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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 2 दृश्य 3 – सांस्कृतिक वालपुरगिस रात. 3. उत्तर पीन्योस पर – पहले के समान

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

 

 


३. उत्तर पीन्योस पर – पहले के समान

साइरनेँ

पीन्योस नदी की शीतल धारा

कूदो, तैरो, खेलो मस्‍ती मेँ.

वीणास्वरसिंचित मधुर स्‍वरोँ मेँ

गाते वे जन – था जिन्हेँ उबारा.

 

वैरी हो जल तो क्या जीवन?

हँसते गाते पवन गुँजाते

हम नीले अज सागर जाते -

हो हर्षित पालोँ की फहरन.

(भूकंप.)

कंपित भूतल, धारा उच्छल

ऊपर चढ़ता आता है जल

उड़ते पत्थर, तट है धूमिल

फटती धरती, मंथन हलचल

 

भागो, दौड़ो, सब बच निकलो.

महाकठिन है यह दुर्घटना.

अच्छा है सब का तट तजना.

सागर को क्रीड़ा करने दो –

वह कंपित है चमचम करता –

प्रक्षालित तट उठता गिरता.

 

वहाँ जहाँ हो चंदा चम चम

झरती रहती मीठी शबनम

जीवन की हो मोहक सरगम

वहीँ भली लगती हैँ हम.

 

जब दहले धरती, खौले सागर

हम को लगता है भारी डर

भागो भागो सब समझदार

रुकना यहाँ रहेगा भयकर.

भूकंपदेव (गहनतम मेँ गुर्राता, धड़धड़ाता – )

कंधोँ से हम धरा हिलाते

महाशक्ति से जग धकियाते

हम हैँ ऊपर उठते आते

आते हम सब को धकियाते

स्फिंक्‍स गण

महाभयंकर घड़घड़ धड़धड़

गर्जन तर्जन कंपन दहलन

हलचल धड़कन उछलन फड़कन

उत्थान पतन उद्वेलन लहरन

झंझट अड़चन संकट उलझन

होती हो दोज़ख मेँ हलचल

हमेँ नहीँ तजना निज आसन…

देखो, देखो – उठता वह गुंबज

महाविलक्षण! घोर विलक्षण!

वही है यह, धकियाता, धकेलता, पेलता…

वही है, पांडुर, वयोवृद्ध, विगत, पुरातन…

वही है, तोड़ कर सागर की छाती से,

जिस ने ससंतान महिला के वास्ते

उभार निकाला था डेलोस द्वीप.

सारा बल, पूरी जान, लगा कर

बाँहेँ कंधे अकड़ा उचका कर

धरणीधर ऐटलस के जैसा तन कर

धरती के श्यामल शाद्वल को,

सर सरिता को, तट को, जल को,

बालू सिकता पाषाण शिला को

ऊपर लाता है,

वह – बलशाली दानव सा –

द्रोणी के सुस्थिर उरप्रदेश को

क्रोधित हो कर चीर फाड़ कर

अनथक उद्दंड महाश्रमशाली

विजड़ित वज्रोँ को उखाड़ता

भीषण भारी भरकम शैलशिला पछाड़ता.

लेकिन – अब  आगे आ न सकेगा

हम सिंहोँ को विस्थापित कर न सकेगा.

भूकंपदेव

मैँ ने गुरुतम कार्य किया है,

धरती पर उपकार किया है.

मेरा होगा ही अभिनंदन.

मैँ ना धकियाता, ना धकेलता,

हिला डुला कर नहीँ उभारता,

धरती कैसे हो पाती सुंदर?

ना मैँ तन का ज़ोर लगाता,

घोर परिश्रम व्रत ना लेता –

शुद्ध पवन मेँ पर्वत कैसे शीश उठाते?

कैसे उन से खिलता नीला अंबर?

चित्रित सुंदरता से मोहक गिरि कंदर –

कैसे सब का मन भरमाते?

याद करो इतिहास पुरातन, कथा पुरानी –

शून्य गगन मेँ जब केवल विप्लव था,

आदिम जग की गहन निशा ने

विचलित सा मुझ को देखा था -

टाइटन दैत्योँ का मैँ संगी साथी

पेल्योन और ओसा पर्वत को

गोट बना कर खेल रहा था.

यौवन से उच्छृंखल थे हम, क्रीड़ारत थे.

हम से टकराए – कहीँ किसी मेँ ताब नहीँ थी.

क्रीड़ाश्रम से आख़िर हम कातर थे –

हम ने दुगुना दाँव लगाया –

पारनेसस पर्वत पर शिखरोँ को दे मारा.

अपोलियोन ने उस पर अपना वास बनाया

मूस देवियोँ सहित उसी ने सारा जग मोहा.

 

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द्युपति का जो उन्नत आसन है,

जिस पर वज्र सहित वह रहता है,

मैँ ने ही उस का आधार उबारा.

महाप्रबल प्रतिरोधोँ से जूझा हूँ

गहरे गह्वर तल से लड़ता उभरा हूँ.

