विक्रम सैंधव. अंक 1. दृश्य 3. धारावती. एक राजमार्ग

In Adaptation, Culture, Drama, Fiction, Poetry by Arvind KumarLeave a Comment

 

हो चुकी है आधी रात.

भोर होने से पहले जगाना है शतमन्यु महान को.

कल होने से पहले साथी बनाना है उन को.

 

धारावती. एक राजमार्ग.

(रात. बिजली. गड़गड़ाहट.)

(एक ओर से चाणूर आता है. उस ने तलवार खीँच रखी है. दूसरी ओर से आता है केदार.)

 

केदार

नमस्‍कार, चाणूर. पहुँचा आए घर

विक्रम को? बदहवास क्योँ हो? आँखेँ

पथराई क्योँ हैँ?

चाणूर

                       होश नहीँड़ेँगे

अगर चूल हिल जाए धरती की? मैँ

ने देखे हैँ झंझावात जिन मेँ जड़

से उखड़ जाते हैँ महाविशाल

वटवृक्ष. देखा है उफनता उछलता

समंदरघुमड़ते घनघनाते

बादलोँ से मिलने को बेचैन लेकिन

देखा नहीँ ऐसा प्रभंजनजिस मेँ

आकाश से बरसती हो ज्‍वाला. छिड़

गया है क्‍या सुरासुर संग्राम?

भर गया क्‍या हमारे पापोँ का

घड़ा? देवता तुले हैँ मिटाने

को धरती.

केदार

देखा कुछ और भी अनोखा?

चाणूर

अभी अभी देखा मैँ ने एक दास

आप भी जानते हैँ उसेहाथ ऊपर

उठा था उस का, जल रहा था बीस

मशालोँ के जैसा. पर न हाथ मेँ

जलन थी, न जलन का दाग़ था. और

सुनो दुर्ग के सिंहद्वार पर मैँ ने

देखा तब से तलवार म्‍यान मेँहीँ

डाली मैँ ने एक महाविशाल

सिंह. मंद मंथर चला आ रहा

था. उस ने देखा मेरी ओर

मेरी आँखोँ मेँ आँखेँ डालींऔर

बस, घूरता चला गया एक टीले

पर थीँ सैकड़ोँ भयभीत नारियाँ. कह

रही थीँ वेन्होँ ने देखे हैँ

सड़कोँ पर चलते धधकते कंकाल.

कल ही की तो बात है. नगर चौक

मे भरी दोपहरी मेँ बोल रहा

था उल्‍लू इतने सारे अपशकुन

कुछ भी कहेँ आप, कुछ भी कहेँ

पंडित ज्ञानीयह सब यूँ हुआ,

इस कारण हुआ! बेकार है सारा

ज्ञान. नास्‍तिक है विज्ञानमैँ तो बस यही

कहूँगाअपशकुन हैँ ये. चेता

रहे हैँमेँ. आने वाला है

संकट. हो कर रहेगा सत्‍यानाश.

केदार

सच! अद्भुत समय है यह. हो रहे

हैँ अनेक और अद्भुत लक्षण.

अपनी इच्‍छा से लगा रहे हैँ

सब अनोखे से अनोखा मतलब

यह तो कहो, विक्रम कल आएगा

संसद मेँ?

चाणूर

हाँ! हाँ! ज़रूर! आनंद से

कहा उस नेआप को सूचना दे दे.

केदार

चलता हूँ मैँ. ठीक नहीँ यूँ घूमना

इस मौसम मेँ.

चाणूर

नमस्‍कार, आचार्य केदार.

(केदार जाता है. कंक आता है.)

कंक

                                कौन है? कौन है उधर?

चाणूर

एक सैंधव.

कंक

            चाणूर?

चाणूर

                     बड़े तेज़ हैँ कान!

कंक, कैसी है यह रात?

कंक

                                 भली है

भले लोगोँ के लिए.

चाणूर

                         सोचा था

कभी किसी ने यूँ फट सकता है

आसमान?

कंक

           हाँ, सोचा था उन्होँ ने जो

जानते हैँ लबालब भर चुका है

हमारे पापोँ का घड़ा. आज की

रात सड़कोँ पर फिरा हूँ मैँ. आकाश

की छाती मेँ पैठती थी जब बिजली

की कटार, तो सामने कर दी मैँ ने

भी छाती.

