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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 3 – स्पार्टा मेँ मेनेलाउस के राजभवन के बाहर

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

अंक ३

स्पार्टा मेँ मेनेलाउस के राजभवन के बाहर

हेलेना का प्रवेश. साथ मेँ है ट्रौय की बंदी नारियोँ का कोरस. कोरस की नेता पांथालिस.

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हेलेना

बहुप्रशंसित और बहुप्रताड़ित – मैँ हेलेना

अभी अभी आई हूँ तट से. वहाँ उतरे थे हम.

अभी तक विचलित हैँ मेरे पग – डगमग.

लहरोँ के हिचकोलोँ से उच्छल था महापोत -

फ्रीजिया के उत्तट से इधर तक – लहरोँ की विद्रोही पीठ पर –

विकलतम उद्विग्न तरंगित शिखरोँ पर चढ़ कर,

सागरदेव पोसाइडन से वरदान पा कर,

पूर्व पवन यूरोस के बल को संजो कर –

जो ले आया हमेँ स्वदेश – सागर कुक्षि के तट पर.

नीचे तट पर विजय सुख भोग रहे हैँ मेनेलाउस सम्राट –

उन के साथ हैँ बलवीर महाभट.

लेकिन तू – उन्नत महाप्रासाद! – मेरे पिता टिंडारुस ने

बनाया था तुझे पल्लास पर्वत से लौट कर.

तू स्थित है मद्धम धीमे ढलान पर. हाँ, यहाँ –

बहन क्लिटम्नेस्ट्राके साथ, भाई कास्टर

और पौलुक्स के संग खेली, बड़ी हुई यहीँ पर.

बढ़ी यहाँ स्पार्टा के घरोँ के बाहर –

आनबान से बनी ठनी, सजी सँवरी.

दुर्गद्वार के गहराए लौह कपाट, लो मेरा अभिनंदन!

अनेक द्वारोँ मेँ से चुने गए थे तुम्हीँ.

तुम्हीँ तो स्वागत मेँ खुले थे जब वर बन कर

आया था मेनेलाउस दैदीप्यमान. मेरे लिए खुलो फिर –

सम्राट की अर्धांगिनी हूँ मैँ – आज पालना है मुझे

सम्राट का आदेश अक्षरशः. प्रवेश दो मुझे.

रह जाने दो वह सब पीछे, जो था अप्रिय, विकराल,

वह सब जिस ने मुझे अब तक ग्रसा है.

यहीँ से चली थी मैँ – अमंगल आशंकाओँ को बिसार,

पूजने किथीराद्वीपवासिनी प्रेम की देवी अफ्रोडाइटी,

देवी के मंदिर की ओर. किसे पता था ? –

हर ले जाएगा मुझे फ्रीजिया का दस्यु – छलिया तस्कर!

तब से हुआ है बहुत कुछ – दूर दूर तक मगन हो –

गाते बताते हैँ लोग वह सब.

बस, जिस पर बीता था वह सब –

सुनना नहीँ चाहती वह यह सब.

कोरस

भामिनी, वरानना, छोड़ दे रोना बिसूरना

छोड़ निज महाभाग्य गौरव की भर्त्सना!

सर्वोच्च सौभाग्य की स्वामिनी है तू

सौंदर्य की सुख्यात स्वामिनी है तू.

नायकोँ का नाम चलता है आगे आगे

चलते हैँ वेपग गर्वीले धरते.

जब पड़ते हैँ रूप की शक्ति के आगे

हठी से हठी हो जाते हैँ हेठे.

हेलेना

बहुत हो चुका! लौटी हूँ मैँ पति के साथ पोत पर.

पहले से भेज दिया है उस ने मुझे नगर.

क्या है उस के मन मेँ – है मेरे मन के पार.

किस रूप मेँ आई हूँ मैँ यहाँ – पत्नी? या महारानी?

या बलि हूँ मैँ?… जो यातना पीड़ा भोगी है स्वामी ने,

जो दुर्भाग्य सहा है चिरकाल तक ग्रीस देश ने,

क्या उस सब का करना होगा मुझे प्रतिदान?

अमर्त्योँ ने अस्पष्ट सी लिखी हैँ – मेरी नियति, मेरी ख्याति –

अविश्वसनीय, निष्ठाहीन हैँ – दोनोँ ही ये रूप की दासी.

आज वही रूप की रानी खड़ी हूँ मैँ चौखट पर.

मेरे साथ है अव्यक्त अंधकार, आशंका – भयावह.

पोत के शून्य गर्भ मेँ मुझे देखा तक नहीँ भर्ता ने,

उच्चारा नहीँ सांत्वना का एक भी शब्द.

बैठा था सामने साधे मौन – मानो मन मेँ घुमड़ता हो प्रभंजन.

कर भी नहीँ पाए थे अग्रिम पोत के फहराते पाल

यूरोटा नद के गहरे तीखे कुक्षितट का अभिनंदन,

बोला था वह, जैसे स्वयं देवताओँ के आदेश पर –

पंक्तिबद्ध हो जाएँ सब सैनिक, उतरेँ, रुकेँ तट पर.

मैँ करूँगा सेना का समावलोकन – सागर के सम्मुख.

लेकिन – तू – तू चलती रह, आगे, और आगे…

सुंदर यूरोटा के पावन सुजल सुफल तट पर बढ़ती,

जलमय मैदानोँ के पार. सुंदर शाद्वल पर अंत हो

तेरी यात्रा का – वहाँ, जहाँ उत्ताल पर्वतोँ से वलयित,

फलोँ से परिपूर्ण विस्तृत उपत्यका मेँ –

लासीदीमिया – स्पार्टा – ने कभी सजाई थी सत्ता की पीठ.

वहाँ तू धरना पग कलशोँ से मंडित राजसी भवन मेँ.

एकत्रित कर लेना सब दासी. उन्हेँ छोड़ आया था मैँ.

बुला लेना पुरानी प्रमुख निष्ठावान परिचारिका को.

वह दिखाएगी तुझे विशाल धनकोश, रत्नागार – जो थाती हैँ

तेरे पिता की. मैँ ने भी बढ़ाया है उन्हेँ युद्ध मेँ, शांति मेँ.

सब कुछ मिलेगा तुझे पूर्ववत् – सक्रम, सुव्यवस्थित.

अधिकार है राजा का – घर लौटने पर मिले सब कुछ सुरक्षित,

हर वस्तु हो अपने स्थान पर सक्रम स्थित.

कुछ भी बदलने का अधिकार होता नहीँ दास को.

कोरस

अवलोको सब संचित संपद वैभव!

मन को तर्पण, नयनोँ को सुखहो!

कब से अनपहने अनभोगे कंठहार,

मणिमंडित मुकुट रुष्ट हैँदेखो!

बढ़ो, चलो भीतर, उन को ललकारो

कंठ लगेँगे वे सब हर्षित हो.

कितना सुख मिलता है मुझ को

मणि कांचन का जब सुंदरता से संगम हो!

हेलेना

फिर आया स्वामी का राजसी आदेश –

तू जब देख चुके हर वस्तु को पूर्ववत् सुरक्षित –

तो छाँट लेना उतने त्रिकुंड जितने होँ आवश्यक,

और भी, वे सभी पात्र, जो होते हैँ अनिवार्य

जब करना होता है देवोँ के लिए महायज्ञ –

पिठर, पाली, चंबल, द्रोणी, भृंगार.

भर लेना महाकुंभोँ मेँ स्रोते से शुद्धतम निर्मल जल.

यही नहीँ, प्रस्तुत रखना परिशुष्क अरणि काष्ठ –

समिधा – अग्निदेव को सहज स्वीकार्य,

और बलिमेध हेतु कुठार – जिस की पैनी हो धार.

और जो कुछ भी करणीय हो, वह सब

मैँ छोड़ता हूँ तुझ पर – सब करना भलीभाँति सोचविचार…

यह सब कहा था उस ने जब पठाया था मुझे.

एक एक बात बताई थी सविस्तार.

लेकिन बोला नहीँ एक भी शब्द – महामेध मेँ

ओलिंपसवासी देवताओँ को किस जीव की दी जाएगी बलि.

महत्वपूर्ण है सब. सब कुछ करना है सध्यान.

मन से त्याग दे हर चिंता, हर विचार.

जो भी होना है, हो – देवता करेँगे निर्धार.

वही करते हैँ जो चाहेँ. कौन जाने – क्या है

उन के मन मेँ? मानव माने भला या बुरा –

जो भी हो – मानव को है बस झेलने का अधिकार.

कई बार जब याजक के हाथोँ मेँ उठा हो कुठार –

बलिपशु की झुकी गरदन पर करने को गंभीर प्रहार,

तो भी पूरा होने से रह जाता है काज कई बार.

कभी टूट पड़ता है शत्रु, कभी देवता डाल देते हैँ व्यवधान.

कोरस

क्या होगामत सोच, मत विचार,

रानी, बढ़ आगेसाहस धार!

शाप हो या हो वरदान

मिलते हैँ सहसायदृच्छा, अप्रत्याशित.

होँ पहले से घोषित

तो भी हमेँ होता नहीँ विश्वास.

जला नहीँ क्या ईलियन?

देखी नहीँ क्या हम ने मौत

लज्जाप्रद जघन्य मौत?

हम हैँ ना तेरे साथ!

संगी साथीहर्षित

पा कर तुझ को अपने साथ.

गगन मेँ भास्वर है भास्कर

धरा पर है तूकरुणामयी अतिसुंदर

हैँ ना हम तेरे साथ

हर्षित आह्लादित!

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हेलेना

हो, होना है जो, हो! मेरा जो भी होगा, हो!

शोभता है मुझे – अविलंब मैँ जाऊँ राजप्रासाद.

जिसे चिरंतन याद किया मैँ ने, छूट ही गया था जो मुझ से,

अब फिर है वह मेरे सम्मुख – अप्रत्याशित, अनायास.

हाँ, सोपान पर चढ़ते मेरे डगोँ मेँ अब नहीँ है

वह निर्भय चंचलता जो होती थी बालापन मेँ.

कोरस

बहनो, मेरी शोकाकुल बंदी बहनो,

भूलो, सब दुःख त्यागो!

स्वामिनी के सुख भोगो

भोगो, हेलेना के सुख भोगो!

लौटी है, आई है पितरालय

हर्षित मन बढ़ती

बहुत दिनोँ मेँ लौटीस्थिर पग धरती!

 

पूजो, देवोँ को वंदो.

पुनरावासक देवो,

घर लौटाने वाले देवो!

कैसे, निर्मोचित ललना

निंदा गर्हा के ऊपर उठ कर

देखो, पंखोँ उड़ती सी चलती.

जो बंदी हैँ अब तक

मन मेँ प्यास जगाए

बाँहेँ फैलाए

हैँ प्राचीरोँ से तकती.

 

एक देवता आया

साथ दिया ललना का

ईलियन के खंडर से

वह उस को वापस लाया

पितरोँ के विस्मृत नवसज्जित

घर तक वापस ले आया

शब्दातीत हरण त्रासोँ से

उन्मोचित, आनंदित

बचपन मेँ फिर से खो जाने को प्रस्तुत!

पांथालिस (कोरस की नेता के रूप मेँ – )

अब त्याग आनंदमोदमय गीतोँ का साथ.

द्वार के खुले हैँ कपाट – कर दृष्टिपात!

बहन, क्या हुआ? रानी को क्या हुआ?

उस के पग अब नहीँ हैँ चंचल!

 

बहन, यह – यह क्या है दृष्टिगोचर?

क्या यह नहीँ आ रही रानी

पैरोँ मेँ पंख लगाए सत्वर

पग धरती चंचल अस्थिर?

रानी, क्या हुआ? क्या मिला, क्या देखा तू ने –

घर मेँ, कोठारोँ मेँ?

क्या नहीँ मिला अभिनंदन? अभिवादन?

क्योँ हैँ तेरे पग घबराए से – चंचल अस्थिर?

छिपा नहीँ पाएगी तू, सब अंकित है तेरी भृकुटि पर –

अरुचि, जुगुप्सा, वितृष्णा, आश्चर्य, कुतूहल, विस्मय.

हेलेना (उत्तेजना मेँ कपाट खुले छोड़ आई है.)

साधारण भयोँ से ग्रस्त नहीँ होती मैँ – द्यौसकुमारी,

क्षणिक आतंक नहीँ व्यापते मुझ पर.

लेकिन – जो था – था महात्रासक, भयंकर, रौरव, रेरिहान –

कालनिशा के गर्भोल्‍ब से प्रसूत आदिम विद्रूप तमस सा –

पल पल परिवर्तित – विकराल एक घोर आकार –

पर्वत के अग्निकंठ से उफनता – धधकते लावा-मेघ सा,

घूर्णिवात सा प्रसरता… दहला दे महानायकोँ के वक्ष!

नारकीय स्टीजिया के अपदेवताओँ ने

इस प्रकार किया मेरा स्वागत…

प्रताड़ित अतिथि सी सहर्ष चली जाऊँगी मैँ दूर

इस चिरपरिचित आकांक्षित देहरी से.

लेकिन… नहीँ, नहीँ जाऊँगी अब और दूर.

अब मैँ हूँ उन्मुक्त प्रकाश मेँ.

जो भी हो, कोई नहीँ भगा सकता मुझे यहाँ से और दूर.

करूँगी मंत्रपाठ. हो कर मंत्रोँ से पूत –

बढ़ूँगी आगे. यह मेरा घर है, मेरा आँगन, चूल्हा, अश्मंत.

स्वामिनी हूँ मैँ – करना पड़ेगा उसे मेरा स्वागत!

कोरस

भगवती, देवी! दासी हूँ मैँ, सहायिका हूँ मैँ.

बता तो क्या हुआ भीतर…

हेलेना

कालनिशा ने फिर से निगल न लिया हो जो उस को,

तो – जो देखा मैँ ने – अभी अपनी आँखोँ देखेगी ही तू –

फिर भी अपने शब्दोँ मेँ करती हूँ वर्णन.

मन मेँ धारे कर्तव्य, धीर गंभीर, जब मैँ ने किया पदार्पण

अंधकारमय था राजप्रासाद का आंतरिक आँगन.

विस्मित सी देखती रही मैँ – मौन कलुषित से गलियारे.

आगे बढ़ी – कानोँ मेँ नहीँ थी कोई आहट घरेलू काम की.

नयनोँ ने देखा नहीँ कहीँ कोई चिह्न गतिविधि का –

देखा नहीँ किसी को कुछ करते धरते.

कोई सेविका नहीँ थी, परिचारिका नहीँ थी,

आगंतुक के मित्रवत् स्वागत का अभिनंदन नहीँ था.

मैँ बढ़ी पुरातन पथरीले विशाल भाड़ की ओर…

मैँ ने देखा – जो बची थी राख, जो थे विस्फुलिंग पतंग,

वहाँ – धरा पर धरी थी एक अवगुंठित सुविशाल नारी काया.

सोई सी नहीँ थी वह, विचारोँ मेँ गहरी खोई सी थी वह.

गुरु गंभीर कठोर स्वर मेँ मैँ ने उसे सादेश पुकारा –

मैँ ने सोचा – यही है परिचारिका जिसे छोड़ गया था भर्तार.

