फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 4 दृश्य 3 – विद्रोही सम्राट का शिविर

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फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

३. विद्रोही सम्राट का शिविर

सिंहासन. समृद्ध परिवेश.

छीनझपट. लुटेरी बंजारन.

लुटेरी बंजारन

सब से पहले हमीँ पहुँचे यहाँ आन!

छीनझपट

हम सा तेज़ उड़ता नहीँ कोई काग.

लुटेरी बंजारन

वाह – कोश के ढेर – अंबार!

कहाँ से करूँ आरंभ – कहाँ अंत?

छीनझपट

वाह वाह! हर जगह भरपूर! माल ही माल!

क्या लूँ, क्या न लूँ – यही है सवाल!

लुटेरी बंजारन

मुझे चाहिए – कोमल है क़ालीन –

मेरी सेज है कठोर – आराम से हीन.

छीनझपट

यहाँ टँगा है शुक्र नक्षत्र – भारी, जड़ाऊ

कब से थी चाह – ऐसा मैँ पाऊँ.

लुटेरी बंजारन

आह! शानदार चोग़ा – गहरा लाल! सोने का काम!

देखती थी इस के सपने – आज लगा है हाथ!

छीनझपट (हथियार लेता है.)

इस से – बढ़ जाती है चाल, औक़ात –

रास्ता रोकने वाले पर एक वार! काम तमाम!

पूरी लदी है तू, तेरे बोझे मेँ नहीँ है कुछ ठीक –

कूड़ा करकट! छोड़ दे यहीँ – दे फेँक!

उठा ले – वह पेटी – भारी –

सेना के वेतन भत्ते की पिटारी!

सोने से भरा है इस का पेट.

लुटेरी बंजारन

इस का बोझ – निकल जाएगी जान!

उठती नहीँ मुझ से – भारी है पेटी.

छीनझपट

जल्दी! ले झुक! बैठ!

कमर पर रख दूँगा मैँ – अब उठ!

लुटेरी बंजारन

उई माँ! गिर गई पेटी –

बोझ से कमर और कूल्हे गए टूट!

(पेटी ज़मीन पर गिर कर खुल जाती है. सारा माल बिखर जाता है.)

छीनझपट

सोने पर सोना! ढेर का ढेर!

जल्दी, लूट ले – लूट, जितना सके तू लूट!

लुटेरी बंजारन (धरती पर झुकती है.)

जल्दी! लूट से भर लूँ दामन.

इतना भी काफ़ी है – कहता है मन.

छीनझपट

तो काफ़ी है इतना! कर जल्दी! चल फूट!

(उठती है.)

हाय, तेरा तो फट गया दामन!

तू जहाँ जहाँ चलेगी –

बीज सिक्कोँ के बोती चलेगी!

अंगरक्षक (हमारे सम्राट के)

कमीनो! चोरो, लुटेरो! क्या करते हो यहाँ?

सम्राट का भाग है – जो भी है यहाँ!

छीनझपट

लाभ के वास्ते संकट मेँ डाली थी हम ने जान.

शिकार के माल मेँ हम लेते हैँ जो हमारा है भाग.

दुश्मन के शिविर मेँ होता है यही.

जानते हो तुम – हम भी हैँ सिपाही.

अंगरक्षक

हमारी सेना का नियम है –

पाता है दंड यदि चोर हो सिपाही.

सम्राट का सच्चा सेवक है जो –

ईमानदार होता वह – सिपाही!

छीनझपट

हाँ! क्या होता है ईमान – हमेँ है पहचान!

चंदा’ ‘उपहार’ – लो इसे मान.

एक ही साँचे मेँ ढले हो तुम लोग –

दो’ – बस एक ही शब्द जानते हो तुम लोग!

(लुटेरी बंजारन से – )

बस, बहुत है! चल निकल चलेँ हम!

और जो रुके – तो बचेँगे नहीँ हम!

(जाते हैँ.)

पहला अंगरक्षक

देखते ही तू ने जड़ नहीँ दिया क्योँ –

उचक्के के मुँह पर मुक्का!

दूसरा

मुझ मेँ कुछ दम सा नहीँ था – पता नहीँ क्योँ?

भूतिया बेताल सा लगा था – मुझे वह उचक्का.

