फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 2 दृश्य 1 – ऊँची मेहराबोँ वाला संकीर्ण गोथिक कक्ष

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

१. ऊँची मेहराबोँ वाला संकीर्ण गोथिक कक्ष

(यह पहले फ़ाउस्ट का था. अभी तक पहले जैसा.)

परदे के पीछे से मैफ़िस्टोफ़िलीज़ प्रवेश करता है. कुछ देर वह परदा उठाए रखता है. फ़ाउस्ट पुराने पलंग पर पड़ा दिखाई देता है.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

पड़ा रह, अभागे. मूर्ख! मनोमुग्ध!

पड़ चुका है तुझ पर प्रेम का फंदा.

कर दिया हो जिसे हेलेना ने अचेत.

नहीँ है कोई कारण जल्दी अपना सके वह अपना धंधा.

(चारोँ ओर नज़रेँ दौड़ाता है.)

देखता हूँ चारोँ ओर. झिलमिल के पार

सब कुछ – पहले जैसा, अनबदला, अक्षत.

हाँ, कुछ मद्धम हैँ रंगीन काँच के दिल्ले.

बरसोँ ने और भी लगा दिए हैँ मकड़ी के जाले.

सूख गई है स्याही. काग़ज़ पड़ गए हैँ पीले.

पर हर चीज़ है वहीँ, पहले थी जहाँ.

वहीँ पड़ा है पंखी क़लम, जिस से किया था

उस ने शैतान से समझौता.

हाँ, कुछ गहरा गया है लहू का रंग.

महत्व की है यह अनोखी लेखनी – संसार रह जाएगा दंग –

संग्राहकोँ मेँ मच जाएगी होड़, रखना चाहेँगे पास.

खूँटी पर अधलटका सा है पुराना फ़रदार लबादा.

फिर से जाग रही है मन मेँ आकांक्षा –

धार लूँ फिर से अध्यापकी बाना.

फिर करूँ गर्वित ज्ञान का बखान.

हर कोई समझता है अपने आप को महाविद्वान

केवल विद्वान ही जानते हैँ – कैसे मिलता है ज्ञान.

यही तथ्य जो बहुत पहले विस्मृत कर चुका है शैतान.

(लबादा झटकारता है. पतंगे, झीँगुर, भृंग निकल पड़ते हैँ.)

कीड़ोँ का कोरस

स्वागत है, स्वागत है, आओ

आओ, ओ भूले बिसरे पाहुन

 

मौनमनस बोया था तुम ने

एक एक कर बोया तुम ने

लो, देखो अब लाखोँ बन कर

स्वागत मेँ करते हम गायन

 

महादुष्ट हैँ, महाविकट हैँ

मन मेँ कीट छिपे जो पाहुन

हम केवल कपड़ोँ मेँ छिपते

झाड़ोकरते शीघ्र पलायन

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मगन मुदित हो, विस्मित मन,

मैँ ने देखा यह नव जीवन.

बोओगे, तब ही काटोगे फ़सल पके पर

कोट पुराना झाड़ूँ फटकारूँ एक बार फिर.

उड़ो, भगो, कीटोँ के दलबल,

छिपो, घुसो कोनोँ मेँ, गह्वर मेँ

धूमिल मोटे काग़ज़ के गट्ठर मेँ,

टूटे फूटे धूल सने घट घट मेँ.

घुस जाओ उस नेत्रहीन निर्जीव मुंड मेँ.

जितना भी कूड़ा करकट परिसर है

पलते वहाँ सभी मत्सर हैँ.

(फ़रदार लबादा पहनता है.)

, अब फिर से मेरे काँधे पर पड़ जा.

फिर से बनता हूँ मैँ प्राचार्य.

विद्वत्ता का सारा दंभ है बेकार

जो न होँ चेले चाँटे पाने को ज्ञान के उपहार?

(घंटी बजाता है. बड़ी तीखी कर्कश घनघोर ध्वनि निकलती है. कक्ष काँप जाते हैँ. दरवाज़े भड़भड़ा कर खुल जाते हैँ.)

सहायक (लंबे अँधियारे गलियारे मेँ लड़खड़ाता आता है.)

कैसी ठनठन! आ गया क्या भूचाल?

हिचकोले खा रही हैँ सीढ़ियाँ! हिल उठी दीवार!

खड़खड़ाती खिड़कियोँ के पार – बिजली की कंपित चमकार!