लेकिन वह – वह बैठी रही सिमटी दुबकी निश्चल.

मैँ ने सस्वर डाटा डपटा – उस ने हिला दिया दाहिना हाथ –

जैसे भगा रही हो मुझे चूल्हे से, आँगन से.

कुपित हो कर मैँ मुड़ी, द्रुततः सोपान तक आई –

जहाँ ऊपर अलंकृत थालामोस रखा है,

वहीँ जहाँ पास ही है कोशागार.

तभी, अचानक, वह महाविकराला – नारी काया

उछलती सी उठी, साधिकार रोक दिया मार्ग.

धतीँगड़ी. विशालकाय. गहरे खोखल मेँ हैँ रक्तरंजित आँखेँ.

इतना विचित्र है उस का आकार – भ्रमित है मेरा मन, और नैन.

व्यर्थ कर रही हूँ प्रयास – व्यर्थ है वाणी को करना क्लांत –

करना उस का सजीव वर्णन, बतलाना उस का रूप आकार.

देख, तू स्वयं देख! – उजाले मेँ आने का कैसा दुस्साहस!

यहाँ हमारा है अधिकार – जब तक आता है स्वामी महाराज.

सूर्यदेव फीबस – रूप का सहायक – काल कोठरी मेँ डालता है

या बना लेता है बंदी – निशा की भयंकर संतान.

(फोर्क्यास आ कर चौखटोँ के बीच खड़ी होती है.)

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कोरस

मेरे मस्तक पर हैँ कोमल नव यौवन वाली अलकेँ,

बहुत मगर देखा है मैँ ने फिर भी.

जो मैँ ने देखा थाथा घनघोर भयंकर

देखे रोते और बिलखते योद्धामहापतन पर

जब गिरा ईलियन.

 

धुंधघिरे, धूलसने, झुके बादल मेँ

पगलाए वीरोँ के ठठ के ठठ थे

घबराए से देवोँ के डरपाते चीत्कार थे

रण मेँ लोहे से बजता लोहा बढ़ता था

जिधर नगर था.

 

ईलियन की प्राचीर खड़ी थी फिर भी

इस से उस घर की दीवार निगलता

ज्वाला का दमदम गोला दौड़ रहा था

काल कराल सा नाद विकराल मचाता

भैरव रौरव करता फैल रहा था

नगर कलुषाता.

 

धुएँ के, लपटोँ के पीछे, बचते भगते देखा

आँखेँ चुँधियाती ज्वालाजिह्वाओँ के पीछे देखा

देखाकोप जगाते घोर भयंकर देवोँ को देखा

चलते फिरते आकार विशाल थे

गौरवशाली थे, भीमकाय थेअंधकार मेँ

ज्वाला से आलोकित.

 

वह सब सच था

या वह सारा दृश्य भयानक

मेरे आतंकित मन की रचना था?

नहीँ संभव है करना निर्णय.

लेकिनइस कोइस आतंकमयी को

ये आँखेँ देख रही हैँहै निश्चय.

भय बिसरा कर साहस कर

आगे बढ़ इस को छू पानासच है,

वास्तव, संभव.

 

फोर्किस की

बोल कौन सी धी है तू?

मुझ को उस की ही संतति लगती है तू!

कह देतू सचमुच फोर्किस की

अंधकार मेँ उपजी

एकदंत या एकनयन जाया है?

 

राक्षसनी, कैसे

तू साहस कर पाई

सूर्यदेव फीबस के प्रकाश मेँ

सुंदरता के साथ खड़ी होने का?

यह दुस्साहस? – खड़ी हो गईआगे बढ़ कर!

फीबस नहीँ देखता है कुरूपता,

जैसे उस के नैना उज्ज्वल

नहीँ देखते काली छाया.

 

हम मर्त्योँ पर यह कैसा अन्याय शोकप्रद

विवश हुए जो देख रहे हैँ

है जो शब्दातीत और नयनोँ को पीड़ाप्रद,

यह अभिशप्त घृणा उत्पादक राक्षस रानी

सुंदरताप्रेमी जन के मन मेँ जो कोप जगाती.

 

आई ही है जो तूउद्धत बन हमेँ सताने

तो सुन, भोगे तू शाप घोरतम

सुन, हम से धिक्कृत तू, हर गाली सुन,

देवोँ के अपने हाथोँ निर्मित सौभाग्यजनोँ

के निंदाकुल मुख से सुन, हर गाली सुन.

फोर्क्यास

सुनो – खरी और सच्ची – सुनाती हूँ कहावत पुरानी -

धरती के हरे भरे तल पर – डाल कर हाथ मेँ हाथ

लज्जा और सुंदरता – चलतीँ नहीँ एक पल भी साथ.

दोनोँ के मन मेँ परस्पर घृणा है – गहरी है, घनी है पुरानी –

राह मेँ मिल गईँ तो फेर लेँगी मुँह, दिखा देँगी पीठ,

पलट कर तेज़ी से बढ़ेगी लज्जा – खिन्न और उदास.

लेकिन सुंदरता – उद्धत और ढीठ. जरा ने न किया गर्वनाश

तो अंततः उसे खा जाएगी पाताल की खोखली सूनी रात.

निर्लज्ज हो तुम सब. विदेश से आए बगुलोँ सी

घमंड से चूर, आकाश मेँ उड़ती बाँध कर पाँत –

मेघोँ की कोर पर धीमे धीमे चलती – कर्कश रौल मचाती

नीचे हो कोई राही अकेला – ऊपर देखने को उकसाती.

और फिर चली जाती हैँ – यह और वह अपनी अपनी राह.

यही होगा हमारे भी साथ – जाएँगी हम भी अपनी अपनी राह.

कौन हो तुम जो चली आईँ ऊँचे राजसी महल तक –

सुरादेव बक्चोस की उच्छृंखल पुजारन मीनाद या बकांती सी

बक बक करती, रौल मचाती? कौन हो तुम जो चली आईँ

राजसी परिचारिका पर रौब जमाती,

कुतिया सी चंद्रमा पर भौँकती गुर्राती?

क्या है तुम्हारी जात, वंश – तुम समझती हो मैँ नहीँ जानती?

पिल्लोँ सी – युद्ध की औलाद – रण मेँ पालित पोषित,

वीरोँ और नागरोँ की शक्ति को हरती! –

पुरुषोँ की प्यासी, लुभती लुभाती!

तुम्हेँ देख कर लगता है – घिर आया है टिड्डी दल –

छा कर खेतोँ पर – चट करने को हरियाली का एक एक कण.

पराए श्रमोँ को लीलती हो तुम. धरा की संपदा को,

कली कली को, उजाड़ती फिरती हो तुम! क्या हो तुम? –

जो चाहे लूट ले, बाज़ार मेँ बेच दे! मुफ़्त का माल!

हेलेना

कौन है तू – स्वामिनी के सामने यूँ करने वाली दासियोँ का उपहास!

स्वामिनी के अधिकार का ऐसा खुला उद्धत अपहरण अनधिकार!

स्वामिनी को ही शोभता है, जो अच्छा है, करना उस की प्रशंसा,

जो निंदनीय है देना उसे दंड. और फिर – मैँ हूँ पूर्णतः संतुष्ट.

इन्होँ ने की थी मेरी सेवा – निरंतर निर्द्वंद्व. जब ईलियन शत्रु से घिरा था,

भुरभुरा कर जब ढह गई थी ईलियन की शान – और फिर यात्रा काल मेँ,

कठिनाई भरे दिनोँ मेँ, जब सब के सब हो जाते हैँ स्वार्थी, आत्मलीन,

जब गहराते आते हैँ दुःख, ये आई थीँ मेरे काम. और अब यहाँ –

आशा है मुझे हँसुमख दासियोँ का यह दल देगा मेरा साथ.

स्वामी नहीँ पूछते – क्या है, कहाँ का है दास? वे देखते हैँ –

किस काम का है दास. इस लिए तू हो जा मौन,

मत निपोर दाँत. बंद कर खिल्ली बकवास.

स्वामिनी के प्रवास मेँ तेरा काम था कोश की रक्षा. तू ने की,

तो तू है प्रशंसा की पात्र. अब मैँ, स्वामिनी, स्वयं हूँ उपस्थित.

हट जा एक ओर, नहीँ तो पाएगी दंड घनघोर.

फोर्क्यास

सेवकोँ की डाट फटकार – है स्वामिनी का अधिकार –

देवोँ की कृपा से समृद्ध महाराज की सहभागिनी का अधिकार.

वर्षोँ से अर्जित अनुभव और विवेक से सिद्ध है यह अधिकार.

रानी है तू, गृहस्वामिनी है तू, लौट कर आई है धारने अधिकार.

तो ले, सँभाल अपना राजपाट और अधिकार.

ले – कोश को सँभाल, चला हम पर राज.

लेकिन सब से पहले कर मेरी रक्षा – सब मेँ बड़ी हूँ मैँ,

बचा मुझे इन उच्छृंखल दासियोँ के दल से बचा –

तू है हंसिनी, तो ये हैँ पंखहीन लुंजपुंज कर्कश पोटे!

कोरस की नेता

सुंदरता के सामने कितनी कुरूप लगती है कुरूपता!

फोर्क्यास

बुद्धि के सामने कितनी मूरख लगती है मूर्खता!

कोरस की सदस्य १

अपने बाप अंधकार के बारे मेँ बता, माँ रात के बारे मेँ बता!

फोर्क्यास

नौकाघातिनी माँ स्किल्ला शिला की बात भी बता –

एक ही लोथ की बहना और बेटी!

कोरस की सदस्य २

राक्षसोँ का समूह है तेरे वंश का वृक्ष!

फोर्क्यास

जा, ओरकुस पाताल जा! वहीँ मिलेगा तुझे तेरा वंश!

कोरस की सदस्य ३

जो रहते हैँ वहाँ, तेरे से बहुत छोटे हैँ वे!

फोर्क्यास

जा, अंधे बूढ़े ज्योतिषी तीरेसियास को पटा! जादू चला!

कोरस की सदस्य ४

आखेटक ओरियन की धाय थी तेरी लक्कड़ दादी की दादी!

फोर्क्यास

ये हार्पियाँ, लगता है, सब की सब – पलल मेँ पनपीँ सरसीँ!

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कोरस की सदस्य ५

क्या खाती है तू – करने को अपने सुखंडी कंकाल का पोषण?

फोर्क्यास

शवोँ के लहू से तो नहीँ, जिस की प्यासी हो तुम सब!

कोरस की सदस्य ६

तू, और शवोँ की भूखी! तू तो आप ही है घिनौनी कंकाल!

फोर्क्यास

तेरी निर्लज्ज थूथनी मेँ से चमकते हैँ तेरे लहूसने दाँत!

कोरस की नेता

जो बता दिया कौन है तू, तेरी थूथनी हो जाएगी बंद!

फोर्क्यास

तो पहले बोल दे अपना नाम! हो जाएगी पहेली हल.

हेलेना

कोप मेँ नहीँ, खिन्न हूँ मैँ, जो टोकती हूँ मैँ.

बंद करो यह गाली गलौज, झगड़े टंटे!

स्वामी को अच्छे नहीँ लगते – सेवकोँ के मनमुटाव, टंटे.

आदेशोँ से प्रतिगुंजित नहीँ होता पालित कर्म,

गरजते धमकते पलटते लौटते हैँ आदेश, जैसे

स्वामी को घेर ले नभ मेँ चक्रित गुंजित प्रभंजन –

धमकाता पवन को, फैलाता दिग्भ्रम, करता विमूढ़.

इतना ही नहीँ, असभ्य व्यवहार से, परस्पर कोप से

तुम सब ने जगा दिए हैँ वे सब गहन आतंक,

भयावह आकार, मैँ रही हूँ जिन से आक्रांत.

मैँ खड़ी हूँ यहाँ – चिरपरिचित स्वदेश मेँ,

लगता है – भ्रमित सी पाताल मेँ धँसी जा रही हूँ मैँ.

क्या है यह? संचित स्मृतियाँ? कल्पनाएँ जो ग्रस रही हैँ मुझे?

क्या वह सब मैँ थी? अब क्या हूँ मैँ? क्या अब रहूँगी मैँ

मात्र सपना, मात्र आतंक, उन पुरध्वंसी दिनोँ का?

काँप उठीँ बंदी बालाएँ! लेकिन तू – तू ज्‍येष्ठा –

खड़ी है सुस्थिर शांत अनुद्वेलित. बोल, होश के दो शब्द बोल!

फोर्क्यास

जो भी वर्षोँ के आभोगोँ का करता है कातर वर्णन

देवोँ के वरदान उसे सपने से लगते हैँ.

लेकिन तू – तुझ पर तो अतुलित वरदान लदे हैँ.

तू ने जीवन मेँ देखे हैँ – तेरे दर पर भीड़ लगाए रहने वाले

दीवाने – कामी जन – प्रेम वरदान पाने को आतुर रहने वाले –

कुछ भी कर दिखलाने को तत्पर रहने वाले.

बचपन मेँ तेरा दीवाना था वीर थीसियस.

बल मेँ हेराक्लीस समान – काया से सर्वोत्तम.

बचपन मेँ ही तू भाग गई थी उस के साथ!

हेलेना

उठा ले गया – मैँ तन्वंगी हिरनी जैसी

वय मेँ मैँ बस दस की थी, आत्तिका की

आफिदनुस बुर्ज़ी मेँ उस ने मुझ को रक्खा था बंदी.

फोर्क्यास

भाई कास्टर और पौलुक्स छुड़ा लाए थे तुझ को.

पर तेरे दीवानोँ की तो भीड़ लगी थी…

बड़े बड़े गणनायक आतुर फिरते रहते थे.

हेलेना

सच पूछो तो मेरे अंतर्तम ने केवल एक वरा था –

पात्रोकुलुस – पेल्यूस वंशी ही लगता था.

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फोर्क्यास

लेकिन बाप ने ब्याह दिया था तुझ को –

महावीर परिपालक सागरयात्री मेनेलाउस से.

हेलेना

हाँ, तात ने न केवल दुहिता दी, साथ मेँ पूरा राज दिया था.

हमारे विवाह समागम से जनमा था हरमियोन.

फोर्क्यास

फिर भी – जब उस ने बल से जीता था क्रीती द्वीप

तो तेरे एकांत मेँ आ धमका था एक सुंदर मेहमान…

हेलेना

क्योँ दिलाती है याद – वह अर्धवैधव्य

और उस से जो मिला था मुझे – भयानक विध्वंस?

फोर्क्यास

स्वतंत्र थी मैँ, क्रीती मेँ जनमी स्वाधीन नारी.

उसी यात्रा का परिणाम था मेरा बन जाना बंदी

और बन जाना दीर्घकाल तक दासी.

हेलेना

बना कर तुझे परिचारिका तत्काल भेजा था उस ने

डाला था तुझ पर दुर्ग और कोश की रक्षा का भार.

फोर्क्यास

कुछ भी हो, लोग कहते हैँ – तेरे हैँ दो रूप, दो आकार.

तू यहाँ ईलियन मेँ भी है, और है वहाँ मिस्र मेँ भी विद्यमान.

हेलेना

और मत भरमा मेरा दिग्भ्रमित कुहरित मन!

नहीँ कह सकती मैँ – कौन हूँ मैँ अब इस क्षण?