तीसरा

कुछ तो था – हाँ. और जैसे कुछ चमका –

कुछ दिखता नहीँ था – ना जाने क्योँ?

चौथा

मैँ भी कुछ कह नहीँ सकता –

सारे दिन – जैसे था भभका –

घुटन, हुमस, कुछ बोझ सा.

कोई अडिग था – तो कोई था गिरता.

टटोलते से बढ़ते और लड़ते थे हम,

अंधी सी हिम्मत से, जाने क्योँ, भरे थे हम.

एक एक वार मेँ दुश्मन होता था ढेर,

आँखोँ मेँ धुँधलका था और था अँधेर.

जाने क्या था – गरजता, गुंजारता, सिसकारता.

यूँ ही हो गया अंत – कैसे हुआ कोई नहीँ जानता.

(सम्राट का प्रवेश. साथ मेँ हैँ चार राजकुमार.)

(अंगरक्षक सादर जाते हैँ.)

सम्राट

उस का जो होना है हो – मार लिया है हम ने मैदान,

ढोर डंगर सा भाग गया है दुश्मन – जहाँ है मैदान.

यहाँ मिला है हमेँ द्रोहियोँ का कोश और सूना सिंहासन,

भीतोँ पर टँगे हैँ पटल, जिन से घुटा घुटा सा है प्रांगण.

अंगरक्षक कर रहे हैँ संरक्षण -

हम हैँ सिंहासन पर विराजमान –

प्रजा के प्रतिनिधियोँ से स्वीकार करने सम्मान.

हर दिशा से आ रहे हैँ सुख के संदेशवाहक –

देश मेँ है शांति का राज – सब हैँ हमारे सेवक.

विचित्र था अवसर – हमारी जय पर पड़ा माया का प्रभाव –

अंत मेँ, हमारी शक्ति का, सत्ता का, जग पर जम गया प्रभाव.

सच है, कभी कभी, प्रकृति की दुर्घटना योद्धा के आती है काम

कभी हो जाता है वज्रपात – हो जाता है शत्रु का काम तमाम,

गिरिकंदर से गूँजती है कभी अनोखी तान,

मन मेँ समा जाता है आश्चर्य, शत्रु हो जाता है हैरान.

हार जाता है जो, सहता है जन जन के उपहास की मार,

डीँग मारता विजेता मानता है भगवान का आभार,

सब के सब मिलाते हैँ सुर मेँ सुर, गाते हैँ पुकार पुकार –

तेरा हो जयजयकार, तू करता है बेड़ा पार!

लाखोँ लाखोँ कंठोँ से यही स्वर फूटता है बारंबार.

कम ही हैँ वे लोग जो सच्चे मन से मानते हैँ आभार,

जो झाँकते हैँ मन के भीतर, जिस मेँ भरा हो आभार.

भरी जवानी मेँ खेलकूद मेँ मन रमाते हैँ मनमोदी राजकुमार,

काल है जो सिखाता है और भी बहुत कुछ है संसार,

गिन गिन कर काल से करना होता है व्यवहार.

मेरे सुयोग्य चारोँ राजकुमार, मैँ करता हूँ आवाहन

देते रहो राज्य मेँ, दरबार मेँ, न्याय मेँ – सहयोग और समर्थन.

(पहले से – )

राजकुमार, तेरा काम था – सेना की व्यूह रचना, समावलोकन,

कठिन समय मेँ शौर्य का प्रदर्शन, साहसपूर्ण मार्गदर्शन -

और अब शांति के काल मेँ, पदानुसार, कर्तव्य का पालन!

सौँपता हूँ तुझे महासंचालक पद का भार – और प्रतीक – तलवार.

महासंचालक

स्वामीभक्त सेना अभी तक करती रही है नागरिक न्याय की स्थापना,

तेरी और तेरे राज्य की रक्षा मेँ रही है हमेशा उस की भावना,

अब एक और काम होगा सीमा की रक्षा की देखभाल करना.

तेरे आनुवंशिक भवनोँ मेँ – मिल जाए हमेँ समादेश -

जब उत्सव हो, जन गण मगन हो, कर रहे होँ प्रवेश,

हम करेँ सज्‍जित तेरे महाभोज की मेज़.