चरमरा रही है बुढ़ाती छत – हो रही है चूने गारे की बौछार!

बंद दरवाज़े भड़भड़ा उठे, जादू से खुल गए – लगता है भय.

देखो तो सही – फ़ाउस्ट की पोशाक़ मेँ भारी भरकम दैत्य

अकड़ कर खड़ा है. घूर रहा है. बुला रहा है पास.

छूट जाएँगे औसान. गिर जाऊँगा धड़ाम.

भागूँ बचा कर जान – या जाऊँ पास?

जाने क्या है भाग्य मेँ आज? हो तो नहीँ जाएगा काम तमाम?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (अपनी ओर आने का संकेत करता है.)

आइए, आइए, मित्र नीकोदेमुस.

सहायक

महादरणीय श्रीमान, मेरा नाम है – ओरेमुस!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

छोड़ो भी!

सहायक

  आप पहचानते हैँ मुझे – कमाल है!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जानता नहीँ! बुढ़ा गए, पर रुका नहीँ ज्ञान का अभियान.

आदरणीय मित्र – बन गए महाविद्वान,

अर्जित करना ज्ञान, और भी ज्ञान! पढ़ना, केवल पढ़ना!

सीखा नहीँ कोई और काम.

लोग बना देते हैँ ताश के घर. पूरा करते नहीँ विद्वान.

आप के प्राचार्य गुणोँ की खान. दूर दूर तक है उन का बखान.

कौन नहीँ जानता उन का नाम – डाक्टर वाग्नर महान.

विश्व के शिरोमणि विद्वान.

प्रतिदिन हो रहे हैँ वह और भी दैदीप्यमान.

संपूर्ण ज्ञान पर है उन का सशक्त अधिकार.

लोग कहते हैँ कि अकेले वही चला रहे हैँ संसार.

उन्होँ ने कर दिखाया है ज्ञान का बहुमुखी विस्तार.

हर दिन हो जाता है सिद्ध – वही हैँ ज्ञान के गुणनहार.

दूर दूर से आए ज्ञान के पिपासुओँ की भीड़ अपार

सुनने को महापंडित के भाषण, दिन प्रति दिन, घेरे रहती है द्वार.

सुन कर प्रवचन महागुणशाली जन हो जाते हैँ कृतकार्य.

उन के श्रीचरणोँ से मंच हो जाता है शोभायमान.

ज्ञान की कुंजी है उन के पास. वह खोलते हैँ द्वार

जैसे कभी पहले खोलते थे संत पीटर महान.

संत पीटर जैसा ही है उन का मान सम्मान.

सहज गम्य बना देते हैँ वे परापर का ज्ञान.

उन की ज्योति से जगमग है धरा धाम.

उन के जैसे नहीँ हैँ किसी अन्य नाम के विशेषण.

अब तो धुँधला गया है फ़ाउस्ट का भी नाम.

मात्र वाग्नर ही कर रहे हैँ नवीन से नवीनतम अन्वेषण.

सहायक

क्षमा करेँ, श्रीमान, जो आकर्षित कर रहा हूँ मैँ आप का ध्यान.

आज्ञा देँ तो मैँ करूँ एक सविनय निवेदन.

आप ने जो कहा है – उस पर नहीँ किया जा सकता विवाद.

फिर भी कहना होगा – विनम्रता है उन का आभूषण.

जब से वह महाप्रज्ञ महान हुए हैँ अंतर्धान

जब भी पड़ जाता है कोई व्यवधान

गुरुवर खोए खोए रहते हैँ – परेशान.

होता नहीँ लय के मार्ग का ज्ञान.

दिन भर करते रहते हैँ प्रार्थना निवेदन,

बार बार करते रहते हैँ गुरुवर फ़ाउस्ट का ध्यान.

उन्हीँ से मिल सकता है अंधकार मेँ मार्ग दर्शन.

उन्हीँ से मिलेगा मन को चैन, होगा कल्याण.

अभी तक फ़ाउस्ट के कक्ष मेँ प्रवेश है निषिद्ध.

अनछुआ, अपरिवर्तित, अनिवासित, अभी तक है रिक्त –

फ़ाउस्ट के पुनरागमन की इस कक्ष को है तभी से अभिलाष.

उस कक्ष मेँ प्रवेश का मैँ भी करता नहीँ साहस.

आज किस नक्षत्र का है आवास?

