फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 1 दृश्य 5 – अँधेरा गलियारा

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

५. अँधेरा गलियारा

फ़ाउस्ट और मैफ़िस्टोफ़िलीज़.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

क्या हुआ? आ धमके – यहाँ भी काले अँधेरे गलियारे मेँ!

कुछ नहीँ बचा करने खेलने को उजाले मेँ?

भर गया मन भीड़ से, भड़क्के से, दरबार से, मौजमेले से –

बचा नहीँ कोई खेलकूद, छलछद्म? ऊब गए झमेले से?

फ़ाउस्ट

झमेलोँ की बात मत कर. खेलकूद पुराने हैँ – सड़े से, गले से.

नहीँ चलेगी अब तेरी घिसी पिटी कहानी पुरानी.

जानता हूँ – बचता फिर रहा है तू मुझ से जाने कब से.

मुसीबत मेँ है मेरी जान, नाक तक आ लगा है पानी.

पीछे पड़े हैँ दरबार का कोतवाल और सेवादार.

सम्राट का आदेश है – साकार कर दिखाऊँ

हेलेन और पैरिस, नर और नारी के आदर्श आकार.

पुरातन परिधान मेँ दोनोँ को ला दिखाऊँ.

वही प्राचीन अंदाज़, महानायकोँ और नायिका सी चाल ढाल.

अब कर के दिखा दे. मेरे वचन की लाज कुछ तो सँभाल!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

बस, वचन दे डाला! सोचा नहीँ, समझा नहीँ.

फ़ाउस्ट

सच तो यह है, मित्र, तुम ने कुछ भी सोचा नहीँ, समझा नहीँ.

समझते क्योँ नहीँ तुम, सब कुछ कर के दिखाते रहे हो तुम!

भर दिया जो ख़ाली था कोश. बना दिया सम्राट को धनवान.

अब बैठे ठाले मन लेगा ही ऊँची उड़ान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो समझते हैँ आप? – चुटकी बजाते हो जाएगा यह काम!

महाविकट है यह क्षेत्र. टेढ़ा है यह काम.

यह मामला है अलौकिक लोकोँ का. मत फँसाओ जान.

बढ़ता जाएगा पाप का बोझ. साँसत मेँ पड़ जाएगी जान.

क्या समझा है – हेलेन हिलाएगी मूँड जब दोगे आदेश?

क्या वह भी है उन जीवोँ सी जिन का चित्रित है परिवेश?

अभी तक तो थी भूत पिशाचोँ, वामनोँ, परियोँ तक बात.

हम शैतानोँ का चलता है उन पर राज. वे मानते हैँ हमारी बात.

नायकोँ नायिकाओँ की कुछ और ही है बात!

फ़ाउस्ट

गाने लगा फिर वही पुराना राग.

कभी नहीँ करता कोई पक्की बात.

तेरा काम है बस डालना बाधा, लगाना बहाने.

हर काम से पहले वही नखरे, वही घात.

कौन सी बात है जो तू एक दम माने?

करना क्या है – बस थोड़ा सा जंतर मंतर जाप

आन खड़ी होगी वह अपने आप.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

विधर्मी हैँ उस जाति के लोग. अलग हैँ उन के विश्वास.

उन से कभी नहीँ रहता हमारा सरोकार.

अलग ही है उन का परलोक, जहाँ है उन का निवास.

हाँ, एक युक्ति है तो…

फ़ाउस्ट

        तो क्या लगा रखी है देरदार?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

बड़े बेमन से खोल रहा हूँ मैँ यह गूढ़ अलौकिक रहस्य.

सुन, नितांत एकांत मेँ है देवियोँ का वास.

ना देश है, ना काल है, ना कोई आयाम उन के आसपास.

अजीब सा लगता है लेते हुए उन का नाम –

जानता है? वे हैँ कौन? मातृकाएँ.

फ़ाउस्ट (भयभीत)

मातृकाएँ!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

 बस, डर गया!

फ़ाउस्ट

मातृकाएँ! मातृकाएँ! विचित्र है यह नाम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तुम ठहरे मर्त्य! तुम्हारे लिए वे देवियाँ हैँ अज्ञात, अनाम.