हमेँ हो तेरा समर्थन, आदेश – जब तू निकले हो कर सवार –

सुसज्जित दल होँ हमारे तेरे साथ, तेरी रक्षा करे यह तलवार!

सम्राट (दूसरे से – )

तू है महावीर और साथ ही साथ तुझ मेँ है पूरा शील –

ले – तू महाकक्षाध्यक्ष का पद सँभाल,

किसी से कम नहीँ है यह पदभार –

अब जितने भी कक्षासेवक हैँ, तू है उन का सरदार.

सब कुछ हो जाता है बेस्वाद – जो इन मेँ हो तकरार,

मतभेद, और जो ये निकालते रहते होँ खोट अनधिकार.

इन सब के लिए महान आदर्श बन जाए तेरा व्यवहार,

रखना चाहेँगे तुझे प्रसन्न सब राजकुमार, पूरा दरबार.

महाकक्षाध्यक्ष

पूरे करने को तेरे महान उद्देश्य, हमारा आदर्श है तेरा प्रसाद –

भलोँ को देना है पुरस्कार, बुरोँ को देना नहीँ घोर अवसाद,

खुला हो व्यवहार – कूट चालोँ से हीन,

रहना शांत छल से विहीन!

पढ़ सके जो तू मेरा मन, मैँ हूँ प्रसन्न – पा कर सम्मान.

पर, शीघ्र ही सेवा मेँ तत्पर हो जाने दे मेरा मन!

तू आए भोजनपटल पर, मैँ थामे हूँ तेरा स्वर्ण आचमनपात्र,

उत्सवोँ पर प्रस्तुत करूँ मैँ तुझे तेरी मुद्रिकाएँ और आभूषण –

नवस्फूर्ति हो तेरे करोँ मेँ – जैसे सेवा मेँ रत होगा मेरा मन.

सम्राट

उत्सवोँ मेँ रमाने से पहले मन – गंभीर दायित्वों से घिरा है मेरा मन,

फिर भी, जो चाहता है तू – वही हो. करना तो है ही सोल्लास उद्घाटन.

(तीसरे से – )

मैँ बनाता हूँ तुझे महापाकाध्यक्ष! आज से आखेट, कुक्कुट क्षेत्र,

और विश्रामारण्य पर होगा तेरा अधिकार!

प्राप्त होँ मुझे हर समय स्वादिष्ट मनचाहे आहार -

सुपक्व, सुवासित, प्रति मास, ऋतुकालानुसार!

महापाकाध्यक्ष

यदि प्राप्त न हो तुझे संतोषाधिक सुवासित पकवान,

मेरा दंड – होगा संयमित सात्त्विक आहार.

रसोई के कर्मचारी रहेँगे मेरे साथ – लाएँगे हम

दूरी को पास, ऋतुओँ को भी समय से पूर्व ले आएँगे हम.

लेकिन है एक बात – दे नहीँ पाएँगे दुर्लभ अकालजात पकवान

आमोद लगातार. अच्छा है सादा शक्तिदायक आहार.

सम्राट (चौथे से – )

हो कर कालवशाधीन अब उत्सव समारोह मनाएँगे हम –

और – सभी हैँ उन मेँ समान भागीदार. तुझ को बनाते हैँ हम –

महाचषकवाहक – तू ठहरा हमारा नौजवान महानायक!

भरे रहेँ सुरा भांड नए और पुराने! महाचषकवाहक,

तुझे इस का रखना है ध्यान! और यह भी रहे ध्यान –

कैसा भी समा हो, कैसा भी मन हो – तुझे धारना है संयम,

रहे प्यास पर नियंत्रण, मत होना कभी बेध्यान!

महाचषकवाहक

मेरे सम्राट, जो होते हैँ नौजवान, यदि किया जाए विश्वास,

पलक झपकते हो जाते हैँ वयस्क. दायित्व जगाता है विश्वास.

उत्सवोँ मेँ, समारोहोँ मेँ, मैँ रहूँगा तेरे आसपास,

सजाऊँगा भोजन का पट, वैभव शोभा से संपूर्ण –

भोजन पात्र होँगे शानदार, स्वर्णाभ, रजताभ, कलापूर्ण.