लगा था अचानक प्राचीरेँ कंपित हो गईँ,

हिल गईँ चौखटेँ, साँकलेँ खड़खड़ाईं,

भड़भड़ा कर खुल उठे द्वार.

अन्यथा कैसे आप आ पाते कैसे भीतर?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

कहाँ गए, कहाँ हैँ आप के गुरुवर?

ले आ उन्हेँ यहाँ! ले चल मुझे उन के पास!

सहायक

आह! श्रीमान! वे कर रहे हैँ घोरतम मौनतम एकांतवास.

पता नहीँ – मैँ जा भी सकता हूँ क्या उन के पास.

बड़े कठोर हैँ आदेश. महाचार्य का सुकोमल गात

कोयलोँ की कालिख से पुता है, लगता है विकराल.

कपोल, नाक, कान – सब पर चढ़ी है भभूत.

अंगारधानी कुरेदते, धौँकते, फूँकते

सूज कर आँखेँ बन गई हैँ लाल ओपल.

हर पल वह उत्सुक हैँ देखने को – क्या लाता है नया पल.

चिमटोँ संडशियोँ की खड़खड़ ही है अब उन का संगीत.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

क्योँ नहीँ करने देँगे मुझे वह प्रवेश?

एक बार देँ तो सही मुझे अवसर –

मैँ दिलवा सकता हूँ उन्हेँ सफलता सत्वर..

(सहायक जाता है. मैफ़िस्टोफ़िलीज़ बड़ी गंभीरता से बैठता है.)

अभी ग्रहण कर भी नहीँ पाया मैँ आसन,

वहाँ, उधर से होने लगे एक सुपरिचित अतिथि के दर्शन.

जानता हूँ उसे; वह है नवविद्या का नवस्नातक

उस की मान्‍य्यताएँ, उस की बातेँ, होँगी उन्मुक्त, असीमित.

नवस्नातक (गलियारे मेँ तूफ़ान जैसा चलता आता है.)

खुल गए गवाक्ष द्वार!

अंततः यह आशा नहीँ होगी बेकार,

कि टूट गए होँगे उन दड़बोँ जैसे कारागारोँ के द्वार

जिन मेँ रहते हैँ मृतसमान जीवित आचार्य घुटे घुटे से,

संकीर्ण साँचोँ मेँ दबे भिँचे से

लेवड़ोँ मेँ संस्तरित जड़ीभूत, सड़े गले से.

 

यहाँ का हर जीर्ण प्रकोष्ठ, हर प्राचीर, देती है आभास

अभी गिर जाएगी, ढह जाएगी, अनायास.

धँस जाएँगे हम रसातल तक, वहीँ करेँगे आवास.

न निकल भागे तो हो जाएगा सत्यानाश.

साहस है मुझ मेँ, अद्वितीय, बेजोड़.

फिर भी मैँ जा नहीँ सकता यह संसार छोड़.

 

क्या है जो यहाँ मिला है मुझे आज तक ज्ञान?

बीत गए वर्ष पर वर्ष, जब मैँ आया था अनजान.

शरमाता सा, लजाता सा, कमसिन नौजवान.

यहाँ फटी आँखोँ से देखे थे मैँ ने उद्भट विद्वान.

दढ़ियल बुड्ढोँ को देखा सुना था यहाँ करते बखान.

क्या उन की बड़बड़ से पाया है मैँ ने कुछ ज्ञान?

 

घुन लगी पोथियाँ थीँ जराजीर्ण पुरातन.

कुछ भी रहा हो उन का ज्ञान, मिथ्या थे प्रवचन.

अपने कहे पर नहीँ था उन्हीँ का दृढ़ अवलंबन.

लौटाया नहीँ जा सकता है काल जो छल गया जीवन.

यह क्या! उधर उस अँधेरी सी खोली मेँ जहाँ है घुटन

अंधे से प्रकाश मेँ कोई एक अब भी है विराजमान!

 

देखा जो निकट से, रह गया मैँ धक से –

बैठा है अभी तक, ढँका हुआ फ़र से,

जिसे देखा था बरसोँ पहले, अब भी बिल्कुल वैसे.

मोटा झोटा है परिधान, घिरा है वह जिस से.

तब तो लगता था महाचतुर हो जैसे.

उस की हर बात तब भी बाहर थी मेरी समझ से.

अब नहीँ है कोई मतलब मुझे उस से.