उन्नत थल पर निवास करने को

हर्षित जन को आमंत्रित करता हूँ.

स्फिंक्‍स

सही है – साक्षी न होते हम

तो चिरंतन से लगते पर्वत

जैसे सदा से धरे होँ धरा पर.

अच्छी तरह जानते हैँ हम

घोर श्रम ने उबारा था इन्हेँ

शिखर सा उन्नत बनाया गया था इन्हेँ.

धारे हैँ ये श्यामल परिधान –

शिला पर रखी है शिला थामे स्थान.

इस लिए डरने वाले नहीँ हैँ हम.

अपने पावन धाम से नहीँ हटेँगे हम.

ग्रिफ़िन

पत्रोँ, पन्नोँ, टिकलियोँ, सिल्लियोँ मेँ दमकता है स्वर्ण

शिलाओँ के छिद्रोँ, रंध्रोँ, कुहरोँ मेँ चमकता है स्वर्ण.

जल्दी करो, देख न ले कोई और –

चीँटियो, सकेर लो, उठा न ले कोई और.

चीँटी दल का कोरस

भीमकायोँ ने उछाला है

स्वर्ण को पर्वतोँ मेँ डाला है

चीँटियो, चपल हो तुम

बढ़ी चलो, चढ़ी चलो

कोश को सँभालती

चलो, चढ़ो, बढ़ो, चलो

करो जल्दी, ना हो सुस्ती

 

हर छेद के भीतर घुसो

हर छेद से बाहर चलो

चुनो किनके, बटोरो कण

मौज मेँ निकालो धन

लालची बनो ना कम

छूटे ना एक भी कण

करो जल्दी, ना हो सुस्ती

बटोर लो हरएक कण.

 

माना कि गिरि विशाल है

डरो नहीँ, थको नहीँ

मेहनत करो, रहे चुस्ती

धीरज धरो, ना हो मस्‍ती

स्वर्ण कोश तक बढ़ो

कोश को ख़ाली करो

करो जल्दी, ना हो सुस्ती

ग्रिफ़िन

लाओ, लाओ – लाते जाओ

ढेरी पर ढेर लगाते जाओ

हम सब चंगुल मेँ कर लेँगे –

चंगुल हैँ अपने फ़ौलादी

दौलत इन से ना बचने पाती.

बौने (पिगमी)

हम पूरी तरह जमे बैठे हैँ

पूछो मतकैसे हम आए

कौन देश से हैँ, कब आए.

बस इतना ही काफ़ी है

हम पूरे जमे डटे बैठे हैँ.

 

जीवन के मेले मस्‍ती को

हर कोई जगह भली होती है.

पत्थर कितने ही फटते होँ

गह्वर कितने ही गहरे होँ

पाओगे बौनोँ की बस्ती.

 

बौना नर हो या हो नारी

धीरज धारे मेहनत करते

पाओगे बौने नर नारी.

कौन कहेगास्वर्ग देश मेँ

नहीँ खटे बौने नर नारी?

 

यहाँ हमारा भाग्य खुला है

तारोँ की किरपा है भारी.

पूरब हो या पच्छिम हो

हम पर ख़ुश धरती महतारी.

ठेँगे

एक रातधरती ने जनमे

इतने सारे बौने नर नारी

इन से भी छोटे जनमेगी

ढेरोँ बौने धरती महतारी

पा ही लेँगे जीवन साथी

फिर भी सब बौने नर नारी.

बौने वृद्धजन

करो जल्दीजगह ले लो

करो मेहनतलगाओ दम

लगे जो दममिटेगा ग़म

जले भट्टीलगाओ मन 

बने खंज़रबने बख़्तर

बनाते हमसजे सेना.

 

चीँटी दलकरे मेहनत

न लेते दमचले हर दम

खनिज लातेबनाते हम.

सुनो, ठेँगोजो छोटे हैँ

सुनेँ कहनाचुनेँ लकड़ी

न लेँ वे दमकरेँ मेहनत

जले भट्टीजले हर दम -

बने खंज़रबने बख़्तर

बनाते हमसजे सेना.

महासेनापति

धनुष तानेचढाए बाण

चले सेनारुके दुश्मन

उधर देखोखड़े बगुले

किनारे परजड़े बगुले

नीड़ोँ सेउड़े बगुले

चला दो बाणगिरेँ बगुले

नोँचो पंखसजे टोपी

चीँटियाँ और ठेँगे

कौन बचाए जान हमारी

लोहा ले कर आते हैँ हम

साँकल से बाँधे जाते हम

तोड़ेँ बंधनहम साहस कर

जाने कब आएगा अवसर

तब तक जान बचाते हैँ हम

तब तक हुकम बजाते हैँ हम

कवि इबिकस के हंस

घातक दल का भैरव रौरव! मरने वालोँ का कंपित क्रंदन!

चौँके ठिठके उड़ते डैने! कैसी कराह! कैसा उत्पीड़न!

