फ़ाउस्ट – एक त्रासदी
योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे
काव्यानुवाद - © अरविंद कुमार
५. आधी रात
चार बूढ़ी खूसट पिशाचनियाँ आती हैँ.
पहली
मेरा नाम है कमताई…
दूसरी
मेरा नाम है कर्ज़…
तीसरी
मेरा नाम है चिंता…
चौथी
मेरा नाम है ज़रूरत…
तीन
घुस नहीँ सकतीँ हम – कपाट हैँ बंद.
धनी का निवास है यह – प्रवेश है बंद.
कमताई
सिकुड़ कर मैँ हुई जाती हूँ छाया.
कर्ज़
मैँ बनी जाती हूँ शून्य.
ज़रूरत
छके हुए हैँ जो लोग –
धकेल देते हैँ मुझे ख़्यालोँ से दूर.
चिंता
बहनो, सही है,
तुम नहीँ जा सकतीँ भीतर
मेरे लिए काफ़ी है छोटी सी दरार.
(चिंता अदृश्य हो जाती है.)
कमताई
चलो, काली बहनो, चलेँ
यहाँ नहीँ है हमारा बसर.
कर्ज़
हाँ, बहन, चलो, मैँ भी चलती हूँ तुम्हारे साथ.
ज़रूरत
ज़रूरत भी लौटेगी तुम दोनोँ के साथ.
तीनोँ
घिर आई छाया, ओझल है तारा
घिर आया बादल, ओझल है तारा
उधर से, दूर से, बड़ी बड़ी दूर से
वह कौन आया – कौन है, क्या है?
यह कौन आया – कौन है, क्या है?
छाया की काया? – मायावी छाया
बड़भागा – काल – म्हारा बड़ा भाया.
फ़ाउस्ट (महल मेँ – )
चार को देखा था मैँ ने आते
लेकिन देखा बस तीन को जाते.
उन की भाषा – थी मेरी बुद्धि से बाहर.
एक शब्द ज़रूरत हवा मेँ लहराया – झनझन
और फिर एक गूँज – काऽऽल…
दबी सी एक धमकी – भूतोँ की छाया.
अभी तक मुक्त मैँ हो नहीँ पाया.
हर क़दम पर, हर मोड़ पर
मिलते हैँ अज्ञान और माया,
चुड़ैल, जादू और टोना.
काश, मैँ होता बस मानव.
बस, क़ुदरत से होता लेना देना.
होता सार्थक मेरा मानव होना.
एक समय था – मैँ बस वही था –
लेकिन मैँ टटोलने लगा अंधकार…
देने लगा शाप, करने लगा आत्मनिंदा,
हो कर हीनभाव से ग्रस्त देने लगा शाप,
खोजने लगा अंधकारपूर्ण संसार.
अब भूतोँ प्रेतोँ से ग्रस्त है हर कोना.
मुश्किल है इन से मुक्त अब होना.
मुस्कराता है तर्कसंगत प्रकाश से दिन.
फाँस लेते हैँ हमेँ रात और कुटिल स्वप्न.
जीवन रस से भरपूर होता है उपवन –
बोलने लगते हैँ काग.
क्या कहते हैँ काग?
देने लगते हैँ काग –
दुर्घटना का आभास.
हमारे हर ओर हैँ –
आशंका, शकुन, अपशुकन, अरिष्ट, उत्पात.
होता है जब अशुभ का पूर्वाभास
भय से जड़ पत्थर हो जाते हैँ हम.
हो जाते हैँ अकेले – एकाकी.
चरमराया है द्वार – आया नहीँ कोई.
(डर कर – )
कोई है यहाँ?
चिंता
प्रश्न का उत्तर है – हाँ!
फ़ाउस्ट
कौन है? कौन हो तुम? कहाँ?
चिंता
मैँ हूँ – मैँ हूँ – यहाँ.
काफ़ी है यह कहना –
मैँ हूँ – मैँ हूँ – यहाँ!
फ़ाउस्ट
हो जाओ दफ़ा.
चिंता
मैँ हूँ वहाँ, होना चाहिए मुझे जहाँ.
फ़ाउस्ट (पहले क्रुद्ध होता है, फिर शांत हो कर – )
ज़बान को लगाम दे
मत कर बातेँ मायावी.
चिंता
मेरी बात न सुने कान,
तो भी सुनती है दिल की धड़कन,
सुनते हैँ डरते सहमते मन.
मेरे रूप हैँ हज़ार – भारी है मेरा वार.
सागर पर, पर्वत पर,
घाटी के पत्थर पत्थर पर
जहाँ देखो – है मेरा राज.
हर डरपोक की साथिन हूँ
कोई खोजता नहीँ मुझे – मैँ ही आती हूँ
सब के पास…
करना है जो – करती हूँ मैँ
मिले गुणगान, मिले गाली.
मेरा नाम है चिंता काली.
तुम हो मुझ से अनजान?