हम भी बड़े बेमन से लेते हैँ उन का नाम.

पहुँचना चाहते हो जो उन तक

तो जाना पड़ेगा गहनतर से गहनतम तक.

क्या करेँ – यह है तुम्हारी ही भूल का परिणाम.

जो जाना पड़ रहा है उन की शरण तक.

फ़ाउस्ट

वहाँ का कौन सा है मार्ग?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

                    मार्ग?

नहीँ है कोई मार्ग. – वे हैँ अगम्य –

नहीँ है वहाँ तक गमन. – वे हैँ अस्‍तुत्य –

की नहीँ जा सकती उन की स्तुति. हो तैयार?

वहाँ नहीँ है कोई ताला, कुंडी. खोलना नहीँ होता कोई द्वार.

अनंत एकांतोँ मेँ लगाओगे चक्कर पर चक्कर.

कभी गए हो एकांतोँ मेँ, बियाबानोँ मेँ भटक कर?

फ़ाउस्ट

मैँ समझता हूँ – बेहतर है – करना यह चटर पटर बंद.

इस से आती है चुड़ैलोँ डाकिनियोँ मायाविनियोँ की गंध.

भोग चुका हैँ मैँ सारे इहलौकिक अहंकार, अहम्.

रट चुका हूँ मैँ मूर्खतापूर्ण ज्ञान,

दे चुका हूँ वैसे ही आयँबायँ भाषण.

धारे घोर आत्मविश्वास जब मैँ करता था प्रवचन

मन मेँ उठते थे शंकाकुल उत्तर, गूँजते थे कूट प्रश्न.

मानवता से मिला था मुझे मात्र छल, प्रवंचन.

तब एकांत बियाबान मेँ ही मिलती थी शरण.

तभी तो मैँ ने खोजा था शैतान, किया था आत्मसमर्पण.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

किया है पार कभी सागर विशाल?

देखा है सागर का वह अंतिम छोर,

जिस के पार अनंत तक लहरोँ पर लहरेँ लेती हैँ उछाल?

देखा है कभी अंतिम असीम अनंत दारुण घनघोर?

देखा होता तो देखते उलूपियाँ, अनगिन शिंशुमार,

प्रताड़ित कर रही हैँ सागर का मर्कती निर्घोष मौन.

तुम ने देखे हैँ प्रवाहित घन, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र.

दूर दूर तक विस्तृत है जो महाविशाल शून्य

वहाँ कुछ भी नहीँ है – यत्र तत्र सर्वत्र अन्यत्र.

वहाँ सुनोगे नहीँ तुम पदचाप

नहीँ है कोई भूमि कोई आधार जिस पर हो थाप.

फ़ाउस्ट

पढ़ंत तो कर रहा है ऐसे

रहस्यवादियोँ का मठाधीश हो जैसे!

नवदीक्षितोँ को जो बताता रहता हो धता.

बस, उलट दिए हैँ पात्र और उन का काम.

महाशून्य की ओर मुझे रहा है पठा –

सीखने को कला और शक्ति का पाठ.

बना रहा है मुझे पट्ठा –

भाड़ मेँ से मैँ निकालूँ दाना, तू खाता रहे बैठा बैठा.

चल मापते हैँ हम, जो है अमाप्य. देखा जाएगा जो होगा.

जो तेरा है शून्य, शायद वहाँ मैँ पा जाऊँ अपना सर्वस्व.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मान गया मैँ आप को! आप और मैँ बिछुड़ेँ, श्रीमान…

उस से पहले, सच, स्वीकार करेँ मेरा गुणगान.

समझ गया हूँ मैँ – आप भली भाँति पहचान गए हैँ शैतान.

लीजिए, यह कुंजी!

फ़ाउस्ट

   यह छोटी सी चीज़! कुंजी!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

लीजिए तो. मत समझेँ इसे छोटी या कम!

देखिएगा इस का चमत्कार!

फ़ाउस्ट

दिपदिपा उठी! चमकी! बढ़ने लगा आकार!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जल्दी ही समझ पाएँगे आप इस का मर्म.

सही दिशा और देश की गंध पहचान लेती है यह कुंजी.