भय से क्षत विक्षत शुद्ध पवन है और गगन!

मारकाट, कट्टा कट्टम! शोणित से है सागर रक्तिम!

बौनोँ की कुत्सित तृष्णा – विद्रूप, क्रूर, दुर्दम लिप्सा!

लूट खसोट छीना झपटी – थी बगुलोँ के विनाश का कारण!

करने को मुकुटोँ पर मंडित पखने –

देखो वे – तुंदिल, थुलथुल दुर्जन

टेढ़े बैँचे पैरोँ वाले लोभी वामन.

सुनो, सुनो, ओ पाँति बाँध सागर पर उड़ने वाले हंसो,

आवाहन है – जूझो –

जूझो अन्यायी से, अत्याचारी से जूझो.

तुम्हेँ शपथ है! – सारा बल झोँको, जान लगा दो!

कोर क़सर ना रहने पाए! अंतहीन संघर्ष करो.

(किलकारते कूकते उड़ते चले जाते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (मैदान मेँ – )

बहुत आसान था करना उत्तर की चुड़ैलोँ पर शासन,

इन विदेशी आत्माओँ पर मेरा चलता नहीँ बस.

कितना सुविधाजनक है ब्लाक्सबुर्ग –

कितना ही भटको – फिर भी मिल ही जाता है मार्ग,

बैठी बैठी मादाम इल्से रखती हैँ ध्यान

पर्वतासन पर हेनरी रहते हैँ विराजमान –

ईलैंड पर खर्राँटिए एक दूसरे पर छोड़ते रहते हैँ साँस –

पूरे हज़ार साल का हो जाता है इंतजाम.

लेकिन – यहाँ – यहाँ तो नहीँ है कुछ भी भरोसा पल भर –

अभी पैर टिके हैँ जहाँ पर –

जाने कब फूल उठती है धरती वहाँ पर.

ख़ुशखुर्रम कुछ दूर चलता हूँ मैदानी घास पर

फिर अचानक – मेरे पीछे बन जाता है पर्वत उभर कर.

पूरा पर्वत तो नहीँ, फिर भी नहीँ कुछ कम –

कर सकता है वह स्फिंक्सोँ को नज़रोँ से ओझल…

जल रहे हैँ कुछ अलाव – उधर नीचे घाटी मेँ अभी तक

झूमते, नाचते, बढ़ते, हटते, बुलाते – कुछ आकार अभी तक.

मस्तीभरे दल हैँ, मुझे घेरते से दल हैँ –

मायावी उन के सब आमंत्रण हैँ.

शांत! छलिया मस्‍ती मेँ भी मिल सकते कुछ मौज के पल हैँ.

लामिआ (मैफ़िस्टोफ़िलीज़ को पीछे पीछे बुलाती ले जाती हुईं – )

जल्दी! जल्दी! चलो!

दूर! दूर! ले चलो!

कुछ रुको, झिझको, शरमाओ

चटर पटर बोलो, मज़े ले लेउकसाओ!

मज़ा है इस को बनाने मेँबनाओ!

पुराना है पापी! बनता हैबनाओ!

, चला आ पीछे!

चलता है उलझता, लचकता, हुमचता!

हमारे पीछे चलतामिलने को तड़पता

जल्दी मेँ पलटता, पैर है घिसटता!

उड़ती हैँ हमरह गया तरसता!

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (निश्चल खड़ा हो कर – )

छलिया है भाग्य! ठगा गया अब फिर!

आदम के युग सेभरमाए जाते, मात खाते!

बढ़ती उमर हैकुछ सीखते नहीँ हम!

अकसर ही मूरख बनते रहे हम!

निरर्थक है भाग दौड़जानते हैँ हम

हमारे तन कसे हैँ, चेहरे पुते हैँ!

काया मेँ राई रत्ती कहीँ भी नहीँ दम,

पकड़ो कहीँ सेभुरभुर चटक जाते हैँ हम!

जानते हैँ सबसाफ़ साफ़ सब देखते हैँ हम

फिर भीजब जब वंशी छेड़ती छिनाल हैँ

लय पर उन की नाचते हैँ हम.

लामिआ (रुकती हैँ – )

ठहरो! सोचता सा ठहर गया है वह.

मुड़ो, उस से मिलो, बच नकले न वह!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (आगे क़दम बढ़ाता है – )

बढ़ो! मत रुको!

संदेहोँ ने हर डाला मेरा चेतन मन.

देना संदेहोँ को प्रोत्साहन है पागलपन.

व्यर्थ नहीँ, तो क्या है, शैतानी जीवन

बन न सके जो चुड़ैल का भी आकर्षण?

लामिआ (कमनीय अदाओँ से – )

हौले हौले डोलो

चारोँ ढिग डोलो

डोले डोले मन डोले

चाहे जिस को वह चुन ले

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मद्धम सा झिलमिल प्रकाश है

तुम मेँ छलिया सा उजास है

सुंदरियो, आओ, स्वागत है…

एकपदा (बढ़ कर सब से आगे निकल आती है – )

नहीँ लोगे मुझे? छोड़ दोगे मुझे?