फोर्क्यास

लोग यह भी कहते हैँ – छाया के शून्य प्रदेश मेँ हुआ था

तेरा और अखिलीस का उन्मादपूर्ण घनघोर संगम,

पहले से ही तेरा दीवाना था वह –

नियति के तमाम नियमोँ के विपरीत.

हेलेना

वह माया था, मैँ भी थी माया – माया से मिली थी माया.

स्वप्न था वह – स्वयं शब्द करते हैँ यह ज्ञापन.

मैँ हो रही हूँ यहाँ से विलीन – बनी जा रही हूँ माया.

(अर्धकोरस की बाँहोँ मेँ गिरती है.)

कोरस

शांत! चुप! हो मौन!

देखती है मिथ्या, बोलती है मिथ्या!

तेरे विकराल एकदंती मुख से और निकलेगा भी क्या?

ऐसे घिनौने भयानक कंठ से और फूटेगा भी क्या?

दुष्ट है जो, भला सा दिखता है जो,

भेड़ की खाल मेँ भेड़िया है जो,

मुझ को तो लगता है

वह तीन सिर वाले कुत्ते से ज़्यादा घिनौना.

चिंतित सी, घबराई सी हूँ मैँ

करती हूँ प्रतीक्षा -

कब, क्या, कैसे

और कितना विद्वेष

उगलेगी तू घात मेँ बैठी राक्षसनी.

 

सांत्वना का निकला नहीँ एक बोल

स्मृतिहारक शामक बोली मेँ फूटा नहीँ एक भी बोल.

मन मेँ उकसाती जगाती है

काला कलुषतम कराल काल

जो बीता है कठिन काल.

बुझाती है किरणजो है आज वर्तमान,

बुझाती है आशा जो जगाता है आगामी काल.

 

शांत! चुप! मौन!

रानी का साहस जाने को है.

धीरज धरो, बहनो, सँभालो

आकारोँ मेँ सुंदरतम है यह आकार

सूरज ने चमकाया नहीँ

ऐसा कोई और आकार.

(हेलेना को होश आ गया है. वह फिर से केंद्र मेँ खड़ी होती है.)

फोर्क्यास

झीने झिलमिल वाष्प आवरण मेँ से फिर निकल आया

आज के चमचमाते दिन का दैदीप्यमान सूर्य.

जब छिपा था तो था इतना स्मृतिहारक,

अब ओज से करता है नयनोँ को चमत्कृत.

तेरे लिए ललित है संसार, हमारे लिए ललाम है तू.

थू थू करते हैँ सब मुझ परअसुंदर हूँ मैँ.

क्या है सुंदरपहचानती हूँ मैँ.

हेलेना

शून्य मेँ खो गई थी मैँ. मूर्छित सी डगमगाती उबरती हूँ मैँ.

टूट रहा है अंग प्रत्यंग – बार बार चाहती हूँ करना विश्राम.

यूँ तो सभी को शोभता है धारना धैर्य, रहना शांत.

लेकिन मैँ – मैँ हूँ रानी – उचित है मुझे – मैँ धारूँ धैर्य.

जो भी भोगना है संकट – भोगने को जुटाऊँ साहस संपूर्ण.

फोर्क्यास

अपनी संपूर्ण गरिमा मेँ खड़ी है, सौंदर्य मेँ जड़ी है तू –

कह रही हैँ आँखेँ – तू जनमी है देने को आदेश.

बोल – क्या है तेरा आदेश!

हेलेना

गँवा दिया बहुत समय लड़ाई मेँ झगड़े मेँ –

अब हो जा तत्पर, करना है बहुत कुछ.

जल्दी से बलिमेध की व्यवस्था कर –

राजा ने दिया है मुझे आदेश.

फोर्क्यास

प्रासाद मेँ है सब कुछ प्रस्तुत – भांड, त्रिकुंड, तीक्ष्ण कुठार –

जल कलश करने को प्रक्षालन. बता – कौन है बलि का पात्र?

हेलेना

राजा ने नहीँ बताया है यह.

फोर्क्यास

                                नहीँ बताया? हा शोक!

हेलेना

क्योँ? क्या है तुझे शोक?

फोर्क्यास

                                रानी, बलि है तू!

हेलेना

मैँ?

फोर्क्यास

    और ये सब.

कोरस

                    हा, शोक, महाशोक!

फोर्क्यास

तेरी गरदन पर गिरेगा कुठार.

हेलेना

दारुण! भयानक! पहले से बताया जा चुका है यह. मैँ! शोक!

फोर्क्यास

दिखता नहीँ कोई बचाव.

कोरस

                                क्या होगा हमारा?

फोर्क्यास

उस को मिलेगी मृत्यु महान. लेकिन तुम?

देखती हो वह ऊँचा स्तंभ – जिस पर टिका है वह दीर्घ स्थूण –

जिस पर टिकी है छत, उस पर, जैसे लटकाए जाते हैँ तकले,

लटकोगी तुम – एक के बाद एक तड़पोगी छटपटाओगी तुम.

(हेलेना और कोरस की सभी सदस्‍य विस्मित और चिंतित हो कर सुनियोजित समूहोँ मेँ स्‍तंभित से खड़े हो जाते हैँ.)

फोर्क्यास

तुम छायाओ! स्तब्ध मूरतोँ सी खड़ी हो तुम.

उस दिन से बिछुड़ने पर डरी हो तुम, जो तुम्हारा नहीँ है.

मानव, हर जाति के वंश के मानव, सब के सब

आसानी से नहीँ त्यागते सूर्य की किरणोँ का जाल.

लेकिन जो होना है अंत, कोई भी कर नहीँ सकता बचाव,

कहीँ भी कैसा भी नहीँ हो सकता उस से निस्तार.

सब को पता है, सब जानते हैँ यह, फिर भी बिरले हैँ लोग

जिन को प्रियकर है यह अवश्यंभावी अंत. बस, बहुत हो चुका,

मरोगे तुम सब. अब तत्परता से करना है काम!

(ताली बजाती है. दुर्गद्वार से दस्‍ताने पहने बौने प्रकट होते हैँ. वे सब तत्काल चुस्ती से आदेशोँ का पालन करते हैँ.)

इधर, ओ मरियल, गोलमटोल राक्षस दल!

लुढ़कते पुढ़कते इघर आओ! जैसे चाहो जो बिगाड़ो!

लाओ, स्वर्णशृंगी जंगम वेदी उठा लाओ, लगाओ.

यह कुठार – यह रख दो वहाँ – जहाँ है रजत कगार.

कलशोँ मेँ भर दो पावन जल. काम आएगा –

धोने होँगे गहरे काले लहू के धब्बे.

यहाँ इधर माटी पर बिछा दो मूल्यवान क़ालीन.

इसी पर घुटनो झुकेगी – राजसी है बलि,

फिर लपेट दी जाएगी तहोँ मेँ – कट चुका होगा शीश,

पूरा आदर सम्मान पाएगी द्रोणी मेँ!

कोरस की नेता

खड़ी है रानी – विचारोँ मेँ मग्न – हमारे पास.

बालाएँ हो रही हैँ म्लान – जैसे देर से कटी घास.

मैँ समझती हूँ – मैँ, जो हूँ सब से ज्येष्ठ – मेरा कर्तव्य है –

मैँ करूँ तुझ से बात – तू – आदिम पुरखिन, सब की जेठी.

अनुभवी है तू, समझदार है तू, तू है ना हमारे साथ.

बच्चियाँ हैँ नासमझ, मूर्ख! भूल से करती रहीँ गाली गुफ़्तार.

बता तो, जो तुझे कुछ पता है – है कोई बचाव?

फोर्क्यास

हाँ है – बेहद आसान. रानी पर, बस रानी पर निर्भर है सब.

वह अपनी और तुम सब दुमछल्लोँ की बचा सकती है जान.

बस चाहिए संकल्प और निर्णय – अविलंब तत्काल.

कोरस

भाग्याओँ मेँ सब से गुणसंपन्न, परम आदरणीय है तू,

भविष्य वक्ता सिबिलोँ मेँ सब से ज्ञानी और बुद्धिमान है तू.

बचा ले हमेँ – सुनहरे सिट्टोँ को खोल, कर दे घोषित हमारा दिन.

अभी से होने लगी है हमेँ – लटकन की सिहरन, झूलन, तड़पन.

हमारे अंग बने हैँ नाच गान के लिए

प्रेमी के वक्ष पर विश्राम के लिए.

हेलेना

होने दो इन्हेँ कातर डरपोक भयभीत! मैँ?

पीड़ा तो है, भयभीत नहीँ हूँ मैँ.

पर, जो तुझ को पता हो – कैसे बच सकती है जान –

तो होगा मुझे साभार स्वीकार्य!

सजग बुद्धिपूर्ण दूरदर्शी मस्तिष्क वालोँ को होता है ज्ञान

वे साध सकते हैँ वह – जो लगता है असाध्य.

बोल, कह!

कोरस

    बोल! बता जल्दी – कैसे बचेगी हमारी जान –

दारुण से, भयानक से, गले मेँ फँसते फंदे से – जो कंठहार

पड़ने वाला है जो हमारे कोमल कंठ पर.

अभी से लगता है – घुट रहा है दम. तड़प रही हैँ हम.

तू है देवोँ की माता स्वयं री. दया कर! दया कर दे हम पर!

फोर्क्यास

बहुत बोलती हो तुम – चटर पटर -

कुछ देर रहोगी चुप? सुनोगी?

लंबी है बात – ढेरोँ हैँ कहानियाँ…

कोरस

                    हाँ, हाँ, है धीरज भरपूर.

जीवित रहेँगी हम – जब तक चलती हैँ तेरी कहानियाँ.

फोर्क्यास

जो भी करने को अपने माल की रक्षा रहता है घर पर,

ऊँचे मकान मेँ करता रहता है टीपटाप, छेद करता है बंद,

करता है श्रम, बरसती बूँदोँ से बचाता है छत –

उस के साथ जीवन भर सब रहता है ठीक और चंगा – निर्द्वंद्व.

लेकिन जो छोड़ जाता है घर की अनगढ़ पावन देहरी,

फिरता है दर दर इधर से उधर, जब लौटता है उधर से इधर

तो पाता है पुराना घर – पूरी तरह क्षत विक्षत न सही,

तो भी सब कुछ परिवर्तित, उलटा पुलटा, तितर बितर.

हेलेना

क्योँ बेमतलब दोहराती है ऐसी जानी मानी कहनावत?

जो कहना है कह, मत छेड़ कहानियाँ कड़वी और अरोचक.

फोर्क्यास

जो कहा मैँ ने – नहीँ थी निंदा, कहा था इतिहास का सत्य.

इस सागर कुल्या से उस तक मेनेलाउस – बन कर जलंजय!

द्वीपोँ को, तटोँ को, जीतता लूटता – बनता रहा धनंजय –

सारी लूट खसोट – सड़ रही है इन ऊँची दीवारोँ के पीछे!

फिर पूरे लंबे दस साल बिता दिए ईलियन के आगे.

मैँ हूँ अनजान – जो कभी पलटा हो घर –

और अब – तू खड़ी है टिंडारुस की ऊँची हवेली के बाहर –

तो क्या है समाचार? क्या है आस पड़ोस के क्षेत्र का हाल?

हेलेना

क्या तुझ मेँ साकार निंदा ने लिया है अवतार?

जब भी हिलाती है होँठ – करती है निंदा की बौछार!

फोर्क्यास

बरसोँ से अरक्षित रहा सारा पर्वतीय क्षेत्र, सब घाटियाँ –

उधर स्पार्टा के उस ओर उत्तर मेँ तेयगेतुस के पीछे –

वहाँ जहाँ से निकलती है स्रोते सी उछलती यूरोटा की धार,

ढलानोँ पर फिसलती बहती, हमारे मैदानोँ को आती,

वेत्रकूलोँ मेँ चौड़ी हो मंथर चलती, तेरे हंसोँ को पालती.

वहाँ, उधर पर्वतोँ मेँ, हरी भरी उपत्यकाओँ और द्रोणियोँ मेँ

किमेरियाई निशा से निकल कर आ बसी है एक वीर जाति.

उन्होँ ने बना लिया है एक दुर्गम अभेद्य दुर्ग.

मनचाहे वे निकलते हैँ – मचाते हैँ उत्पात, करते हैँ धमाल.

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हेलेना

सच? लगता है असंभव.

फोर्क्यास

पूरा समय था उन के पास. लगभग बीस साल.

हेलेना

है उन का कोई एक सरदार? या लुटेरोँ के हैँ कई दल?

फोर्क्यास

लुटेरे तो नहीँ हैँ वे! हाँ, कई सरदारोँ का है एक सरदार.

मुझ पर भी टूट पड़ा था वह! पर उस की निंदा? मैँ नहीँ सकती कर.

ले सकता था वह सब कुछ, बस, रह गया कुछ उपहारले कर.

उस का कहना था – यह है बस निश्शुल्क उपहार – नहीँ है कर.

हेलेना

कैसा लगता था वह?

फोर्क्यास

         बुरा तो नहीँ था वह. अच्छा ही था –

हँसमुख, वीर, साहसी, हिम्मत वाला. उस का आकार –

नायकोँ जैसा, उदात्त, बुद्धिमान. ग्रीकोँ मेँ नहीँ हैँ उस जैसे वीर.

ग्रीक कहते हैँ उन्हेँ बर्बर. सहमत नहीँ हूँ मैँ.

पूछती हूँ मैँ – हो सकता है कोई ग्रीकोँ जैसा क्रूर और बर्बर?

नरभिक्षयोँ से कम नहीँ थे ईलियन के कई वीर.

उस मेँ महानता थी, करती थी मैँ उस का आदर.

भरोसा था मुझे उस पर. और – उस का दुर्ग!

देखने जोगा है, बस, अपनी आँखोँ! अति सुंदर.

तुम्हारे पुरखोँ ने जो खड़े किए थे ढाँचे – आकार –

क्या हैँ – बस, गिरते पड़ते पत्थर.

अनगढ़ विशाल पत्थर – टिके हैँ एक एक के ऊपर.

लेकिन वहाँ – ? वहाँ हैँ सुगढ़, संतुलित, सुसज्जित पत्थर –

वास्तुकला के नियमोँ से सुनिर्मित है एक एक प्राचीर.

बाहर से देखो – आकाश को छूते सुदृढ़ पत्थर

रखे हैँ – पूरी तरह जोड़ कर, छिद्रहीन, एक से एक सटा कर.

चिकने तो ऐसे – दमकता इस्पात हो जैसे.

उन पर चढ़ना – असंभव! – विचार तक गिर जाएगा फिसल कर!

क्या है प्राचीरोँ के भीतर? – बड़े बड़े आँगन,

उन के चारोँ ओर हैँ भाँति भाँति के भव्य आगार –

स्तंभ, स्थूण, मिहिरावली, अलिंद, गवाक्ष, प्रकोष्ठ,

कलश, वातायन, झरोखे, लाट, गोपुर, द्वार.

उन पर अंकित हैँ सैनिक चिह्न प्रतीक.

हेलेना

कैसे हैँ उन के सैन्य प्रतीक?

फोर्क्यास

तू ने तो देखा था अजाक्ष की ढाल पर सर्पिल नाग.

