भव्य वीरता की विशाल प्रतिमा
बन विक्रम आज धरा को रौँद रहा
है. उस के विकराल डगोँ के नीचे
हम सैंधव जन चूहोँ जैसे दुबक
रहे हैँ, काँप रहे हैँ…
धारावती. नगर मार्ग.
(तूर्यनाद. शंखनाद. घंटे घड़ियाल. शोभायात्रा के लिए विक्रम सैंधव और आनंदवर्धन आते हैँ. साथ मेँ हैँ पूर्णिमा, रत्ना, भगदत्त भट्टारक, आचार्य केदार… शतमन्यु, कंक, चाणूर… त्रिकालज्ञ और भीड़.)
विक्रम
देवी! पूर्णिमा!
चाणूर
शांत! सब शांत!
बोल रहे हैँ विक्रम…
विक्रम
पूर्णिमा! देवी!
पूर्णिमा
आज्ञा देँ, प्राणनाथ.
विक्रम
आगे बढ़ेँ आप…
रोक लेँ मार्ग. इंद्रपताका लिए
पहुँचे आनंद… तो छीन लेँ पताका,
बिखेर देँ – कुमकुम, केसर, अबीर…
आनंद!
आनंद
आज्ञा, विक्रम महान!
विक्रम
आनंद,
मदनयात्रा की भागमभाग मेँ
भूल मत जाना - रुकना है तुम को रोकेँ
जब देवी. है यही पुरानी रीत.
यही त्योहार मदन का…
आनंद
कैसे भूलूँगा! विक्रम का आदेश है –
अटल है.
विक्रम
चलो, करो आरंभ.
छूट न जाए कोई प्रथा पुरानी.
(वाद्यनाद.)
त्रिकालज्ञ
विक्रम! नायक!…
विक्रम
कौन? किस ने पुकारा?
चाणूर
शोर बंद करो. शांत! सब शांत!
विक्रम
कौन है? किस ने पुकारा?
संगीत के ऊपर यह पुकार – किस की
थी? किस ने कहा : विक्रम. कौन है? बोल,
सुन रहा है विक्रम.
त्रिकालज्ञ
सावधान! चैत्र संक्रांति से सावधान!
विक्रम
कौन है यह?
शतमन्यु
त्रिकालज्ञ है, ज्योतिषी है. कह
रहा है, सावधान रहना चैत्र की
संक्रांति से!
विक्रम
सामने तो लाओ इसे.
मूरत तो देखेँ इस की.
कंक
भगवान के
बंदे, भीड़ से निकल. विक्रम को देख.
विक्रम
बोल, क्या कहता था? फिर से कह एक बार.
त्रिकालज्ञ
सावधान! चैत्र संक्रांति से सावधान!
विक्रम
हूँ. नक्षत्र लोक मेँ विचरने वाला…
बेचारा… चलो…
(तूर्यनाद. शंखनाद. सब चले जाते हैँ. मंच पर रह जाते हैँ शतमन्यु और कंक.)
कंक
देखने चलेँगे आप ध्वजा समारोह?
शतमन्यु
नहीँ.
कंक
चलिए तो सही.
शतमन्यु
आते
नहीँ रास मुझे उत्सव समारोह.
वह उत्साह, वह जीवन, जो आनंद मेँ
है, मुझ मेँ नहीँ है… आप चलिए,
रुकिए मत मेरे लिए… अच्छा,
तो मैँ चलूँ?
कंक
मित्र शतमन्यु, क्या बात है? वह स्नेह,
स्वागत, अपनापन, अब आप के नयनोँ
मेँ नहीँ मिलता, जो मिलता था पहले.
मित्र हूँ, हितैषी हूँ आप का. अपनोँ
से यह रूखापन क्योँ?
शतमन्यु
बुरा मत
मानो, मित्र कंक, अन्यथा न लो
मुझे. एक धुँधलका सा छाया है
मेरी आँखोँ पर. मन पर छाया है
गहन विषाद. वही छिपाता हूँ
मैँ दुनिया से. कुछ अन्य कारण हैँ जो
परेशान हूँ मैँ. मेरे मन मेँ हैँ
अनेकोँ तूफ़ान, भारी बवंडर.