चाणूर

            क्योँ ललकारा यूँ इंद्र

को तुम ने? क्योँ अपने को ख़तरोँ मेँ

डाला? देवता गरजेँ, तो आदमी का

काम है काँपना, थरथराना.

कंक

                                            चाणूर,

कुंद हो चुके हो तुम. हर सैंधव

को घुट्टी मेँ मिलता है जो साहस,

जो ओज, क्‍या सब खो चुके हो तुम? क्योँ

पीले पड़े हो? क्योँ पथराई हैँ

आँखेँ? डरा सहमा क्योँ है चेहरा?

ज़रा सोचो, विचारो. आकाश से

क्योँ बरसते हैँ शोले? क्योँ नंगे

नाच रहे हैँ भूत और पिशाच? पशु

पक्षी क्योँ पगला गए हैँ? बूढ़े

बच्‍चे, गँवार और मूरखसभी क्योँ

बन गए हैँ शकुनोँ के चितेरे?

क्योँ गड़बड़ा गया है प्रकृति

का संतुलन? प्रिय बंधु, सोचो,

विचारो. ये संकेत हैँ, जो भेजे

हैँ ऊपर वाले नेचेताने के

लिए, बताने के लिए हमेँ,

भयानक है आज का युग, विकराल है

आज का काल. चाणूर, हमारे बीच है

कोई एक मानव. इस रात जैसा ही

भयानक है वह. दिल का काला है,

बिजली सा चमचमाता है वह.

वज्र सा गड़गड़ाता है वह.

मुर्दों को खाता है वह.

द्वार के सिंह सा चिंघाडता है,

लेकिन, मित्र, मिट्टी का शेर है वह.

तुम्‍हारे और मेरे जैसा निर्बल

मानव है वह. लेकिन बढ़ते बढ़ते

बन गया है दानव. छा गया है

सब पर.

चाणूर

           कौन? विक्रम? क्योँ, कंक?

कंक

रहने दो उस का नाम. छोड़ो यह बात.

हम अपने को देखेँ. हम सैंधव हैँ?

हैँ! बस, नाम के! पुरखोँ के जैसे हैँ

हमारे हाथ पैर. लेकिन पुरखोँ मेँ

जो पौरुष था, साहस था, हाय, शोक!

महाशोक! वह अब हम मेँहीँ है.

हमारे कंधोँ पर जो जूआ है,

जो दासता लाद दी गई है हम पर,

चीख़ चिल्‍ला कर कह रही है :

नपुंसक हैँ हम! नपुंसक हैँ हम!

चाणूर

सच है! सुना है कल सांसद घोषित

कर देँगे विक्रम को सम्राट. सिंधु

देश के बाहर जितने भी गण हैँ, देश

हैँ, सभी का एकमात्र छत्रपति!

मान लिया जाएगा उसे संसार का

शाहानुशाहि, चक्रवर्ती सम्राट,

महामहिमामय मुकुटधारी.

कंक

जानते हो तब यह कटार कहाँ होगी?

मेरे जिगर के पार. कंक को यूँ

आज़ाद कर देगा कंक. चाणूर,

यही तो वह बल है, जो विधाता

ने सभी को दिया है. यही तो

वह बल है जो निर्बलतम मानव

को बना देता है बलवान, स्‍वाधीन.

यही वह बल है जिस से हार जाते

हैँ बड़े से बड़े सम्राट. नहीँ

है कोई प्राचीर, हीँ है कोई

काल कोठरी, कोई लौह कपाट, जंज़ीर

जो बाँंध सके मानव की सत्ता को.

अत्‍याचारी कितना भी निर्मम हो,

अत्‍याचार की होती है सीमा. हर

दास के हाथ मैँ है अपनी आज़ादी!

अच्‍छी तरह जानता हूँ मैँ अपनी

यह ताक़त. जब चाहूँ झटक सकता

मैँ अत्‍याचार का बोझा.

(गड़गड़ाहट रुकती है.)

चाणूर

मैँ भी. मैँ ही क्योँ? हर सैंधव. हर

दास के हाथ मेँ है अपनी आज़ादी.

कंक

तो फिर विक्रम कैसे बन बैठा है

अत्‍याचारी? भेड़ नहीँ होते हम,

तो भेड़िया वह बनता क्योँ? सैंधव

न होते मृग, तो बनता कैसे वह

मृगारि? दावानल भड़कानी हो

तो पहले जलाए जाते हैँ तिनके.

