विक्रम सैंधव. अंक 1. दृश्य 1. सैंधव गणराज्‍य की राजधानी – धारावती

In Adaptation, Culture, Drama, Fiction, Poetry by Arvind KumarLeave a Comment

पत्‍थर हो तुम, पाषाण हो. तुम भावना से हीन हो.

पा कर तुम्हेँ धारावती बदनाम है.

है सिंधुगण को शर्म तुम पर. सैंधव नहीँ कुछ और हो तुम!

 

सैंधव गणराज्‍य की राजधानीधारावती. एक राजमार्ग.

(कुछ नगरजन आते हैँ.)

 

सब नगरजन

हर हर महादेव!

हर हर महादेव!

कुछ नगरजन

जय देवी! जय अंबे!

पहला नगरजन

सैंधव गणराज्‍य!

बाक़ी नगरजन

         हमारा गणराज्‍य!

दूसरा नगरजन

संसार विजेता

बाक़ी नगरजन

         सैंधव गणराज्‍य!

पहला नगरजन

हमारा नायक

बाक़ी नगरजन

         विक्रम सैंधव! विक्रम सैंधव!

(सामने की ओर से सुघोष और भैरव आते हैँ.)

सब नगरजन

हर हर महादेव!

हर हर महादेव!

         जय अंबे, जय जगदंबे!

जय जय विक्रम!

         विक्रम! विक्रम!

सुघोष

चुप करो! बंद करो यह बकवास.

जाओ घर. निठल्‍लो! कामचोरो! घर

जाओ. हुआ क्‍या है? हर्ष का अवसर

कहाँ है यह? क्योँ बंद हैँ सब काम?

क्योँ घूमते हो आवारा?… कौन है तू?

पहला नगरजन

बढ़ई हूँ, जी.

भैरव

कहाँ है तेरा बाना, नपैना?

कहाँ है तेरी बसूली, रंदा?

क्योँ निकला हैँ योँ सजधज कर?…और तू?

क्‍या है तू?

दूसरा नगरजन

मैँ? अजी, मैँ भी क्‍या! बस आप के चरणोँ का दास!

भैरव

सीधे मुँह बताक्‍या है तेरा काम?

दूसरा नगरजन

अजी, मेरा भी कोई काम है! ये ठहरे विश्वकर्मा के अवतार, गुणवान कर्मकार इन के सामने मैँ क्‍या बस, चर्मकार

भैरव

बक बक बंद कर. काम बता अपना.

दूसरा नगरजन

, , यूँ मत फटिए आप, श्रीमान! चलो, फट ही गए तो कोई बात नहीँ? अच्‍छी तरियोँ गाँठ दूँगा.

भैरव

यह हिम्‍मत! मुझे गाँठ देगा, पाजी!

बदमाश!

दूसरा नगरजन

जी, तला निकल गया आप का, तो मैँ ही तो गाँठूँगा न!

सुघोष

चर्मकार है तू? मोची है तू?

दूसरा नगरजन

जी, हाँ, श्रीमान. आप के चरणोँ की शोभा हैँ जो, मेरे ही हाथोँ का कौशल हैँ वे.

सुघोष

तो क्योँहीँ सी रहा जूते?

भटका रहा है लोगोँ को क्योँ?

दूसरा नगरजन

श्रीमान, सच कहता हूँ सरेआम. मैँ निकला हूँ जूते घिसवाने? यू घूमेँगे लोग तो घिसेँगे जूते. घिसेँगे जूते तो मुझे मिलेँगे दाम! और भी सच कहूँ तो हम निकले हैँ आज चक्रवर्ती सम्राट विक्रम का स्‍वागत करने. हम निकले हैँ आनंद मनाने, मनाने विजय का उल्‍लास.

भैरव

    उल्‍लास क्योँ? आनंद क्योँ? किस की

विजय? किस पर विजय? कैसी विजय?

कौन सा धन जीत कर लाया है वह? है

कौन जो बंदी बना? रथ कौन उस का

खीँचता? बोलो! चुप क्योँ हो? पत्‍थर हो

तुम, पाषाण हो. तुम भावना से हीन हो.

पा कर तुम्हेँ धारावती बदनाम है.

है सिंधुगण को शर्म तुम पर.

सैंधव नहीँ कुछ और हो तुम!

तुम भूल गए क्‍या

वे सब बीते अच्‍छे दिन?

वह अपना नायक महाभोज?

च्चोँ को गोदी मेँ ले कर

   चढ़ना वह शिखरोँ पर,

   दीवारोँ पर

भूल गए वह रुकना पूरे पूरे दिन,

वह इंतज़ार कब आएगा अपना

महाभोज? कब शोभित होगा उस से

धारा नगरी का यह राजमार्ग?

देखा जो उस का विजय यान आकाश

उठा लेते थे तुम सिर पर. है याद?

या भूल गए? वह गुंजन, अनुगुंजन,

प्रतिगुंजन उन नारोँ का जिन से

थर थर कंपित कर डाला तुम ने

सिंधु सलिल. अब तुम फिर से सजधज

कर निकले हो? इसविक्रम!का स्‍वागत

करते हो! कर डाले सारे काम बंद?

पुष्पोँ से भर डाला राजमार्ग

बोलोविक्रम की जय किस पर जय है?

उस महाभोज के बेटोँ पर जय मेँ,

बोलो, किस पर जय है? हारे हैँ

जोवे सैंधव थे. वे अन्‍य नहीँ

थेअपने थे. सारे जग मेँ सैंधव

पुत्रोँ के पीछे दौड़ा विक्रम. चार

साल, हाँ, पूरे चार साल, सारे जग ने

देखा सैंधव गण का विनाश. जाओ,

जाओ. घर जाओ. देवी से माँगो

क्षमा दान. बरसेगा तुम पर कोप प्रबल.

होगा धरती पर वज्रपात.

सुघोष

जाओ, जाओ. भाई, जाओ. एकत्र करो

सब कामगार. सिंधु किनारे मिल

कर रोओ रोओ इतना इतना

रोओ आँसू से आ जाए सिंधु

नदी मेँ बाढ़ प्रबल.

(सब नगरजन जाते हैँ.)

                                 देखा, भैरव!

नतमस्‍तक हो कर सब चले गए.

अंतर्तम तक कंपित हैँ वे, हैँ सब

के सब लज्‍जित, पश्‍चात्ताप भरे!

तुम इधर दुर्ग की ओर चलो. इस

ओर चला जाता हूँ मैँ. आओ,

हम तोड़ेँ तोरण मंडप. छीनेँ

विक्रम की प्रतिमाओँ से पुष्‍पहार.

भैरव

पर, सुघोष, यह ठीक रहेगा क्‍या? है

आज नगर मेँ समारोहहै मदन

पूर्णिमा का उत्‍सव.

सुघोष

                                 उत्‍सव है तो

होने दो. बस, यह देखोविक्रम का

स्‍वागत चिह्‍न न कोई बच पाए.

लोगोँ से ख़ाली कर दूँगा मैँ सब

सड़केँ. भीड़ जहाँ भी तुम देखो

दो भाषण. नोँचो विक्रम के पंख.

हम भी देखेँ. कैसेवह उड़ता है!

करता है कैसे सब को पराधीन!

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