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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 2 दृश्य 3 – सांस्कृतिक वालपुरगिस रात. 1. फारशाला के मैदान

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

 

 

 


३. सांस्कृतिक वालपुरगिस रात

१. फारशाला के मैदान

अंधकार.

ऐरिक्थो

आ गई फिर से उत्सव की घनघोर रात.

आता हूँ अकसर, आया हूँ फिर आज की रात

मैँ – ऐरिक्थो – विकट, उदास.

कवि कहते हैँ जितना, उतना तो मैँ नहीँ हूँ क्रूर.

अतिशयोक्ति नहीँ, तो और क्या है, कवियोँ के पास?

जब जितना जिस का चाहे करने लगे निंदन अभिनंदन भरपूर.

अतिशय उज्ज्वल है यह वादी आज की रात.

दूर तक फरफरा रहे हैँ शिविरोँ के धूसर वितान.

फिर से प्रतिबिंबित है वह दृश्यावली महान –

घोर, घातक, भयानक थी रात.

दोहराई गई है वह कितनी बार!

क्या दोहराई जाती रहेगी निरंतन – बारंबार!

दान मेँ मिलता नहीँ किसी को किसी से राज.

जीतने पड़ते हैँ राज. फिर भी कर पाता नहीँ कोई भी राज.

उच्छृंखल मन पर चलता नहीँ किसी का राज.

हर कोई चाहता है करना पड़ोसी पर राज…

यहीँ पर जूझ जूझ कर सीखा गया है पाठ महान –

जब शक्ति का होता है गुरुतर शक्ति से घनघोर संग्राम

टूटता है, बिखरता है, स्वाधीनता का सहस्रपुष्पहार.

छीन लेता है विजेता, लेता है शीश पर धार.

यहीँ पर देखे थे पोँपेई ने वैभव के आरंभिक स्वप्न महान,

यहीँ पर देखता रहा था सीज़र तराज़ू कंपायमान –

जो तौलना था – सारा विश्व जानता है परिणाम.

सुलग रहे हैँ अलाव, जो जलाए बैठे हैँ पहरेदार.

लपलपाती है ज्वाला, चमकते उछलते हैँ अंगार.

झिलमिला रहा है गहरा लहू – जिस के बहाए गए थे अंबार.

आज की रात है दमकती, दहकती, धधकती रात

गौरवगर्वी ग्रीस की गाथाओँ के जमघटे की रात.

लो, चाँद निकला – पूरा नहीँ है.

मगर ज्योत्सना मेँ कमी कुछ नहीँ है.

हो गए ओझल शिविरोँ के वितान…

ज्वालाजिह्वाओँ पर नीलिमा है दैदीप्यमान.

 

लेकिन यह क्या ऊपर, सिर पर, अकस्मात उल्का सा?

चमचमाता है… प्रकाशित हो उठी पूरी धरा…

जीवितोँ की तीखी गंध आने लगी है.

मेरा जाना उन के पास अच्छा नहीँ है.

उन का भला नहीँ होगा.

नाहक़ नाम मेरा बदनाम होगा.

सड़ने लगी है नाक. अच्छा है चुपचाप खिसक जाऊँ.

(जाता है.)

ऊपर नभ मेँ उड़ता…

मनुडिंभ

एक बार फिर मैँ मँडराऊँ

दहशत और अगन के पीछे धाऊँ

घाटी गह्वर मेँ जितना झाकूँ

बस, प्रेतमयी माया मैँ पाऊँ

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

उत्तर के निर्जन घमासान मेँ

तमस उजाड़ मेँ, बियाबान मेँ

है जैसी प्रेतोँ की माया

वैसा ही घर जैसा वन पाया

मनुडिंभ

देखो! वह तन्वंगी काया

लंबे डग भरती जीवित सी छाया

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

शायद देखा उस नेहम आते

मिलने आती जल्दी जल्दी क़दम बढ़ाते…

मनुडिंभ

चलो चलेँ हम पीछा करते…

कहीँ निकट नायक को धर दे!

हर ओर यहाँ वैसा जीवन है

जिस की उस को बड़ी लगन है.

फ़ाउस्ट (धरती का स्‍पर्श करता है – )

कहाँ है – किधर है – वह?