हैँ मुझ मेँ सभी गुण, लो स्वीकार लो मुझे.

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लामिआ

क्योँ आ गई यह?

डालने रंग मेँ भंग, आ धमकती है यह!

एकपदा (मैफ़िस्टोफ़िलीज़ से – )

नाम है एकपदागधे के पैर वाली हूँ मैँ.

चचेरी मौसेरी हूँ मैँअभिनंदन करती हूँ मैँ

तेरे तो है बस घोड़े का पैर

फिर भी, श्रीमान, अभिवादन करती हूँ मैँ.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मिलेँगे अनजाने, अजनबीसोचता था मैँ.

हैरान हूँ मैँमिल रहे हैँ नज़दीकी रिश्तेदार.

पुरानी है कहावतदर्जनोँ हैँ मिसाल

हर जगह पाओगे रिश्तेदारचले जाओ हार्ट्ज़ से हेलास.

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एकपदा

फटाफट फैसले करती हूँ मैँ

फटाफट काम करती हूँ मैँ.

करना है तुझे ख़ुशअनेक रूप धार सकती हूँ मैँ.

शान मेँ तेरी आजगधे का शीश धरती हूँ मैँ.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अच्छे हैँ लक्षण. होँगी बड़ी बड़ी बातेँनई नई मुलाक़ातेँ

नई नई जाति से अपने जैसा नाता

जान गया हूँ इस कोहोना है हो,

गधे के शीश वालीत्यागता हूँ तुझ को.

लामिआ

छोड़ दे! गंदी है घिनौनी!

होता है जो भी अच्छा और लगता है सुंदर,

यह उस को डराती है भगाती.

जो भी है सुदर्शनकरते ही इस के दर्शन

हो जाता है घिनौना और कुदर्शन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ये सब भी जो चचेरी हैँ मौसेरी

रसीली और नाज़ुक हैँ घनेरी

लगती हैँ सब की सब लुटेरी

लगता हैजो गुलाबी हैँ कपोल

उन के नीचे है गहरी पोल.

लामिआ

कोशिश तो करदेख तो पकड़ कर -

हम हैँ इतनी सारी

साथ दे दे जो तक़दीर तेरी

एक न एक तो निकलेगी काम के तेरी

क्योँ फिरता है घुमाता सोँटा

लगता है तू आशिक़ निगोड़ा

बघारता है शाननहीँ है जान!…

अब किसी न किसी पर वह डालेगा हाथ

धीरे धीरे सब उतार दो मुखौटे

दिखा दो सच्चा रूपझाड़ दो इस की शान!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

यह है सब से अच्छीडालता हूँ इस पर हाथ!

(एक को पकड़ता है.)

यह क्या! यह तो है पूरी झाड़ू!

(एक और को पकड़ता है.)

और… यह?यह तो है और भी मूड बिगाड़ू!

लामिआ

देखकिसी और को देखनिकलेगी तेरे लायक़…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

यह छोटी सी, कोमल सी, कली सी

भरेगी मेरा झोटा… फिसल गई हाथ से छिपकली सी

जो कोमल थी चोटीलिपट गई साँप सी -

अब देखता हूँ इस कोयह तो और भी बुरी है

हाथ जो आईवह नशेड़ी छड़ी है…

इस की मूठ क्या हैचीड़ की खुरखुरी है.

कौन है इस के आगे? वहओ मोटी!

निकलेगी वह ज़ायक़ेदार बोटी.

तुरकोँ की पसंद हैँ जनानियाँ बोरे जैसी मोटी!

ऐसी के वास्ते वे देँगे दौलत बड़ी मोटी!

लेकिन क्या! दोफाँक हो गई यह मोटी!

लामिआ

अब सब बिखर जाओ, डोलो, अदाएँ दिखलाओ!

उड़ो, बिजली सी कौँधो, फहराओ

परदेसी लुटेरा है भूतनी कामज़े चखाओ!

गोल गोल छोटे बड़े चक्कर खाओ,

डराओ घबराओ तड़पाओ

उड़ो बेआवाज़चमगादड़ से पंख फड़फड़ाओ!

भागे बचा कर जानऐसे करतब दिखलाओ!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (बदन झाड़ता सा – )

लगता हैमुझे नहीँ आई अभी तक अक़ल!

उत्तर है पागलयह उस से भी आगे गया है निकल!

यहाँ के भूत भी वैसे ही निकलेऊटपटांग, अगड़बम

लोगोँ की, कवियोँ की खोखली कल्पना की उड़ान अक्रम.

यह खेलालगता है भूख का नंगा नाच हरदम.

मुखौटोँ का मोहक नाच थी मेरी तलाश

रह गया हक्का बक्काहोना पड़ा निराश.

जो यह चला और देरतो छा जाएगा भ्रम.