वे मुझ तक ही सीमित रहेँ… यही
ठीक है. मानता हूँ… मेरा ही व्यवहार
कारण है मित्रोँ से मेरी दूरी
का. मित्र, बुरा मत मानो, यही
समझो… बेचारा शतमन्यु अपने
से लड़ रहा है. परेशान है,
भूल गया है प्रेम का व्यवहार.
कंक
महानुभाव शतमन्यु, खेद है मैँ आप
को ग़लत समझा. आप से छिपाए
रहा वे तूफ़ान जो मचलते हैँ
मेरे मन मेँ… अनेक महान उच्च
विचार, सामाजिक मनोमंथन…
शतमन्यु, भले आदमी, बताओ तो –
देख सकते हो क्या तुम अपना चेहरा?
शतमन्यु
नहीँ तो, कंक. भला आँख कब
देख पाती है ख़ुद को. हम देख सकते
हैँ केवल दर्पण मेँ अपनी छाया.
कंक
ठीक कहते हो, मित्र. खेद तो यही
है, शतमन्यु, तुम्हारे पास नहीँ
है कोई ऐसा दर्पण जो तुम्हेँ
दिखा दे वह रूप, जो सैंधव गणोँ के
मन मेँ तुम्हारा, बस, तुम्हारा है.
सुनी है मैँ ने अपने कानोँ से
वह प्रशंसा, सुना है तुम्हारा वह
गुणगान, जो करते हैँ सिंधु देश के
परम आदरणीय जन महान… नहीँ
है इन मेँ बस एक – विक्रम, हाँ, विक्रम
महान. ये हैँ सभी जाने माने
लोग, देख सकते हैँ जो इस अंधे युग का
अँधेरा. सभी कहते हैँ – काश,
होतीँ नायक शतमन्यु के आँखेँ.
शतमन्यु
किन भयानक अँधेरोँ मेँ धकेल
रहे हो मुझे? कंक, क्योँ चाहते
हो मैँ देखूँ अपने मेँ वह जो मुझ
मेँ नहीँ है.
कंक
तो सुनो, मित्र शतमन्यु,
तत्पर हो कर सुनो. तुम मानते हो –
तुम अपने आप को नहीँ देख सकते.
मैँ बनूँगा तुम्हारा दर्पण. मैँ
दिखाऊँगा तुम्हेँ जो तुम हो, वह
जो तुम नहीँ जानते कि तुम मेँ है.
भले मानस, नायक शतमन्यु, झिझको
मत. कोई भांड या विदूषक नहीँ
हूँ मैँ. मित्रता की शपथेँ उठाता
नहीँ फिरता हूँ मैँ. देखा है तुम
ने कभी मुझे चापलूसी करते?
झूठे गुण बखानते? पीठ फिरते ही
फिर किसी की बखिया उधेड़ते?
पानगोष्ठी मेँ तुम ने कभी मुझे
देखा हो मदमस्त, शान बघारते, तो
समझना मुझे भयानक.
(शंखनाद और घंटे घड़ियाल का शोर और जनरव.)
शतमन्यु
जयकार!
शंखनाद! क्योँ? किस कारण? भय है मुझे –
सिंधु गण सम्राट बना ना डालेँ उस को!
कंक
भय है! नहीँ चाहते तुम यह होना?
शतमन्यु
नहीँ, कंक, नहीँ चाहता मैँ यह सब.
लेकिन उसे चाहता हूँ मैँ कितना!
क्योँ रोक रखा है मुझ को तुम ने?
बोलो, क्या कहना है मुझ से तुम को?
है कोई बात अगर जनहित की, तो
एक हथेली पर है आन, मान, सम्मान…
और दूसरी पर धर दो तुम मेरे प्राण.
दोनोँ को तौलूँगा मैँ – एक समान.
गणदेव सभी साक्षी हैँ. मोह नहीँ
अपने जीवन का. बस, प्यारी है आन.
कंक
हाँ, शतमन्यु, सभी जानते हैँ यह
आन तुम्हारी… सम्मान, मात्र सम्मान,
कथन है मेरा. नहीँ जानता क्योँ
जीवन से दुनिया चिपटी है. अपनी
बात कहूँ तो मैँ बस यही कहूँगा –
जीवन मेँ सम्मान नहीँ तो जीवन
पर थू! मैँ भी, तुम भी, विक्रम जैसे
स्वतंत्र जन्मे थे. इस धरती ने
हम सब को पाला है. इसी सिंधु
ने हमेँ पिलाया पानी. हम भी
तो सहते हैँ इस की शीत हिमानी.