मनुडिंभ

जो जानना है – वही तो कठिन सा प्रश्न है यह.

मैँ समझता हूँ आसपास पूछने से सुलझ सकता है यह.

हो जाओ तैयार, भोर से पहले चले जाओ…

उस का पता पूछते – अलाव से अलाव तक जाओ

डरो मत हिचको मत – मातृकाओँ तक हो आए हो.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

इस सैर मेँ कुछ भाग है मेरा भी, सुन, भाया.

सब के भले का यह विचार मन मेँ आया –

अलग हो जाएँ हम तीनोँ

भटकेँ अलावोँ मेँ हम तीनोँ

खोजें भाग्य मनचाहा तीनोँ…

फिर कैसे कब मिलेँ तीनोँ

भाया, तय अभी कर लो –

मनुडिंभ, तुम यह टिमटिमा बजा देना

तीखी सी चमक जगा देना…

मनुडिंभ

ऐसे घनघनाएगा, ऐसे चमचमाएगा…

(काँचकूप घनघनाता है और शक्तिशाली घोष करता है.)

करो जल्दी, अचरजोँ मेँ पैठो!

(जाते हैँ.)

फ़ाउस्ट

कहाँ है वह? – अब पूछना गछना नहीँ है कुछ!

यही तो है वही धरती – थी जिस पर वह चरण धरती.

यही तो वह लहर है – जो लिपटने को उसे मचली.

यही तो वह पवन है – जो बोलती है उस की बोली.

यहाँ मैँ हूँ, ग्रीकोँ की धरा पर हूँ – विस्मय है बड़ा भारी.

जिस पर अब खड़ा हूँ मैँ – छूते ही लगी अपनी.

अंगोँ मेँ नया बल है, ओज है, प्रबलता है

मन मेँ है आंतेयुस – बली है जो, जब तक धरती पर टिका है

विलक्षण का भंडार सा सामने पड़ा सा है –

भ्रमजाल से अलाव हैँ, बिछे से कपटजाल हैँ –

घुसता हूँ, खोजूँगा – छिपा जो इन मेँ माल है.

(जाता है.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (इधर उधर टोह रहा है – )

भटक रहा हूँ, भ्रमित हूँ, मूढ़ सा हूँ

अग्निचक्रोँ मेँ मैँ मतिमंद पूरा सा हूँ…

अधिकतर हैँ नग्न, कोई कोई डाले है चोलक

ग्रिफ़िन हैँ उद्दंड, पूरे लंठ! और स्फिंक्स? – बेहया निर्लज्ज!

इतना ही नहीँ… लगा रखे हैँ गराड़ियोँ के चक्के –

आगे और पीछे. केशोँ के जाल –

गड़ा देते हैँ आँखोँ के भीतर – ऊपर – नीचे!

ठीक है, फूहड़ता, बेहूदगी, बर्बरता लगते हैँ भाते हैँ हमेँ भी,

लेकिन ये – पुराने! हैँ कुछ ज़्यादा ही तेज़, ज़िंदादिल!

तौबा! मेरी तौबा! कुछ तो शिष्टाचार का बघार हो –

जैसी हो जितनी हो कुछ तो नए की टीमटाम हो!

घिनौनी है जाति की जाति! फिर भी मिलना तो पड़ेगा ही!

जैसा हो, शिष्टाचार थोड़ा तो बरतना पड़ेगा ही!

हलो, हलो, सुंदर नारियो! बूढ़े धूमिल गृधिणो!

 

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ग्रिफ़िन (गुर्राता सा – )

धूमिल गृधिणो!

धूमिल! ना, ना, कोई नहीँ कहलाना चाहता धूमिल.

हर शब्द मेँ छिपा है उस का स्रोत, उस की व्युत्‍पत्ति!

और साथ साथ चलती है उस की ध्वनि, आभास!

धूमिल, धूमल, धूम, धूम्र, ध्वंस, ध्वस्त, ध्वसी, ध्वांस, धाँस…

उत्पत्ति, व्युत्‍पत्ति, ध्वनि, प्रतिध्वनि, हो सकती है भारी आपत्ति.

हम को होने लगती है घिन सी, जकड़न सी.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आप को क्योँ हो जकड़न सी, घिन सी?

गौरवमय गृधिण का गृध तो आप को लगता है भला.

