फ़ाउस्ट – एक त्रासदी
योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे
काव्यानुवाद - © अरविंद कुमार
२. टीले के कगार पर
नीचे से नगाड़े और सैन्य संगीत. सम्राट का शिविर.
सम्राट. महासेनापति. अंगरक्षक.
महासेनापति
इसी मेँ लगती है बुद्धिमानी, यही लगता है सर्वोत्तम उपाय
यहाँ, सर्वथा सुरक्षित द्रोणी मेँ, एकत्रित है हमारा सैन्य समुदाय,
यहाँ संकलित है हमारा सैन्य बल,
मेरा है विश्वास, यहाँ नहीँ हो सकता हम से छल.
सम्राट
क्या होगा परिणाम – शीघ्र ही हम जाएँगे जान,
फिर भी मुझे अच्छा नहीँ पड़ता जान
आधे अधूरे सा लड़ कर भाग आना यहाँ, बचा कर जान.
महासेनापति
महाराज, नीचे, जहाँ है हमारा दाहिना पार्श्व, आप करेँ तो दृष्टिपात!
युद्ध मेँ जो होना चाहिए सर्वोत्तम स्थान, हमेँ निरायास हो गया है प्राप्त.
तीखे नहीँ हैँ पर्वतोँ के ढलान, साथ ही सहज नहीँ है यहाँ तक आघात,
इस मेँ हमारा है लाभ, शत्रु के लिए बिछा है कूटजाल.
ऊँचे नीचे हैँ पर्वतीय ढलान, आधी छिपी है हमारी सेना,
हमेँ घेर नहीँ सकती शत्रु के अश्वसेना.
सम्राट
हाँ, मैँ कर सकता हूँ इस की केवल प्रशंसा –
हमारी सेना और साहस के समक्ष है परीक्षा, बदल सकता है पाँसा.
महासेनापति
यहाँ, उपत्यका के मध्य, देखिए आप – सैन्य समूह है सज्जित
बढ़ने, टूट पड़ने को उत्सुक , धूप मेँ चमचमाते बरछियाँ भाले –
झिलमिलाती भोर मेँ उगते सूर्य की रश्मियोँ से चुंबित.
कैसा फड़क रहा है उधर – चौड़ा मैदान – अंधकार मेँ काले!
कुछ कर दिखाने को बेचैन हैँ हज़ारोँ हिम्मत वाले.
सैन्य समूह का बल, शक्ति, आप को है संपूर्ण दृश्यमान.
शत्रु से बढ़ चढ़ कर है आप की शक्ति – रहेँ निश्चिंत, श्रीमान.
सम्राट
हाँ, अब पहली बार मुझे हो रहा है विश्वास –
उत्साहवर्धक है समूहित सेना – द्विगुणित है आत्मविश्वास.
महासेनापति
लेकिन वामपक्ष का नहीँ है कोई समाचार मेरे पास.
वीर महाभट हैँ वहाँ – चट्टानी दर्रे के आसपास.
कहीँ कहीँ शस्त्रोँ से चमकती हैँ जो चट्टान
वहीँ है दर्रे का मुहाना, उसी से यहाँ रक्षित हैँ हम,
मुझे लगता है – वहीँ से शत्रु करेगा प्रयाण.
ढह सकता है वह पार्श्व, मात खा सकते हैँ हम.
सम्राट
वहीँ से चढ़ बैठे हैँ वे – जो बनते थे मेरे अपने,
मेरे चाचे, भतीजे, भाईबंद – करते रहते थे छलछंद,
धीरे धीरे सत्ता हथियाते, उद्दंड से सिर उठाते –
सिंहासन की गरिमा गिराते – लजाते थे राजदंड.
फिर आपस मेँ लड़ते भिड़ते, देश को मिटाते,
अब कर बैठे हैँ विद्रोह – आ डटे हैँ मेरे सामने!
पहले तो लोग – मन मेँ भ्रमित थे, खड़े थे अनिश्चित,
अब देख कर काल का प्रवाह, बाढ़ जैसे हैँ प्लावित.
महासेनापति
जो भेजा गया था विश्वस्त चर, लाने को समाचार,
आ रहा है वह, चट्टानोँ से उतरता. लाया हो शुभ समाचार.
पहला गुप्तचर
सौभाग्य से – भाग्य था हमारे साथ –
थी हिम्मत और कूटनीति की चाल,
यहाँ वहाँ घुस पाए हम, पूरी करामात,
जो लाए हैँ हम – अच्छा नहीँ है हाल.
नहीँ थे कम – जो भरते थे भक्ति का दम
सदा करते रहते थे जो सेवा का दिखावा,
अब लगाते आरोप – लेते नहीँ दम,
जनसेवा के नाम पर जंग का करते हैँ दावा.