थीबीस से पहले सप्तवीरोँ के भी थे अपने अपने चिह्न.

सब मेँ निहित थे गहन प्रतीक.

निशीथ के आकाश के चंद्र और नक्षत्र,

देवियाँ, देवता, नायक, सोपान, मशाल, खड्ग, करवाल,

और भी वह सब जिस से आतंकित होते हैँ नगर पुर.

बहुरंगी, दमदमाते, पूर्वजोँ से परंपरागत प्राप्त –

ऐसे ही प्रतीक धारते थे हमारे महावीर भट.

वहाँ दिखाई देते हैँ – सिंह, गरुड़, कंक, पंजे, चोँच,

पंखदार मेषशृंग, मोरपंख,

पट्टियाँ – सुनहरी, काली, रुपहली, नीली, लाल.

दालानोँ मेँ लटके हैँ इन के जैसे चिह्न अपार.

और दालान इतने बड़े – एक एक मेँ सिमट जाए पूरा संसार.

आ जाए आनंद – जो वहाँ पाओ नाच!

कोरस

बता तो – नर्तक भी हैँ वहाँ?

फोर्क्यास

                                हाँ, बेजोड़, सर्वोत्तम!

स्वर्णकेशी किशोरोँ के दल के दल – यौवनगंधित हैँ उन के श्वास.

रानी के निकट जब आया था पैरिस तो जैसा था उस का श्वास.

हेलेना

फिर भूल गई! बताने निकली थी क्या!

कह, काम की बात – कहनी थी क्या!

फोर्क्यास

वह तो कहेगी तू – सोच विचार सुस्पष्ट कह दे – हाँ!

दुर्ग से घेर दूँगी मैँ – तुझे – तत्काल.

कोरस

                                            रानी, कह दे – हाँ!

कह दे यह शब्द छोटा सा, सब से अच्छा.

जान अपनी और हमारी ले बचा!

हेलेना

क्या! मैँ डरती हूँ क्या? – राजा मेनेलाउस

मानवता त्याग – करेगा मुझ पर – मुझ पर? – प्रहार.

फोर्क्यास

जब गिर गया था पैरिस – भूल गई क्या -

राजा ने उस के भाई – तेरे देईफीबस का किया था क्या?

मृत पैरिस की विधवा थी तू –

देईफीबस ने जताया था अधिकार –

उस की सहचरी बन गई थी तू –

कैसे किया गया था वह क्षत विक्षत – भूल गई क्या?

कैसे हुआ था उस का अंगविकार!

काट डाले गए थे नाक कान, तोड़ डाले गए थे अंग प्रत्यंग!

हेलेना

हाँ, वह तो उस ने किया था – उस के साथ!

मेरे लिए किया गया था – वह सब.

फोर्क्यास

और अब उस के लिए करेगा तेरे साथ वह – यह सब!

रूप है अखंड. वह चाहता है तुझे अविभाजित अखंड –

मार डालेगा – नहीँ भोगेगा तुझे विभाजित सखंड.

(दूर से तुरही नाद. कोरस बालाएँ भयभीत हो उठती हैँ.)

बज रहा है तूर्य! सुनती है तू –

घनघोर नाद – फोड़ता कान, कँपाता,

अँतड़ियोँ को हिलाता!

ऐसे ही ईर्षा छेद देती है मर्द का कलेजा –

भूलता नहीँ वह – जो कभी थी उस की

और रह चुकी है पराई.

कोरस

सुनती नहीँ क्या घनघोर तूर्यनाद?

दिखती नहीँ आते खड्गोँ की कौँधती लपलपाती धार?

फोर्क्यास

स्वागत है राजा! आओ, मैँ करूँगी आप का स्वागत सत्कार.

कोरस

क्या होगा हमारा?

फोर्क्यास

पूरी तरह जानती हो तुम! हाँ, पहले देखोगी रानी की मौत.

नहीँ है कोई बचाव – फिर, फिर – आएगी तुम्हारी मौत…

(मौन.)

हेलेना

उस से पहले क्या करना है मुझे – धार चुकी हूँ मैँ.

जानती हैँ मैँ – तू – तू है बैरन राक्षसनी – तू.

पूरी तरह समझती हूँ मैँ – शुभ को अशुभ कर सकती है तू.

लेकिन पहले – तेरे साथ उस दुर्ग जाऊँगी मैँ.

क्या करना है तत्पश्चात – जानती हूँ मैँ –

रानी के गहनतम मन मेँ है गुप्त, रहेगा प्रच्‍छन्न.

चल, बुढ़िया – ले चल!

कोरस

जल्दी, जल्दी

हर्षित मन हम चल दीँ.

पीछे पीछे है मौत

सामनेआगे

गढ़दुर्गम दीवारोँ वाला

गढ़उँची मीनारोँ वाला.

वह रक्षा करे हमारी

गढ़ईलियन जैसा

उस का पतन हुआ था

वह घरती मेँ लोटा था

जब खेल कुटिल खेला था.

(वाष्‍पित तुषार कण फैलते हैँ. इच्छानुसार पृष्‍ठभूमि और अग्रभूमि को व्याप्‍त करते हटते पसरते रहते हैँ.)

क्या हैयह कैसे?

देखो, बहनो, देखो!

था कितना सुंदर दिन?

तुषार दल घिरता अब कैसे

उठता यूरोटा के पावन जल से.

हो गई विलीन जल धारा

वेत्रवान तट है अब ओझल.

स्वच्छंद विचरते हंसा दल उज्ज्वल

गौरव से तिरते फिरतेहैँ अब ओझल

जलक्रीड़ा से हर्षित फुल्लित

अब नज़रोँ से ओझल.

 

अब भीअब भी

आता है कर्कर रव

कैसा दूरी से उन का क्रंदन!

मृत्युकंपित, करुणाकंपायक क्रंदन!

हम को यह रक्षा का आश्वासन

विनाश का ना बन बैठे कुत्सित उद्घोषण!

श्वेतकंठिनी हंसग्रीवा हम,

हंसगामिनी सुंदर बाला हम,

और हमारी हंसवंशिनी हंसा रानी.

हा, हा, शोक! हम! हा हम!

 

सब कुछ ओझल

चारोँ ओर सघन तुषार, मेघमाला घन.

आपस मेँ देख नहीँ पातीँ हम!

क्या है? क्या होता है? क्या चलती हैँ हम?

वहीँ वहीँ मँडराती सी हैँ हम

धरती पर पग धरती चलती सी हैँ हम.

कुछ भी देख नहीँ पातीँना उड़ती हैँ हम.

क्या है सम्मुख? क्या हरमीस नहीँ चमकाता छड़ स्वर्णिम

धमकाता सा, हमेँ ठेलता पीछे

नीचे, हर्षहीन झुटपुट काले मेँ.

आकारहीन आकारोँ से परिपूरित

क्या पाताल यहशून्य सघन?

 

अचानक अवसादित हो गया पवन, प्रकाशहीन वाष्प है विलीन,

जैसे हो गहन श्यामल, धूसर भवन. हमारे सामने है प्राचीर.

स्पष्ट हैँ नयन – शून्य है गहन.

क्या है यह? कुल्या, गर्त, आँगन?

जो भी है – है भयावह! बहनो, देखो – बंदी हैँ हम –

बंदी हैँ हम – कभी नहीँ थीँ इतनी बंदी हम!

(एक दुर्ग का आँगन. चारोँ ओर मध्यकालीन विलक्षण और ऊँची ऊँची इमारतेँ हैँ.)

कोरस की नेता

तुम हो – सब की सब – मूर्ख, हड़बड़िया बाला!

पल मेँ तौला, पल मेँ माशा! पल मेँ उड़तीँ, पल मेँ घबरातीँ!

धीरज से हीन! अशांत! बावली!

एक दूसरे की बात काटतीँ, हर पल लड़तीँ और झगड़तीँ.

दुःख हो, सुख हो – शोर मचातीँ रोतीँ हँसतीँ!

चुप रहो! देखो! सुनो! धीर गंभीर है रानी -

देखो – अब क्या कहती करती है रानी!

हेलेना

कहाँ गई तू – नागन? जो भी हो तेरा नाम –

निकल – गढ़ी के अँधेरे कोठरोँ से निकल, बाहर आ!

हाँ, जो तू गई है दुर्ग के विलक्षण राजा को बताने –

आ गई हूँ मैँ – मेरे समुचित स्वागत को उसे बुलाने,

तो कर स्वीकार धन्यवाद, मुझे ले चल उस के पास!

अब बंद हो मेरा यह पैरोँ का चक्कर! थकी हूँ मैँ, चाहती हूँ विश्राम.

कोरस की नेता

व्यर्थ है, रानी, देखना चारोँ ओर, करना उस की प्रतीक्षा यहाँ.

वह भयावनी मूरत हो चुकी है विलीन, शायद रह गई वहाँ –

कोहरे मेँ धुंध मेँ. धुंध के वक्ष मेँ थीँ हम –

जाने कैसे – रखा नहीँ एक पग – जाने कैसे यहाँ आ गईँ हम.

शायद खो गईँ है दुर्ग के गलियारोँ मेँ, भूलभुलैयाँ मेँ –

दुर्ग क्या है – लगता है कई दुर्ग जादू से जुड़ गए हैँ एक साथ –

गई होगी खोजने दुर्गेश को – करवाने हमारा भव्य स्वागत,

खो गई होगी, भटक रही होगी अँधेरे गलियारोँ मेँ.

देखिए तो – वहाँ उधर तत्पर बढ़ी आ रही है भीड़,

गलियारोँ मेँ, गवाक्षों मेँ, फाटकोँ से सेवकोँ की भीड़,

जल्दी से, फुरती से, करने को गौरवमय अतिथि का स्वागत.

कोरस

अब मिला कुछ ढारस! मन है शांत. देख उधर –

बाँध कर पाँत, धरते धीमे धीमे संयत पग

किशोरोँ का दल आता है गति है धीर गंभीर.

कौन है जिस ने दिया है आदेश –

कौन है ये पालते हैँ जिस का आदेश –

सुंदरतम जाति के ये सुंदरतम किशोर –

शील स्वभाव, सैन्य विन्‍यास, धारे सुंदरतम वेश?

सराहेँ क्या क्या? चाल है सुकोमल,

घुँघराले हैँ केश, मस्तक है गौर,

उन्नत हैँ कपोल – आरुक से अरुणिम

वैसे ही रेशमी कोमल हैँ श्मश्रु रोम.

मन करता है – काट लूँ, चबा लूँ गाल! लगता है डर –

एक बार ऐसे ही मुँह मेँ गई थी राख भर.

 

आते हैँ आते हैँ

वे सुंदरतम किशोर

लाते हैँ लाते हैँ

क्या लाते हैँ किशोर…

सिंहासन के सोपान

बिछावन क़ालीन

परदे तंबू वितान

आते हैँ आते हैँ

मँडराते चक्कर लगाते किशोर…

पूर दिए रानी के शीश पर

मेघोँ से पुष्पोँ के हार

स्वागत करते बुलाते

आते हैँ किशोर…

बढ़ती है चढ़ती है

सुंदर आसन पर होती है रानी आसीन

आओ, बहनो, चलो

पग साधो बढ़ो, आओ

रानी के जोगा है स्वागत

त्रिगुणमंडित है रानी

शुभ होसुंदर है स्वागत.

(कोरस द्वारा वर्णित कार्यकलाप मंच पर घटित होता रहता है. किशोर दल की लंबी शोभायात्रा सीढ़ियोँ से उतर जाती है. सोपान की उच्चतम सीढ़ी पर फ़ाउस्ट आता है. उस ने मध्यकालीन राजसी परिधान पहन रखे हैँ. धीर गंभीर संयत पग धरता नीचे उतरता है.)

कोरस की नेता (उसे ध्यान से देखते हुए – )

यदि देवताओँ से माँग नहीँ लाया है कुछ देर के लिए उधार –

कभी कभी देवता कर बैठते हैँ मानव पर ऐसे उपकार -

तो यह जन – वीरोचित, परात्पर है इस की काया,

मनभावन है चाल ढाल, धीर उदात्त, उन्नतग्रीव, उन्नतभाल –

मार लेगा मैदान – रण मेँ रमण मेँ – घमासान.

सैकड़ोँ देखे हैँ मैँ ने नरपुंगव – इस के कंठ पड़ेगी मेरी वरमाल.

धीर गंभीर पग धरता, संयत सुशील समन्‍वित अभिमानी

आता है सपनोँ का राजकुमार – मुँह मोड़ – लख, रानी.

फ़ाउस्ट (आ रहा है – पार्श्व मेँ है ज़ंजीरोँ मेँ जकड़ा बंदी.)

उचित था – तेरा हो महिमामय अभिनंदन, स्वागत हो सादर –

लेकिन मैँ लाया हूँ तेरे सामने यह – यह शठ कामचोर मट्ठर.

इस ने किया है घोर अपराध – कर्तव्य का अपालन.

मैँ नहीँ कर पाया निज कर्तव्य का पालन – इसी के कारण.

रे अपराधी, झुक, झुका मस्तक. यह देवी महान

सुनेँगी तुझ से तेरे अपराध का ज्ञापन.

सम्राज्ञी, इस सेवक का काम है रखवाली,

मीनार पर चढ़ कर – रखना ध्यान, करना पर्यवेक्षण,

तीक्ष्ण दृष्टि से देखते रहना चतुर्दिक् गगन,

धरती विशाल – इधर या उधर, यहाँ या वहाँ,

गढ़ से उधर पर्वत शिखरोँ के बीच

हलका सा हो खटका, स्पंदन, दर्शन,

लहरोँ से रेवड़, सेना के लहराते दस्ते,

हमारे रक्षित जन, पाएँ हम से रक्षण.

आज – कैसा प्रमाद! हुआ तेरा पदार्पण -

नहीँ चेताया हमेँ इस ने – नहीँ किया ज्ञापन.

इसी लिए हम से हो गई चूक – नहीँ कर पाए हम

परम सम्मानित अभ्यागत का स्वागत.

इस ने खो दिया है जीवन का अधिकार –

अभी तक हो जाना चाहिए था इस का अंत.

अब तू – केवल तू – ही, जैसा हो मन का विचार,

कर सकती है क्षमादान या दे सकती है दंड.

हेलेना

तू ने दिया है मुझे सर्वोच्च अधिकार –

एक साथ बना दिया स्वामिनी और दे दिया न्यायाधिकार.

यद्यपि लगता है ऐसा (यही कहता भी है मन)

मानो हो रहा है स्वयं मेरा परीक्षण –

फिर भी करती हूँ स्वीकार – न्यायाधीश का अधिकार.

मैँ अपराधी को देती हूँ अपने बचाव का अवसर.

बोल, क्या कहता है तू?

लिंसियस – मीनार का पहरेदार

करने दो नमन, देवी के दर्शन,

मिले जीवन या हो मरण,

प्रभु का प्रसाद हैँ देवी.

दास हूँ मैँकरता हूँ नमन.

 

पूरब की ओर थी प्रभात की कोर

जमी थी निगाहेँ पूरब की ओर

सहसा ही देखाअनोखा अजूबा

निकला था सूरजदक्षिण की ओर!