ग्रिफ़िन (उसी स्वर मेँ – लगातार, बिना रुके – )

हाँ, यह संबंध है पूर्णतः समुचित, संप्रयुक्त.

कभी कभी होती है गृध्या की निंदा, अकसर मिलती है प्रशंसा.

गृधिण, गृध्या, गार्ध्य, गृधण, ग्रहण, ग्रसन, पाना, हड़पना,

सुंदरी, सिक्का और स्वर्ण – तीनोँ को कस कर पकड़ना –

क्या बात है! भाग्य साथ देता है गृधिण का…

विशालकाय चीँटियाँ

आप बात कर रहे हैँ स्वर्ण की, समेटा है हम ने घनेरा!

शिलाओँ मेँ, कंदराओँ मेँ, छिपाया था जतन से हम ने.

जाने कैसे पता लगा लिया आरिमाशपिया जाति के चरोँ ने.

अब हँस रहे हैँ वे – छिपा दिया कोश कहीँ दूर जतन से.

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ग्रिफ़िन

जल्दी ही उगलवा लेँगे हम उन से!

आरिमाशपियाई लोग

लेकिन आज उत्सव की रात है मुक्त!

आज हमारा बिगाड़ नहीँ सकते तुम कुछ!

कल सुबह तक तो कोश हो जाएगा उड़नछू!

इस बार हमेँ मिल कर रहेगी सफलता!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (वह स्फिंक्सोँ  के बीच आ बैठा है – )

तुम सब से मिल कर! सचमुच है ऐसा लगता –

तुम सब हो मेरे अपने से –

चिरपरिचित, समझे बूझे, जाने पहचाने से.

स्फिंक्‍स

मनोगीत जो हम गाएँगे

सुन लो तुम तो उन को भौतिक पाओगे.

अब तुम अपना नाम बताओ

जान सकेँ जो तुम को – बतलाओ.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मानव ने एक नहीँ बहुतेरे नामोँ से मेरे निज को बाँधा

क्या ब्रिटेन के लोग हैँ यहाँ पर?

लगाना दुनिया के चक्कर पर चक्कर

है उन का धंधा -

घूरना, ताकना, हेरना पुरातन खंडहर –

रणक्षेत्रोँ को खोज निकालो, झरनोँ को देखो,

जर्जर प्राचीरोँ को परखो,

बीहड़ मरियल दारुण उजाड़ विगत काल मेँ भटको…

यह अंचल तो जैसे उन ही के लिए बना है.

उन के प्राचीन नाटकोँ मेँ भी मेरा नाम घना है…

मानव ने तब मेरा नाम रखा था – पाप पुरातन.

स्फिंक्‍स

कैसे मिली उन को यह कमाल की सूझ?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

        सच, नहीँ पाया अभी तक मैँ समझ.

स्फिंक्‍स

शायद!… नक्षत्रोँ मेँ भी क्या कुछ तेरी गति है?

क्या समय हुआ है – तेरी मत क्या कहती है?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (ऊपर देखता है – )

तारे पर तारे टूट रहे हैँ. शृंगित चाँद पूर्णतः

दमक रहा है. इस प्रदेश मेँ हूँ मैँ प्रसन्नतः.

तेरी सिंहल चमड़ी से मुझ को ताप मिला है.

हटना जाना दूर नहीँ मेरी मंशा है.

कुछ पूछ पहेली या सुना चुटकुले…

स्फिंक्‍स

तू कह अपनी बात – बनेगी पहेली.

कर अपना विश्लेषण – बनेँगे चुटकुले.

क्या हैजो हर सज्जन दुर्जन चाहे

उन को कवच जो लड़ेँ भलोँ से

इन को याड़ी जो साथ मिले कूदे खेले

दोनोँ से द्यौस आनंदी महादेव ख़ूब मज़े ले

पहला ग्रिफ़िन (गुर्राता झल्लाता हुआ – )

अच्छा नहीँ लगता मुझे यह!

दूसरा ग्रिफ़िन (और भी गुर्राता झल्लाता हुआ – )

यहाँ क्योँ आया है यह?

दोनोँ

पाजी कहीँ का! साफ़ है हम मेँ से नहीँ है यह!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (क्रूरतापूर्वक)

समझते हो तुम्हारे पाहुने के पास हैँ जो नख

तुम्हारे जितने तेज़ नहीँ हैँ वे नख!