सम्राट
इस मेँ नहीँ है सेवा, कर्तव्य, सम्मान, कृतज्ञता ज्ञापन,
आत्मरक्षा ने उन्हेँ सिखाया है स्वार्थ और तिरछापन.
कुल मिला कर देखो – तो यह सोचता है कौन बेचारा -
पड़ोसी का जला है, तो जल सकता है घर अपना तुम्हारा.
महासेनापति
दूसरा आ रहा है आहिस्ता उतरता –
थका है, बलहीन सा पग एक एक धरता.
दूसरा गुप्तचर
मन ही मन पहले तो हम ख़ुश थे –
उन के बहके बहके सब क़दम थे.
अचानक अप्रत्याशित हो गए दर्शन –
एक और सम्राट करता है संचालन.
देता है आदेश सोच कर समझ कर
सुविशाल सेना करती है अनुपालन.
लहरा दिया है उस ने जो बंद था ध्वज.
उमड़ती भेड़ोँ पर है उस का अनुशासन.
सम्राट
स्पष्ट है – विद्रोही सम्राट से जीतूँगा मैँ,
यह आभास – यह अनुभूति – सम्राट हूँ मैँ.
जब तब शस्त्र धारता रहा हूँ मैँ सैनिक समान –
आज खीँचूँगा तलवार किसी उद्देश्य से महान.
खेल मेँ, क्रीड़ा मेँ, मुझ को कुछ नहीँ था कुछ कम -
था कुछ कम, तो सचमुच का संकट था कम.
क्रीड़ा का प्रांगण – जब युद्ध नाद से होता था गुंजायमान,
वक्ष पर हो जाती थी जब तेरी तलवार विराजमान,
बढ़ जाती थी दिल की धड़कन, तो भी रहता था ज्ञान –
खेल है यह – संकट मेँ नहीँ है मेरी जान.
हाँ, जब ज्वाला के क्षेत्र मेँ प्रतिबिंबित खड़ा था मैँ –
जब महान वैभव की, विजय की, कगार पर खड़ा था मैँ –
मेरा अपनापन जब होने लगा था स्वाधीन –
तू ने रोक लिया था मुझे – महान अवसर लिया था छीन.
विजय के और यश के जो स्वप्न देखता रहा हूँ मैँ –
आज अवसर है – पूरा कर के ही रहूँगा मैँ!
(विद्रोही सम्राट को चुनौती देने के लिए युद्धोद्घोषक भेजे जाते हैँ.)
(फ़ाउस्ट आता है. कवच का मुखत्राण आधा खुला है. साथ हैँ तीन बलवंत – पूर्ववत् वेशभूषा मेँ.)
फ़ाउस्ट
बिनबुलाए चले आए हैँ हम -
आशा है – दुत्कार नहीँ पाएँगे हम.
जानता है तू – पर्वतोँ पर है गिरजनोँ का वास.
दिन रात करते हैँ – प्रकृति का, शिला का, अध्ययन.
प्रेतोँ को, आत्माओँ का जब से हो गया मैदान से निष्कासन,
वे भी करते हैँ चटटानी पर्वतोँ मेँ सुख से निवास.
दर्रोँ मेँ, द्रोणियोँ मेँ, चक्रिल पथोँ मेँ,
उठती वाष्प मेँ, विषैली वात मेँ, धात्विक द्रवोँ मेँ,
झुकते हैँ, खटते हैँ, परखते हैँ, करते हैँ नानाविध मिश्रण –
करते रहते हैँ नवीनतम खोज, नवीनतम वस्तु का निर्माण.
दिन रात वे बुनते रहते हैँ पारदर्शी परिधान –
दैवी शक्तियोँ का मिला है उन को वरदान.
ताकते देखते रहते हैँ – रह कर सदा मौन –
करते रहते हैँ स्फटित मणि मेँ भाग्य का संधान.
सम्राट
जानता समझता हूँ मैँ, सहमत भी हो सकता हूँ मैँ,
पर, बोल, मेरे वीर, इस का क्या उपयोग कर सकता हूँ मैँ.
फ़ाउस्ट
पुरातन सबीन, नोर्सिया का पुराना यातुधान –
तेरा सेवक महान – प्रेषित करता है तुझे तेरा प्रतिदान.
याद है – कभी गंभीर संकट मेँ थी उस की जान!
कड़कड़ा रहे थे अंगार – आँच से तप रहा था बदन,
चारोँ ओर सूखे काठ का चिना था अंबार,
राल, गुग्गुल, तारपीन और गंधक से लिपटा था काठ का तन.