धारा नगरी है घासफूस की ढेरी.

इस को जला कर प्रकाशित होता

है विक्रम महान का मस्‍तक लेकिन

क्‍या हो गया है मुझे? बक रहा

हूँ प्रमाद मेँ यह सब! किस के आगे?

विक्रम के चर तो नहीँ हो तुम? सच,

बुलावा तो नहीँ आ जाएगा

मुझे बड़े घर से? ख़ैर, ख़तरोँ से

खेलने का शौक है मुझे.

चाणूर

                                             चाणूर हूँ

मैँ, किसी का चर नहीँ हूँ मैँ. लो

हाथ! कुछ करना है, कंक, तो चलो,

दुराचार मिटाने चलो. दूर तक

चलूँगा मैँ तुम्‍हारे साथ.

कंक

                                            दो हाथ!

वीर चाणूर, स्‍वागत है. धन्‍य हो तुम.

तो सुनो, कई सैंधव महानुभाव आ

चुके हैँ हमारे साथ, ख़तरोँ

से खेलने को तैयार. वे बैठे

हैँ मेरी प्रतीक्षा मेँ महाभोज

की रंगशाला मेँ. भयानक है

यह रात. सूने हैँ मार्ग. हमारा

काम भी भयानक है. इस के लिए

चाहिए थी ऐसी ही रातभीषण,

भयंकर, भयानक

चाणूर

                                 चुप! आ रहा

है कोई. जल्‍दी मैँ है

कंक

                                 चंडीचरण है.

पहचानता हूँ मैँ यह पदचाप. अपना

(चंडीचरण आता है.)

मित्र है. मित्र चंडी, किधर?

चंडीचरण

तुम्हेँ खोजने. कौन है यह? महीधर

वर्मन तो नहीँ?

कंक

                       हीँ. चाणूर हैँ.

हमारे नए साथी. आ गए

सब रंगशाला मेँ?

चंडीचरण

                        स्‍वागत है, मित्र

चाणूर. भयानक है रात. हो रहे

हैँ अनोखे चमत्‍कार.

कंक

                                 सब आ गए

रंगशाला मेँ?

चंडीचरण

                     आ गए. कंक,

काश! तुम ला पाते शतमन्‍यु महान

को भी हमारे साथ

कंक

                                 धीरज धरो.

लो, यह भोजपत्र. यह तुम रख देना

आर्य शतमन्‍यु के आसन पर. उन

की नज़र पड़ जानी चाहिए

इर पर. और यह. इसे तुम

रखना उन के घर के गवाक्ष मेँ.

यह पुरजे शतमन्‍यु की प्रतिमा के

नीचे चिपकाना. फिर पहुँचो तुम

रंगशाला मेँ. वहीँ मिलना. क्‍या

भगदत्त भट्टारक, महीधर वर्मन

भी हैँ वहाँ?

चंडीचरण

            सब हैँ, हीँ हैँ बस

महीधर वर्मन. गए हैँ तुम्हेँ

खोजने तुम्‍हारे घर. तो चलता हूँ

मैँ. सभी रुक्‍के डाल दूँगा जैसे

कहा है तुम ने.

कंक

                       मिलना रंगशाला मेँ.

(चंडीचरण जाता है)

चलो, चाणूर, अभी बहुत करना

है आज की ही रात हम सब मिलेँगे

शतमन्‍यु महान से उन के घर पर.

तीन चौथाई तो वे आ चुके हैँ

हमारे साथ, आज की रात वे होँगे

पूरे हमारी झोली मेँ निस्‍संदेह.

चाणूर

ऊँचा स्‍थान है उन का जनता के मन

मेँ. हमारा किया माना जाएगा

घोर अपराध. वे साथ होँ हमारे, तो

हमारी करनी बनेगी महान.

कंक

चाणूर, बड़ी काँटे की पकड़ है

तुम्‍हारी. सच मेँ, महान हैँ शतमन्‍यु.

जैसे भी हो, न्हेँ लाना होगा

अपने साथ. चलो, लेँ. हो चुकी

है आधी रात. भोर होने से पहले

जगाना है उन को. कल होने से

पहले साथी बनाना है उन को.

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