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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 4 दृश्य 1 – उच्च पर्वतमाला

In Culture, Drama, Fiction, History, Humor, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

१. उच्च पर्वतमाला

सुदृढ़ सुविशाल सोपानित शैल शिखरोँ की श्रेणी. एक बादल निकट आता है, ठहरता है और एक बढ़वाँ कगार पर उतरता है. बादल फटता है.

फ़ाउस्ट (बादल मेँ से निकलता है.)

देखता रहा मैँ नीचे – गहरे मेँ है जो नितांत एकांत.

अब यहाँ उतरा हूँ मैँ त्याग कर निज मेघ वाहन

हो कर जिस पर सवार सुखद नर्मद था मेरा भ्रमण.

सागर पर धरा पर – चमचमाता था दिनकांत.

अविच्छिन्न था मेघ, सहज था गतिमान.

अब हो कर मुझ से विलग – है पूर्व की ओर

चलायमान गोलाकार गुंजायमान घटा घनघोर,

मेरे नयन हैँ – चकित हैँ, उसी पर टिके हैँ – करते से गुणगान.

मेघ का आकार – हो गया उस मेँ विभाजन.

लहरोँ सा तरंगित – दिखता है उस मेँ पल पल परिवर्तन.

उस मेँ उभर रहा है आकार – हाँ! नहीँ है नयनोँ का भ्रम! –

सूर्य से द्युतिमान सिरोपधान, उस पर मस्तक टिका कर

सुदीर्घ सुविशाल देवोपम नारी आकार कर रहा है विश्राम.

मुझे दिखती है – कभी जूनो, कभी लीडा, कभी हेलेना! –

प्रेयस, ओजस, राजस – प्रवहमान मंद मंथर.

हो गया विच्छिन्न! अति उन्नत, निराकार, प्रकीर्ण –

पूरब मेँ सुदूर हिमशिखर शैल सा विस्तीर्ण,

भागते से दिवसोँ को बनाता गौरवशाली महान.

अब तक मेरे वक्ष से, मस्तक से, चिपका सा

है कोमल सा बादल का टुकड़ा – तुषार सा, वाष्प सा –

तन को सहलाता – मन के मोदक सा.

ऊँचे, ऊँचे – ऊपर उठता सा, कुछ टिकता सा – हलका सा

अब लगता है तू लिपटा सा – मन के मायादृश्योँ को हरता

विगत अतीत के चिरयौवनमय स्मृतिहारक सुख चौपट करता.

अब स्रोते से फूट रहे हैँ मेरे मन के गहन कुंज के कोश पुरातन,

प्रेममयी ऊषा देवी औरोरा के प्रथम परस सा

पहली अनसमझी चंचल चितवन सा

हर माणिक से मूल्यवान, हो मन मेँ संचित सतत सनातन.

दिव्य रूप सा आकार मनोरम रमता सा उड़ता उठता है

घुलता नहीँ – उच्च गगन के पार कहीँ चलता जाता है

मेरे मन मेँ जो भी उत्तम था – उस के साथ चला जाता है.

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(एक सातकोसी जूता डग भरता आता है. उस के बाद दूसरा जूता भी आता है. उन मेँ से मैफ़िस्टोफ़िलीज़ बाहर निकलता है. जूते तेज़ी से चले जाते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

पकड़ ही लिया ना – यह हुई तेज़ चाल!

पर बता तो – क्या मतलब है यहाँ आने का?

भयानक चट्टानोँ मेँ, मुँहबाए बीहड़ोँ मेँ मन रमाने का?

ऐसा तो हुआ करता था – नारकीय तल का हाल!

फ़ाउस्ट

मूर्खतापूर्ण कथाओँ का तेरे पास है महाकोश!