सुनो… एक दिन शीत पवन चलता था.
हरहरा रही थी महासिंधु
की धारा. विक्रम ने तौला मेरी
आँखोँ को. बोला : ’है हिम्मत, तो चल
कूदेँ इस उन्मत्त सलिल मेँ. देखेँ –
कौन पहुँचता है पहले उस तट पर.‘
बस, कूद पड़ा मैँ, जो भी पहने था,
और कहा विक्रम से : ’हिम्मत है, तो
आ!‘ कूद पड़ा था वह भी… लहरेँ ही
लहरेँ लरज रही थीँ. हम ने उन्हेँ
थपेड़ा. बाँहोँ के बल से हम ने
उन्हेँ घकेला. लहरोँ के मस्तक पर
चढ़ कर हम ने अपने बल को तौला.
लेकिन तट था दूर… विक्रम ने हिम्मत
हारी. वह चिल्लाया, ’कंक, बचा.
मैँ डूबा!‘ पुराकाल मेँ जैसे मनु
की नौका ने था संसार बचाया,
वैसे ही उन उत्ताल तरंगोँ मेँ मैँ
ने विक्रम का भार उठाया. वही
आज विक्रम नायक है. और कंक?
हूँ! नाली का कीड़ा! विक्रम का मूंड
हिले, कंक को शीश नवाना होगा…
लाट देश मेँ, एक बार, विक्रम को ज्वर ने
घेरा. काँप रहा था शिख से नख तक
बेचारा. ज्वरकातर अधरोँ पर रंग
नहीँ था. यही नेत्र, अब जिन से ज्वाल
धधकती, उस दिन इन मेँ चमक
नहीँ थी. उस की यह वाणी ओजस्वी,
जिस के तेजस्वी स्वर सब सुनते हैँ,
जिस का एक एक शब्द लोग पोथी
मेँ लिखते हैँ, उस दिन यह वाणी
नारी जैसी रोई, रिरियाई,
‘हाय, यवनिके, दो बूँद पिला दे पानी.’
देव! महादेव! यही वह कायर! आज
धरा के सकल पदारथ भोग रहा है…
(हर्षनाद. शंखनाद. हर्षनाद.)
शतमन्यु
फिर वही शोर! फिर वही नाद!
निश्चय ही विक्रम पर लाद रहे
हैँ और नए सम्मान नगरजन…
कंक
भव्य वीरता की विशाल प्रतिमा
बन विक्रम आज धरा को रौँद रहा
है. उस के विकराल डगोँ के नीचे
हम सैंधव जन चूहोँ जैसे दुबक
रहे हैँ, काँप रहे हैँ… कायर हैँ
जो अपनी किस्मत को कोसा करते
हैँ. है नरवीर वही अपने हाथोँ
जो निज भाग्य बनाता. शतमन्यु,
यह पतन हमारा – भाग्य नहीँ लाया,
हम लाए हैँ. देखो – विक्रम… शतमन्यु…
विक्रम मेँ क्या लाल लगे हैँ? क्योँ बार
बार विक्रम का नाम पुकारा जाता.
दोनोँ नामों को लिखो. शतमन्यु
भी उतना ही सजता है. दोनोँ का
जयकार करो.
जय जय विक्रम!
जय जय शतमन्यु!
बोलो कोई अंतर है?
विक्रम मेँ क्या लाल लगे हैँ?
क्योँ वह महान समझा जाता है?
सिंधु देश मेँ नरवीरोँ का काल
पड़ा है. आज का युग अंधा है.
यह वही नगर है जिस के चौड़े
प्रांगण मेँ नरवीरोँ के दल सीना
चौड़ा कर चलते आए हैँ? लेकिन
इस अंधे युग मेँ इस मेँ केवल एक
चलेगा! कभी सुना था ऐसा?
डूब नहीँ मरते क्योँ सैंधव? हम सब?…
सुनो, वीर शतमन्यु. सुना है पुरखोँ
से मैँ ने भी, और आप ने भी – युगोँ
पहले आप ही के वंश मेँ हुआ था
एक और शतमन्यु. विद्रोही! नायक!
महाकाल से टकरा सकता था वह
सम्मान के नाम पर. कुटिल लटूषक
जब बनना चाहता था सम्राट,
तब उस शतमन्यु ने कर दिए थे
उस के सपने चकनाचूर, मटियामेट.