फ़ाउस्ट
जीवन की डगर पर लगाता रहा हूँ मैँ दौड़ –
हर लोभ, आकर्षण, अवसर, के पकड़ कर केश.
मेरा था एक ही कर्म –
पूरी करना हर कामना.
मेरे कर्मठ जीवन का था एक ही मर्म –
करना नई से नई कामना,
फिर और नई कामना.
जीवन की भट्टी मेँ मैँ ने झोँक दी सब ताक़त.
सीखा नहीँ हारना.
शक्तिशाली था मैँ, महान था मैँ.
मेरी चाल मेँ गति थी, शक्ति थी.
अब हूँ कुछ शांत, प्रशांत.
यह सब जो है धरती पर –
मानव का ज्ञान, मानव का संसार –
वह सब पूरी तरह जानता हूँ मैँ.
जो है इस के पार – इंद्रियोँ से परे है वह ज्ञान.
हर कर्मशील जन को सुलभ है संसार.
क्योँ भटके कोई अनंत की खोज मेँ?
समक्ष है जो, कर ले उसे अधीन,
धरती के गोले पर चले सँभल कर.
सताएँ जब भूत प्रेत – न बदले अपना वेग
प्रगति की राह मेँ भोगे – हर हर्ष और क्लेश.
जब जाना हो, चला जाए चुपचाप.
हर पल पालता रहे असंतोष.
जीवन का स्थायी भाव बस होना चाहिए एक –
असंतोष! असंतोष! असंतोष!
चिंता
जब किसी को वर लेती हूँ मैँ,
जब किसी को ग्रस लेती हूँ मैँ,
तो कुछ नहीँ आता किसी के काम.
उस पर उतर आता है अंधकार का जाल.
सूर्योदय और सूर्यास्त हो जाते हैँ बेकार.
इंद्रियोँ मेँ होता नहीँ कोई भी विकार…
लेकिन आत्मा?
आत्मा पर गहरा जाता है अंधकार.
हर कोश, हर संग्रह हो जाता है व्यर्थ.
भाग्य और दुर्भाग्य का रहता नहीँ अर्थ.
समाप्त हो जाते हैँ उस के सब भोग.
समृद्धि के बीच वह रहता है विपन्न.
हर्ष हो क्लेश – वह भोगना चाहता है –
आज नहीँ – कल.
उसे सताती है भविष्य की चिंता.
भूल जाता है, टालता रहता है
जो चाहता है उस से वर्तमान.
फ़ाउस्ट
ख़ामोश! यह सब मुझ पर है बेकार.
बंद कर अनर्गल बकवास.
जा! दूर हो! सुन कर तेरे मंत्र, तेरे जाप,
खो बैठेगा औसान हर बुद्धिमान.
चिंता
शुभागमन हो, दुरागमन हो
संकल्प का मैँ करती हूँ नाश.
चाहे हो जीवन का पथ सपाट. उस पर
आदमी चलता है लड़खड़ाता, खाता ठोकर.
बढ़ता है अंधोँ जैसा टटोल कर,
दलदल मेँ फँस कर,
ग़लती कर कर,
अनुभूति शून्य हो – नेत्रहीन हो
बनता है बोझ –
अपने और पराए काँधोँ पर.
आता है हर साँस उखड़ कर.
आधा जी कर – आधा मर कर,
आशा और निराशा के झूले पर,
हाथ बढ़ाता है, रुकता है,
करता है हर काम काँप कर.
कभी डरा कर – कभी धमका कर,
नीँद उड़ा कर – चैन मिटा कर,
गतिहीनता की ज़ंजीरोँ मेँ बाँध कर,
मैँ करती हूँ उस का सर्वनाश.
फ़ाउस्ट
आसुरी पूतना!
युगोँ से तू ने डँसा है मानव को ग्रस कर.
दिन जो होते हैँ साधारण,
उन मेँ भी तू करती है जीवन दुष्कर.
मज़बूत है तेरा दानवी पाश.
व्यापक है, चिंता, तेरा जमाव.
कभी स्वीकार नहीँ कर सकता मैँ तेरा प्रभाव.
चिंता
मत दिखा शान.
देख, क्या कर सकती हूँ मैँ!
अकसर इनसान रहता है अंधा.
फ़ाउस्ट, जीवन के अंत मेँ – हो जा तू – अंधा!
(फ़ाउस्ट पर मंत्र फूँकती है. जाती है.)
फ़ाउस्ट (अंधा हो जाता है – )
लगता है गहरा आई है रात,
लेकिन हो गया है
दैदीप्यमान भीतर का प्रकाश.
मुझे तेज़ी से बसाना है
सपनोँ का संसार.
मालिक के आदेश पर ही काम करते हैँ कामगार.
उठो, श्रमिको, उठो, फिर से उठो!
करो, जो सौँपे गए हैँ तुम्हेँ काम.
उठाओ फावड़े, उठाओ कुदाल.
करो हर आदेश का चुस्ती से पालन.
पाने को मीठे से मीठा सघन फल
हज़ार हाथोँ के लिए पर्याप्त है एक नेता का मन.
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