सब से पहले चुनूँगा मैँ तेरे योग्य सर्वोत्तम चषक –

वेनिस मेँ बना त्रुटिहीन स्फटिक मणिकांचक,

उस मेँ होगी तेरे अधरोँ की प्रतीक्षा मेँ रत मदिरा –

उन्मादहीन, सुस्वाद. सुरा का स्वाद द्विगुणित करेगा चषक.

खुले होँ उन्मादक महाकोश – गहन रहस्य लुटा देते हैँ लोग.

स्वयं तेरा संयम, सम्राट, करेगा तेरी रक्षा.

सम्राट

गंभीर है अवसर. इस पर सौँपा है मैँ ने तुझ को जो भार,

मेरे नौजवान, तू ने सही कहा है उस का सार.

सम्राट का शब्द है महान, उस की हर बात है पक्का संदेश,

फिर भी चाहिए उस को दस्तावेज. न हो हस्ताक्षरित आदेश

तो बड़े से बड़े अनुबंध हो जाते हैँ बेकार.

जो भी समुचित है करणीय – उसे देने राजसी आधिकारिक रूप –

लो स्वयं आ पधारा – जो है स्वयं राजसत्ता का सजीव रूप.

(महाबिशप-महामात्य आता है.)

सम्राट

शिखर शिला को बना कर विश्वास का आधार

कालातीत और निश्चिंत हो जाती है मेहराब.

देखता है तू – ये चार राजकुमार!

इन्हेँ हम ने बताया है – कैसे चलाना है हमारा घर और दरबार.

अब, जो कुछ भी है हमारे राज्य का अधिकार और विस्तार –

तुम पाँचोँ पर रहेगा उस के संचालन का सशक्त गुरुतर भार.

सब से बढ़ चढ़ कर होगी तुम सब की ज़मीन जायदाद.

इसी वास्ते तुम सब को मिला है जो दायाद

उस मेँ जोड़ दिया है मैँ ने पराजित शत्रु की संपत्ति का भाग.

तुम सब हो मेरे विश्वस्त निष्ठावान –

तुम को मिला है विस्तृत रमणीय भूभाग,

जब अवसर हो, जब जैसे तुम चाहो –

बदलो, ख़रीदो, जीतो, कमाओ – संपत्ति को बढ़ाओ.

यह सब हो पूर्णतः सुनिश्चित – तुम्हेँ है निर्बाध भोगाधिकार –

भूस्वामियोँ को जो भी मिलते हैँ कर – तुम उगाहो,

साथ ही भोगो उच्च न्यायाधीश के निर्णायक अधिकार –

तुम्हारे निर्णयोँ को नहीँ दी जा सकेगी कहीँ कोई चुनौती.

जो भी होते हैँ तटकर, पथकर, पारगमन कर, कटौती,

किराए, उगाही – सब जैसे चाहे लगाओ,

खदानोँ पर, नमक पर, मुद्रा से राजस्व पाओ.

यह है मेरी ओर से आभार का प्रतिदान –

सम्राट के बाद तुम्हीँ लोग हो सर्वोच्च सत्ताधिकारी.

महाबिशप

हम सब विनीत सेवक हैँ तेरे आभारी –

तू देता है हमेँ शक्ति और अधिकार –

हम बनाएँगे तुझे और भी शक्तिशाली और सर्वोच्च सत्ताधारी.

सम्राट

और भी उच्चतर मैँ देता हूँ तुम्हेँ सम्मान –

निभाना है तुम्हेँ दायित्व महान –

राज्य हेतु हूँ मैँ अस्तित्वमान, बने रहना चाहता हूँ वर्तमान,

फिर भी – वंशानुवंश परंपरा रहती है संचालित –

वर्तमान हो जाता है भूत, भविष्य  हो जाता है आगत,

आएगा काल – मैँ भी जाऊँगा महानिर्णायक के पास –

तुम्हेँ चुनना है मेरा उत्तराधिकारी – तुम्हीँ पर है मेरी आस.

हो वह वेदी पर अभिषिक्त – पूर्ण होँ सारे संस्कार –

शांतिपूर्वक हो उस का अंत – जो यहाँ तूफ़ान मेँ हुआ आरंभ.