 

अजूबा अनोखानिगाहेँ बँधी थीँ

ना पर्वत की चोटीना घाटी कहीँ थी

ना तो गगन थाना धरती कहीँ थी

नयनोँ मेँ मेरेदेवी, तुम्हीँ थीँ.

 

मेरी निगाहेँ हैँ पैनी विडाली

चढ़तीँ हैँ ऊपरजो ऊँची हो डाली.

बहुत मैँ ने बरजा, निगाहोँ को टोका

सपने की माया मगर शक्तिशाली.

 

जान पाता मैँ कैसे, समझता मैँ कैसे

दुर्ग का जंदराबंद करता मैँ कैसे?

कोहरा घिरा थाकोहरा उठा तो

आ गईँ आप, देवी, न जाने किधर से!

 

न वश मेँ नयन थे, न वश मेँ हृदय था,

था माया के वश मेँ जो मेरा हृदय था,

रूपराशि से जगमग यह सारा जगत था,

नयन कौँधते थेना कुछ दीखता था.

 

कारण यही थामैँ भूला निभाना

मुझे चाहिए थातुरही बजाना

अंतिम समय हैहै परलोक जाना

दया की है देवीहै कहता ज़माना

 

कोप पर रूप का राज चलता रहा है

तू है रूपरानी, हृदय मेँ दया है

हृदय कह रहा है, हृदय कह रहा है…

हेलेना

जहाँ जाती हूँ मैँ – साथ चलता है अशुभ अकल्याण –

करूँ भर्त्सना निंदा – अब शेष नहीँ है मुझ मेँ औसान.

शोक, महाशोक, नियति है कठोर, साथ साथ चलती –

मर्दोँ के मन मेँ तृष्णा जगाती, क्रूर विकराल हिंसा कराती.

मर्द छोड़ते नहीँ किसी को, करते नहीँ किसी को क्षमा प्रदान.

मुझ को लुभाते, छलते, औरोँ के लूटते फिरते, मरते, मारते,

नायक, महानायक, देवता, उपदेवता, राक्षस, दैत्य,

वंचित प्रवंचित दिग्भ्रमित से – रहे हैँ मुझे यहाँ से वहाँ भगाते.

मैँ अकेली – संसार को भरमाती,

दुगुना, तिगुना, चौगुना भरमाती,

दुःख पर दुःख फैलाती.

उन्मुक्त कर दो इसे, निरपराध है यह.

जिसे भगवान ने भरमाया, वह दंड का नहीँ है अधिकारी.

फ़ाउस्ट

विस्मित हूँ मैँ, रानी. आश्चर्य है भारी –

दिखते हैँ एक साथ – शिकार और धनुर्धारी.

दिखती है कमान जिस से निकला था तीर

और साथ साथ दिखता है तीर का शिकार.

चल रहे हैँ तीर पर तीर, मुझ पर हो रहा है वार पर वार.

लगता है चला रहा है तीर हर आँगन, हर मीनार.

क्या हूँ मैँ? विद्रोही बना दिए अचानक तू ने पहरेदार,

मेरे सब सेवक – मेरे घनिष्ठ घनघोर निष्ठावान.

अब सुरक्षित नहीँ लगती मुझे एक भी प्राचीर.

ओ विजयी अविजेय रानी –

भय है – मेरी सेना भी न हो जाए तेरी दास,

अब क्या है शेष? अच्छा है – मैँ भी कर दूँ अब समर्पण –

अपना आपा और वह सब – जो मैँ समझता था अपना.

ले, तेरे चरणोँ मेँ अवनत हूँ मैँ. मन मेँ है सच्चा दास भाव.

मानता हूँ मैँ तुझे राजरानी. क्या था तेरा आना? –

सत्ता पर, सिंहासन पर, तेरा अधिकार जम जाना!

लिंसियस (भारी मंजूषा लिए आता है, उस के पीछे अन्य सेवक मंजूषाएँ लिए आ रहे हैँ.)

रानी, बंधनहीन हुआ मैँसेवा मेँ आया.

धन वैभव संपद से पूरित मणिमंजूषा लाया.

जब से तुझ को देखा, मैँ ने निज को पाया

निर्धन भिखमंगे सावैभवशाली राजा सा.

 

क्या था मैँ!हूँ मैँ अब क्या?

हूँगा कल मैँ क्या? – है मेरी क्षमता क्या?

पैनी निगाह हो कितनीलाभ उस का है क्या

लौटे जो तेरे सुंदर सिंहासन से टकरा.

 

आए, हम पूरब से आए

पच्छिम का राज मिटाते आए.

दल बादल से हम छाए

ओर छोर ना कोई पाए.

 

एक गिरे, दूजा बढ़ जाए,

तीजे का नेजा बढ़ता आए.

एक एक सौ का बल पाए,

नामहीन सौ सौ मरते जाएँ.

 

आँधी जैसे चढ़ते आते,

ठाँव ठाँव हथियाते आते.

आज जहाँ का मैँ राजा हूँ,

कल नए चोर अधिकार जमाते.

 

जल्दी मेँ हम ने धरती देखी,

कौली भर ली जो सुंदर देखी.

बाड़ोँ से हम ने बैल उठाए

घोड़े दौड़ाते जल्दी जल्दी.

 

मन मेरा सब से हट कर था

जो दुर्लभ थावह प्रियकर था.

जो सब को अच्छा लगता था -

मरी घास सा मुझ को दुःखकर था.

 

मेरी चाहत थी बड़े ख़ज़ाने

सब पैनी नज़रोँ ने पहचाने.

हर थैली मेँ मैँ ने झाँका

शीशे जैसे थे काठ ख़ज़ाने.

 

जमा हो गया ढेरोँ सोना

नग मणि का अंबार सलोना

पन्ने फ़ीरोज़े गहरे हरियाले -

साजे तेरे उर की शोभा होना.

 

अधरोँ कानोँ के बीच लहरते

अंडे से मोती मोहक लगते…

माणिक का साहस हो कैसे?

अरुण कपोल जो फीके कर दे!

 

मेरे जीवन का जो भी अर्जित है

तेरे श्रीचरणोँ मेँ अर्पित है.

ले, सब कोश तुझे अर्पित है

लड़ कर जो मैँ ने किया विजित है.

 

मैँ लाया हूँ केवल कुछ पेटी,

हैँ और बहुत लोहे की पेटी.

दे, मुझ को शुभ अवसर दे,

कोशोँ से भर दूँ पेटी पर पेटी.

 

जिस पल तू ने मंच धरा पग,

झुक कर जीत लिया सारा जग.

राज रूप का फैला तत्क्षण

धन, बुद्धि, सत्तासब डगमग.

 

जो कुछ था जीवन मेँ मेरा,

अब निर्बंध हुआ वह तेरा.

मैँ जिस को अकूत समझा था

था मूल्यहीनपाया जब दर्शन तेरा.

 

जो मेरा थाअब जाता है,

मरी घास सा सब उड़ता है.

सुंदर दिव्य मिले जो चितवन -

सारा मोल चुका जाता है.

फ़ाउस्ट

जल्दी से हटा दे यह सब, साहस से जीता है जो सब –

दंडनीय अपराध नहीँ है तो पुरस्कार के जोगा भी नहीँ है.

दुर्ग मेँ जो भी है जिस का भी है – वह सब रानी का है.

बेकार है सौँपना अलग से उपहार.

जा, चिन चिन कर लगा दे संपदा के अंबार!

होने दे प्रदर्शित वैभवोँ के अनंत कोश – अनदेखे अपार!

ऊँचे भवन जगमगा जाएँ – जैसे निरभ्र नक्षत्र आकाश!

जीवन की निर्जीव संपद से सज्‍जित हो सजीव निसर्ग!

चले तो डगोँ के नीचे बिछ जाएँ पुष्पित क़ालीन!

कोमलतम पदाश्रय बन जाएँ चरणोँ का आधार!

इस की दीठ निश्शंक देवता ही सकते हैँ धार –

वही दीठ देखे संसार का सर्वोच्च गौरव – वैभव दैदीप्यमान.

लिंसियस

सहज है स्वामी का आदेश

सेवकोँ के वास्ते पूर्णतः श्रमहीन.

संपदा पर, लहू पर, हर श्वास पर

रूप की रानी का राज है अनश्वर.

देखिए – दब गई आप की दबंग सेना.

निस्तेज है तलवार का तेज.

तेजस्वी मुखमंडल के सम्मुख सूर्यमंडल है निस्तेज.

मुखश्री के सम्मुख सूना है सबश्रीहीन.

हेलेना (फ़ाउस्ट से – )

अच्छा लगेगा तुझ से संवाद. आ मेरे पास, आ.

यहाँ बैठ – मेरे पास. स्वामी को निमंत्रण देता है रिक्त स्थान.

, मेरे पास बैठ. आ – सुरक्षित कर मेरा भी स्थान.

फ़ाउस्ट

प्रथम तो स्वीकार हो दास का सादर नमन.

देवी, हो स्वीकार अब इस हाथ पर चुंबन

जो दास को देता है आदेशपूर्ण आमंत्रण.

दूर तक फैला है तेरा राज्य – सीमा है अंतहीन.

इस विशाल राज्य के सहशासक पद पर

इस प्रकार कर दे मेरा संस्थापन –

यूँ जीत ले एक साथ – रक्षक और सेवक

जो नित करेगा तेरा पूजन अर्चन.

हेलेना

देखती सुनती हूँ आश्चर्य अनेक,

विस्मय से अचंभित हूँ – मन मेँ प्रश्न हैँ अनेक.

बता तो – कैसे बोल रहा था वह जन –

विचित्र थी बोली – सौमनस्य से संसिक्त.

ध्वनि से निस्सृत सी थी ध्वनि –

घोलती कानोँ मेँ रस,

पहली ध्वनि को सहलाती सी बरबस.

फ़ाउस्ट

हमारे संवाद मेँ आता है तुझे रस

तो हमारा संगीत कर देगा सराबोर –

कान और मन मेँ मिश्री देगा घोल.

अच्छा है अभी करेँ हम संवाद –

इस संवाद शैली मेँ है सम्मोह…

हेलेना

सिखा सकता है मुझे सुंदर संवाद शैली?

फ़ाउस्ट

आसान है यह – यदि हृदय हो कथ्य का स्रोत.

जब चाहतोँ से मन भरा हो

तो पूछते हैँ पलट कर –

हेलेना

                         तुम मेरे क्या हो?

फ़ाउस्ट

न भूत की न भविष्य की छाया है इस पल

वर्तमान, बस वर्तमान –

हेलेना

                                 है आनंद का पल.

फ़ाउस्ट

सब हैँ वर्तमान – लाभ, सौगंध, भाग्य -

क्या है इस पल का प्रतिफल –

हेलेना

                                मेरा सौभाग्य.

कोरस

कौन मानेगा बुरारानी हमारी

घुल मिल रही है दुर्गेश के संग,

डाल रही है मित्रतापूर्ण बंधन.

तभी से बंदी हैँ हम सब की सब -

और बंदी बनती रही हैँ अकसर

हुआ था जब ईलियन का पतन.

कलंकित तभी से हुई थीँ हम -

त्रासक भयानक पथोँ मेँ भटकी हैँ हम.

 

जो बन जाती हैँ बहुभोग्या

खो देती हैँ चयन की योग्यता

पूरी प्रगल्भा होती हैँ वे

मिले स्वर्णकेशी गड़रिया,

मिले खरखराता झबरीला फाउना काला,

जो मिले जब मिले चाहे जैसा

पौरुष को, बल को, कर के नमस्कार

देती लेती हैँ बराबर पुरस्कार.

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निकट, और निकट, सट रहे हैँ वे

एक दूजे से मिल रहे हैँ वे

मिला कर काँधे से काँधा, जाँघ से जाँघ,

हाथ मेँ हाथ, झुक झूम रहे हैँ वे.

सिंहासन है गुदगुदा कोमल

लगे हैँ तकिए मुलायम

वैभव ऐश्वर्य से संपूर्ण…

कुछ भी नहीँ है गुप्तसब है स्पष्ट.

तन के मन के गूढ़तम हर्षित उद्वेग

जन जन के सामने उन्मुक्त.

हेलेना

लगता है कहीँ दूर हूँ मैँ, और यहीँ पास हूँ मैँ –

मन कहता है – यहाँ हूँ मैँ, यहीँ हूँ मैँ!

फ़ाउस्ट

मैँ हूँ निश्वास, कंपायमान, वाचातीत –

स्वप्न है यह – देशातीत, कालातीत.

हेलेना

लगता है जीवन गया है बीत, फिर भी चिरनवीन हूँ मैँ

रम गई तुझ मेँ, बन गई तू – अज्ञात, सत्य – तू और मैँ.

फ़ाउस्ट

मत बन उद्धत, दुर्लभ भाग्य को मत टटोल

अस्तित्व है कर्तव्य – चाहे क्षणभंगुर – लोल.

फोर्क्यास (हिंस्र सी आती है – )

रमो! रमो! पाठ प्रेम के गहन पढ़ो!

अनुसंधान करो, चिमटो, चिपको!

कामकेलि मेँ मिल जम कर खेलो!

लेकिन अवसर देखो, प्रसंग देखो!

संकट का भास नहीँ होता तुम को?

तुरही का नाद नहीँ सुन पड़ता तुम को?

है सर्वनाश बढ़ता आता

मेनेलाउससेना साधे बढ़ता आता,

आँधी सा ऊपर चढ़ता आता!

अपने लोगोँ को जमा करो

अब रण का आवाहन दो.

जीतेगा, तुम्हेँ घसीटेगा, गाली देगा

देईफीबस सा तुम को काटेगा

भुगतोगे नारी भोगोँ को.

पहले लटकेँगी ये चटर पटर,

फिर आएगी इस की बारी

वेदी पर इस का सिर होगा,

सिर पर खड़ा खडग होगा.

फ़ाउस्ट

कैसा व्यवधान! क्या रौल, क्या शोर!

घिनौनी! घिन्नाती – चली आई मचाती शोर.

कैसा भी हो संकट – बेकार है हलचल – शोर.

बुरा हो संदेश – सुंदर संवाहक लगता है कुरूप.

तू तो है ही कुरूप. डालना व्यवधान,

लाना बुरे समाचार – यही है तेरा काम.

लेकिन तू रहेगी नाकाम.

छोड़ती रह उसाँस – हमारा चैन नहीँ कर पाएगी भंग.

नहीँ है कहीँ कोई संकट –

बेकार की धमकी है हमारे सामने संकट.

(मीनारोँ, बुर्ज़ोँ से आपात् संकेत – तूर्यनाद, शृंगनाद, सैनिक संगीत. शक्तिशाली सेना मार्च करती निकलती है.)

देखये वीरोँ के दलनहीँ है कोई इन से बढ़ कर

देखहमारे दल बल का अवलोकन कर.

वही भोग सकता हैरमणीसंग, रागरंग, मनोरंजन

वीरोँ के दल करते होँ जिस का तत्पर संरक्षण.

(दलपतियोँ से – जो दस्‍तों से निकल कर सामने आते हैँ – )

धरो व्यूह मेँ मौनरखो क्रोध पर संयम,

मन मेँ हो विजय का विश्वास घोरतम

उत्तर के अधखिले सुमन हो तुम!

