेँगे मन के भेद.
आप के चरणोँ मेँ झुकी हूँ. विनती
है आप से. कौन थे वे लोग जो आज
आए थे? छ : सात जन थे – छिपे थे
चेहरे रात के काले अँधेरे मेँ?
शतमन्यु
झूको मत यूँ, देवी.
रत्ना
नहीँ झुकती
यदि पहले जैसे सहज होते आप.
विवाहिता हूँ आप की. बोलिए,
कहाँ तक उचित है – मुझे पता
न चलेँ आप के मन के क्लेश? आप की
आत्मा हूँ मैँ! पर मेरी सीमा है
आप की रसोई तक! आप की सेज तक!
जब तक आप चाहेँ, मुझ से खेलेँ, जब
चाहेँ, दूर कर देँ मुझे. यही है
मेरी सीमा तो पत्नी कहाँ हूँ
मैँ, बस, रखेली हूँ आप की.
शतमन्यु
तुम पत्नी हो मेरी, अर्धांगिनी
हो, संगिनी हो जीवन की. चेतना
तुम्हीँ हो मेरे विषादमय मन की.
रत्ना
यदि यह सच है तो मुझे पता
होने ही चाहिए आप के रहस्य.
हाँ, मानती हूँ मैँ, नारी हूँ मैँ. पर
वह नारी हूँ मैँ जिसे वरा है
शतमन्यु ने. मानती हूँ मैँ – नारी हूँ
मैँ. पर वह नारी हूँ मैँ जो बेटी
है महावीर नंद की. ऐसे पति
की पत्नी और ऐसे पिता की संतान
को मानते हैँ आप साधारण नारी!
बताइए मुझे हर बात निज मन
की. सहेज कर रखूँगी मैँ.
शतमन्यु
हे भगवान! मुझे इस महान नारी
के योग्य बना.
(नेपथ्य मेँ ठक ठक होती है.)
सुनो, सुनो, द्वार
खटखटा रहा है कोई. देवी
रत्ना, कुछ देर को आप चली जाएँ.
धीरे धीरे बता दूँगा मैँ आप
को अपने मन के गूढ़ रहस्य. किन
उलझनोँ मेँ उलझा हूँ मैँ? मेरे
माथे पर चिंता की रेखा क्योँ है?
अभी शीघ्र चली जाएँ आप…
(रत्ना जाती है.)
कौन है द्वार पर, पिपीलक?
(पिपीलक और मणिभद्र आते हैँ.)
पिपीलक
कोई जर्जर बीमार पुरुष है यह.
आप ही से बात करने पर अड़ा है.
शतमन्यु
अरे, नाग मणिभद्र! आप! महीधर
ने उल्लेख किया था आप का. दास,
तू जा… कैसे हैँ आप?
(पिपीलक जाता है.)
मणिभद्र
लेँ नई भोर
का प्रणाम आप एक लाचार रोगी से.
शतमन्यु
कैसे समय धार लिया, वीरवर, आप
ने बीमारी का बाना? काश, आज आप
स्वस्थ होते!
मणिभद्र
सदा सर्वदा हूँ
स्वस्थ, शतमन्यु, आप के हर उद्यम के
लिए, महान मनोरथ के लिए…
शतमन्यु
ऐसा ही एक मनोरथ सामने है.
आप के गौरव के पूर्णतः अनुकूल…
सुनने को स्वस्थ कान हैँ आप के पास?
मणिभद्र
साक्षी हैँ नागराज! साक्षी हैँ सैंधव
गण! त्यागता हूँ मैँ रोग का बाना!
सिंधुगण की चेतना है तू!
जनगण का नेता है तू!
पूज्य पितरोँ का वंशज है तू!
तेरे आवाहन ने भगा दिया
मेरा रोग. आदेश दे – क्या करना है?
अनहोनी कर दिखाऊँगा होनी.
शतमन्यु
काम ही ऐसा है जो कर दे बीमार को
चंगा.
मणिभद्र
और चंगोँ को बीमार? क्योँ?
शतमन्यु
हाँ,
हाँ. वह भी! जो करना है, जिस के साथ
करना है, उस के पास जाते समय
बताऊँगा सब कुछ.
मणिभद्र
तो चलो, आगे बढ़ो.
नवचेतना मन मेँ लिए मैँ चलूँगा साथ.
लक्ष्य जो भी हो, नेता अगर तुम हो
चलेँगे सब हमारे साथ!
शतमन्यु
तो चलो,
आगे बढ़ेँ हम – देश को ले साथ!
दृश्य २
धारावती. विक्रम का भवन.
(बादलोँ की गड़गड़ाहट. बिजली की कड़क. रात मेँे सोने के कपड़े पहने विक्रम आता है.)
विक्रम
पूरी रात न आकाश को चैन था, न
धरती को. तीन बार पूर्णिमा
सोते सोते चीख उठीँ : बचाओ.