(ऊबड़ खाबड़ पत्‍थरोँ चट्टानोँ मेँ खो जाता है – )

कहाँ हूँ मैँ? जाता हूँ कहाँ?

रास्ता सा था यहाँअब डर है यहाँ.

आया था तो था मैदान हमवार

अबरोड़ोँ की है मानो खदान.

ऊपर नीचे चढ़ता उतरता हूँ बेकार.

कहाँ गए स्फिंक्सनज़र के पार.

सोचा भी नहीँ थाकभी होगी ऐसी अनहोनी

एक रात मेँ खड़ा हो गया पहाड़कैसी यह होनी?

सोचा थाहो जाएगी चुड़ैलोँ के देश की नई सैर

वे उठा लाईँ अपने देश का पूरा ब्लाक्सबुर्ग पहाड़.

ओरियाड (पर्वत परी) (प्राकृतिक शिलाखंड से – )

आओ मेरे पास! मेरा आदिम पर्वत अवलोको.

पूजो, बहुविशाल प्रस्तर खंडोँ को अरचो, पूजो.

पिंडुस गिरिशाखा तल सेपर्वत मैदानोँ के संगम स्थल से

उठते पथरीले उन्नत सोपान पथोँ को देखो.

मेरे काँधोँ पर जब पोँपेयुस भगता था

अनकंपित मैँ ने तब यूँ शीश उठाया.

जब प्रातः कुक्कुट बोलेगा

मेरे साथ यह छाया प्रस्तर भी चल देगा.

ऐसी दंतकथाओँ का अकस्मात यूँ उगना मिटना

मेरे लिए मात्र है दैनिक घटना.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

लो मेरा अभिनंदन, ओ नमस्कृत्य मस्तक महान,

मालामंडित विटपवर ओक तुम शक्तिमान.

शुभ्र ज्योत्सना भी अक्षम है

करने को तव पल्लव दल सघन पार.

झाड़ी के पीछेयह कैसा ज्योतित आकार?

हाँ, सब कुछ योग संयोग का अद्भुत संगम

मनुडिंभ है अपनाचलता उड़ता जंगम.

आते हो किस पथ से, बोलो प्यारे!

मनुडिंभ

यहाँ से वहाँ, इधर से उघर, मँडराता उछलता

अंतर्तम का सत्य है यह – आकुल सा विचरता

मैँ चाहता हूँ – होना – धारना अस्तित्व.

व्याकुल हूँ मैँ तोड़ने को काँच मेँ बंद यह व्यक्तित्व.

लेकिन देखा है जो भी अभी तक –

अविश्वसनीय लगने लगा है मुझे हर तत्व.

जो सुने तू, तो बताता हूँ मैँ रहस्य की बात –

करता दो दार्शनिकोँ का पीछा यहाँ पहुँचा हूँ मैँ आज की रात.

जो भी है – जड़ है, प्रकृति है, भूत पदार्थ –

रटे जा रहे थे वे बस यही बात.

उन्हीँ से चिपका रहूँगा मैँ – देखने को – क्या है उन का दर्शन.

ज्ञानी हैँ वे, जानते होँगे क्या है पार्थिव जीवन.

धीरे धीरे पा ही जाऊँगा मैँ जान –

कहाँ जाऊँ, क्या करूँ मैँ – पाने को जीवन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो कर – जो भी करना है अपने आप!

यहाँ तो हो रहा है घनघोर गर्जन तर्जन

उन के नारकीय पाताल से हो रहे हैँ बेढब आकारोँ के दर्शन –

स्वागत है दार्शनिकोँ का – आएँ करेँ निज ज्ञान का प्रदर्शन –

करने को तेरा भरपूर मनोरंजन.

तेरे वास्ते पलक झपकते कर देगा दर्जनोँ का सर्जन

चूका नहीँ तो कभी नहीँ मिल पाएगी चेतना या ज्ञान.

होना है तुझे – तो, सुन, अपने आप ही कर अपना संधान.

मनुडिंभ

फिर भी सत्परामर्श नहीँ जाना चाहिए बेध्यान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो जा अपनी राह. हम दोनोँ को करने हैँ अभी और अनुसंधान.

(दोनोँ अलग अलग जाते हैँ.)

ऐनेक्‍सगोरस (थलीस से)

अड़ियल है तू, तेरी बुद्धि नहीँ होगी कभी ठीक –

बोल और क्या ज्ञातव्य है शेष सटीक.

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थलीस

हर झकोरे के साथ परिवर्तनीय है जल तरंग.

रहती है दूर, असंपृक्त, उत्तुंग शिला से जब होता है संग.

ऐनेक्‍सगोरस

यह जो शिला है प्रत्यक्ष – धधकती वाष्प से हुआ था इस का उद्भव.

थलीस

सचेतन जीवन – संसिक्त आर्द्रता से है उस का उद्भव.

मनुडिंभ (दोनोँ के बीच मेँ – )

आप के साथ चल पाने का दुस्साहस कर सकता हूँ मैँ?