चलेँ नीचे, इस के पीछे. ले जाएगी जहाँ हैँ मातृका.

फ़ाउस्ट (काँपता है)

तन मेँ होने लगती है सिहरन सुनते ही नाम. मातृका!

कैसा है यह शब्द, बँधने लगती है किटकिटी…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

इतना संकीर्ण है मन! हर नए शब्द से बँध जाती है घिग्घी?

बस वही सुनोगे, जो पहले से सुना है, जाना पहचाना?

डरो मत! देखो समझो जो नया है, विलक्षण!

तुम! तुम तो आदी हो – जो भी है अनोखा असाधारण!

फ़ाउस्ट

सच, कुछ नहीँ दे सकते आलस्य प्रमाद.

भय की सिहरल प्रतीति ही है मानव की श्रेष्ठतम थाती.

अकसर संसार घोँट देता है इंद्रियोँ के आह्लाद

बाधाओँ से ग्रस्त हो कर ही होती है प्रचंडतम अनुभूति.

 मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो फिर उतरो! मैँ कह सकता था – चढ़ो!

एक ही बात है! जो सृष्ट है उस से बाहर निकल जाओ –

असृष्ट, उन्मुक्त निराकार आकारोँ मेँ जाओ!

भोगो, उसे भोगो, जो बहुत पहले हो चुका था विलीन.

वहाँ गिरते गहराते हैँ भँवर पर भँवर

जैसे उमड़ते मँडराते हैँ जलधर पर जलधर.

चलो, फैला दो बाँहेँ, ऊपर को उठा लो कुंजी. चलो.

फ़ाउस्ट (उत्‍प्रेरित हो कर)

हाँ! कस कर कुंजी को थामे, हो रहा है ऊर्जा का संचार.

हो नवोद्यम का प्रवर्तन, वक्षस्थल मेँ है अनोखा विस्तार.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

देखो, वह जाज्वल्यमान त्रिकुंड. वह दे रहा है संदेश –

वहाँ है, वहाँ निम्नतम अधस्तल का देश.

जहाँ हैँ मातृकाएँ, वहाँ ले जाएगा – त्रिकुंड का प्रकाश.

कुछ बैठी हैँ, कुछ खड़ी हैँ… कुछ हैँ भ्रमणशील.

उन की ऊर्जा है – उन की अपनी वांछा, इच्छा.

सर्जना, विसर्जना, शाश्वत चेतना का निरंतर सर्जन,

सब जीवोँ के आकारोँ के वर्तन परिवर्तन.

उन्मुक्त अनवरत विचरण.

वे देखेँगी नहीँ तुम्हेँ. केवल आत्मा है उन को गोचर.

धारो साहस! संकट है दारुण और भयंकर.

हिचकना मत, जाना सीधे जहाँ है त्रिकुंड…

छू देना है तुम्हेँ कुंजी से वह त्रिकुंड!

(फ़ाउस्ट कुंजी को पकड़े है. वह महाप्रयास से पहले की महामुद्रा धारण कर लेता है. मैफ़िस्टोफ़िलीज़ उसे देख रहा है…)

तो ठीक है! यह रहेगी साथ, ले जाएगी जहाँ है प्रकाश.

धारे रहो ध्यान. सौभाग्य को ले साथ, करते रहो उत्थान.

ले आओ त्रिकुंड – होने से पहले उन के सावधान.

फिर छाया के देश से करो नायक नायिका का आह्वान –

तुम पहले हो विचारने वाले, करने वाले, ऐसा उद्यम महान.

होगा ही! तुम ही चुने गए हो करने को यह काम.

सारी प्रक्रिया है तात्कालिक, पूरा चमत्कार –

त्रिकुंड का धूम्र धार लेगा देवोँ का आकार.

फ़ाउस्ट

अब?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तुम्हारा मंत्र है – नीचे!

करो पदाघात, उतरो. फिर करो पदाघात, ऊपर ऊपर.

(फ़ाउस्ट पदाघात करता है और विलीन हो जाता है.)

काश, कुंजी से पा जाए वह कुछ ज्ञान.

क्या लौट पाएगा अब? उत्कंठा है महान.

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