चलो, लगे हाथ हो जाएँ दो चार हाथ उस से.

 

महास्थविर महोदय, यदि आप का

यह केशहीन खल्वाट – झुका सा, ढला सा

अभी तक वैतरणी के पार नहीँ जा चुका,

तो कृपया स्वीकार करेँ अभिवादन अपने शिष्य का

गुरुवरोँ के डंडोँ की मार के पार है जा चुका.

लेकिन आप? वैसे ही, वहीँ हैँ अभी तक आप.

मैँ? देखिए मुझ मेँ पूर्णतः विकसित व्यक्तित्व की छाप.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अच्छा हुआ तुम ने सुन लिया घंटी का घनघनाना.

तुम मेँ जो गुण था, मैँ ने तभी था पहचाना

पल्लव पर जो रेँगता है कीड़ा,

कह रही थी मुझ से सोनपरी इल्ली,

जल्दी ही बन जाएगा यह चमचमाती सतरंगी तितली.

तुम्हारे घुँघराले केश और झब्बेदार लच्छे –

उन मेँ थी प्यारी सी बालवत्ता. तुम लगते थे अच्छे.

जहाँ तक याद है मुझे – जूड़ा नहीँ बँधा था तुम्हारे!

लेकिन अब स्वीडनवासियोँ से कटे मुँडे केश हैँ तुम्हारे –

प्रवंचना से भरे हो, लगते हो साहस के पुतले.

पर अटूट मत जाना घर, पगले.

नवस्नातक

बुढ़ा गए हैँ आप. पुराने दिनोँ मेँ गड़े हैँ…

देखिए – आगे निकल गया है काल. हम कहाँ खड़े हैँ!

ना बख़्शेँ आप दुरंगे शब्दोँ की बौछार.

अब हम पर नहीँ पड़ती उन की पहले सी मार.

नवयुवकोँ को कितना सताते पिदाते थे आप.

तब आप को लगता था यह सब कितना आसान.

आज वह सब करने का नहीँ है किसी मेँ औसान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

यदि हम नवयुवकोँ से कहने लगेँ सीधी सादी बात

तो छात्रोँ की समझ मेँ नहीँ आती हमारी औक़ात.

हाँ, बाद मेँ, जब बीत जाते हैँ कुछ साल

खटते खपते वे पा जाते हैँ कुछ ज्ञान

तो वे समझते हैँ उन्होँ ने ही खोजा है विश्व का सारा ज्ञान.

हमारे अध्यापक थे मूर्ख – वे कहते हैँ सीना तान.

नवस्नातक

नहीँ, धूर्त! है कोई अध्यापक जो देता हो ज्ञान

सीधा, सपाट, सच्चा, सहज ज्ञान.

हर कोई करता है घटा कर या बढ़ा चढा कर बखान.

कभी बन जाता है प्रचंड, कभी साकार अभिमान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

निस्संदेह! सीखने जानने का होता है काल.

समझ रहा हूँ मैँ – अब ख़ुद पढ़ा सकते हो तुम.

आते जाते चाँद और अनेक सूर्योँ का फेरा

देते रहे हैँ तुम्हेँ अनुभव घनेरा.

नवस्नातक

अनुभव! मात्र धुंध, कोहरा, झाग, फेन!

नहीँ हो सकता कभी मस्तिष्क के समकक्ष, समान!

आप को करना पड़ेगा स्वीकार –

सदा से हमेँ जिस का है ज्ञान

अंततः नहीँ था इस योग्य कि हम पाएँ उस का ज्ञान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (कुछ देर बाद)

बड़ी देर से हो रहा था मुझे भान –

मूर्ख था, छिछला था मैँ.

अपने छिछलेपन पर हँसना चाहता हूँ मैँ.

नवस्नातक

बड़ी ख़ुशी की है बात. सच्ची है तत्व की बात.

पहले बुड्ढे हैँ आप जो कर रहा है ज्ञान की बात.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

खोजता रहा मैँ स्वर्ण के कलश, गड़े कोश,

निकला काला कोयला – जब आया होश.

नवस्नातक

तो कर लीजिए स्वीकार – यह जो है आप का खल्वाट

बूढ़ा और गंजा, और वह जो पड़ा है खोखला कपाल

उस से कुछ ज़्यादा नहीँ है इस का मोल!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (हँसी मज़ाक़ के लहजे मेँ – )

जानते हो, नौजवान, तुम कर रहे हो मेरा अपमान!