उसी कुल के गौरव हैँ आप, वीर
शतमन्यु. बड़ी आशा से आप की
ओर देख रहा है सैंधव समाज…
शतमन्यु
तुम मुझे चाहते हो – मानता हूँ. तुम
मुझ से क्या चाहते हो – पहचानता हूँ.
मैँ ने बहुत गुना है, सोचा है,
विचारा है. युग की विषमता ने
मथा है मेरा भी मन. वह सब मैँ
बताऊँगा फिर कभी. बस, यही
विनती है – मुझे और मत उकसाओ.
तुम ने जो कहा, उस पर सोचूँगा
मैँ. जो कुछ तुम्हेँ और कहना है – वह
भी सुनूँगा मैँ. कभी कुछ समय
निकालेँगे, मिलेँगे, बैठेँगे
हम. बड़ी बड़ी बातेँ करेँगे,
सोचेँगे हम. तब तक, कंक,
बस इतना याद रखना – शतमन्यु को
स्वीकार है भरे बाज़ार बिकना या
बनवास को चले जाना. पर, कंक,
धारावती पर जो बीतने वाली
है, उस दशा मेँ स्वीकार नहीँ है
शतमन्यु को सैंधव देश का नागरिक
कहलाना.
कंक
इतना ही बहुत है.
मित्र शतमन्यु, देख ली मैँ ने
आप के मन मेँ दबी थी जो चिंगारी.
(विक्रम और साथी आ रहे हैँ.)
शतमन्यु
उत्सव संपूर्ण हुआ. अब लौट रहे
रहे हैँ विक्रम के साथ सब लोग…
कंक
यहाँ
से वे गुज़रेँ, तो आप थाम लेँ चाणूर
का आंचल. सब सुना देगा वह अपनी
लंठ शैली मेँ आँखोँ देखा हाल.
शतमन्यु
ठीक है. पर, कंक, देखो तो… विक्रम
के मस्तक पर कोप की छाया है. सब
लोग भी सहमे सहमे हैँ. क्लांत है
पूर्णिमा का कपोल. देखो,
आचार्य केदार ऊदबिलाव से
चिंतित हैँ – जैसे संसद मेँ किसी
ने काट दिया हो उन का तर्क.
कंक
सब कुछ बता डालेगा चाणूर.
विक्रम
आनंद!
आनंद
विक्रम?
विक्रम
मेरे पास रहेँ मोटे ताज़े लोग…
चिकने चुपड़े, बाल काढ़ने वाले लोग…
रात भर, भरनींद सोने वाले सुखी
लोग… वह जो कंक है – सींक सा पतला.
बेचैन हैँ, भूखी हैँ आँखेँ. सोचता
कुढ़ता रहता है हर दम. भयानक होते
हैँ ऐसे लोग.
आनंद
डरो मत. निरापद
है वह. कुलीन सैंधव है. भला है.
विक्रम
काश, वह मोटा होता. तुम जानते हो
विक्रम से दूर रहता है भय. कभी
सामना हुआ विक्रम और भय का, तो
दूर रखूँगा मैँ सींकिया कंक को.
बहुत पढ़ता है वह. निगाह पैनी
है. कर्म का मर्म भाँप लेता है.
उत्सव उल्लास उसे नहीँ भाते.
तुझ से उलटा है वह. संगीत नहीँ
सुनता. हँसता नहीँ. मुस्काता नहीँ
और कभी मुस्कराता है, तो यूँ –
जैसे धिक्कार रहा हो अपने को –
क्योँ मुस्करा बैठा. ऐसे जो लोग हैँ,
अपने से बड़ोँ के सामने सहज
नहीँ होते… इसी लिए होते
हैँ ये भयानक. भयानक लोगोँ
के लक्षण गिनाए हैँ मैँ ने. मैँ?
मैँ सदा सर्वदा निर्भय हूँ. विक्रम
हूँ. आ, इधर दाहिने, आ…
इस कान से कम सुनता हूँ मैँ…
बता कंक के बारे मेँ और क्या
सोचता है तू.
(तूर्यनाद. शंखनाद. विक्रम और साथी चले जाते हैँ. चाणूर रुक जाता है.)
चाणूर
आंचल क्योँ खीँचते हो, जी, मेरा? कुछ कहना है क्या?
शतमन्यु
अजी, चाणूर, क्या हो गया? उदास
क्योँ है विक्रम?