पूरब की पुष्पित पहचान हो तुम!

 

कवच पर चमकती चिलकती है धूप,

जीते हैँ देशमाटी मेँ मिलाए हैँ भूप.

चलते हो तुमतो काँपती है धरती,

बढ़ते हो तुमतो दहलती है धरती.

 

पीलोस के तट पर उतरे थे हम,

बूढ़ा था नैस्टरअब कहीँ नहीँ.

ग्रीस के तट पर चढ़ पड़े थे हम,

राजोँ की सेनाअब कहीँ नहीँ!

 

टूटो, दुश्मन को कर दो ढेरकरो मत देर!

मेनेलाउस को भगा दोसमंदर की ओर!

लूटता खसोटता भटकने दो दर दर!

यही है उस का कामकरेगा क्या और?

 

टूटो, दुश्मन पर झपटोजीत होगी तुम्हारी!

स्पार्टा की रानीहोगी रानी तुम्हारी!

उस के चरणोँ मेँ डालोपर्वत और घाटी.

हरी भरी धरती मेँहो सब की साझेदारी!

 

ओ जरमन, तू करना कोरिंथ की रखवाली

कोरिंथिया के खाड़ी बागान की रखवाली.

गोठमेरे भाईहैँ अखाया मेँ सौ खाई

मैँ देता हूँ तुझ कोसँभाल, मेरे भाई!

 

सुन तू, ऐ फिरंगी, एलिस है तुझे जाना.

सैक्सन, मसीना पे राज तू जमाना.

नौर्मन, तुझ को समंदर है लजाना

आर्गोलिस का बेड़ा है फिर से सजाना.

 

तुम सब के होँगे अबधनधान भरे घर.

जो दुश्मन हैँ विदेशीसब रोकोगे मिल कर.

स्पार्टा की मीनारेँ, कलसे, गोपुर, घरद्वारे -

सब के सब हैँ रानी केपुरखोँ के घरबारे.

 

ख़ुश होगी रानीतुम सब के होँ अपने घर.

भरपूर मिलेँगे तुम को लड़ने भिड़ने के अवसर.

माँगो गद्दी के पट्टेरानी के दर पे आ कर -

रानी से पाओ तुमधरती पर शासन का वर.

(फ़ाउस्ट सिंहासन से उतरता है. उस के चारोँ ओर घेरा बना कर सरदार आदेश और परामर्श प्राप्त करते हैँ.)

कोरस

जिस के मन हो रमणीसंग रासरंग की तृष्णा

सब से पहले उसे चाहिएसोच समझ कर

बल बुद्धि सेमहाप्रबल एक आयुध रचना.

कितना ही गौरव गर्वी हो, धरती को जीता हो,

संभव नहीँ शांति से रमणी को साधे रखना.

सेंधमार व्यभिचारी घुस आएँगे मौज मनाने,

चोर डकैत आ धमकेँगे माल उड़ाने

रक्षा के साधन होते हैँ प्रथम जुटाने.

 

इसी लिए हैँ गीत मुझे राजा के गाने

सब से बढ़ चढ़ कर हैँ गुण उस मेँ

बल बुद्धि का संगम है अनुपम उस मेँ.

अनगिन बलवान महभट रहते हैँ तत्पर -

चौकस हर दम उस का हुक्म बजाने.

सब के सब आज्ञापालक कर्तव्यपरायण,

साथ साथ करते हैँ अपने हित का साधन.

सब के सब राजा से बहुत प्रशंसित

राजा के साथ साथ अपनी भी ख्याति से मंडित.

 

महाबली है राजा

ऐसे भरता से रमणी कौन हरेगा?

राजा की है वह, है राजा को तन मन अर्पित.

हम भी करती हैँ राजा को दुगना अर्पण.

रानी और हमारी रक्षा करती ऊँची प्राचीर -

और प्रचंड सेना से रक्षित है प्राचीर.

फ़ाउस्ट

हम देते हैँ आदेश – वे जीत लाते हैँ देश

बदले मेँ पाते हैँ वे जागीर मालामाल –

शानदार उपहार, क्षेत्राधिकार, आदेश –

मध्य मेँ स्थित हैँ हम साभिमान उन्नतभाल.

 

देश, तेरी रक्षा मेँ वे लगा देँगे जानो माल –

तू है अर्धद्वीप – धारे है सागर की माल,

उच्छल ऊर्मियाँ रही हैँ चरणोँ को प्रक्षाल.

कोमल श्यामल पर्वतोँ का यूरोप पर गिरिजाल.

 

देशोँ के बीच सर्वाधिक दमकता है जो सुंदर देश

हर जाति को सुख का वरदान देता रहा है जो देश

रानी को हरदम समर्पित रहा है वह सर्वोत्तम देश

प्रथम दर्शन से ही अर्पित करता है उपहार भेँट निवेश.

 

यूरोटा के वेतस् कूलोँ पर थी कलकल कल्लोल

हुई जब माँ लीडा के नीलारुण कोश से निस्सृत विलोल.

रानी के सौंदर्य की आभा से चमत्कृत से गए थे डोल –

माँ और भाइयोँ के मन पर थी माया की छाया हिल्लोल.

 

यह देश चाहता है, माँगता है, तुझ से आदेश

पूर्ण प्रफुल्लित, कुसुमित विस्तृत है यह देश.

यूँ तो संपूर्ण संसार पर चलता है तेरा आदेश –

विशेष दुलार का अधिकार माँगता है यह देश.

 

पथरीले पर्वतपृष्ठोँ पर, शूलित गिरिशृंगोँ पर,

चलाता है शीतल किरणोँ के तीर भास्कर.

शिलाओँ के बीच जहाँ झरते हैँ झरझर निर्झर

वन्य मेष पेट भर चरते उछलते हैँ शाद्वल पर.

 

उछलते बिछलते निर्झर मिल बहते हैँ धारा बन कर

हरे भरे हैँ केदार, ढलान, मैदान, खोँडर, गिरिकंदर,

शत शत शैल खर्वटोँ मेँ तीखे गहरे बीहड़ हैँ गह्वर

छितरे हिमपुंजोँ मेँ दिखते हैँ मेषदल रोमल गाडर.

 

चरते बढ़ते बिखर कर, धरते पग सँभल कर

मेषदल बीहड़ उत्तुंग अंबरशैल शिखर पर –

नीचे देखो तो हमारा सिर खा जाएगा चक्कर

उन के लिए सुखविस्तर हैँ दुर्गम गिरिसेतु कंदर

 

पैनदेव करते रखवाली. जीवन की परियोँ के दल

ओसार्द्र हरित पर्वत कुंजोँ मेँ भरते जीवन हलचल.

ऊपर से ऊपर चढ़ने बढ़ने की होड़ाहोड़ी है

तरु पर तरु, फुनगी पर फुनगी चढ़ती है.

 

आदिम जंगल? महाबली ओक का चलता है शासन,

डाली से बढ़ती है बलखाती डाली पर उद्धत डाली.

चुहचुह मेपल कोमल मधुमय रसाल प्रियदर्शन –

उठ ऊपर मेपल ने तरुवर को गलबहियाँ डाली.

 

शांत गहन छाया प्रदेश मेँ धारोष्ण पयस मातृवत् बहता

शिशु के, छौनोँ के अधरोँ पर ममतामय गिरता.

उर्वर श्यामल वन मेँ हाथ बढ़ाओ, फल मिलता.

तरुकोटर से, देखो, मधु धारा सा छलछल स्रवता.

 

जन्मजात सुख शांति का साम्राज्य यहाँ है

गालोँ पर, अधरोँ पर, मनमोद यहाँ है

हर कोई शाश्वत कालातीत यहाँ है

हर कोई स्वस्थ और संतुष्ट यहाँ है.

 

अवसर आने पर शिशु पूरा बल पा जाते

मानोँ सपने सपने मेँ पितरोँ सम हो जाते.

मन मेँ प्रतिदिन अनगिन अचरज भरते जाते –

क्या मानव हैँ? – ये जो देवोपम दिखलाते.

 

अजापाल सी थी सूर्यदेव अपोलो की काया

अजापाल की थी वैसी ही सुंदर चल माया

प्रकृति नटी के नर्तन ने सब को भरमाया

सब लोगोँ मेँ प्रेमभाव है जैसे हर कोई माँजाया

(हेलेना के पास स्थान ग्रहण करता है.)

सफलता ने मेरे और तेरे भाग्य को वरा है

, फेँक दे पीछे जो विगत का कियाधरा है!

बस, समझ – सर्वोच्च देव ने तुझ को जना है

कोई तेरा आधार है तो केवल आदिम धरा है.

 

तेरे जीवन को ना घेरे कभी कोई संकुचित प्राचीर –

स्पार्टा के निकट ही अभी तक है आर्केडिया की जागीर

पहले ही जैसी – हर्ष से आह्लादित, सुंदर पटीर,

चिरयौवन संसिक्त, हमारे आवास को उत्सुक अधीर.

 

प्रेरित हुई थी तू इस सुखभूमि पर करने को पदार्पण.

सौभाग्य के देश को आगमन के लिए था तेरा उड्डयन.

निरामय निष्कंटक वनकुंज अब बनेगा हमारा सिंहासन.

हमारे सुख का साम्राज्य होगा उन्मुक्त आर्केडिया का आँगन.

(दृश्यावली पूरी तरह बदल जाती है. चट्टानी गिरिकंदराओँ की शृंखला बनाई जा रही हैँ. ऊँचे गिरिपार्श्व से घिरा एक छायावृत्त सघन कंदरा कुंज विस्तृत है. फ़ाउस्ट और हेलेना दिखाई नहीँ दे रहे. कोरस की सदस्‍याएँ इधर उधर पसरी सो रही हैँ.)

फोर्क्यास

पता नहीँ – कब से सोए चली जा रही हैँ ये बालाएँ.

पता नहीँ – इन्होँ ने अपने आप को देखने भी दिया

या नहीँ वह सपना – जो मेरी आँखोँ को स्पष्ट दिखाई दिया.

इस लिए जगाती हूँ इन्हेँ. सुनेँगी तो दंग रह जाएँगी बालाएँ –

और तुम भी दढ़ियल जनोँ – जो बैठे हो नीचे करते प्रतीक्षा –

घटित हुए हैँ जो ढेरोँ आश्चर्य – पुलक उठोगे, उन का परिणाम सुनो.

जागो! अपनी अलकोँ से झाड़ दो ओस कण. जागो! सुनो!

नयनोँ से झटक दो नीँद! मत झपकाओ पलक, सुनो!

कोरस

बोल! बता, जल्दी बता – क्या हुए, कैसे हुए –

घटित हुए जो ढेरोँ आश्चर्य – हो न पाए पूर्ण विश्वास,

तो भी सुनेँगी हम सहर्ष सानंद आश्चर्य जो घटित हुए.

देख देख ये सूने कोरे शिलाखंड, थके हैँ नयन, मन हैँ उदास.

फोर्क्यास

बालिकाओ, यह क्या! अभी तो मली हैँ आँखेँ और थक गईँ अभी से और हो गईँ उदास!

तो सुनो! ये जो कुंज हैँ, कंदराएँ हैँ, लतर वन हैँ –

ये सुरक्षित अभयारण्य हैँ – ये सब चिलमन हैँ -

नैसर्गिक प्रेमी युगल को, स्वामी और स्वामिनी को – इन से मिले अवगुंठन हैँ.

कोरस

क्या? कैसे? सब हुआ इन के पीछे?

फोर्क्यास

                                 हाँ, संसार की आँखोँ से हट कर.

बस, बुलाया था मुझे – मैँ अकेली ही थी उन की सेवा मेँ तत्पर.

यूँ सम्मानित थी मैँ, सेवा मेँ उपस्थित, पूर्णतः विश्वस्त –

इस के लिए मेरा व्यवहार था पूर्णतः उपयुक्त, सुसंगत –

नहीँ देखा सीधे उन को, देखती रही इधर और उधर –

कभी पेड़ोँ की उभरी जड़ोँ को, कभी तनोँ की छाल को,

घरेलू उपचार मेँ कुशल हूँ – पत्रौषध को – कभी शैवाल को.

उन दोनोँ को प्राप्त था नितांत एकांत…

कोरस

करती है ऐसे बात – जैसे उधर पीछे हो पूरा संसार – संसार का विस्तार –

वन, उपवन, सरोवर, ताल, नद, नाले – तू भी बुनती है कल्पना का संसार!

फोर्क्यास

नहीँ तो और क्या! रहीँ पूरी बच्ची अनजान. वहाँ हैँ अनदेखे विस्तार,

शालाएँ विशाल, एक के बाद एक चौड़े चकले चौक आँगन.

मनमग्न विचर रही थी मैँ – और अचानक – उठी अनोखी गुंजार -

कंदराओँ के विस्तार मेँ से फूट पड़ा हास और किलकार.

मैँ ने देखा – कूदता बालक – माँ की गोद से पिता की गोद तक,

फिर पिता से माँ तक. लाड़ प्यार, चुंबन, आलिंगन – खिलवाड़, किलकार –

स्तब्ध करते थे कान.

बालक – निर्वसन देवदूत – पंखहीन, मानो छौना पशुता से हीन,

उचक उठता कठोर धरातल से, तल से गद्दा खा कर

हवा मेँ उछलता – ऊपर, बहुत ऊपर – दूसरी तीसरी बार लगता

छू लेगा कलश.

हो कर परेशान, पुकारती थी माँ, कर उछल कूद जी भर.

मत भर उड़ान! प्रतिबंध है तेरी उड़ान पर.

यूँ चेताता समझाता था पिता, धरती मेँ है अनोखी शक्ति –

आकर्षण की, विकर्षण की. वही है तुझे ऊपर फेँकती.

धरती को छू दे तेरा अँगूठा भी –

तुझ मेँ फिर आ बसेगी धरासुत मल्ल आंतेयुस की शक्ति.

कूदता उछलता था वह – चट्टान से चट्टान तक,

कँगनी से भयानक कगार तक – जैसे हो सबल फेँकी गेँद गद्दे खाती.

सहसा, खोखले थाले के गह्वर मेँ हो गया वह अंतर्धान.

लगता था – हिरा गया वह हम से! रोने लगी माँ,

पिता दे रहे थे दिलासा. मैँ खड़ी थी कंधे उचकाती घबराती.

लेकिन – विस्मय पर विस्मय! कैसा कमाल!

वहाँ छिपा है क्या कोई अद्भुत भंडार!

वह आया – धारे परिधान बेलबूटोँदार, कंधोँ पर गफ्फे फुंदनेदार,

वक्ष पर लहराती थीँ तनियाँ और पट्टे और हाथ मेँ थी

उस के लायर-वीणा सुनहरी. साक्षात् सूर्यदेव फीबस का नन्हा अवतार.

कगार के छोर पर खिलता विहँसता सा आया. सब थे दंग.

माता पिता थे हर्ष से विभोर – आपस मेँ लिपट कर देखते चितचोर.

भाल पर यह क्या है दैदीप्यमान? क्या था – कहना कठिन था.

गोटे सुनहरी या चेतन तत्व की सर्वजयी ज्वाला.