खोलने लगा फिर से बकवास का कोश!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (गंभीरता से – )

सर्वसत्ताधारी भगवान ने जब किया था हमारा निष्कासन –

जानता हूँ मैँ यह सब – इसी कारण –

वात के क्षेत्र से हमेँ दिया था डाल

जहाँ है घोर गह्वर धरती की कोख – पाताल

निरंतर धधक रही थी महाज्वाला विकराल.

चारोँ ओर था तप्त प्रकाश जाज्वल्यमान

भीड़ थी, भिँचे थे, संकटोँ से घिर थे हम.

छीँकते खाँसते सारे शैतान थे परेशान.

गंधक की सड़न थी, नरक मेँ तीक्ष्ण अम्ल भी नहीँ था कम.

उठ रही थी विशाल वाष्प. दबाव था प्रबल.

फूलने लगी कोख, ऊपर को उठने लगा धरा का तल.

बढ़ता गया, बढ़ता गया. मोटी परत थी.

उठता गया, फटता गया – फूट थी, चिरन थी.

बात है साफ़ – इसे काट नहीँ सकता कोई सिद्धांत –

शिखर है आज – जो कभी होता था तल.

अकाट्य है यह बात – इसी पर आधारित हैँ सिद्धांत

जिन मेँ सर्वोच्चतम स्थान पाता है निम्नतम तल.

हुआ यह कि फोड़ कर गहरे मेँ जलता पाताल

वात के क्षेत्र पर जमा लिया हम ने निर्द्वंद्व अधिकार –

यही है वह कूट रहस्य जो अभी तक था अनजान –

जो हाल ही मेँ लोग पाए हैँ जान.

फ़ाउस्ट

पर्वतोँ के दल मेरे लिए हैँ मूढ़ और निर्ज्ञान.

मैँ पूछता नहीँ – आए वे कहाँ से? और कैसे?

कर रही थी सृष्टि जब आत्मनिर्माण

धरती का गोला संपूर्ण और सुंदर है तभी से.

शिखर हैँ तभी से, गहन गह्वर हैँ तभी से,

शिला पर शिला स्थित है तभी से,

तभी से हैँ पर्वतोँ के तीखे सीधे चढ़ान,

तभी से है वहाँ तक गिरिजाल की रेख और सौम्य ढलान

जहाँ गिरिचरणोँ मेँ उघड़ी पड़ी हैँ द्रोणियोँ की श्यामल माल –

सरसती पनपती हरषती साल पर साल

नाटकीय परिवर्तन, विक्षिप्‍त विप्लव, से नहीँ है उसे कुछ काम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, यही तो कहते हो तुम!

सब कुछ सूर्य सा सुस्पष्ट समझते हो तुम!

पर जिस ने देखा था यह सब घटते,

कुछ और ही कहता है उस का ज्ञान.

मैँ था वहाँ – जहाँ था गहरे पाताल का अंतराल –

उफनता दहक रहा था जब रौरव नरक का भाड़

मचलता लपलपाता लहराता उमड़ रहा था अग्निल ऊर्मिल ज्वार

जब मोलेक चला रहा था हथौड़ा लगातार –

ठोँकता पीटता तोड़ता मरोड़ता गला रहा था चट्टान पर चट्टान,

हाँ, था – मैँ था – जब मोलेक पर्वतोँ को रहा था झाल.

दूर दूर तक बिखरे पड़े थे ध्वस्त पर्वतोँ के ढूह हर ओर.

देखते हो ना वहाँ – धरा पर – शिलाखंड अनमेल अ-स्थान?

कौन सी शक्ति थी जिस ने दिया उन को यहाँ तक उछाल?

महाज्ञानियोँ की बुद्धि के पास नहीँ कोई भी समाधान.

वहाँ स्थित है वह शिला – वही रहने देने होगी वह शिला.

बहुत सोचा है हम ने, किए हैँ जाने कितने अनुसंधान –

क्या कोई कर पाया है – इस का समुचित निदान?