चाणूर
तुम तो थे वहाँ! तुम नहीँ जानते क्या हुआ?
शतमन्यु
फिर भला मैँ आप से पूछता?
चाणूर
अच्छा, तो सुनो, जी. विक्रम को दिया गया था राजमुकुट. उस ने हाथ से हटा दिया – यूँ! बस, लोग थे कि हो गए ख़ुशी से पागल, लगे चीखने चिल्लाने, ताली बजाने.
शतमन्यु
दूसरी बार क्योँ हुआ था हर्षनाद?
चाणूर
इसी लिए.
कंक
तीन बार हुआ था हर्षनाद, चाणूर.
तीसरी बार क्योँ हुआ?
चाणूर
इसी लिए.
शतमन्यु
तो तीन बार दिया गया था मुकुट?
चाणूर
हाँ, जी, पूरे तीन बार. तीनोँ बार हटा दिया विक्रम ने. पहली बार बड़े जोश से, दूसरी बार धीरे से. और तीसरी बार? बड़े बेमन से. जैसे जैसे विक्रम मुकुट हटाता, लोग हो जाते ख़ुशी से पागल.
कंक
मुकुट दिया किस ने था?
चाणूर
और कौन देता, जी? आनंद ने दिया था मुकुट.
शतमन्यु
भले मानस, चाणूर, बताओ तो
क्या हुआ? कैसे हुआ?
चाणूर
भला, जी, कोई बताए इन्हेँ – यह सब कैसे हुआ? कोई खिलवाड़ है… हाँ, पहले तो खिलवाड़ सी ही थी. मेरा तो ध्यान भी नहीँ था पूरा. अचानक क्या देखता हूँ, जी, आनंद मुकुट बढ़ा रहा है विक्रम की तरफ़. कोई सचमुच का मुकुट नहीँ था. फूलोँ का मुकुट था, जी… हाँ, तो बढ़ाया आनंद ने मुकुट. हटा दिया विक्रम ने. मुझ को तो लगा मन भावे मूँड हिलावे… लो, जी, थोड़ी देर बाद फिर बढ़ाया आनंद ने मुकुट. मुझ को लगा – मुकुट हटाना नहीँ चाहता विक्रम. फिर, तीसरी बार बढ़ा, जी, मुकुट. अब के भी विक्रम ने हटा दिया. बस, जी, जनता ठहरी जनार्दन. हो गई मगन. नादान बजाने लगी ताली, करने लगी शोर. पूछो मत – ऐसा शोर उठा, ऐसी गंदी हवा बही – बेचारा विक्रम. गला रुँध गया बेचारे का… बेहोश हो गया, जी. गिर पड़ा, जी. मेरी मत पूछो… मैँ तो मुँह खोल के हँस भी नहीँ सका. मुँह खोलता तो गंदी हवा ना घुस जाती मेरे भीतर?
कंक
आराम से…
क्या सचमुच बेहोश हो गया विक्रम?
चाणूर
अजी, हाँ, वहीँ गिर पड़ा चौक मैँ. झाग निकलने लगे मुँह से. बोलती बंद हो गई.
शतमन्यु
हाँ, हाँ. गिरने का रोग है विक्रम को.
कंक
गिरने का रोग विक्रम को नहीँ है,
गिरने का रोग है आप को, मुझे और
भले चाणूर को.
चाणूर
पता नहीँ, क्या बकते हो, जी. मैँ सच कहता हूँ… ग़श खा के गिर पड़ा था विक्रम… और कचरापट्टी लोग बजाने लगे ताली, दे ताली. और मचाने लगे शोर, होहुल्लड़… जैसा खेल तमाशे मेँ करते हैँ, नचनियोँ के नाच पे मगन हो कर… सच कहता हूँ… ऐसा ही हुआ था, जी.
शतमन्यु
होश आने पर क्या बोला विक्रम?