ना मानव, ना देवता, ना शैतान बचा सकते थे उस की जान –
काल के धधकते गाल से सम्राट ने निकाली थी उस की जान.
यह है उस काल की बात जब रोम मेँ था सम्राट,
अपने को दास मानता है अभी तक वह आप का, सम्राट.
दिन रात करता है सम्राट के भाग्य का संधान.
उस काल का आतंक वह गया है भूल –
तेरे वास्ते ताकता रहता है आकाश, करता है नक्षत्रोँ का ध्यान.
उसी ने पठाया है हमेँ – बता कर संक्षिप्ततम मार्ग,
भेजा है उस ने करने सम्राट की सहायता.
पर्वतोँ की शक्तियाँ है महान – कोई नहीँ जानता.
पर्वतोँ पर चलता है प्रकृति का स्वच्छंद विधान.
कहते हैँ इस को माया – ये पादरी पुजारी, मूरख अज्ञान!
सम्राट
हर्ष के दिनोँ मेँ, दरबार मेँ जन दर्शन के दिनोँ मेँ –
जब हम स्वीकार करते हैँ एकत्रित जन समूह का अभ्यर्चन,
भरे होते हैँ कक्ष, सुविशाल शाला. उन जनसंकुल दिनोँ मेँ,
पाता है हम से स्वागत – भरपूर आमोद प्रमोद – हरएक जन.
आज जब काल है कठिन, गंभीर संकटोँ से घिरे हैँ हम,
हमारे पक्ष मेँ विपक्ष मेँ जुड़े हैँ सैन्य दल करते प्रयाण,
जब नियति के हाथ मेँ डगमग है भाग्य की तुला का संतुलन,
उन वीरोँ का सहर्ष स्वागत करते हैँ हम -
जो लाए हैँ सहायता का संदेश, हैँ हाथ मेँ हथियार,
युद्ध की कला मेँ चतुर हैँ जो, धन्यवाद करते हैँ हम.
लेकिन – अपने आप से है मानव!
जो धारना चाहता है ताज, जिस से शोभित है सिंहासन –
सिद्ध करना होता है उसे अपने आप निज सम्मान का अधिकार.
हमारे सामने खड़ा है जो विद्रोही सम्राट – बन कर बेताल,
कर रहा है जो स्वयं को प्रदान – हमारे देश का अधिकार,
मैँ – सेना का सर्वोच्च संचालक, सामंतोँ का अधिनायक,
उस का शीश – इन्हीँ हाथोँ मैँ दूँगा मृतकोँ मेँ उछाल.
फ़ाउस्ट
पूरा होना तेरा काम – हो कितना ही आवश्यक,
दाँव पर लगे तेरा मस्तक – यह तो नहीँ है आवश्यक.
इस से तो – सफलता की आस – और भी जाती है घट.
शिरस्त्राण पर शोभित नहीँ होते क्या कलगी और पंख?
उस से रक्षित होता है जो मस्तक, उसी से पाते हैँ हम साहस.
हो शीश से विहीन – क्या साध सकता है अंग प्रत्यंग?
सो जाए मस्तक – निद्रा मेँ सुप्त धराशायी हो जाते हैँ अंग.
वह हो जाए घायल – अंग प्रत्यंग हो जाते हैँ अवसन्न.
वह होने लगे चेतन – अंग प्रत्यंग होने लगते हैँ सचेतन.
भुजा मेँ फिर से पड़ जाता है प्राण,
उठा सकती है ढाल – बचाने को भाल,
याद आ जाता है तलवार को जो करना है काम,
बढ़ती है बिफरती, मचलती करती है वार,
पैर को मिलता है सौभाग्य का अवसर
पदतल को रखता है मृत शीश के ऊपर.
सम्राट
महाक्रोध से भरा हूँ मैँ – निर्भय लड़ूँगा मैँ
शत्रु के गर्वी शीश पर पदतल धरूँगा मैँ.
युद्धोघोषक (लौटते हैँ.)
नहीँ मिला हमेँ तनिक भी सम्मान,
लौटे हैँ हम हो कर तिरस्कृत.
हम ने जो फेँका था आवाहन,
खोखले उपहास सा कर दिया अवहेलित.
‘जिसे कहते हो तुम सम्राट – वह है क्या?
विगत काल की भूली बिसरी छाया!
कोई लेता है उस का नाम, तो कहते हैँ लोग
हुआ करता था वह – कभी किसी काल.’
फ़ाउस्ट
वही हुआ, जो तेरे सहायकोँ की थी मनोकामना.
निष्ठावान हैँ, दृढ़ हैँ, तेरे साथ हैँ, तत्पर हैँ करने को सामना.