तो हो जाए…

स्फिंक्‍स (नरमी से – )

भला लगता है तो यहाँ तू ठहर,

हमारी पाँत मेँ से निकल जा पर…

तेरे देश मेँ उठाए जाते होँगे तेरे नख़रे

मेरी समझ से तो यहाँ तेरे रंग ढंग हैँ बेढंगे.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तेरा ऊपर का अंग तो है बड़ा ही मनोहर

कुछ भी नहीँ है इस से बढ़ कर.

लेकिन जो है नीचे – मुझे तो लगता है भयंकर.

स्फिंक्‍स

अरे छलिए, तेरा अंजाम होगा भारी अहितकर.

हमारे पंजे हैँ सही साबुत सुदृढ़ सुदृढ़तर.

लेकिन तू, तेरे जो हैँ सड़े गले घोड़े जैसे खुर

उन से हमारा मेल है दुष्कर.

(ऊपर मायाविनी साइरनोँ का आरंभिक प्रवेश संगीत.)

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़

वहाँ – उधर – पौपलार वृक्षोँ के ऊपर, नदी के तट पर

कौन से पक्षी हैँ जो घुमड़ रहे हैँ घिर कर?

स्फिंक्‍स

सँभल कर! वे हैँ सब से बढ़ कर.

फँसाती हैँ प्रेम जाल मेँ फुसला कर.

साइरनेँ

कलुषित क्योँ करते निज अंतर?

विद्रूप कहाँ करता है निज घर?

आती हैँ हमआती हैँ ले कर

बाँधे दल के दल, गीतोँ के स्वर

देखो, सुनो, मगन अब हो कर

नाद ताल लय का क्रम सुंदर

मिलो साइरन दल से सत्वर

सुनो सुनो सुंदरतम कोमल स्वर.

स्फिंक्‍स (उन्हेँ चिढ़ाते, उसी लय पर – )

कहोआओ तो बाहर खुल कर

क्योँ बैठी हो शाखोँ मेँ छिप कर?

उन्होँ ने रखे हैँ चंगुल छिपा कर

सुन लिए जो गीत मगन हो कर

भुगतोगे उन के वार पछता कर.

साइरनेँ

त्याग दो घृणा बैरहै बेहतर

जो कुछ भी है स्वर्ग के नीचे सुखकर

हम लाई हैँ सब आनंद भोग चुन कर

पूरी धरती पर, चौड़े सागर पर.

बुलाती हैँ हम नाच कर गा कर

स्वागत है आएँ सब मुसाफ़िर

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मेरे वास्ते सब कुछ अनोखा है सुंदर.

कंठ से निकला वीणा के तार पर

लयतालबद्ध और समवेत है स्वर.

सारी यह तुन तुन, कोमल सी धुन घुन

मिश्री सी घोलती है कानोँ मेँ गुन गुन,

फिर भी होता नहीँ असर मेरे दिल पर.

स्फिंक्‍स

दिल! दिल की बात मत कर!

तू कहता है दिल जिस को, ओ पत्थर,

चमड़े का थैला है झुर्रीदार जर्जर.

फ़ाउस्ट (निकट आता हुआ – )

विचित्र है! संतुष्ट सा निरखता हूँ मैँ इन को –

ये जीव – घिनौने, सुविशाल ठोस हैँ अवयव.

लगता है होने को है कल्याण सुखकर.

क्या कहती है मुझ से इन की दृष्टि घनघोर?

(स्फिंक्‍स की ओर संकेत करता है – )

कभी पहले इन के सामने खड़ा हुआ था ईडीपस…

(साइरनोँ की ओर संकेत करता है – )

इन्होँ ने तड़पाया था यूलिसस को कस कर…

(चीँटियोँ की ओर संकेत करता है – )

इन्होँ ने सकेला था महाकोश…

(ग्रिफ़िन की ओर संकेत करता है – )

इन्होँ ने रखा था उसे जकड़ कर, कस कर पकड़ कर…

फिर से है मुझ मेँ नवोत्साह, नवोन्मेष –

महान हैँ आकार, महान हैँ स्मृतियाँ…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

एक समय था – जब तुम ने कोसे थे आकार पुरातन

लगता है – अब इन से मिलता है तुम को आह्लाद सनातन.