चाणूर
अजी, पहले तो इस से भी पहले की सुनो… विक्रम ने हटा दिया मुकुट, तो जनता ख़ुश. जनता ख़ुश, तो विक्रम हैरान. मैँ खड़ा था विक्रम के बिल्कुल पास. मेरे सहारे टिक के खड़ा हो गया विक्रम. दम घुट रहा था उस का. मुझ से बोला, ‘खोल दो मेरा गरेबान.’ मैँ ने गरेबान खोला, तो क्या बोला विक्रम? विक्रम बोला जनता से : ‘आप के सामने खड़ा हूँ. काट डालो मेरा गला.’ सच कहता हूँ अगर मैँ होता जनता जनार्दन और कहा न मानता विक्रम का, तो नरक न जाना पड़ता मुझे? पर तभी बेहोश हो गया, गिर पड़ा, विक्रम. होश आया तो कहने लगा : ‘कोई भूलचूक हो गई हो मुझ से, कोई कहनी अनकहनी कह दी हो मैँ ने, तो क्षमा कर देना कमज़ोरी समझ के.’ मेरे पास खड़ी थीँ तीन चार बीरबानियाँ. आँखेँ छलक आईँ, जी, उन की. कहने लगीं : ‘बेचारा भला मानस!’ क्षमा कर दिया, जी, उन्होँ ने उसे. मैँ कहूँ – वह उन की अम्माओँ को छुरा घोँप देता, तो भी क्षमा कर देतीँ वे उसे.
शतमन्यु
और उस के बाद उदास विक्रम इधर
चला आया?
चाणूर
हाँ, जी.
कंक
आचार्य केदार ने क्या कहा?
चाणूर
गांधारी भाषा मेँ कहा था कुछ.
कंक
लेकिन कहा क्या था?
चाणूर
मैँ क्या जानूँ गांधारी बोली. हाँ, जो समझे, वे हँस पड़े थे… हाँ, जी, और सुनो! नया, बिल्कुल नया, समाचार. भैरव और सुघोष की कर दी गई है बोलती बंद… उन का अपराध? अरे, आप नहीँ जानते? विक्रम की मूरत पर से हार जो उतारे थे उन्होँ ने. अच्छा जी, बंदा तो चला. तमाशे तो और भी बहुत हुए, पर याद नहीँ आ रहे.
कंक
आज शाम भोजन पर आ जाओ घर पर.
चाणूर
आज शाम? आज का न्योता है कहीँ और से.
कंक
तो कल शाम?
चाणूर
हाँ, कल की शाम आई तो… लेकिन देखो न्योत कर भूल मत जाना और भोजन चटपटा बनवाना.
कंक
ठीक है, प्रतीक्षा करूँगा तुम्हारी.
चाणूर
ठीक है, जी. अच्छा, जी, आप दोनोँ को बंदे का नमस्कार.
(जाता है.)
शतमन्यु
कैसा लंठ गँवार हो गया है!
पाठशाला मेँ चाणूर कैसा
कुशाग्र हुआ करता था.
कंक
जनहित मेँ
अभी तक तेज है वह. यह तीख़ा
मिर्च मसाला, यह चटखारा, यह सब
ऊपरी अदा है. लोग शौक से सुनते
हैँ, पचा लेते हैँ.
शतमन्यु
यह तो है. तो
अब मैँ चलता हूँ. मिलेँगे कल फिर.
कहो तो तुम्हारे घर आ जाऊँ?
न हो, तुम्हीँ आ जाना मेरे पास.
प्रतीक्षा करूँगा मैँ.
कंक
आऊँगा,
मित्र, मैँ ही आऊँगा… सोचो,
सोचो तब तक – क्या हो रहा
है ज़माने को?
(शतमन्यु जाता है.)
बड़े हैँ, बहुत बड़े
हैँ आप, मित्र शतमन्यु. पर
समझ गया हूँ मैँ – आप को ढाला
जा सकता है मनचाहे साँचे मेँ.
बड़ोँ को चाहिए संगत बड़ोँ
की. बहकाए जा सकते हैँ बड़े
से बड़े भी. विक्रम को सुहाता
नहीँ हूँ मैँ. शतमन्यु ठहरा उस की
आँखोँ का तारा. होता अगर मैँ
शतमन्यु और शतमन्यु होते मेरी
जगह – तो फुसला नहीँ पाते वे
कभी मुझ को. आज ही रात लिखूँगा
ज्ञापन, आवाहन. अनेक नामों से.
उन सब मेँ होगा सैंधवोँ की नज़र मेँ
शतमन्यु की महानता का बखान, और
विक्रम की नीयत पर कटाक्ष। देखेँ –
फिर कितनी देर टिक पाता है विक्रम.
हिला देँगे हम उसे या फिर हम
ही सहेँगे दुर्भाग्य की मार.
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