केवल उन को, जो हैँ जन साधारण – उन्हेँ है ज्ञान

विश्वासी हैँ वे – कोई हिला सकता है उन का ज्ञान? –

बहुत पहले पक चुका था उन का ज्ञान –

अजूबा है यह, कौतुक है – जो कर दिखाता है शैतान.

पर्यटकोँ के दल निज विश्वास को बनाते हैँ आधार –

शैतान शिला और दानव सेतु को सहज करते हैँ पार.

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फ़ाउस्ट

जो हो – रोचक है प्राप्त करना तुझ से यह ज्ञान –

सृष्टि को क्या समझते हैँ शैतान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हो! जो है संसार का रूप – मेरे लिए है सब एक समान.

यहाँ भी आया था शैतान – यही तथ्य है प्रधान!

हम – हाँ, हम ही – समझते हैँ सृष्टि का प्रयोजन विशाल –

विप्लव, शक्ति, और – हाँ – महामूर्खतापूर्ण व्यवहार.

चलो, छोड़ो, हो जाएँ गंभीर बातेँ दो चार –

यह जो हमारा है बाह्य आकार –

इस मेँ कुछ और नहीँ मिला था तुझे मन रमाने को?

देख तो लिया तू ने यहाँ ऊपर से – गहन अंतराल –

और जो फैला पड़ा है संसार का गौरवमय साम्राज्य.

और अभी तक है तेरे मन मेँ असंतोष का राज्य.

जागी नहीँ क्या मन मेँ गौरवमय सत्ता की प्यास?

फ़ाउस्ट

हाँ, जागी तो! आई है मन मेँ अद्भुत अनोखी परिकल्पना.

बता सकता है तू – क्या है तेरे मन का सपना?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, मेरे लिए सहज है यह कल्पना करना.

मिल जाए कोई नगर – हो सके तो राजधानी –

उस का मुख्य भाग हो लोक जीवन का आधार,

टेढ़ी मेढ़ी गलियाँ, कुटीर, वलभियाँ, ऊँची ऊँची दीवार,

कुंजड़ोँ के ठेलोँ पर लदे बंदगोभी, काँदा, चुकंदर,

बूचड़ोँ के थलोँ पर पके मांस के अंबार,

क्रेताओँ की भीड़, ले रहे होँ स्वाद,

चलता हो व्यापार – फैली हो सड़ाँध,

बड़े बड़े चौक, आँगन, चौड़े चौराहे, सड़केँ विशाल –

राजसी हो उन पर चलने वालोँ की चाल,

प्राचीर के बाहर – दूर दूर तक फैले होँ शाखा नगर,

चल रहे होँ रथ, गाड़ियाँ, मची हो घरघर –

भीड़ का धक्कमधक्का, चिल्लपौँ, चीख़पुकार,

लगातार भागदौड़ – इधर से उधर, उधर से इधर,

चीँटियोँ सी लगी हो क़तार पर क़तार –

पैदल होँ या सवारी पर, या फिर घोड़ोँ पर सवार -

केंद्र से आते जाते, केंद्र से चलता हो सारा व्यवहार –

हज़ारोँ लोगोँ से करता – मैँ – अभिवादन स्वीकार.

फ़ाउस्ट

इस से मिलेगा नहीँ मुझे संतोष!

अच्छा लगता है – हो जनसंख्या मेँ अभिवृद्धि

लोगोँ के जीवन मेँ हो सुख और हो समृद्धि

पूरा हो विकास, शील हो, हो ज्ञान मेँ पूर्ण वृद्धि –

यह सब हो, और भी बहुत कुछ हो और… क्या है उपलब्धि?

विद्रोहियोँ की होगी वृद्धि – मन मेँ बढ़ेगा असंतोष.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो – मैँ करूँगा भोग विलास से पूर्ण एक दुर्ग का निर्माण –

सोच विचार कर चुनूँगा – सर्वोत्तम सुखसुविधामय स्थान.