जब कोई खोज रहा हो अपना खोया प्रियतम –

सच है – उस को भाने लगते हैँ दैत्य कुटिलतम.

फ़ाउस्ट (स्फिंक्‍स से – )

सुनो, तुम नारी आकारो सुनो,

क्या तुम ने देखी हेलेना?

स्फिंक्‍स

उजड़ गया था उस से पहले ही वंश हमारा

हरक्यूलीस था जिस ने अंतिम सिंहल मारा.

चाहो तो पूछ लो किरोण से.

ऐसी भुतहा रातोँ मेँ वह मिलता

दौड़ लगाता, दुलकी भरता…

रोक सके जो तुम उस को

समझो जागा भाग तुम्हारा.

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साइरनेँ

नहीँ मिलेगी तुम्हेँ निराशा!

जाते जाते यूलिसस जब ठहरा था

जब यूलिसस ने हमेँ नहीँ धिक्कारा

जो बार बार उस ने उच्चारा

वह सब है तुझ को बतलाना

है सारा भेद तुझे समझाना

सागर की बाँहोँ मेँ गहरी श्यामल

खोज रहा तू मदिरल शाद्वल…

स्फिंक्‍स

सावधान! छल है, छलना है केवल!

यूलिसस सा मत बंधन मेँ आना.

मान ले मेरी सच्ची सीधी बात

जो मिल जाए तुझे किरोण,

हो जाएगा सब कुछ ज्ञात!

(फ़ाउस्ट चला जाता है.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (चिड़चिड़ाता हुआ – )

क्या जा रहा है सर्राटा सा, पंख फड़फड़ाता सा!

क्या है जो दिखता नहीँ है मुझे धड़धड़ाता सा!

पहले से अंतिम तक कैसा दल बाँधे क़तार -

अच्छे से अच्छा शिकारी मान जाएगा हार.

स्फिंक्‍स

ये – झंझावात से, चक्र से, हिमवात से –

बचते थे ये हरकुलीस तक के बाण की मार से

ये हैँ चपल पखेरु स्टिमफेलिदीश

बुरी नहीँ है इन की अभिनंदनभरी चीख़

हंस से पैर है इन के, चोँच है गिद्ध सी.

शीघ्र ही हमारे पास आएँगे वे

दिखलाएँगे वे भी हैँ हमारे वंश के.

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (जैसे आतंकित हो उठा हो – )

कोई और व्याल फुंकार रहा है हिंस्र सा.

स्फिंक्‍स

डरो मत. यह अर्चन गायन है, लगता है रौरव सा.

बूढ़े लेरनायोस के ये हैँ सहस्र फन

करते रहते हैँ फन फन -

कभी के कट चुके हैँ धड़ से,

अपने को समझते हैँ बहुत कुछ अभी तक.

कहो तो क्योँ लगते हो, पाहुन, चिंतित से?

क्योँ हाव भाव हो गए तुम्हारे घबराए से?

कहाँ जाओगे? चाहो तो जाओ!

यह कोरस, इस से डरते से गरदन मत घुमाओ!

बढ़ो! करो स्वागत सुंदर जीवोँ का!

देखो – आई हैँ लामिया नागिन

नारियाँ परम पापिन,

उद्धत भौँहेँ, अधर मुसकाते

सैटिर जन को बहुत भाते.

तुम जैसे फटेखुर को मिल सकता है बहुत कुछ.

 

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, तुम यहीँ ठहरो, अभी आता हूँ मैँ. यहीँ मिलना!

स्फिंक्‍स

हाँ. हाँ. जाओ, मिलो. अच्छा है हवाई जीवोँ से मिलना.

हम, हम हैँ मिस्र के,

हमारे वंशी आदी हैँ हज़ारोँ साल तक राज्य के.

आप जैसे महानुभावोँ का हमेँ मिल जाए समर्थन,

जब तक चाँद और सूरज को धारे है गगन –

आप के लिए हम – करते रहेँगे शासन.

पिरामिडोँ के सामने बैठे हैँ हम

जातियोँ का न्याय करते हैँ हम

प्रलय हो, युद्ध हो, या शांति

मुखड़ा निर्विकार रखते हैँ हम.

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