महामात्य

पूर्ण अभिमान से परिपूर्ण, फिर भी है निवेदन सविनय निज वेशानुसार –

देख, तेरे सम्मुख नत है – पार्थिव कुमारोँ मेँ प्रथम – ज्येष्ठ कुमार!

जब तक बहती है हमारी नसोँ मेँ निष्ठावान रुधिर की धार –

हमेँ होगी तेरी छोटी से छोटी इच्छा सहज स्वीकार.

सम्राट

तो, अंत मेँ – जो कुछ भी हुआ है यहाँ निर्धार –

भविष्य  के वास्ते – अंकित हो दस्तावेज पर,

राजमुद्रा टंकित हो उस पर.

सच है – उस के स्वामी हो तुम – जो भी मिला है तुम को निर्बाध -

हाँ, है एक परंतुक – तुम नहीँ कर सकते हो उस के भाग.

जो कुछ भी तुम को मिला है, जैसे भी तुम संपदा बढ़ाओ –

अपने ज्येष्ठतम कुमार को अविभाजित सकल सौँप जाओ.

महामात्य

राजपत्र पर सहर्ष तत्काल मैँ यह सब कर दूँगा अंकित,

राज्य पर, हम पर जो भी भार किया गया है अर्पित,

महामात्य पीठ की मुद्रा से टंकित, प्रतिलिपियाँ समुचित,

महाबिशप धर्माधीश द्वारा सविधि सम्मित, उद्घोषित.

सम्राट

अब जा सकते हो तुम लोग,

आज के विधान पर मिल बैठ कर कर सकते हो विचार.

(पार्थिव राजकुमार सादर जाते हैँ.)

महाबिशप (वहीँ रुक जाता है, करुण स्वर मेँ – )

महामात्य ने विदा ली, अभी तक उपस्थित है धर्माधीश,

मन मेँ है भावी संकट की आशंका – झुकाता है शीश,

पितृभाव से युक्त, तेरे अनर्थ की संभावना से मन आतंकित.

सम्राट

हर्ष की घड़ी मेँ कैसी यह शंका? क्या है तेरे मन मेँ वितर्कित?

महाबिशप

मन मेँ चिंता घनी है – है पल पल परिवर्धित. ऐसी ही घड़ी है.

तेरे पावन शीश पर काले शैतान की छाया पड़ी है.

सच है – मिल गया है तुझे साधिकार सिंहासन पर अधिकार –

किंतु – परम भगवान के प्रतिरूप, महापोप की दृष्टि तुझ पर गड़ी है.

जब उसे ज्ञात हो जाएगा सत्य, तुझ पर बरसेगा कोप अपार –

तेरे पापपूर्ण राज्य पर लगाएगा प्रतिबंध, कर देगा तार तार!

अभी तक स्मरण है उसे – जब था तेरा जयजयकार –

नया नया पाया था राज्यपद, तू ने छुड़ा दिया था वैतालिक मायाकार.

तेरे मुकुट मेँ जो मणि है – ईसाइयोँ के हृदय मेँ गड़ी मानो वज्र की कनी है.

इसी के कारण – उस मायावी पर तेरी दया की दृष्टि पड़ी थी.

पीट, छाती पीट! मस्तक धुन!

पाप की गठरी मेँ से, आज के दिन,

धर्माश्रम को दे छोटा सा उपहार.

यह जो है पर्वतोँ को विशाल विस्तार –

स्थित था जहाँ तेरा शिविर – और उस के पार –

तुझ को बचाया था जहाँ – दुष्ट आत्माओँ ने मिल कर,

शैतान राज ने तुझ से वार्तालाप किया था जहाँ पर,

नम्रतापूर्वक, चुपचाप, सिर झुका कर,

धर्मार्थ कर दान –

सारे के सारे हरे भरे गहन वन, पर्वत, शिखर, ढलान,

दूर दूर तक है जिन का विस्तार,

चरागाह, मत्स्य जीवोँ से भरपूर सरोवर,

अनगिन नद नाले फेनिल, उछलते बहते नीचे की ओर,

चौड़ी वादी, मैदान, उद्यान, और कंदरा कठोर!

तू करेगा प्रायश्‍चित्त का प्रदर्शन – पाएगा पोप की कृपा का वरदान.