पर्वतोँ के बीच, समतल हो क्षेत्र – वन आरण्य, खेत मैदान –

श्रम से साधित होँगे वहाँ शस्यपूर्ण उर्वर उद्यान,

लता वल्लरित पल्लवित मसृण मृदुल मख़मली प्रतान,

सुरम्य सचल सरसित सरणि के होँगे सुव्यवस्थित जाल,

जिन पर करते होँगे छायामय छतनार वृक्ष,

शैलतटोँ से झरझर झरते निर्झर – निर्मित कल्पित सुंदर,

सलिल पथोँ के बीच कहीँ, कहीँ पथोँ से लगे सटे,

वारियंत्र होँगे अनगिन – बहुविध उच्छल शीतल सहस्र धार.

सुंदरतम रमणी होँगी, अरुणिम कपोल, उन्नत यौवन –

उन से सज्‍जित होगा सुखमय सुविधामय केलि भवन.

अनंत काल पर्यंत रासरंग मेँ रमता मैँ मन का रसिया,

एकांतवास मेँ आभोगोँ को भोगूँगा जम कर, छक कर.

जब कहता हूँ मैँ – होँगी रमणी, मेरा मतलब है बहुरमण -

असली रतिरमण है वह – एक साथ भोगेँ अनेक को हम जम कर.

फ़ाउस्ट

रतिलंपट! तेरी इच्छा है बस विलास!

है कितना पिछड़ा! जिस को समझा है तू नूतन!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो पूछ सकता हूँ क्या – क्योँ है तेरा यह सारा अनथक प्रयास?

था कितना उद्धत, सुंदर, उन्नत, अभिनव मेरा वर्णन!

चाँद के निकटतम जा पहुँचा था तेरा यान –

क्या उसी को जीतने की योजना मेँ रत है तेरा मन?

फ़ाउस्ट

नहीँ, ऐसा नहीँ है –

अभी बहुत कुछ करने के अवसरोँ से भरी यह मही है.

विलक्षण योजनाएँ मेरे मन मेँ पक रही हैँ –

लगता है मुझ मेँ नई उद्धत शक्तियाँ छिपी हैँ.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो अभी और जीतने हैँ गौरव!

साफ़ है – अभी तक तेरे मन मेँ नायिकाएँ बसी हैँ.

फ़ाउस्ट

नहीँ, मेरे मन मेँ अब सत्ता और राज्य के हैँ सपने.

कर्म ही है सब कुछ – कुछ नहीँ है गौरव.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

फिर भी कवि गाएँगे तेरे गीत – फैलाएँगे यश,

आगामी युगोँ तक पहुँचाएँगे तेरा गौरव,

मूर्खता का होगा प्रसार – इस प्रकार!

फ़ाउस्ट

वह सब है तेरी पहुँच के पार.

कैसे समझेगा तू – मानवोँ की अभिलाषा?

संकर है तेरा जीव – ईर्षा है तेरा भाव!

कैसे जानेगा तू – मानव की आकांक्षा?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो होने दे वही – जो चाहता है तू.

बता तो सही – क्या चाहता है तू.

फ़ाउस्ट

मैँ देख रहा था दूर – दूर तक महासागर है लहरता –

उछलता, उमड़ता, ज्वार मेँ स्वच्छंद बढ़ता बिछलता,

फिर हटता, मचलता, लहरोँ को अनवरत हिलाता,

फिर एक बार बेला तट को निज अंक मेँ समाता.

देख कर उद्दंड व्यवहार – मेरा मन था बार बार खलबलाता,

देख कर यह हेकड़ी – बार बार मन मेरा था सिहरता –

जो होते हैँ स्वाधीन – जो सब को देखना चाहते हैँ स्वाधीन –

धृष्ठता रहती है उन के उत्तेजित लहू मेँ कोप को जगा कर.