बढ़ी आ रही है शत्रु की सेना – खड़ी है बेचैन तेरी सेना.
मुहूर्त्त है शुभ, होगा कल्याण. दे दे आक्रमण का आदेश.
सम्राट
फिर भी मैँ दूँगा नहीँ आदेश.
(महासेनापति से – )
महासामंत, मेरी सेना के महानायक, सँभाल कमान!
महासेनापति
तो – दाहिना पार्श्व! बढ़े आगे तत्काल!
रोक दो जो ऊपर चढ़ा आ रहा है शत्रु का वामपक्ष!
जल्दी ही देगा हथियार डाल!
बढ़ो तुम – हमारी सेना के वीर नौजवान, निर्भय, युद्ध मेँ दक्ष!
फ़ाउस्ट
अनुमति देँ आप, श्रीमान. यह बाँका वीर रणधीर,
यह भी बढ़े मैदान मेँ आप की पाँत मेँ तत्काल,
सम्मिलित हो जाए यह भी संग्राम मेँ, करे तदबीर,
दिखा दे अपने भी हाथ – गौरव विजय का है यह काल.
(दाहिनी ओर खड़े बलवंत की ओर संकेत करता है.)
धौँसजमा (आगे बढ़ता है.)
जो भी पड़ जाएगा सामने बिनबुलाए –
तोड़ के रख दूँगा उस के कल्ले और जबड़े,
जो दिखाएगा पीठ, खाएगा धौलधप्पा –
टूट जाएगा शीश, हिलाएगा दुम, पीठ बन जाएगी कुप्पा!
और जो तेरे जवान – मेरे समान,
ले हाथ मेँ गदा तलवार – करेँगे वार पर वार,
दुश्मन हो जाएगा बदहाल – लोटेगा अपने लहू मेँ लाल लाल!
(जाता है.)
महासेनापति
सेना का व्यूहित मुख्य भाग – बढ़े आहिस्ता आहिस्ता,
पूरी शक्ति के साथ – दुश्मन से भिड़ता, चलता सँभलता.
उधर दाहिनी ओर – अभी से दुश्मन का बुरा है हाल,
प्रबल है हमारी सेना – कर दिखाया है कमाल.
फ़ाउस्ट (मध्य मेँ खड़े बलवंत की ओर संकेत करता है.)
अब इसे भी करने देँ आदेश का पालन.
छीनझपट (आगे आता है.)
सेना का काम है शौर्य का प्रदर्शन –
जोड़ दो उस मेँ लूटखसोट का मन,
हम सब का होना चाहिए एकमात्र लक्ष्य -
विद्रोही सम्राट का जब सामने हो कोश,
(जल्दी ही गिरेगा वह, भागेगा उस का होश)
हो लूट की खुली छूट – बन जाऊँ मैँ नेता – अनोखा हो दृश्य.
लुटेरी बंजारन (मुग्धा सी उसे देखती है.)
पादरी ने हमारा बाँधा नहीँ धागा -
है मेरा मनबसिया – प्रेम उपजा अगाधा.
हमारे जीवन का पतझड़ बन जाएगा सोना!
भयानक है औरत – जब होता है लेना
हो जाती है क्रूर – जब करती है लूट!
युद्ध है – युद्ध मेँ पूरी है छूट!
वीर, बढ़ो आगे, अवसर जाए ना छूट!
(दोनोँ जाते हैँ.)
महासेनापति
हमारे बाईँ ओर – हमेँ पहले से ही था भान –
उन का दक्षिण पक्ष कर रहा है सबल प्रयाण.
बीच मेँ हैँ ऊबड़ खाबड़ पत्थर – पहले तोड़ेँगे उन का दम –
तंग द्रोणी मेँ उन की जीत की संभावना रह जाएगी कम.
फ़ाउस्ट (बाईँ ओर खड़े बलवंत को संकेत से आगे बुलाता है.)
अनुमति चाहता हूँ, श्रीमान, इसे भी जाने देँ साथ.
अच्छा ही रहता है शक्तिशालियोँ को मिल जाए एक और हाथ.
छोड़मत (आगे बढ़ कर – )
अब बाएँ पक्ष को नहीँ है कोई भय! आप रहेँ निर्भय!
वह भूमि हो जाती है अविजेय – जिस पर खड़ा हो जाता हूँ मैँ.
सुनते रहे हैँ जिस के बारे मेँ आप – वही परम पुरातन हूँ मैँ.
मुझ से छीन नहीँ सकता कोई कुछ – हो जाए वज्रपात.
(जाता है.)
मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (ऊपर से नीचे उतरता है.)
