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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 1 दृश्य 2 – सम्राट का दुर्ग

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

२. सम्राट का दुर्ग

राज दरबार. सामंत परिषद सम्राट की प्रतीक्षा मेँ. तुरही. भाँति भाँति के दरबारी प्रवेश करते हैँ. सभी राजसी ठाठबाट मेँ हैँ. सम्राट सिंहासन की ओर बढ़ता है.

सम्राट

अभिनंदन है, मेरे प्रिय स्वामीभक्तो,

अमात्यो, दूर दूर से आए सभासदो, सामंतो.

देखता हूँ – मेरे साथ हैँ ज्योतिषी महाबुद्धिराज!

क्योँ नहीँ है यहाँ मेरा विदूषक महामूर्खाधिराज?

सहचर

आप के पीछे ही था, जहाँ था आप के परिधान का घेर

अचानक पैड़ी पर हो गया ढेर.

उठा ले गए उस का बोझ भारी भरकम.

क्या जाने पिए था? या हो गया बेदम!

दूसरा सहचर

जाने कहाँ से पलक झपकते गहमा गहमी मेँ

आ धमका धकियाता एक और – पोशाक़ राजसी मेँ

बाँकी है नोँक नकेर, ठाठ है निराला

अगड़धत्त अड़बंगा! चौँक जाए देखने वाला.

दरबानोँ ने अड़ा दिए भाले बरछी.

लीजिए, हटा कर आ पहुँचा वह फिर भी.

अनोखा है विदूषक – पूरे जीवट वाला.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (सिंहासन के सामने झुकता हुआ)

क्या है – गलियाते हैँ जिसे, और लगाते हैँ गले?

क्या है – चाहते हैँ जिसे और लतियाते हैँ जिसे?

क्या है जिस पर बरसाते हैँ उपहार?

क्या है जिस पर करते हैँ तानोँ की बौछार?

क्या है जिस को न्योतते नहीँ आप?

किस का नाम चाव से सुनते हैँ आप?

बोलिए – आप के पास क्या आ धमका, हुज़ूर?

क्या है जिसे आप के आदेश कर नहीँ सकते मजबूर?

सम्राट

बंद कर बोलोँ के गोलोँ की बौछार!

बूझ बुझौवल की यह नहीँ है ठौर.

यह है इन महानुभावोँ का काम.

बूझना है तो बूझ अपने आप. सुनूँगा मैँ तेरे समाधान.

मेरा विदूषक, बेचारा! चला गया दूर…

डर है चला न गया हो बड़ी दूर.

चल खड़ा हो जा मेरे पास. ले ले उस का स्थान.

(मैफ़िस्टोफ़िलीज़ सीढ़ियाँ चढ़ कर सम्राट के बाएँ खड़ा हो जाता है.)

भीड़ मेँ भुनभुनाहट

एक और विदूषक! – नई मुसीबत!

कैसे घुस आया? – कैसे की हिम्मत?

गिर गया पुराना – आ गया नमूना!

वह था मोटा – यह है सोँटा!

सम्राट

तो प्रिय सज्जनो, मेरे निष्ठावान समर्थको,

स्वागत है पास के, दूर के, सामंतो.

इस सम्मेलन पर दृष्टि है – शुभ नक्षत्र महान की.

इस की दशा है राजसी – मंगल और कल्याण की.

बताएँ तो, इतने अच्छे दिनोँ मेँ,

चिंताओँ से मुक्ति के मौज के मस्‍ती के दिनोँ मेँ,

सुंदरियोँ के दढ़ियल मुखौटोँ के नाच वाले दिनोँ मेँ,

आनंद उल्लास के भोग भरे आने वाले दिनोँ मेँ,

क्या आ पड़ा ऐसा संकट गंभीर

करना पड़ेगा जिस पर चिंतन गंभीर?

आप कहते हैँ यह टाल नहीँ सकते हम.

तो ठीक है, आइए झटपट निपटा लेँ हम.

महामात्य

सम्राट के शीश के आभा मंडल मेँ वास है

सर्वोच्च सत्ता का – ऐसा हम सब का विश्वास है.

आप ही से है न्याय की सत्ता.

हरएक जन को है इस की आवश्यकता.

आप की ओर उन्मुख है जन जन.

आप ही कर सकते हैँ न्याय का प्रदर्शन.

लेकिन, क्या कर सकता है कोई मानव महान से महान –

कितना ही हो वह बुद्धिमान, क्षमताशाली, दयावान –

जब राज्य को ग्रस बैठा हो कालज्वर

जब अनिष्ट जन रहा हो अनिष्टत संतान.

जब हम बैठ कर सत्ता के उन्नत शिखर पर

करते हैँ दूर दूर तक दृष्टिपात, क्या देखते हैँ हम?

हम देखते हैँ एक दुस्स्वप्न क्रूरतम.

हर ओर विद्रूप से उपज रहा है विद्रूप.

अन्याय को पाल रहा है स्वयं न्याय.

कोई मचा रहा है लूटमार,

कोई हर रहा है नारी का शील आचार.

निरापद नहीँ है गिरजे का क्रूस, दीपदान.

और फिर सब पापी अन्यायी मारते हैँ डीँग, दिखाते हैँ शान.

सुरक्षित नहीँ है किसी की जान या माल.

कचहरियोँ मेँ न्यायाधीश पसरे रहते हैँ फ़रमाते आराम

धूम्रपान करते उड़ाते रहते हैँ धूएँ का ग़ुब्बार.