संभवतः मात्र मेरी कल्पना थी – मैँ ने देखा जो क्षण भर –

रुक गया था उफनता ज्वार – बिलबिलाता लौटता पलट कर,

सगर्व जो विजित था बेला तट – खिझियाता सा उसे तज कर.

लौट आया फिर वही काल – होने लगा फिर वही खेल.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

नया क्या है इस मेँ – लाखोँ वर्षोँ से यही देखा है मैँ ने.

होता रहेगा, होगा – जो भी अब कहा है तू ने.

फ़ाउस्ट (निर्विकार – निर्वेद कहता रहता है – )

लाखोँ लाखोँ तटोँ पर – बहता रहता है सागर

अनुर्वर है – तटोँ को भी रखता है अनुर्वर.

उठती उमड़ती लहरेँ – हैँ टूटती बिखर कर,

फिर बढ़ती आती हैँ – सिर ऊपर को उठा कर,

घेरती करती हैँ प्लावित – वंध्या बालू को उछल कर.

अंतहीन लहरोँ का कुछ पल चलता है राज तट पर

फिर लौटती हैँ वापस – सब पहले जैसा तज कर.

मेरा चिंतित मन है व्याकुल – लख कर यह निष्फल रेला –

स्वच्छंद तत्वोँ का यह खेला, उद्देश्यहीन शक्ति का यह मेला.

तब मेरे मन मेँ उड़ता सा जागा उद्भट एक सपना –

यह – हाँ, यह है – जो है अब मुझे करना,

यह जो है सागर का रेला – इस को है अब मुझे मथना.

हाँ, संभव है यह कर पाना – ज्वार बढ़ेँ मन चाहे जितना

मन मारे रह जाते – जब हो सम्मुख हो ऊँचाई.

खीसेँ निपोरते रेले थम जाते जब सम्मुख सुदृढ़ पर्वत हो

चाहे कितनी थोड़ी हो, चाहे कितनी नीची हो ऊँचाई.

बढ़ते जाते शोर मचाते जब मिलती उथली गहराई.

मेरे मन मेँ तत्काल योजना आई –

मेरे मन को आह्लाद मिले तब,

तट से बाँधूँ सागर जब.

वंध्या जल को सीमित कर दूँ –

उस को पीछे लौटा दूँ.

मन ही मन मैँ ने सोचा बहुत विचारा –

पग पग पर जो करना है, कैसे इस से लड़ना है – धारा.

तो यह है – जो चाहता हूँ मैँ.

बोल – है हिम्मत! – कर सकता है तू!

(दाहिनी ओर, दर्शकोँ के पीछे – दूर से नगाड़े, सैन्य संगीत,)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

कितना सहज है यह! दूर के नगाड़े सुनता है तू?

फ़ाउस्ट

जो होते हैँ बुद्धिमान – अच्छे नहीँ लगते उन्हेँ भावी संग्राम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

शांति हो या संग्राम – अवसर नहीँ चूकते जो होते हैँ बुद्धिमान.

हर हाल मेँ वे खोज ही लेते हैँ लाभ के अवसर.

ताक़ मेँ रहते हैँ, लेते हैँ साहस से काम, मिलने पर अवसर,

सामने है अवसर – ले थाम! – फ़ाउस्ट, मत चूक!

फ़ाउस्ट

क्षमा कर – फिर बुझाने लगा पहेली.

कहता क्योँ नहीँ – जो कथनी है तेरी.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जब मैँ आ रहा था इधर – मुझे हुई थी ख़बर –

भारी संकट की छाया है सम्राट पर.

वही सम्राट, हम ने की थी कृपा जिस पर,

हम दोनोँ ने बरसा दिया था धन जिस पर

जिस से ख़रीद सकता था वह सारा संसार.

युवा था – चलाता रहा राज की शक्ति –

साथ साथ मनाता रहा मनमानी मौज मस्‍ती.

