फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 5 दृश्य 1 – खुला मैदान

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

१. खुला मैदान

यात्री

वही पुरातन लिंडन फहराते

वय मेँ वृद्ध, गहन छतनारे.

लहराते हैँ बाँह पसारे –

स्वागत करते, मिलने को आकुल.

वही देश, वैसा ही निर्धन आँचल.

यही कुटी थी.

इस मेँ मैँ ने शरण गही थी

जब तूफ़ानी लहरोँ ने फेँका रेतीले तट पर.

क्या अब भी जीवित होँगे वे

पति पत्नी जो दया भरे थे?

तब भी वे कितने बूढ़े थे!

पुण्यभरा था उन का जीवन.

दस्तक दूँ या उन्हेँ पुकारूँ! है?

कोई है घर मेँ? दयावान थे,

अब भी अपनी दया दिखाओ.

बौकिस (नन्हीँ सी बूढ़ी महिला – )

आहिस्ता! पाहुने, आहिस्ता बोलो!

कर रहा है आराम. बूढ़ा है मेरा मानुस.

जल्दी ही थक जाता है.

देर तक सोना पड़ता है,

तब आती है ताक़त.

यात्री

अरे! तुम हो, तुम्हीँ हो, माँ बूढ़ी,

हो न, तुम – बौकिस ही?

बरसोँ पहले तुम ने दिया था जिसे जीवन दान

अब फिर लौटा है वह नौजवान.

(बूढ़ा पति आता है.)

और तुम – फिलेमन?

तब थे कितने ताक़तवर…

सागर से खीँचा था मेरा धन.

चूल्हे मेँ था अच्छा ईँधन.

तुम ने दी थी शरण.

जाऊँ, फिर विस्तृत सागर को देखूँ,

सिकता तट पर घुटने टेकूँ,

फिर सागर का वंदन कर लूँ,

भक्तिभरे सब भाव उँडेल दूँ

जो बरसोँ से मेरे मन मेँ.

(टीले की ओर बढ़ता है.)

फिलेमन

जल्दी करो! बगिया मेँ

खाने सी मेज़ लगा दो,

भोजन की प्लेट परसा दो.

जब वह सागर को खोजेगा

तो चौँकेगा,

आँखोँ पर विश्वास न होगा.

(यात्री के पास खड़ा हो कर – )

पहले जहाँ उमड़ता था जल

होता था लहरोँ का गर्जन,

आज वहाँ फैली है धरती, नहीँ है जल.

हो रहा है नए स्वर्ग का सर्जन.

चरागाह, अस्तबल,

हरे भरे झुरमुट, वन उपवन…

सागर चला गया है दूर…

साहस के पुतले लोगोँ ने उलीच डाला.

दीवार बना सागर सीमित कर डाला.

चतुर भूपति का चलता है शासन.

 

जल्दी ही हो जाएगी शाम.

चलो, चलेँ अब कर लेँ भोजन.

 

देखो दूर, बहुत दूर

देखो पाल और मस्तूल…

विशाल पोत डाल रहे होँगे लंगर.

सागर पाखी भी जानते हैँ

कहाँ बनाना है नया नीड़.

देखो – सागर का गहरा नीलापन

हम से हो गया कितनी दूर…

देखो विस्तृत नए मैदान –

बाएँ दाएँ फैले नए नगर हैँ,

नए लोग हैँ, नई डगर हैँ.

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