मार डाला विक्रम को… ! कोई है?
(सेवक आता है.)
सेवक
स्वामी?
विक्रम
पुरोहितोँ से कहो, पशु की
बलि चढ़ाएँ और लक्षण बताएँ.
सेवक
जो आज्ञा, स्वामी.
(सेवक जाता है.)
(पूर्णिमा आती है.)
पूर्णिमा
यह क्या, आर्यपुत्र? जाएँगे आप?
आज नहीँ जाएँगे आप.
विक्रम
जाएगा विक्रम. आपदाओँ ने मुझ
पर किया है पीठ से वार. देखती हैँ
जब वे विक्रम का चेहरा, जाती हैँ हार.
पूर्णिमा
वीर विक्रम जानते हैँ – नहीँ माने
मैँ ने कभी अंधविश्वास. पर आज? आज
भयभीत हूँ मैँ. भीतर है हमारा
एक शुभचिंतक. कहता है – शकुन जो
हम ने देखे थे, पहरेदारोँ ने
देखे हैँ उन से भी अनोखे लक्षण.
चौक मेँ सिंहनी ने शावकोँ को जना.
श्मशान मेँ वैतालिक नंगे नाचे.
आकाश मेँ छिड़ गया सुरासुर संग्राम.
धरती पर रात भर लहू बरसा.
युद्धनाद से काँपे नगरवासी.
घोड़े हिनहिनाए. मुरदे कराहे.
चीखते चिल्लाते भूत रात भर सड़कोँ
पर दौड़े. भयानक हैँ ये शकुन.
विक्रम, सचमुच, बेहद भयभीत हूँ मैँ.
विक्रम
जिस का जो अंत होना है, हो कर
रहेगा वह. विक्रम को जाना है.
जाएगा विक्रम. लक्षण ये – सब के
लिए हैँ, केवल विक्रम के लिए
तो नहीँ.
पूर्णिमा
रंक मरता है, तो
टूटते नहीँ तारे. राजा की मौत
पर धधक उठता है आकाश.
विक्रम
कायर मरते हैँ बार बार. वीर वरते
हैँ मौत, बस, एक बार. सब जानते हैँ
आनी है मौत. फिर भी कुछ लोग डरते
हैँ मौत से. मैँ कहता हूँ – आ, स्वागत है
(सेवक आता है.)
मौत. हाँ, क्या कहा पुरोहितोँ ने?
सेवक
आज आप नहीँ जाएँ. बलि पशु
को उन्होँ ने खोला, तो हाथ नहीँ
आया उस का कलेजा…
विक्रम
देखा. यूँ
हँसते हैँ देवता कायरोँ पर. डर कर
घर बैठ गया विक्रम तो हृदयहीन
पशु जैसा ही माना जाएगा
विक्रम. विक्रम को जाना है. भय को
भी पता है – भय से भयानक है
विक्रम. दो शेर हैँ हम. जनमे थे हम
एक ही दिन. बड़ा हूँ मैँ. भय से भी
भयानक हूँ. विक्रम को जाना है.
जाने दो विक्रम को. रोको मत.
पूर्णिमा
आनबान हावी है आप के विवेक पर.
विनती है, प्राणनाथ. आज मत जाएँ आप.
अपने नहीँ, मेरे ही भय से रुक
जाएँ आप. भेज देँ, आनंद के हाथ, संसद
संदेश. कह देगा वह – स्वस्थ नहीँ
हैँ आप. आप के चरणोँ मैँ झुकी हूँ
मैँ. अब तो मान जाइए मेरी बात.
विक्रम
ठीक है, आनंद कह आएगा – स्वस्थ
नहीँ हूँ मैँ. लीजिए आप के लिए मान ली मैँ
ने आप की बात.
(भगदत्त आता है.)
लो, भगदत्त आ गए.
ये पहुँचा देँगे संदेश.
भगदत्त भट्टारक
विक्रम
की जय हो. प्रणाम, देवी. आया हूँ
विक्रम को संसद ले जाने.
विक्रम
बिल्कुल
ठीक समय आए हैँ आप. सांसदोँ को
मेरा अभिवादन देँ, और कह देँ –
आज नहीँ आऊँगा मैँ. नहीँ आ
सकूँगा – यह कहना ग़लत होगा.
साहस नहीँ है आने का – यह और
भी ग़लत होगा. नहीँ आऊँगा –
बस, यही कह देँ आप.
पूर्णिमा
आप कह देँ –
अस्वस्थ हैँ ये.
विक्रम
विक्रम भेजेगा
असत्य संदेश! मेरे सब भीषण
संग्राम… क्या इसी लिए थे – एक दिन
विक्रम सत्य कहने से डरेगा
बूढ़े सांसदोँ से! बस, कह देना – आज
नहीँ आएगा विक्रम.