मन चाहे तो भी – निभ पाता है कम –

भोग विलास और राज शासन का संगम.

फ़ाउस्ट

भयानक होती है यह भूल! जिसे करना हो शासन

उस का महानतम विलास होता है – करना शासन.

उस को चाहिए मन मेँ धारना घोर इच्छा शक्ति –

क्या है उस के मन की इच्छा – न जान पाए कोई शक्ति.

विश्वस्त के कान मेँ फूँक दे जो बात –

जब हो जाए काम – जग रह जाए दंग अकस्मात.

यही है सर्वोच्च सत्ता भोगने का मंत्र,

भोग विलास बना देता है परतंत्र.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जानता नहीँ था वह यह महामंत्र,

रम गया भोग मेँ – भूल कर राजतंत्र.

जो होना था हुआ – ढहने लगा सारा तंत्र,

बढ़ गया अनाचार, चतुर्दिक् दुराचार –

छोटे बड़े – हरएक मेँ मच गई मारामार,

भाई ने भगा दिया भाई, भाई ने मार दिया भाई,

दुर्ग से भिड़ गया दुर्ग, नगर से नगर की हो गई लड़ाई,

नीच और कुलीन, कर्मी और व्यापारी, पादरी और भक्त –

सब की चढ़ी है त्यौरी, सब के नैन हैँ आरक्त,

गिरजाघरोँ मेँ बहने लगा लहू, होने लगा ख़ूनखच्चर,

सौदागर लुटने लगे निकलते ही नगरद्वार से बाहर,

सब हो गए उद्दंड, शेष नहीँ था राजदंड,

जीवन का नियम था बस एक – डंड.

ऐसे ही चल रहा था हर काम, हर जन…

फ़ाउस्ट

चलना, लड़खड़ाना, गिरना, उठना,

ढहना, भुरभुराना, हो जाना ढेर.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ऐसी हालत चलती नहीँ बहुत देर.

थी सब की चाहना – हरएक पर धाक जमाना,

जो मन भाए – दूसरोँ से छीनना हथियाना,

तौला बना फिरता था जो था बस माशा,

जो अच्छे थे – रह गए थे बन कर तमाशा.

जो समर्थ थे, उन्होँ ने समेटे औसान

सम्राट के पास जा कर चलाने लगे ज़बान -

जो चला सकता है सरकार, वही कर सकता है शासन.

सम्राट है, लेकिन करना नहीँ चाहता शासन.

हम चुनेँगे नया सम्राट, चलेगा नया शासन,

हरएक को मिलेगी सुरक्षा, जीवन का आश्वासन,

देश का होगा नव निर्माण,

न्याय और शांति का होगा समागम!

फ़ाउस्ट

लगता है – पादरियोँ जैसा भाषण!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, पादरी ही थे वे लोग –

उन के मन मेँ था – कैसे भरते रहेँ अपनी तोँद.

जो हुआ – उस मेँ था – उन्हीँ का हाथ,

भड़कने लगा दंगे पर दंगा, होने लगी घात पर घात.

और अब – वही सम्राट – जिस का हम ने दिया था साथ

इधर ही आता है – अंतिम है मोरचा, सेना है साथ.

फ़ाउस्ट

भला था, थी मन मेँ दया – उस पर आती है दया.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

, चल देखते हैँ – जब तक है साँस, तब तक है आस.

चल, उस को हम छुड़ा देँ – तंग है घाटी,

टिक जाए जो इस बार – करता रहेगा राज.

जानता है कौन किस पासे पड़ेगी गोटी!

भाग्य दे जाए साथ, सामंत देते रहेँगे साथ.

(पर्वत शिखरोँ से उतर कर वे दोनोँ मध्य स्तर तक आते हैँ. वहाँ से सेना व्यूह का विहंगावलोकन करते हैँ. नीचे से नगाड़े और सैन्य संगीत सुनाई पड़ते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

सुदृढ़ है उन का व्यूह – सही है मोरचा जहाँ हैँ वे.