नवस्नातक

जरमन भाषा मेँ विनम्रता का अर्थ है असत्य भाषण.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (कुरसी मंचाग्र तक ले आता है, दर्शकोँ के निकट – )

यहाँ गहरी घुटन है, और है गहन अंधकार.

क्या कोई देगा मुझे शरण मंच के उस पार?

नवस्नातक

हिमाक़त है जब निकल चुका हो वक़्त –

गए बीते, जूने पुराने, बूढ़े जराग्रस्त

लोगोँ का करना कुछ बन पाने का प्रयास.

मानव का जीवन प्रवाहित है लहू मेँ अनायास.

कहिए, यौवन मेँ नहीँ, तो और कहाँ है

लहू का निर्बाध निरंतर सवेग प्रवाह.

यौवन की उद्दाम भावना जहाँ है, वहाँ है

तड़पन, धड़कन, और जीवन का सर्जन धाराप्रवाह.

वहाँ है कर्म, वहाँ है गति, वहाँ है मानव का मर्म.

क्षीण हैँ जो गिरते हैँ! कुलाँच लगाते हैँ शक्तिशाली!

आधा संसार झुकता है, ठोँकता है हमेँ सलाम!

बोलिए, क्या है, जो किया है आप ने काम?

भरी है हामी, हिलाई है गरदन, देखेँ हैँ सपने,

सोचा है, विचारा है, गढ़े हैँ मनसूबे, खोखले मनसूबे.

क्या है बुढ़ापा? काँपता कँपकँपाता बुख़ार.

ठिठुरती कामनाएँ, भय आतंक, कमताई की मार!

जब हो जाए पार तीसवाँ साल –

तो क्या है आदमी? बस, मृतक काल.

अच्छा है, पहुँचा दिया जाए उस को श्मशान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

इस से ज़्यादा क्या कह सकता है शैतान?

नवस्नातक

न चाहूँ मैँ तो नहीँ हो सकता शैतान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (स्वतः)

अभी टँगड़ी लगा देगा शैतान!

नवस्नातक

यही है यौवन का सम्यक् संदेश –

नहीँ था संसार, जब तक मैँ ने नहीँ किया था इस का निर्माण;

उदय सागर से मैँ ने ही उगाया था सूर्य;

मैँ ही करता हूँ चंद्रमा का विकास और क्षय;

दिव्य मुझ से मिलने को धारता है परिधान.

हरियाती है धरती पहने पुष्पहार – करने को मुझ से अभिसार.

आदिम अंधकार को जब मैँ ने लगाई पुकार

तारा मंडलोँ ने दिए दिपदिपाते निज तन बदन उघाड़.

घिसे पिटे पुरातन चिंतन से जिस ने दिलवाया छुटकारा

कौन था वह – जो नहीँ था मैँ?

स्वाभिमानी, स्वाधीन, उन्मुक्त हूँ मैँ!

विस्तृत गगन मेँ मनचाही उड़ान भरता हूँ मैँ!

हर्ष आह्लाद से परिपूर्ण मन के प्रकाश मेँ विचरता हूँ मैँ!

अपने मेँ मस्त, अलमस्त, हो कर मगन

छोड़ता अंधकार का देश, गौरव की ज्योति को वरता हूँ मैँ!

(जाता है.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जा! आत्मगौरव से मंडित, मौलिकता के छलावे, जा!

खुलेगी अंतर् की दृष्टि, भोगेगा संताप, हो जाएगा मौन.

जो कुछ भी भला बुरा विगत मेँ गया है सोचा समझा

उस से बढ़ कर सोच सकता है कभी कौन?

फिर भी तुझ से संकट की नहीँ है कैसी भी आशंका.

बीतते बीतते कुछ साल होगा ही तुझ मेँ परिवर्तन.

पीपे मेँ बंद हो कच्चा माँड, करता रहे शोर, बजाता रहे डंका

समय आने पर हो ही पाता है उस मेँ सुरा का मंथन.

(युवा दर्शकोँ से, जिन्होँ ने उक्त वाक्य पर करतल ध्वनि नहीँ की थी.)

देखा, मैँ ने देखा, आप रहे हैँ मौन.

अच्छे हो बच्चे, बुरा मानता है कौन?

सोचो समझो – शैतान है बूढ़ा.

उस को समझना हो तो होना पड़ेगा बूढ़ा!

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