अब देखिए – बड़ी दूर से –
पथरीले नोँकीले द्वार से –
सँकरे से हर मार्ग पर –
कवचित सेना विशाल – बढ़ता आकार –
सिरोँ पे टोप, हाथोँ मेँ ढाल –
भाले बरछी चलती उछाल -
उतरी, खड़ी है – है पूरा शिविर –
झपटेगी बढ़ कर – मिलते संकेत!
(एक ओर को – समझदार लोगोँ से – )
अब यह मत पूछिए – कौन देगा संकेत!
निठल्ला नहीँ बैठा था मैँ, ले रहा था टोह,
जहाँ भी जो कवच थे, छिपे थे शस्त्र – मैँ रहा था टटोल –
कुछ खड़े थे आधारोँ पर, कुछ बैठे थे घोड़ोँ पर,
जैसे धरती के मालिक – सच्ची सत्ता के आधार –
कभी होते थे ये सम्राट, राजा, सामंत, चलाते थे सरकार -
सब के सब खोखले खोल – सरक चुके थे इन मेँ से घोँघे.
पुराने प्रेत – निर्जीव – पंक्तियाँ बाँधे – मध्ययुगोँ के चिह्न पोँगे.
अब जो भी शैतान धारेँगे ये निर्जीव चोँगे –
युद्ध के क्षेत्र मेँ ये सिद्ध भयानक होँगे.
(सब से – )
सुनो! कैसे खड़े हैँ – कुपियाते, धकियाते,
कांस्य कवच परस्पर टकराते, हलचल मचाते!
गहराते नील गगन मेँ चमचमाते फरहरे फरफराते –
पवन के लिए जो बेकल थे अब लहराते.
तत्पर खड़े हैँ विगत जाति के भट महावीर,
आगत रण मेँ विजयवरण को अकुलाते.
(ऊपर से तुरहियोँ का कर्णभेदी नाद उठता है. शत्रुसेना मेँ कंपन जैसी खलबली स्पष्ट लक्षित होती है.)
फ़ाउस्ट
निकट क्षितिज पर छाने लगा अँधकार, कुहासा.
फिर भी यत्र तत्र परिलक्षित है कुछ सुलगता सा –
भाग्य के शुभ लक्षण सा, लाल अर्थपूर्ण अंगारा सा,
लाल हैँ भाले, बरछी, तलवार जहाँ युद्ध है घना सा,
वायुमंडल मेँ, शिला मेँ, वन मेँ, अरण्य मेँ,
आकाश मेँ, स्वयं स्वर्ग मेँ – संघर्ष का है धुआँ सा.
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
दाहिना पार्श्व थामे है मैदान – पूरे बल से.
देखो, धौँसजमा भीम सा, उभरता सब से,
चपल दानव सा, निर्भय, बढ़ता, मारता,
धौल से, धप्पे से, पीछे को धकेलता.
सम्राट
उठा था एक हाथ – पहले मैँ ने देखा –
फिर एक साथ दर्जनोँ को झपटते देखा.
जो भी है अनोखा है – कभी पहले नहीँ देखा.
फ़ाउस्ट
सुना नहीँ तू ने – सिसिली के तट पर
कुहरे का दल बादल सा फैलता बढ़ता?
वहाँ, दिन के उजाले मेँ – गगन के मध्य मेँ
हवा के क्षीण तल मेँ, जैसे दर्पण मेँ
होते हैँ विलक्षण गंधर्व नगरोँ के दर्शन –
लहराते, फहराते, झूमते रहते हैँ भवन,
उठते गिरते खिलते रहते हैँ उपवन.
एक दृश्य का अन्य मेँ होता है परिवर्तन.
सम्राट
फिर भी कैसा – भ्रम का शंकाकुल करता उत्पादन.
दिखते हैँ मुझे – लंबे भाले – सोने के नेजे वाले,
हमारे जो सैनिक हैँ – उन के नोँकीले हैँ भाले –
भालोँ की नोँक पर लपलप करती है ज्वाला –
माया के खेल सी – रह जाए दंग देखने वाला.
फ़ाउस्ट
क्षमा करेँ, सम्राट, वह है प्रेतोँ की छाया –
विलुप्त जाति के वीरोँ की इन मेँ है काया,
कास्टर की ज्वाला, पौलुक्स की ज्वाला –
संकट मेँ टेरता है इन्हेँ नाविक डूबने वाला.
तेरे वास्ते उन्होँ ने है यहाँ डेरा डाला.
सम्राट
यह तो बता – हमेँ मानना है किस का आभार -
किस ने की है कृपा, किस ने दिया है उपहार?
इस अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन कर रहा है कौन?
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
वही आप का पुराना रोमन मित्र – और कौन?
आप ने बचाई थी जान – अब कर रहा है प्रतिदान.