चलता राजस् पग धरता, बालक क्या था – साकार उद्घोष –

मैँ हूँ समस्त सौंदर्य का स्वामी, शाश्वत गीतोँ का गायक,

हाड़मांस का चलता फिरता धड़कता पुतला साकार.

अभी देखोगी तुम उसे साक्षात् – सुनोगी सहर्ष सामोद -

अननुभूत अश्रुतपूर्व अचंभा.

कोरस

तू कहती है इसे अचंभा

यहजो है क्रेता का पूत?

कभी नहीँ सुना तू ने

काव्य और नीति का बोल?

नहीँ सुनाआयोनिया का,

पाया नहीँ कभी ग्रीस का,

स्वर्णिम हेलास का

देवोपम प्राचीन कथाकोश?

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घटता है जो भी अब

जो भी होता है वर्तमान,

पितरोँ के वैभवमय दिनोँ का

अवसादमय गुंजन है केवल.

सुंदरतम असत्य से भरपूर

तेरी कहानी नहीँ है पासंग भर

माइया के जाये का गाया गया था

जो विश्वसनीय सत्यगीत.

 

यह शिशु सद्यप्रसूत

महाबलशाली, सुकुमार, सुकोमल,

उलझा दे लपेट ले तुझे

पोतड़ोँ कोपीनोँ रूमालियोँ मेँ

जैसे बकती झकती है तू

उसे तर्कहीन कथानकोँ मेँ.

धैर्य से, दृढ़ता से,

कोमलता से, लोच से,

सहजता से, निश्शब्द, चुपचाप

छलिया छौना सुकुमार

त्यागता है जो बंद था

सुदृढ़ लचीला नीलारुण कवच कोश.

जैसे तोड़ती शीतल कीट कोश इल्ली

बन जाए तितली

खुली हवा मेँ, खिली धूप मेँ

खोलती तौलती फड़फड़ाती पंख.

वैसे ही है यहशिशुस्फूर्त सजीवन

छलियोँ का, यातुधानोँ का,

लोभियोँ लालचियोँ का वह प्रियतम देवन,

निकला था, कौशल से जन्मा था.

सागर सम्राट से उस ने हर लिया था त्रिशूल,

स्वयं युद्धदेव आरीस के कोश से

खीँचा था खड्ग, फीबस से धनुषबाण,

अग्नि और भट्ठी के देवता हीफीस्तीस से संडसी.

स्वयं द्यौस से उड़ा लाता वह वज्र

पर डरता था अगन से.

कुश्ती मेँ उस ने लगा दी थी टँगड़ी

कामदेव ईरोस को दी थी पटकनी.

और जब सिप्रिस लड़ा रही थी लाड़

वक्ष से चुरा लाया था वह हार.

(कंदरा मेँ से तंत्रवाद्य के मधुरतम स्वर गुंजित होते हैँ. लयपूर्ण संगीत से वातावरण संसिक्त हो जाता है. सब सजग हो जाते हैँ और शीघ्र ही भावविह्वल. इस स्थान से जो संगीत आरंभ होता है वह वहाँ तक रहता है, जहाँ विराम का संकेत है.)

फोर्क्यास

सुनो! विशुद्ध स्वर्णिम संगीत.

गल्पकथाओँ से हो जाओ मुक्त.

भूलो सब देवोँ को, पुरातन प्राचीन,

जाने दो उन्हेँ. वे हो चुके हैँ व्यतीत.

 

समझ से परे है जो कहती हो तुम.

कोई उच्चतर भाव चाहते हैँ हम.

मर्म से जो निकलता है

केवल वही छू सकता है मर्म.

(शिलाओँ की ओर चली जाती है.)

कोरस

ओ काली करालिनी, जो छू गई तेरा भी मन

नैसर्गिक इस संगीत की सिहरन

तो मानती हैँ हमअश्रु से पूरित हैँ हम

फिर से हैँ स्वस्थ, हम सचेतन.

 

होता हैहो जाए सूर्य से विहीन गगन.

प्रभात के तेज से भास्वर मन है मगन.

संसार ने अब न हम को दिया जो

हृदय मेँ हमारे अब लेता है जनम.

हेलेना, फ़ाउस्ट. यूफोरियन (वर्णित वेश मेँ)

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यूफोरियन

सुन हर्षित शैशवमय गायन

क्रीड़रत तुम हुए मुदित मन

तालबद्ध लख नर्तन गायन

मातपिता का कूदे तन मन.

हेलेना

जब हो एक से एक का संगम महान

मिलता है लौकिक प्रेम का वरदान.

एक और एक जब बनते हैँ तीन

होता है नैसर्गिक आनंद का उत्थान.

फ़ाउस्ट

मिल गई हैचाह थी जितनी

तेरा हूँ मैँऔर तू है मेरी

हम यहाँ हैँप्रेम के बंदी

कामना ना शेष हैसजनी

कोरस

भोगो बरस बरस सुख मंगल

पाओ शिशु से शुभ वत्सल

दुगुना सुखमन जाएँ जो मिल

सुख का स्रोतामन का संगम

यूफोरियन

कूदने दो, कुदकने दो

लगाने दो छलाँग पर छलाँग!

उड़ने दो, खाने दोचक्कर पर चक्कर!

छू लूँपकड़ लूँगगन

यहीयही करता है मेरा मन,

यही है मेरे मन का आकर्षण!

फ़ाउस्ट

लेकिन

आहिस्ता! सँभल कर!

उछल मत दौड़ कर!

गिरेगा, मिटेगा

खिलवाड़ का अंत

दारुण सहेगा!

हमारे ललना

हो न जाए अंत!

यूफोरियन

घुटता हूँ सड़ता हूँ नीचे

छोड़ दो केश

छोड़ दो हाथ!

जाने दो, पकड़ो मत!

छोड़ दो परिधान

मेरे हैँ ये सब!

हेलेना

सोच! मेरे लाल! सोच!

किस का है तू!

हमेँ ना दुःखी कर.

किलसेँगे हमतड़पेँगे हम!

सुंदर है भाग्यमेरा, उस का, तेरा -

ना इस को मिटा तू!

कोरस

डरती हूँ मैँटूटेगा बंधन!

जो मीठा है बंधन!

हेलेना और फ़ाउस्ट

ओ अभागे, धार ले संयम!

हमारी है कामना

जो तेरी है चाहना

ऊँची हैउद्धत है भावना

रोक, ओ अभागे. धार ले संयम!

ग्राम्य हो सुख शांति

शाद्वल पर हो कांति!

यूफोरियन

मान लेता हूँ जो आप की है कामना

उड़ान को मेरी थामना!

(कोरस के मध्य नृत्य मेँ चक्कर लगाता है, उन्हेँ नृत्य मेँ सम्मिलित करता है – )

मुक्त है नाचमुक्त है तान

उल्लासमय चक्कर उड़ान.

बोलो

यही है?

यही है नालय और तान?

सही है?

सही है नापैरोँ की थाप?

हेलेना

अच्छे! बहुत अच्छे!

नाच! हर एक को ले साथ!

बुन कला का जाल!

फ़ाउस्ट

जल्दी कर देना बंद!

नाच कूद से बुरा होता है

मेरे दिल का हाल!

कोरस (यूफोरियन के साथ कलापूर्ण चपल नृत्य करते गाते, टोलियोँ मेँ परस्पर गुँधते – )

भुजनाल का यह चलना बिछलना

हर मुद्रा है क्यामन हमारे को हरना!

कांत केशोँ के कुंतल

यह हिलना, फहरना, लहरना!

यह उड़ते सा छूना धरा,

यह चलना, मचलना, उछलना!

शृंखलाओँ का यूँ बनना बिगड़ना!

बाँके ओ छोरेकोमल किशोरे!

तेरे मन का यह कैसा चितवना!

हर्षित मन हैँ हमारे

सब का तुझ पर रिपटना फिसलना.

(विराम)

यूफोरियन

अभी नहीँ रुकना

ओ मेरी हिरनिया!

खेलेँगे नया खेला

आगे पीछे रेलमपेला!

बढ़ो आगे छिपो पीछे

खेलेँगे हम अहेर

मैँ बनूँगा अहेरी

तुम हो हिरनिया!

कोरस

हमेँ चाहो जो पकड़ना

ना तेज़ी से बढ़ना!

है हमेँ भी विरमना

अंत मेँ तुझे धरना

अंक मेँ पकड़ना

चूमना, चिमटना!

यूफोरियन

वन मेँ, उपवन मेँ

कुंजगैल मेँ, शिलाशैल मेँ

सहज मिले जो

मुझे न भाए!

जो मैँ जीतूँ

मेरे मन भाए!

हेलेना और फ़ाउस्ट

कैसा नटखट! चंचलउच्छृंखल!

इस से संयम की आशा है निष्‍फल!

घाटी मेँ, वन मेँ

यह कैसा घोर नाद!

छीनाझपटी, मंगल दंगल!

कोरस (एक एक कर के जल्दी मेँ आते हुए – )

भागा वहहम से छिटक करतेज़ी से बढ़ कर!

तज कर हमेँयोँ त्यौरी चढ़ा कर!

लौटा, पलटा, ताका, झाँका, परखा -

धर ली पकड़ लीजो थी सब से चंचल

खीँचा उसे योँ झपट्टा लगा कर!

यूफोरियन (एक बाला को उठाए आता है – )

भरती थी कुलाँचमेरी हिरनिया!

जाती कहाँ थीओ मेरी हिरनिया!

कौली भरूँगा मैँ कस कर जकड़ कर

कठोर जुझारू उरोजरहूँगा मसल कर

धर दूँगा चुंबन कोमल अधर पर

रोके वह जितना, रुकूँगा मैँ क्योँकर

रहूँगा मैँ अपना कौशल दिखा कर.

बाला

छोड़ दे! जाने देयह मेरा जो तन है

इस मेँ जो बल है, पूराप्रबल है

नहीँ तुझ से कम हैमन से सबल है.

आ जाए कोई हमेँ जो बल से दबाने

झुकतीँ नहीँ हम, दबती नहीँ हम.

जो तू ने है समझा कि संकट मेँ हूँ मैँ

बाँहोँ मेँ तेरी सिमट जाऊँगी मैँ

तो, लेदेखथाम कर तो दिखा तू -

खेलूँगी मैँ भीजो तेरा है खेल.

सँभाल तू होश. सँभल, ले झेल!

झुलस जाएगा तू! भड़केगी ज्वाला!

(वह स्वयं ज्वाला बन कर हवा मेँ लहराती है – )

ले, पकड़! दौड़, पीछे पीछे दौड़!

आकाश मेँ झूम! कंदराओँ मेँ घूम!

पकड़जो तुझ से गया है छूट!

यूफोरियन (अंतिम लपटोँ को झटकता हुआ – )

चतुर्दिक् शिलाएँगहरे कगार!

वनोँ के ऊपरझूलेँ कगार!

क्योँ है मुझ परबंधन अपार?

यौवन से भरपूरमैँ  - उद्दाम, अम्लान.

उमड़ घुमड़ रहे हैँ तूफ़ान

लहरोँ मेँ हैँ विप्लवी उफान

सुन पड़ते हैँ दूरबहुत दूर

काश, जा पाता मैँ वहाँअति दूर!

(शिलाओँ पर उछलता और ऊपर चढ़ता चला जाता है.)

हेलेना, फ़ाउस्ट, और कोरस

उचकता उछलता है जैसे मृग साँभर

जाए ना गिर!

यूफोरियन

जाना है मुझे ऊपर और ऊपर

देखना है दूरऔर भी दूर.

 

कहाँ हूँ मैँआ गया मैँ कहाँ पर?

लगता हैखड़ा हूँ मैँ द्वीप के बीचो बीच

बन कर स्वयं मूर्तिमान देश पेलोप

हो कर एकात्मद्वीप के बीचो बीच.

कोरस

रह कंदरा मेँया शिला पर,

रह शांतधर, धीरज धर.

हम लाएँगी अंगूर

कुंजोँ से चुन कर,

तप्त शिला पर भुने गरमागरम अंगूर,

सुनहरे सेब, मीठे अंजीर.

प्यारा है देश

देखप्यार से सराबोर है देश.

यूफोरियन

तू देखती है शांत सपना?

देखे, जिसे देखना हो सपना!

युद्ध! युद्ध का है संदेश

विजयहै दैवी आदेश!

कोरस

युद्ध के गीतजो गाता है

शांति को, एकता को धताजो बताता है

जान कर बूझ कर वह मिटाता है -

सुंदर दिनोँ की आशा को गिराता है.

यूफोरियन

जिन्हेँ था इस देश से प्रेम

वीर थे, महान थे वे नेता!

संकटोँ से जूझ कर

जान पर खेल कर

रुधिर की नदियाँ बहा कर

जागेँ फिर एक बार

उत्कट अविजेय साहस बल जुटा कर

वे आएँ, युद्ध मेँ जय दिलाएँ!

कोरस

अवलोको ऊपर! इस की दृष्टि मेँ है दूरांतर!

लगता नहीँ छोटानिस्सार.

जूझने को सन्नद्ध है, कवचित है

रजताभ लौह सा आलोकित है.

यूफोरियन

ऊँचे गुंबद प्राचीरअब नहीँ हैँ कारागार.

ये खड़े हैँ शक्ति के बल केसशक्त उद्गार.

सुदृढ़ होँ अडिग होँ दुर्ग और उस के द्वार

सैनिक के वक्ष के बन जाते हैँ रक्षागार.

 

चाहती हो रहना स्वाधीनशांति के साथ?

लड़ने को रहो तैयारहथियार लो हाथ!

अमेज़न की वीरांगना सीदो पतियोँ को वार

हर शिशु को बना दो नायक, सिपहसालार!

कोरस

पावन है काव्य

देखो उड़ता उठता जिधर है आकाश!

जगमग है नक्षत्र दिव्य

दूर, और भी दूरदूरावकाश!

दूर है बहुत दूर तक उड़ान

फिर भी सुन पड़ती है कोमलतम तान

मन मोहता सा मधुर गान.

यूफोरियन

जो देखती हो तुमनहीँ है छोना सुकोमल

सशस्त्र है, पाठा, तेवर चढ़ाए, उन्नत है भाल!

जो हैँ सब से बलशाली, स्वाधीन, साहस के पुतले,

खड़ा है उन के समानकटिबद्ध, जय का प्रण ले!

लो,

मैँ चलादेखो

गौरव गरिमा का पथ खोलो!

हेलेना और फ़ाउस्ट

समझता नहीँ कुछ तू निज को अभी तक,

देखा भाला नहीँ जग का उजाला अभी तक,

भरना चाहता है कठिनतम विकराल डग

चाहने लगा चलना अनंत पीड़ा का मग!

हम!

तेरे लिए नहीँ कुछ हम?

पावन मधुर संबंध समझेँ, बस, सपना हम?

यूफोरियन

सुनते हो समंदर पर घनघोर निनाद?

धरती से प्रतिगुंजित है जो वज्रनाद?

धूल मेँ, धक्कड़ मेँ, लहरोँ के फेन मेँ

शूरोँ का समर्पण रण के प्रांगण मेँ!

है नारा -

लो हाथोँ मेँ दोधारा

इस पार या उस पारकरना है निपटारा!

हेलेना, फ़ाउस्ट और कोरस

दारुण भय है! मन व्याकुल है!

क्योँ तू मरने को दीवाना है?