मेरी आकांक्षा है – हो जाए मुझ मेँ अस्तित्व का उद्भव.

ऐनेक्‍सगोरस

थलीस, देखा है तू ने कभी एक रात मेँ

मृण्मय कलल से ऐसे पर्वत का उद्गम?

थलीस

प्रकृति की सर्जक चेतना कभी नहीँ रही

अहोरात्र और होड़ा की मुखापेक्षी,

उस के अपने हैँ अखंड्य अविच्‍युत नियम

जिन से है वह हर आकार का सर्जन करती.

बृहत्तर स्तर तक पर यह नहीँ है प्रचंड शक्ति का प्रयोग.

ऐनेक्‍सगोरस

यहाँ, यहाँ – आलक्षित हुआ था उस का समायोग.

पाताल अग्नि थी जिस ने रचा यह आकार.

भयानक विस्फोट वातल वाष्प से हुआ था

धरती के आदिम संस्तर को चीरता उठा था

तत्काल उसी से बना था यह पर्वत आकार.

थलीस

और होगा अब इस से किसी और का उद्भव?

पर्वत है. हाँ, है. खड़ा रहेगा, जहाँ है!

बस इतना ही तो है इस का सत्व.

निष्परिणाम और व्यर्थ है वितंडावाद

जन साधारण को बाँध लेते हैँ मिथ्या प्रवाद.

ऐनेक्‍सगोरस

पर्वतोँ के शिलाखंडोँ के गह्वरोँ मेँ पनपते हैँ

लड़ाके वामन, चीँटियाँ, सूक्ष्म जन.

असंख्य जीव पाते हैँ इन गह्वरोँ मेँ जीवन.

(मनुडिंभ से – )

तू ने बस भोगा है तापस सा संकुचित जीवन

महत्वाकांक्षा से दूर है अभी तक तेरा मन.

यदि शासन करने को सहमत हो तेरा मन

चुनवा दूँगा तुझे शासक – कर उन का संचालन.

मनुडिंभ

क्या है आप का मत, थलीस श्रीमन?

थलीस

मैँ नहीँ करूँगा इस का अनुमोदन.

क्षुद्र साधनोँ से संपादित होते हैँ क्षुद्र उद्देश्य

क्षुद्र जन बन जाते हैँ महान यदि महान होँ साधन.

देखो – वे बगुले – कितने क्षुद्र थे उन के उद्देश्य.

उन से परेशान रहते थे प्रजा जन और राजन.

चंगुल से, चोँचोँ से, दबते बिँधते थे वामन.

हो कर रहना ही था उन का नाश.

सही है, अपराध था जघन्य प्रशांत सरोवर मेँ उन का वंशनाश.

लेकिन – मारक बाणोँ की वह रक्तिम वर्षा

कर गई उन के नातेदारोँ का आवाहन.

बरसा – वामन दल का अपराधी लहू बहा और बरसा.

किस काम आए ढाल कवच तीर और बरछा?

और वामनोँ के किस काम आईँ बगुलोँ के पंखोँ की कलगी?

डैक्टिल और चीँटियाँ भाग रहे हैँ छिपाते सिर

बचते बचाते दौड़ते बिखरते बिछुड़ते इधर से उधर.

ऐनेक्‍सगोरस (थोड़ी देर रुक कर, गंभीरतापूर्वक)

यूँ तो मैँ समर्थक हूँ पाताल की सत्ता का,

इस मामले मेँ आसरा लेना पड़ेगा ऊपर का…

, जो तुम हो ऊपर – गरिमाशाली, शस्यश्यामल शक्तिशाली

त्रिनामा, त्र्याकार, सनातन!

सब जनोँ के नाम पर है मेरा आवाहन –

डायना, लूना, हेकाती!

ओ वक्षविसफारिणी! ओ विचरिणी विचारिणी!

ओ प्रशांतिनी प्रभासिनी! ओ महिमामय वैभवशालिनी!

खोल, अस्मिता के विकराल छायामय गहन गह्वर खोल!

मायावी शक्ति से हीन पुरातन बल निज तौल!

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(रुकता है – )

सुन लिया तत्काल तुम ने मेरा आवाहन?

उच्च आकाश को संबोधित वह क्रंदन

अविलंबतः कर गया स्पंदन

प्रकृति ने त्याग दिया चक्रावर्तन?

 

देखो – देखो –

बढ़ता आ रहा है – बृहत् से बृहत्तर होता बढ़ा आ रहा है

निकट से निकटतर चला आ रहा है –

देखो – देखो – महादेवी का सिंहासन – गोल पिंडाकार,

सुविशाल, गुरु गंभीर, भयावह, घोराकार.

उद्दाम वह्निशिखाओँ से उद्वेलित हो रहा है अंधकार…

मत आओ, मत आओ और पास –

ओ चक्र – महाविकराल, महाविशाल!

जल थल का, हम सब का हो न जाए नाश!