सम्राट

यह जो हुआ है पाप, मुझे है इस का गहन संताप.

खीँच दे सीमा – जो भी है तेरी माप.

महाबिशप

यह जो स्थान है दूषित, जहाँ हुआ था पापाचार,

सर्वप्रथम यह होना चाहिए भगवान की सेवा मेँ समर्पित!

उत्थित होँ यहाँ मनवांछित ऊँचाई से युक्त दीवार –

उगते सूर्य की किरणोँ से हो धर्मवाद्यों का मंच मंडित,

दूर दूर तक हो धर्मस्थल का विस्तार,

गिरजे का वक्रांग हो उच्च और मंचित,

उपासकोँ को देने आह्लाद चतुर्दिक वीथि हो मेहराबदार उच्च,

भक्तजन जब उत्साह से पूर्ण – होँ भक्ति से विभोर सर्वोच्च,

उच्च लाटोँ से घंटियोँ का नाद बढ़ता हो स्वर्ग की ओर

और हो दूर दूर तक निनादित,

धारे प्रायश्‍चित्त के परिधान – होता हो गिरजे की ओर पापियोँ का प्रयाण,

उन पर बरसता हो दैवी क्षमा का वरदान.

स्थापना के दिन – शीघ्र ही आए वह दिन –

ऐसे ही तेरा होना विद्यमान – होगा आभूषण महान.

सम्राट

कर पाना कृत्य यह महान – करना सर्वोच्च का गुणगान,

मेरा सर्वोच्च कर्तव्य और उपलब्धि होगा, कृपानिधान.

पाने को दैवी क्षमादान – आतुर और उत्सुक है मेरा मन.

महाबिशप

और अब महामात्य के पदानुरूप मैँ माँगता हूँ लिखित प्रमाण.

सम्राट

हाँ, हाँ, लिखित प्रमाण – चर्च को चाहिए पूरा प्रतिदान.

लिख कर ला राजपत्र – सहर्ष कर दूँगा हस्ताक्षर.

महाबिशप (विदा ले चुका है, दरवाज़े से पलट कर आता है.)

इस काम के वास्ते, और चलता रहे धर्मस्थान – इस वास्ते,

तत्काल दे दान – कर दे इस के नाम –

संपूर्ण भूमि की आय, कर, उगाही – सदा सदा के वास्ते.

इस की स्थापना और सुचारु संचालन – होगा बहुत ही व्ययसाध्य.

जहाँ होगा इस का निर्माण – एकांत है यह गिरिप्रस्थ, और निर्जन,

तू ने जीता है जो अपार भंडार, उस मेँ से दे दे हमेँ कुछ सोना.

और भी चाहिए बहुत कुछ – हम माँगते हैँ तेरी सहायता –

काठ, चूना, पत्थर, अन्य सामान – दूर से पड़ेगा ढोना.

धर्मवेदी से आदेशित लोग करेँगे कारसेवा –

जो निष्काम भाव से करते हैँ सेवा – चर्च उन्हेँ देता है मेवा.

(जाता है.)

सम्राट

गहन गंभीर पाप किया है घोर – इस से मेरी आत्मा है विभोर.

लाद गए मुझ पर मायावी वैतालिक भार कठोर.

महाबिशप (फिर आता है.)

क्षमा करेँ, सम्राट, वह जो है जन – दुष्ट पाजी मक्कार,

सम्राट ने दे दिया है उसे सागर तट का विस्तार.

उस पर गिरेगी धर्म के कुपित प्रतिबंध की मार.

उस का भी तुझे करना पड़ेगा प्रतिकार –

तुझे देने होँगे – दशमांश, कर, राजस्व, उपहार…

सम्राट (खिन्न मन से – )

वह भूमि नहीँ है वर्तमान – सागर की कोख मेँ है वह विराजमान.

महाबिशप

जिस मेँ धीरज हो, सत्य हो जिस के साथ -

एक दिन हो कर रहता है उस का उद्धार.

तेरा वचन है हमारे विश्वास का आधार,

इसी पर है हमारे कोश का संभार.

(जाता है.)

सम्राट (स्‍वगत)

इस से तो अच्छा है – मैँ पूरा राज्य ही कर दूँ दान!

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