यूफोरियन

मुझे दूर से देखना यह सबक्या निराकुल है?

जो नियति हैभोगनी ही है उसे जो दीवाना है!

आकाशवाणी

स्वाभिमानी हैसंकट मेँ प्राणी है

साहसी हैइस की जान जानी है!

यूफोरियन

हाँ! देखो -

मैँ ने पर खोले!

वहाँ! उधर! जाना हैजाना है!

दो! दो! मुझे दो उड़ने का वरदान!

(अपने को पवन मेँ प्रवाहित करता है. कुछ पल परिधान उसे ले चलते हैँ. शीश आलोकित होता है. मेघविद्युत लहराती है.)

कोरस

ईकारस! ईकारस!

दारुण है जो है दृश्यमान!

(माता पिता के चरणोँ मेँ एक सुंदर युवक गिरता है. हम कल्पना करते हैँ कि हमेँ एक सुज्ञात आकार के दर्शन हो रहे हैँ. भौतिक अवशेष तत्काल विलीन हो जाते हैँ. एक दिव्य ज्योति स्वर्ग की ओर उठती है. घरती पर रह जाते हैँ परिधान, चोग़ा, और लायर-वीणा.)

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हेलेना और फ़ाउस्ट

पलजीवी सुख के पीछे पीछे आता है

कटुतम विलाप!

यूफोरियन (गहन अंतराल से – )

माँ, योँ मत छोड़ मुझे अकेलाशून्य घिरता आता है

गहन अंधकार अनमाप!

(विराम.)

कोरस (शोकगीत)

अकेलानहीँ है अकेलाजहाँ भी है तू -

पता है, पता हैहमेँ है पताजो भी है तू.

दिन का, ज्योति का, साथ जो छोड़ गया है तू

साथ है, साथ है हर हृदयजहाँ भी है तू.

छेड़ नहीँ पाते हमशोकसिंचित है गान

तेरा सौभाग्यकराता है विद्वेष का भान.

वसंती धूप होया हो हिमानी तूफ़ान

गीत और साहस का तुझे था वरदान.

 

सांसारिक सुख भोगोँ के लिए ही बना था तू

शक्ति थी, ओज था, उच्च महान वंश का था तू.

उच्छृंखल किशोर था, भावसंसिक्त था तू

हा शोक! यौवन से छिन गया है तू.

संसार के वास्ते विलक्षण थे तेरे नैन

हर हृदय का था तुझ को गहरा ज्ञान

सुंदरियोँ के प्रेम का तुझे था वरदान

गीत था तेरी अपनी अनोखी पहचान.

 

मचलता चलता था उच्छृंखल संयमहीन

कल्पना उद्भावना के जाल बुनता था महीन

उद्धत था, तोड़ता था साहस से, लेता था छीन

समाज के विधिविधान, रीतिरिवाज़ प्राचीन.

भाव को पराकाष्ठा तक ले जाता था तू,

जीता जागता जीवंत जीवट निर्बंध था तू.

वैभव गौरव महान जो जीतने वाला था तू

सहसा उस सब से वंचित रह गया है तू.

 

वह सब पाएगा कौन? – प्रश्न है कटुतर

काल रहेगा मौनप्रश्न रहेगा निरुत्तर.

काल हो कठोरजन जीवन हो दुस्तर

मन ही मन सहेँगे लोगमौन रह कर.

फिर उभरेँगे नवल गीतखिलेँगे जन गण के मन

फिर ना झुकेँगे, ना रोएँगे जो शोकसंतप्त हैँ जन.

माटी से मिलेगा सब को अब फिर नव जीवन

माटी से मिलता रहा है सदा से सब को जीवन.

(पूर्ण विराम. संगीत बंद होता है.)

हेलेना (फ़ाउस्ट से – )

मुझ मेँ भी लक्षित है जो कहते आए हैँ युग युग से जन –

सुख का सुंदरता का स्थायी होता नहीँ कभी संगम.

टूट गया है जीवन का और नेह का बंधन.

दोनोँ के दुःख से कातर है मेरा मन.

ले विदा, मीत. शोक से विगलित है मेरा मन.

आ गले लगेँ फिर एक बार – बस एक बार – हम.

ले, परलोकवासिनी पर्सिफोनी ले –

ले, किशोर को ले, मुझ को ले…

(फ़ाउस्ट का आलिंगन करती है. हेलेना का भौतिक शरीर विलीन होता है. उस का परिधान और आँचल फ़ाउस्ट के हाथोँ मेँ रह जाते हैँ.)

फोर्क्यास (फ़ाउस्ट से – )

पकड़ कस कर जो अवशेष हैँ तेरे पास!

मत छोड़ परिधान – मँडरा रहे हैँ राक्षस आँचल के आसपास –

छीन ले जाने को पाताल! सँभाल, कस कर सँभाल!

नहीँ है यह देवी जो खोई है तू ने,

फिर भी देवी से नहीँ है कुछ कम.

आएगा काम – अमूल्य है महान है उपहार सुंदरतम.

धारे रह दैवी परिधान – भर ऊँची उड़ान!

जो भी गर्हित है कलुषित कुत्सित हीन कमीन

ले जाएगा उड़ा कर ऊपर – जहाँ विशुद्ध है पवन.

रह वहीँ जब तक सह सकता है तू शुद्धतम पवन.

दूर, यहाँ से बहुत दूर – फिर मिलेँगे हम.

(हेलेना के परिधान बादलोँ मेँ परिवर्तित होते हैँ, फ़ाउस्ट को आवृत्त करते हैँ और उसे ऊपर उठाते दूर गगन मेँ ले जाते हैँ. वह विलुप्त हो जाता है.)

फोर्क्यास (यूफोरियन का कंचुक, परिधान और लायर-वीणा धरती से उठाती है. अवशेषोँ को थामे आगे बढ़ कर मंचाग्र तक आ कर कहती है – )

मुझे जो मिले हैँ – बहुमूल्य हैँ अवशेष!

मँडराई यहाँ जो – वह ज्वाला है अशेष.

संसार के वास्ते मेरे पास अश्रु नहीँ हैँ शेष.

जीवित हैँ जो – उन कवियोँ के लिए पर्याप्त है – जो है शेष –

उन के मंडलोँ मेँ, दलोँ मेँ, फैलाने को द्वेष.

उन की प्रतिभा के वास्ते मेरे पास नहीँ हैँ उपहार.

हाँ, दे सकती हूँ ये परिधान – मैँ उधार.

(मंचाग्र के एक स्तंभ पर बैठ जाती है – )

पांथालिस

बालाओ, हम पर जो थी माया की छाया –

विलीन है अब. अब मुक्त हैँ हम. मत करो देर.

कट गया है माया का भयानक जाल –

हम पर जो डाले थी थेसाली की छिनाल.

शांत है भुनभुन, भ्रामक सी गुनगुन –

जिस से भ्रमित थे कान, भ्रांत थे मन.

चलो, हम चलेँ पाताल!

हम से पहले रानी को जहाँ ले गया है काल

जहाँ गई है वह डग भरती सँभाल सँभाल.

तुम दासी हो निष्ठावान, चलो पीछे पीछे तत्काल!

हमेँ मिलेगी वहाँ नीचे गहरे पातालराज के पास.

कोरस

जहाँ भी होँ रानीपाती हैँ माल

मिलती है गद्दीचाहे हो पाताल

मिलती है ऊँची संगतउन्हीँ के समान

पर्सिफोनी से नाता है, मिलेगा मान.

हमारे पीछे है कुमुदिनी-दल सज्‍जित शाद्वल,

अंतहीन उन्नत पौपलार वृक्षोँ की क़तार.

हमारा भरतार है वंध्या वेतस वंजुल.

क्या है जिस से हो मन मेँ हर्ष संचार?

हमेँ तो करनी है चमगादड़ सी हलचल

हर्षहीन प्रेतोँ सी फुसफुस गबल गबल.

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कोरस की नेता

जिस ने कमाया नहीँ नाम, नहीँ किए कृत्य महान

जड़ जीवन है केवल तुम जैसोँ की पहचान.

जाओ, बन जाओ जो चाहो तुम सब.

मैँ – रानी की सेवा मेँ रत है मेरा मन –

सेवा – सतत निरंतर – ही है मेरा जीवन.

(जाती है.)

सब

हम को फिर से ज्योति का वरदान मिला.

सच हैअब मानव का हम से रूप छिना.

मन ही मन हम पर यह भेद खुला.

अब जीना है हम को जाए पाताल बिना.

प्रकृति प्रसविनी सदा सनातनी

हम जैसोँ की सदासंगिनी

हम उस को हैँ, वह हम को है

सदासमर्पित, तुल्यरूपिणी.

कोरस का एक अंश

अपनी कंपनमय मद्धम सरसर मेँ, शत शत शाखोँ की हलचल मेँ चंचल,

पवन झकोरोँ की फुरफुर मेँ भरमाएँगी अंतःस्रोतस् का जीवन जल छलछल.

शस्यमूल से नस नस मेँ भर, छलका कर, टहनी टहनी फुनगी फुनगी तक पहुँचा कर,

हरियल पल्लव दल को लहलह लहका कर, कलित प्रसून को खिलखिल महका कर,

फहराएँगी नभ मेँ वातकेतु पुष्कल हम श्यामल केशल गुंजल्केँ लहरा कर.

जब धरती पर झरझर बरसेँगे फल – आएँगे जन जन के दल के दल

सत्वर, तत्पर, घिर घिर कर, घेर बना कर, चुन चुन कर, ढेर लगा कर,

चख कर ख़ुश हो कर नाचेँगे, नतमस्तक होँगे – जैसे देवोँ के आदिम दल.

दूसरा अंश

हम, इन शैलोँ से सट कर, दूर दमकते दमदम दर्पण से दिप दिप कर

बहलाती फुसलाती सी झूमेँगी झूलेँगी छलछल जल मेँ झुक कर, हिल कर,

हर रव मेँ सुन लेँगी – सुषिर वेतस् की सीटी – अंबरचर का कलरव कूजन,

प्रत्‍युत्तर देँगी हम तत्क्षण तत्पर – नाद करेगा पैन देव जब घनघन घनघन,

आएगी गुनगुन, हम बोलेँगी गुनगुन, गर्जन का प्रत्‍युत्तर हम देँगी गर्जन,

दुगुना, तिगुना और दस गुना – गुंजन का प्रत्‍युत्तर होगा प्रतिगुंजन!

तीसरा अंश

बहनो, हमारी मनोकामना है चंचल चटुलोल. वेगिनी मेँ हम बहेँगी करती कल्लोल,

देखते वे जो दूर हैँ धारे सुंदर परिधान, पर्वतोँ के जाल सुंदर सुविलोल –

उन पर उतर कर, गहरे और गहरे धँस कर, कभी बल खाती, कभी देती झोल,

शाद्वल वन, चरभूमि, बुग्याल, फिर बंगलोँ को चतुर्दिक् सजाते पुष्पित उद्यान,

गिरिशिखर ओढ़े साइप्रस की झालरी चूनर, छूते अंबर का वितान,

सींचती चौड़े विस्तृत मैदान, छू लेँगी दूर धूमिल जलतट को परसता उदधि कंपायमान.

चौथा अंश

जाओ जहाँ मन चाहे तुम्हारा, हमेँ तो रोपित गिरिपार्श्व पर है मन रमाना,

बन मेखला घेरना, अँखुआती श्यामल लतरोँ वल्लरियोँ मेँ सरसराना.

साक्षी हैँ वनमाली के मन के उन्मत्त उद्गार से ये उद्यान दाख के,

उस की लगन के, श्रम के, फलागम मेँ निश्शंक विश्वास के.

करता है खुरपा, चलाता है कुदाल, बनाता है मेँड़, निकालता है खर पतवार.

उस से वंदित है हर देवता, मुख्यतः अंशुमाली दिवाकर रसाधार.

सुरादेव बक्चोस रखता नहीँ निज सेवक के कल्याण का ध्यान,

बस कुंजोँ मेँ, कंदराओँ मेँ, पसरा रहता है पुचकारता शिशु अजादेव फान.

देखते रहने को अर्धमदोन्मत्त दिवास्वप्न – सब कुछ रहता है उस के पास

चर्मण्य सुराकूपकोँ मेँ, घटोँ मेँ, कूँडोँ मेँ, झाझरोँ मेँ, इधर उधर आसपास

अनंतकाल तक सुरक्षित – शीतल तलघरोँ मेँ – बुझाते रहने को प्यास.

जब सब देवोँ की कृपा हो, सूर्यदेव होँ संतुष्ट, सोत्फुल्ल, सोल्लास –

जब वातल प्रवाह, तुषार जल, निदाघ भर देँ दानोँ मेँ रस की उजास –

लहराती फहराती है हर लतर, मदमाती मुस्काती झूमती गाती सविलास.

जहाँ करता रहा है वनमाली श्रम चुपचाप, वहाँ खिल उठता है जीवन का वसंत,

होती है हलचल, मचती है चहलपहल, इस थले से उस थले तक फिरंत चलंत.

बोझ से चरमराते हैँ कंडोल, करंड, झाँपे – काँधोँ पर ढोए जाते हैँ लबालब डोल

महाकुंडोँ की ओर – नाचते हैँ जहाँ कलाल हो कर मगन, बाँध कर गोल.

वहाँ पर रुँदते हैँ देवोँ के उपहार – पावन शरबती दाख के घौँर – रसवंत

पिसते, घुलते, मिलते, छुलछुलाते, उफनते, फेनिल उत्कंठ स्फूर्तिमंत.

झाँझ मजीरोँ की कर्कश कंस ताल से कर्ण कुहरोँ मेँ मचता है हड़कंप –

देखो, देखो – मद्य का महादेव दायोनिसुस रहस्य पटोँ मेँ से होता है मूर्तिमान!

बढ़ता आता है – उस के साथ हैँ अजाचरण सैटिरोँ सैटिरनोँ के दल नृत्यमान.

हुड़दंग मेँ, धमाल मेँ, अलमस्त रेँकता नाचता है मदमाता सिलेनुस, विशाल हैँ कान.

बचता नहीँ कुछ भी! फटे खुर रौँद डालते हैँ जो भी परंपरा चलन है शीलवान,

पागल सी इंद्रियाँ चकराती हैँ, कुछ नहीँ होता भान, फूट जाते हैँ कान.

नशेड़ियोँ की भीड़ टटोलती है प्याले, लबालब हैँ मस्तिष्क और तोँद का टंका,

यहाँ वहाँ होती है मन मेँ शंका आशंका, फिर भी बजता रहता है मौज का डंका,

भरने को नवल मादक द्राक्षा रस, ख़ाली तो करना ही है पिछले साल का चर्मण्य टंका!

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(यवनिका गिरती है. मंचाग्र पर फोर्क्यास बहुत ऊँचे चढ़ जाती है, विशाल ऊँची एड़ी वाले प्राचीन ग्रीक जूतोँ – कोथोरमोस – से निकलती है, चेहरे का मुखौटा उतारती है. हम देखते हैँ कि यह छद्मवेश मेँ मैफ़िस्टोफ़िलीज़ था. अब तक के क्रियाकलाप को स्पष्ट करने के लिए यह उपसंहार आवश्यक है.)

 

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