जो हम दे देँ उन का साथ – जीत कर रहेँगे वे.

फ़ाउस्ट

अब और नया तू दिखाएगा क्या खेल अपना!

धूर्त्त! कोरा दिखावा! अंधे का सपना!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

युद्ध के दाँवपेँच! जीत के गुर! नहीँ है सपना!

हो जा तैयार – जो काम पूरा है करना –

धारे रह मन मेँ जो तू ने देखा है सपना!

हम दिला देँ सच्चे सम्राट को उस का अधिकार

तो उस के चरणोँ मेँ तू झुक सकता है साधिकार

माँग सकता है सागर तट का सिकतामय विस्तार.

फ़ाउस्ट

अनेक कलाओँ मेँ तू दिखा चुका है चमत्कार

तो अब दिखा दे – तू युद्ध भी सकता है जीत.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जीतूँगा नहीँ मैँ. जीतेगा तू!

संक्षेप मेँ, महासेनापति का पद अब सँभालेगा तू.

फ़ाउस्ट

मुझ पर थोपता है उच्चतम सम्मान –

सेना संचालन का मुझ को नहीँ है राई रत्ती ज्ञान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जो सहायकोँ पर छोड़ देँ काम और निंदा का बोझ –

वही सेनापति संग्राम मेँ कमाते हैँ नाम!

युद्ध की कुमंत्रणाओँ का मुझे रहा है अभ्यास,

मेरा युद्धमंत्र है सुगम और आसान.

मेरा युद्धमंत्र है –

पर्वतीय आदिम जीवट – जो होता है मानव शक्ति मेँ निहित,

वही जीतता है – जिस मेँ इस के तत्व होते हैँ समाहित.

फ़ाउस्ट

कौन दिखते हैँ उधर – शस्त्रोँ से सुसज्जित?

क्या तू ने कर दिया गिरिजनोँ को आवाहित?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

नहीँ! मैँ लाया हूँ तीन तिलंगे

छाँट कर सार सत्व सारे भूसे मेँ से.

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(तीन बलवंत आते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ले, आ भी पहुँचे मेरे बलवंते!

देखता है तू – तीनोँ उम्र मेँ तिरंगे –

वेश हैँ अनोखे, शस्त्र हैँ बेढंगे.

युद्ध मेँ तेरा काम ये पूरा कर देँगे.

(दर्शकोँ मेँ खिलखिलाहट.)

बच्चा बच्चा है प्रसन्न –

कर के इन सूरमाओँ के दर्शन,

ये हैँ प्रतीक – देखने मेँ लफंगे,

पर काम के हैँ पक्के.

धौँसजमा (नौजवान, बहुत कम हथियार, रंगबिरंगी थेगली लगे कपड़े)

आ जाए सामने – है जिस मेँ हिम्मत!

दूँगा झापड़ – कर दूँगा मरम्मत!

बच नहीँ सकता मुझ से – कर ले कोई हिकमत -

जब खिँचता है झोँटा – हो जाती है मुसीबत!

छीनझपट (मर्दानावार, शस्त्रोँ और वस्त्रोँ से सज्जित)

धौँसपट्टी है बेकाम –

छीनाझपटी ही आती है काम.

छीन ले! झपट ले!

फिर कर काम दूजे!

छोड़मत (वय से वृद्ध, मज़बूत पुट्ठे, वस्त्रहीन)

देर तक टिकता नहीँ माल –

हाथ से फिसल जाता है ऐसे

जीवन के ज्वार पर भाटा हो जैसे.

अच्छा है छीनना झपटना,

उस से भी अच्छा ना छोड़ना, कस कर पकड़ना,

बुड्ढे खूसट का जो रहेगा राज

कोई भी कर नहीँ सकता मुहताज.

(एक साथ सब पर्वतोँ से नीचे उतरते हैँ.)

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