फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 5 दृश्य 2 – वाटिका

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

२. वाटिका

तीनोँ भोजन की मेज़ पर –

बौकिस

मौन हो? नहीँ है खाने का मन?

फिलेमन

कब, कैसे, हुआ परिवर्तन –

पाहुन को सब सुनाओ.

उत्सुकता बुझाओ…

बौकिस

हाँ. चमत्कार ही था.

अभी तक है मेरी बुद्धि से बाहर.

ज़रूर कहीँ कुछ ग़लत था.

कहाँ पर क्या ग़लत था

जानती नहीँ हूँ मैं

कह नहीँ सकती हूँ मैँ…

फिलेमन

क्या इस का दोष सम्राट को देँ ?

सम्राट ने दिया था

नए स्वामी को तट और सागर?

गाँव गाँव घूमता था ढिँढोरची

करता था खुले आम मुनादी.

पहला पड़ाव डाला गया था

यहीँ – यहाँ से थोड़ी दूर.

पहले लगे थे कुछ तंबू,

बसी थीँ कुछ झोपड़ियाँ,

फिर उठ आया एक महल…

बौकिस

दिन भर चलते रहते थे फावड़े कुदाल.

चारोँ ओर था शोर शराबा, हलचल.

लगता था सब कुछ बेकार निरर्थक.

रात रात जलते थे परियोँ के दीपक.

जब होती थी सुबह –

दिखाई देती थी सागर मेँ दीवार.

मज़दूर होते रहते थे दुर्घटनाओँ का शिकार.

रात की हवा पर सुनाई पड़ती थी

उन की कराह.

सागर की ओर रात भर बहती थी

ज्वाला की धार.

सुबह होने तक बन जाती थी

गहरी चौड़ी जलधार…

ईश्वर से दूर है वह.

हमारी झोँपड़ी पर

है अब उस की नज़र.

कभी जो होता था हमारा पड़ोसी

अब हम हैँ प्रजा उस की.

भय से काँपते रहते हैँ थर थर…

फिलेमन

पर क्योँ भूलती हो –

उस ने दिया है वचन –

जल से निकला है जो नया थल

उस मेँ हमेँ देगा वह

    शानदार भवन और उपवन.

बौकिस

क्या भरोसा उस थल का

जहाँ पहले होता था जल?

भली है हमारी यह रेतीली पहाड़ी

जिस पर बनी है यह कुटिया हमारी.

फिलेमन

डूब रहा है सूर्य.

लालिमा मिटने से पहले –

चलोँ घंटियाँ बजाएँ

करेँ फिर से भगवान को समर्पण.

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