तो था सब सत्य? – जो वर्णित है गाथा मेँ – पुराकाल…

जब थेसाली की नागिनबालाओँ ने अभिशप्त मंत्र से

आवाहन कर था तुझे बुलाया – तू ने अपनी कक्षा त्यागी थी

तेरे घातक वरदान बने थे विपदा – जो धरती पर बरसी थी?…

जाज्वल्यमान फलक धीरे धीरे काला पड़ता है,

अकस्मात फट पड़ता है,

चिंगारी – चमचम, धमधम,

महाप्रभंजन – घड़घड़, गर्जन, घनघन…

महावज्र सी धूधू, घूघू, नर्दन, तड़पन…

विकट भूल थी मेरी. देवी, क्षमा, देवी.

मैँ ने ही बुलाया था महानाश. क्षमा, देवी.

(वंदना मेँ धरती पर गिरता है.)

थलीस

क्या देखता सुनता रहता है मन ही मन यह जन?

मुझे तो नहीँ हुआ विचित्र लीला का आभास या दर्शन.

हाँ, मैँ मानता हूँ यह – हो गया है काल मेँ घोर विवर्तन -

लेकिन – प्रशांत है लूना, सिंहासन पर विराजमान

अब भी पहले सी भास्वर, दैदीप्यमान.

मनुडिंभ

उधर देखो – वहाँ – भागे थे वामन दल जहाँ, उधर –

रखा गया है त्रिशंकु आकार – गोल पर्वत के शिखर पर.

मैँ ने भी भोगा था – विकर्षण और भारी सा झटका,

एक बड़ा सा शिलाखंड चंद्रमा से था आन टपका.

कुचले गए थे सब – जो भी थे शत्रु और मित्र – वहाँ पर

अप्रयास सब का हो गया था तत्काल संहार,

यह जो भी हुआ, कला थी या क्या थी, अच्छी थी –

एक रात मेँ निर्माण और नाश का प्रदर्शन थी –

एक रात मेँ उभर कर टपक कर ऊपर और नीचे से

बन गया यह पर्वत विशाल तत्काल जाने कैसे?

थलीस

चुप कर! नहीँ था कुछ… जो था कोरी कल्पना थी

कुत्सित थे वामन – गर्हित सर्जना थी.

अच्छा है – तू नहीँ था उन का राजा.

चल, अब सागर के कल्लोलित हर्षित तट पर आ जा.

सम्मानित अभ्यागत बन – पा सस्वागत आदर.

(जाते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (दूसरी ओर चढ़ता हुआ – )

यहाँ चढ़ना पड़ रहा है तीखे चढ़ानोँ पर

ओक की उभरी फैली जड़ोँ को लाँघते फलाँदते

ऊबड़ खाबड़ पथोँ पर, पर्वतीय सोपानोँ पर.

हार्ट्ज़ माला पर, धूनी की धुएँली हवा मेँ हाँफते

होता था कालिख का आभास

जो प्रिय था मुझे – जैसे दिव्य गंधकी प्रभास.

लेकिन यहाँ – ग्रीकोँ के लोक मेँ –

देर तक दूर तक खोजते रहो मिलती नहीँ राई रत्ती सुगंध.

उत्सुक हूँ मैँ – अच्छा रहेगा यह जानना –

कहाँ छिपाए रखते हैँ ये वह्नि – जो जलती रहती है पाताल मेँ.

द्रुमिणी

बनना बुद्धिमान घर पर – साजता है तुझे,

त्यागना बुद्धि का दिखावा परदेस मेँ – उचित है तुझे.

त्याग दे घरवापसी का विचार, अभी त्याग दे

पुरातन ओक द्रुम को यहाँ पूरा सम्मान दे.

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़

याद आता है सब जो रह गया पीछे –

रहते रहते वह स्वर्ग सा अच्छा लगता था मुझे.

कहो तो – क्या है – वहाँ, उस कंदरा मेँ, जो दिखता है मुझे?

अस्पष्ट सा, ओझल सा, सिमटा सा, त्र्याकार सा?

द्रुमिणी

फोर्क्याड हैँ वे! साहस है तो जा, उन के पास जा!

जा, अकंपित, निर्द्वंद्व बात कर के दिखा!

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़

क्योँ नहीँ! अभी लो! चकित हूँ मैँ, पूरी तरह भ्रांत!

गर्व है मुझे स्वयं पर, पर करता हूँ स्वीकार – सत्य दुर्दांत

देखा नहीँ मैँ ने अभी तक कुछ भी इन के समान –

हमारी चुड़ैलोँ मेँ एक भी नहीँ है इन के समकक्ष समान –

असीम, अनंत, निकृष्टतम कुरूपता की कल्पना साकार!

देख लो इन तीनोँ को तो – करना पड़ेगा स्वीकार –

हमारी महामारक पापिनियाँ हैँ सुंदरता की अवतार!

हमारे नरक का कलुषित से कलुषित कोना

कभी नहीँ झेल पाएगा इन का होना.