आप के शत्रुओँ ने कठिनाई मेँ डाल दी आप की जान,
अत्यघिक व्याकुल हो उठा उस का मन –
अब कर रहा है कृतज्ञता का ज्ञापन.
यह अलग बात है – इस मेँ कंपित है उस का अपना तन.
सम्राट
सदलबल चल रहा था मैँ, हर ओर था अभिनंदन, अभिवादन,
मन सत्ता के मद से भरा था – तन मेँ थी शक्ति की सिहरन.
मन चाहता था आँकना, परखना, सत्ता की शक्ति –
जब देखा वह दृश्य – बुड्ढे को पठा दिया जहाँ हवा थी ठंढी.
पादरी ले रहे थे आनंद – कर दिया उसे मैँ ने भंग.
आज तक पादरियोँ से मिला नहीँ मुझे साथ संग.
तो, अब आज इतने बरसोँ बाद मुझे मिलेगा प्रतिदान –
बिन सोचे समझे किया था जो खेल खेल मेँ प्राणदान?
फ़ाउस्ट
खुले मन से जो किया जाता है दान –
सव्याज मिलता है उस का प्रतिदान.
मत देख शत्रु की ओर – एक पल उधर देख – ऊपर –
मुझे लगता है – वह करेगा कोई लक्षण –
देख, ध्यान से देख – लक्षित है लक्षण.
सम्राट
आकाश मेँ मँडराता है एक गिद्ध –
उस के पीछे है एक आक्रामक ग्रिफ़िन.
फ़ाउस्ट
दे ध्यान! शुभ है लक्षण – होगा महाकल्याण.
ग्रिफ़िन है – दंतकथाओँ का काल्पनिक जीव.
कैसे कर सकता है वह दुष्प्रयास –
प्रतिद्वंद्वी गिद्ध से जीत पाने की आस?
सम्राट
और अब लगा रहे हैँ और भी बड़े बड़े चक्कर –
जुथे से जुटे से लगते हैँ – लगाते एक दूसरे के दूर से चक्कर.
लौटते हैँ, झपटते हैँ, तेज़ी से, हिर फिर कर, पलट कर,
एक दूसरे पर टूटते हैँ, खा जाएँगे गरदन और तन नोँच कर.
फ़ाउस्ट
देखिए – दुष्ट ग्रिफ़िन – झिझकता, डरता, रोता, चीख़ कर!
फुसफुसा सा, सिमटा सा, नुँचा सा, खुँचा सा, सिहरता,
दबाए सिंह सी दुम, गिरता तरुराज की फुनगी पर
हो गया आँखोँ से ओझल – उलझता, झड़ता.
सम्राट
वही हो, वही हो – जो कहता है यह लक्षण -
मैँ हूँ प्रसन्न – शुभ है, कल्याण का सूचक है यह लक्षण.
मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (दाहिनी ओर – )
प्रबल हैँ हमारे आघात निरंतर –
शत्रु हटता है पीछे – न सह पा कर,
समर मेँ अनिश्चित, घबरा कर
दाहिने सरक रहा है कतरा कर.
देखो – जो था उस का वाम पक्ष -
रह गया है भ्रमित सा हो कर.
हमारी सेना – सुदृढ़ है, सबल है –
बिजली सी टूटती है दाहिने आ कर
निर्बल है जो उन का पक्ष उस पर
घोर गंभीर आघात है प्रबलतर –
और अब – लहरोँ जैसे टकरा कर
दोनोँ दल गुँथे हैँ – हरहरा कर
घनघोर गर्जन – युद्ध है घनघोर
शस्त्रोँ की शस्त्रोँ से घनघोर टक्कर.
जीत गए हम, जीत गए हम!
सम्राट (बाएँ, फ़ाउस्ट से – )
उधर देखो – दृश्य शंकाकारक.
हमारी चौकी का भाग्य है द्रावक –
दिखता नहीँ होता एक भी आघात
नीचे शिला पर है अश्वारोही संघात
जो ऊपरी शिला हैँ – हैँ परित्यक्त
और अब – हो एकत्र, सुसंगठित
निकट आता है दुश्मन – अविचलित
शायद – दर्रे को कर लिया है अधिकृत.
अपावन योजना – अपावन परिणाम!
मायावी निकला तेरा सब तामझाम.
(विराम.)
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
वह आए मेरे कागा – करते कुछ लक्षण.
क्या है, क्या कहता है उन का यह लक्षण?
लगता है – हम पर छाया है कुलक्षण.
सम्राट
क्या कहते हैँ काले कुलक्षणी काग?
काले पाल से कलुषित डैनोँ वाले
ये – पथरीले समर क्षेत्र से आने वाले?
मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (कागोँ से – )
रोको उड़ान – बैठो जहाँ हैँ मेरे कान!
कैसे मिटेगा वह – जिस के रक्षक हो तुम महान!
तुम देते हो परामर्श, करते हो कल्याण!
फ़ाउस्ट (सम्राट से – )
तू ने देखे सुने हैँ कपोत
दूर से घर लौटने वाले कपोत
संदेश लाने ले जाने वाले कपोत.
यहाँ वह योजना देती नहीँ काम.
शांति के देश मेँ होते हैँ कपोत.
संग्राम मेँ चाहिए कागोँ के पोत.
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
कागा लाए हैँ दुर्भाग्य संदेश –
देखिए – वहाँ शत्रु का प्रवेश
जहाँ सुदृढ़ था हमारी सेना का सन्निवेश
शिलाखंडोँ से रक्षित उन्नत प्रदेश
चढ़ रहा बढ़ रहा शत्रु का दल
जो हो जाए दर्रा हथियाने मेँ सफल
हमारी हालत हो जाएगी निर्बल.
सम्राट
मात और घात – दोहरा आघात!
जाल मेँ फँस कर लिया आत्मघात -
कंपित हूँ मैँ – कुटिल है बंधन संघात.
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
धरेँ साहस, लेँ साहस से काम –
हुआ नहीँ अभी तक काम है तमाम.
बंधन उन्मोचन को चाहिए धीरज और युक्ति.
होगी मुठभेड़, निकट से होगी धीँगामुश्ती.
आश्वासन के संदेश आ रहे हैँ मेरे पास –
देँ आदेश – मैँ दे सकूँ आदेश!
महासेनापति (अभी अभी आया है – )
जब से तू ने किया इन का अनुपालन,
किलसता रहा है तब से मेरा मन,
माया का और क्या होगा प्रतिफल?
इस समर मेँ हम गए हैँ हार –
अब विजय है मेरे बस के पार.
इन्होँ ने ही किया था आरंभ
अब ये ही करेँगे इस का अंत.
लौटाता हूँ मैँ निज अधिकार दंड.
सम्राट
रख, इसे रख अपने ही पास.
काल, जाने कब, बदल दे भाग!
मैँ डरता हूँ ऐसे कुतर्क से –
जैसा मालिक, वैसे काग!
(मैफ़िस्टोफ़िलीज़ से – )
मत छू! तू यह राजदंड!
मैँ समझता हूँ तू नहीँ है ठीक –
जो धार सके यह दंड – गरिमावंत.
आदेश दे – जो कर सके बिगड़ी को ठीक!
होने दे – हो सकता है जो – अब हो!
(महासेनापति के साथ शिविर मेँ चला जाता है.)
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
लूँ जो मैँ यह काठ की छड़ी!
मुझे ऐसी गरज़ क्या पड़ी!
यह आ नहीँ सकती हमारे काम –
इस पर बना है क्रूस का निशान.
फ़ाउस्ट
क्या करना है अब?
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
वह सब तो हो चुका है अब!
तो – मेरे अपने काले कागो! गिरिताल को भागो!
खोल दो चमत्कारोँ का अनंत कोश!
जल की अप्सरा – सुंदर उंडीन –
खोल देँ सरोवर के सराबोर कोश!
नारियोँ को जो सुलभ है कमाल –
जो देख नहीँ पाते हम गड़ा कर आँख –
तोड़ देँ सत्य का और मिथ्या का आभास –
शपथ ले कर कहेँगे सब – है – जो नहीँ है!
(विराम.)
फ़ाउस्ट
सफल हो गए लगते हैँ हमारे काग –
जीतने मेँ अप्सराओँ के मन के राग!
धड़धड़ाती जलधार मचा रही हैँ उत्पात.
नंगी, रूखी शिलाओँ पर करते घोर आघात
झरझर झड़ते गिरते पड़ते आते हैँ प्रपात.
दुश्मन की जीत का होने वाला है अंत.
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
ऐसे स्वागत का उन्हेँ नहीँ है अभ्यास!
करतबी से करतबी आरोही खो बैठता है आस.
फ़ाउस्ट
और अब – धारा पर धारा का धाराधार प्रपात –
सोतोँ का सोतोँ से मिल कर उच्छल फेनिल घात प्रतिघात,
कंदरोँ मेँ से फूटता छलछल जलाघात,
कूदता फाँदता फलाँगता जलीय मेहराब सी बना कर,
अचानक गिरिप्रस्थ पर फैलता बिछल कर,
इधर उधर उछलता टकराता सा खेलता खिल खिल कर.