भगदत्त भट्टारक
पर, महाबली
विक्रम, कोई कारण तो बताओ.
अकारण न आने की कहूँगा
तो सब हँसेँगे मुझ पर.
विक्रम
कारण है…
मेरी इच्छा! नहीँ आऊँगा मैँ –
इतना काफ़ी है संसद के लिए…
तुम मेरे मित्र हो. सुनो, भगदत्त,
पूर्णिमा ने रोका है मुझे.
सपने मेँ देवी ने देखा – मेरी
मूर्ति मेँ हैँ सौ से अधिक घाव. हर घाव
से छूट रहे हैँ लहू के सौ धारे!
हँसते नारे लगाते धारावती के लोग
कर रहे हैँ लाल उस लहू से हाथ.
देवी का कहना है – बुरा है
है सपना. चेतावनी है – होने
वाली है अनहोनी. चरण छू कर
माँगी है भीख, घर पर रहूँ मैँ आज.
भगदत्त भट्टारक
ग़लत है यह अर्थ! यह सपना है
सूचक सौभाग्य का, अनंत गुणगान
का… प्रतिमा से बहे लहू के
धारे, हँसते खिलखिलाते सैंधव
उन मेँ नहाए – मतलब है आप से
मिलेगा सैंधव गण को नवजीवन.
बड़े बड़े लोग माँगेँगे आप से
उपहार, पुरस्कार, यादगार, मान सम्मान.
बस, यही है शुभ संदेश देवी के
स्वप्न का.
विक्रम
वाह! क्या सूझ है! क्या समझ है!
भगदत्त भट्टारक
यदि आप सुन लेँ मेरे समाचार
तो यही अर्थ निकालेँगे आप.
सांसदोँ ने निर्णय किया है – आज
पहनाएँगे महाबली विक्रम
को राजमुकुट. और जो कहला भेजा आप
ने – आज नहीँ आएँगे आप, बदल
सकता है उन का मन. सोचने की बात
यह भी है – आप के विरोधियोँ को
मिलेगा व्यंग्य बाणोँ का तरकस.
कोई कहेगा, ‘भंग कर दो यह
बैठक! अब मिलेँगे हम उसी दिन
जब विक्रम की घरनी देखेगी
कोई अच्छा सा सपना!’ और यदि
विक्रम यूँ दुबक गया पत्नी के
आंचल मेँ – फुसफुसाएँगे लोग
‘डरता है विक्रम!’ क्षमा करेँ आप,
महाबली विक्रम. मैँ हितैषी
हूँ आप का. आपके प्रेम के अधीन मैँ
बक गया यह सब.
विक्रम
सुन लिया, देवी?
चाहती हैँ आप मेरा ऐसा उपहास…
लानत है मुझ पर – मान ली आप की बात!
आप देँ मुझे मेरे वस्त्र. विक्रम
को जाना है. जाऊँगा मैँ.
(शतमन्यु, मणिभद्र, महीधर वर्मन, चाणूर, गुणाकर, चंडीचरण, गोपाल आते हैँ.)
लो!
देखो! मुझे ले जाने आए हैँ गोपाल.
गोपाल
सुप्रभात, विक्रम.
विक्रम
स्वागत है,
गोपाल! वाह, शतमन्यु, आप भी. इतनी
सुबह! अच्छा. नमस्कार, चाणूर. नागराज
मणिभद्र, विक्रम को अपना बैरी
मत समझेँ आप. आप का बैरी है ज्वर
जिस ने जर्जर कर डाली है आप की
काया. क्या बजा है?
शतमन्यु
आठ बजे हैँ.
विक्रम
आभारी हूँ आप सब के प्रेम का.
( आनंदवर्धन आता है.)
रात भर जागने वाला आनंद
इतनी सुबह! सुप्रभात, आनंद.
आनंद
आप को भी, विक्रम महान.
विक्रम
भीतर कह दो –
तैयारी करेँ… खेद है आप सब
को मेरे लिए ठहरना पड़ा.
भाई चंडी, महीधर, और हाँ, आप
गुणाकर, आप से तो मुझे करनी
हैँ घंटोँ बातेँ. आज ही आ जाएँ
आप. निकट रहेँ मेरे.
गुणाकर
हाँ, हाँ, विक्रम.
(स्वगत) मैँ रहूँगा इतना निकट, इतना
निकट कि तुम्हारे निकटतम लोग
कहेँगे – मैँ दूर ही भला था.
विक्रम
मित्रो, भीतर चलेँ मेरे साथ. कुछ
सुरा चख ले मेरे साथ. फिर हम सब
सीधे जाएँगे संसद मित्र समान.
शतमन्यु
(स्वगत) मित्र समान और मित्र मेँ अंतर
है, विक्रम. बहुत दुःख है मुझे.
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