लेकिन यहाँ – ग्रीकोँ के देश मेँ, सौंदर्य के देश मेँ –

इन को मिली है ख्याति की थाती

क्योँकि इन्हेँ लपेटा गया है पुरातन प्राचीन के वेश मेँ.

हिलीँ, वे हिलीँ! मिल गई है इन्हेँ मेरी गंध.

रूधिरपायी चमगादड़ सी चुहकती, चुरकती, कीँकती, कूँकती…

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तीनोँ फोर्क्याड

बहना, मुझे आँख तो देना…

देखूँ कौन आया हमारे मंदिर के द्वार…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आप की अनुमति से करता है सेवक प्रवेश,

देवी – परम आदरणीया महान.

मिले दास को आप का त्रिगुणित वरदान.

मैँ आया हूँ – अभी तक निपट अनजान

लेकिन, यहाँ तक है मेरा अनुमान –

मैँ निकलूँगा आप का दूर का नातीदार.

पुरातन आदरणीय देवोँ के मैँ कर चुका हूँ दर्शन.

ओप्स और री के समक्ष झुक कर चुका हूँ सविनय निवेदन,

आप की बहनेँ – पार्काएँ – अभी हाल मेँ मिली थीँ

परसोँ मार्ग मेँ हो गए थे उन के दर्शन…

लेकिन – अभी तक नहीँ हुए किसी आप जैसे के दर्शन.

अवाक् हूँ मैँ, हर्ष से विभोर, है मन मेँ प्रकंपन.

 

तीनोँ फोर्क्याड

तेरी आत्मा – लगती पूर्णतः सचेतन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

चकित हूँ मैँ –

एक भी कवि नहीँ कर सका आप मेँ काव्य के दर्शन!

किसी ने नहीँ गाया आप के सौंदर्य का वर्णन.

कहेँ तो ऐसा हुआ कैसे –

नहीँ हुआ अभी तक आप के रूप का चित्रण!

आप के माध्यम से, क्या नहीँ होना चाहिए हमेँ मुक्त –

जूनो, पल्लास और वीनस के आकारोँ से मूर्त?

तीनोँ फोर्क्याड

घोर एकांत और मौनतम निशा मेँ लिप्त हैँ हम.

इस के पार उड़ने को कभी किया नहीँ हमारा मन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

करता भी कैसे? आप नज़रोँ से दूर हैँ नज़रेँ सब की.

आप को कोई देखता नहीँ, किसी को आप देखतीँ नहीँ.

कीजिए स्वीकार रहना उन देशोँ मेँ. चलिए –

कला और गरिमा की सत्ता के देशोँ को चलिए,

जहाँ मर्मर मेँ निर्मित नायक दिन प्रति दिन दौड़ते चलते हैँ,

जहाँ…

तीनोँ फोर्क्याड

बस, बस. मत जगा मन मेँ स्वप्न महान.

किस काम का रहेगा उन का ज्ञान!

रात मेँ जनमी हैँ हम, हैँ अंधकार समान,

मात्र अपने से परिचित हैँ हम, अन्य से अज्ञात अनजान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो फिर अधिक क्या रह जाता है कहने को शेष?

फिर भी एक बात रह जाती है कहने को शेष.

एक आँख आती है आप तीनोँ के काम,

एक दाँत आता है आप तीनोँ के काम,

तो क्या, मिथक मेँ, यह भी हो सकता है संभव –

आप तीनोँ के काम आए एक शरीर?

और आप का यह महासुंदर आकार

कुछ काल के लिए दे देँ मुझे आप उधार?

एक

सचमुच – क्या यह है – संभव?

शेष दो

कर सकती हैँ प्रयास – न हो जो आँख या दाँत.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

वाह, सर्वोत्तम से आप कर रही हैँ मुझे वंचित.

कैसे कर पाऊँगा आप के घोर रूप का प्रदर्शन?

एक

वाह, यह तो है बेहद आसान –

एक आँख कर ले बंद,

अब दूसरी से देख अपना एक उद्दंत.

अब जो दिखता है पार्श्वचित्र – लगेगा सर्वांग!

बन जाएगा तू भागिनेय प्रतिरूप संपूर्ण अविकलांग!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तथास्तु!

तीनोँ फोर्क्याड

    तथास्तु!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (पार्श्व से देखने पर फोर्क्याड जैसा दिखाई देता है)

        देखिए तो मेरा रूप!

मैँ – आदिम अनाचार का प्रिय पूत!

तीनोँ फोर्क्याड

साधिकार कह सकती हैँ हम – अनाचार की संतान हैँ हम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाय शर्म! लोग कहेँगे मुझे बृहन्नला! षंड!

तीनोँ फोर्क्याड

वाह! हम बहनोँ का यह नवल त्रिरूप!

अब आँखेँ हैँ दो, दो हैँ उद्दंत समरूप!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अपना यह अनोखा रूप अब छिपाता फिरूँगा,

नरक के शैतानोँ को इस से डराया करूँगा.

(जाते हैँ.)

 

 

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