होँगे उन के वीर महावीर! कैसे सह लेँगे जल के तीखे तीर!
लहरोँ का भयानक विस्फोट – प्रलय सा विप्लाव
ले जाएगा नीचे दूर तक बहा कर.
जो ऐसा हो उमड़ाव – मैँ तो रह जाऊँगा कँपकँपा कर!
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
यह सब कुछ भी नहीँ है मुझ को गोचर.
मानव ही की आँख इस से खाती है चक्कर.
रोचक है – यह जो है विलक्षण – अनहोनी सी होनी.
गिरते हैँ बहते हैँ घबराते से मानव,
गधे हैँ, समझे हैँ – डूबते हैँ – मूर्ख हैँ मानव!
ठोस है धरती – वे जिस पे खड़े हैँ –
भ्रमित से चपल हैँ, तैरते से चलते, उस को सागर समझे हैँ –
मनमोहक या भ्रामक – यह दृश्य है मनोरम.
(काग लौटते हैँ.)
महामहेश्वर सर्वोच्च स्वामी से मैँ करूँगा अनुशंसा तुम्हारी.
हाँ, और भी अच्छा करना चाहते हो काम,
तो जाओ, वामन तक्षकोँ के पास जाओ,
अनथके वे लगातार करते हैँ काम –
अयस पर पाषाण पर जब करते हैँ मार
हथौड़ोँ से उड़ाते हैँ स्फुल्लिंग.
उन के गुण गाओ – बनो चाटुकार,
उन से माँग लाओ, चाहे जैसे, उधार –
उछलती, बिखरती, ललकारती ज्वाल.
हाँ, ग्रीष्म मेँ भी आकाश मेँ कौँधती है मेघज्वाल
उच्चाकाश मेँ बहुत ऊपर – गरजती, कड़कड़ाती
पलक झपकते वज्र सी गिरती, सिहरती और बुझती.
लेकिन तुम्हेँ लानी है वज्रज्वाल –
झाड़ियोँ झुंडोँ मेँ झनझनाती, तड़तड़ाती.
तुम्हेँ लाने हैँ झलझलाते तारोँ से स्फुल्लिंग
लतरोँ मेँ लहरते, सिसकते, झुलसते.
लाने हैँ ऐसे दृश्य जो – होँ आँखोँ को अनोखे.
मत करना देर तक विनती चिरौरी –
पहले सविनय निवेदन – फिर सबल आदेश.
(काग जाते हैँ. यथावर्णित क्रिया कलाप होता है.)
शत्रु पर गिर गया रात का काला परदा,
कहाँ पड़ते हैँ पग, किधर है मग – कुछ पता नहीँ चलता.
हर ओर मँडरा रहे हैँ ज्वाला के लहरे,
आँख फोड़ते से अचानक चमकारे.
अच्छा तो लगता है यह सब –
अभी सुनने हैँ उन के भयभीत आतंकित चीत्कार सिसकारे.
फ़ाउस्ट
तोशाघरोँ से निकले कवचोँ के खनखनाते खोखले खोल
हवा मेँ अधर उड़ते चलते रहे हैँ मानोँ रहे हैँ बोल –
अभ्यास है पुराना – चलाते खड़खड़ाते हथियार –
कैसा अद्भुत मायावी शोर!
मैफ़िस्टोफ़िलीज़
ठीक है! कोई नहीँ रोक सकता ये आकार.
हो रहे हैँ चतुर्दिक् पुराने शूरवीरोँ से वार –
काँधोँ और जंघा के कांस्य त्राण लड़ते खनखनाते
जैसे आजकल के ग्वैल्फ़ और गीबेलिन होँ शोर मचाते.
पहले इन कवचोँ मेँ जो होते थे परस्पर द्वंद्व –
आज के दिन हो रहा है उन का पुनरुद्धार.
लौह आवरणोँ मेँ गहरे गड़े हैँ पुराने बैर –
जो आ जाए सामने प्रतिद्वंद्वी – नहीँ है ख़ैर.
दूर दूर तक अब फैल चुका है शोर.
अंततः – सोए कवचोँ मेँ पड़ गई जान –
घृणा मेँ पैठे पुतलोँ की लड़ाई मेँ है आनबान –
विनाश मेँ, सर्वनाश मेँ कहानी होती है समाप्त.
क्रोध और त्रास – भगदड़ और खलबल –
आकाश को ओतप्रोत करता है अश्लील कोलाहल.
कलेजे को चीरती चीख़पुकार –
भय की द्रोणी मेँ शैतान सी गूँजती सिसकार!
(संगीत मेँ युद्धात्मक नाद निनाद. धीरे धीरे यह प्रयाण धुन मेँ बदल जाता है.)
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