करते हैँ, करते रहेँ फ़रियादी हायतौबा पुकार.

घिर रहा है असंतोष, घुमड़ रहा है बवंडर.

फैल रहा है अपराध का भँवरजाल.

आप के साथ होँ सही लोग,

तो आप का कुछ नहीँ बिगाड़ सकती सरकार.

केवल निरपराध ही दिए जाते हैँ दोषी क़रार.

कल्याण हो नहीँ सकता किसी का अब,

सब के सब मिटाने मेँ लगे हैँ वह सब

जिस की रक्षा है उन का काम.

बताइए कैसे निकलेगा अच्छा अंजाम,

जब भले को उपजाती है जो भावना

उस की कहीँ भी नहीँ है कोई कैसी भी संभावना.

केवल यही है परिणाम –

भले लोग कर रहे हैँ चाटुकारोँ रिश्वतख़ोरोँ को सलाम.

न्यायाधीश का बचा है एक ही काम –

चोरोँ से उचक्कोँ से करना साँठगाँठ,

बढ़ाना उन की ओर मित्रता का हाथ…

क्षमा करेँ, मैँ ने चित्रित किया है आप के सामने अंधकार.

सच तो यह है कि सत्य है इस से भी कहीँ गहरा अंधकार.

अब और नहीँ टाला जा सकता उठाना कोई क़दम.

जब हर कोई तोड़ रहा है नियम,

नहीँ है किसी मेँ सही करने का दम,

तो सम्राट की हानि नहीँ होगी किसी से कम.

महासेनापति

हर ओर पनप रहा है द्रोह अनाचार

हर कोई कर रहा है किसी पर वार

हर कोई खा रहा है किसी से मार.

किसी का आदेश अब कोई नहीँ मानता.

करना किसी का भला कोई नहीँ जानता.

प्राचीरोँ मेँ घिरे बैठे हैँ नगरजन

केवल दुर्गोँ मेँ सुरक्षित हैँ सामंत गण…

सब के सब भाँज रहे हैँ हथियार,

सब के सब समझते हैँ ख़ुद को सरकार.

सब के सब को सता रहा है अहंकार.

हमारे भाड़े के सिपाही? वे भी नहीँ हैँ किसी से कम.

माँग रहे हैँ वे भी पगार, जो दे नहीँ सकते हम.

जो हो जाए उन को पूरा भुगतान,

तो कर देँगे वे तत्काल कहीँ और प्रयाण.

नहीँ है कोई किसी को रोकने वाला.

जो रोका किसी ने तो समझ लो – हाथ भिड़ के छत्ते मेँ डाला.

जिस देश की रक्षा करना था उन का काम

सब के सब कर रहे हैँ उस का काम तमाम.

अराजकता का राज है चारोँ ओर.

समझ लीजिए – आधे संसार मेँ नाश है घन घोर.

और भी राजा हैँ हमारी सीमा के पार.

पर किसी को क्या पड़ी जो करे हमारी दशा पर विचार.

कोशाध्यक्ष

जो भरोसा कर बैठे मित्र राजोँ पर

तो समझ लीजिए डूब जाएगा हमारा घर.

नहीँ देते वे – उन्हेँ जो देना था कर.

राजस्व बह जाता है जैसे छलनी मेँ से पानी.

कैसे दिन हैँ जो सब कर रहे हैँ मनमानी!

जहाँ भी जाइए, वहाँ बना बैठा है नया सरदार.

स्वाधीन होने को वह बैठा है तैयार.

चलता है हर कोई अपनी राह अपने आप.

देखते रह जाते हैँ हम चुपचाप.

चाकरोँ को हम ने दे दिए हैँ इतने अधिकार

बाक़ी नहीँ बचा अब हमारे पास एक भी अधिकार.

राजनीतिक दलोँ का जहाँ तक सवाल है

उन का भी बुरा हाल है.

वे करेँ कितनी ही निंदा या प्रशंसा

उन की किसी बात पर होता नहीँ भरोसा.

गिबेलिन और ग्वैल्फ़ दोनोँ ही दल थक कर हैँ चूर.

मानोँ दोनोँ को ताक पर रख दिया गया है, हुज़ूर.

दूसरोँ की मदद को बढ़ेगा कौन आगे,.

 

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अपनी जान की चिंता खड़ी है सब के आगे

नोँच खोँच और बटोर मेँ लगे हैँ नर नार,

बाहर से तालोँ मेँ बंद हैँ कोशागार के द्वार,

भीतर तिजौरियाँ हैँ ख़ाली.

 

महाकक्षाध्यक्ष

मेरी समस्या नहीँ है किसी से कम.

कितनी ही कतरब्योँत करते रहेँ हम

बढ़ती ही जाती है कमताई, होती नहीँ कम.

हर दिन मेरा काम होता जाता है कठिन से कठिनतर.

अभी तक रसोई मेँ है हर सामान.

जंगल का सूअर और हिरना, ख़रगोश और तीतर

बत्तख, मोर, टर्की, हंस और चूज़ा…

जिंस मेँ करना होता है इन का भुगतान

इस लिए अभी तक इन का मिलना है कुछ कुछ आसान.

लेकिन, शराब का मिलना नहीँ है आसान.

तलघर मेँ कभी होते थे पीपोँ के अंबार

दुर्लभतम सुरा की बहती थी कलकल धार.

लेकिन ड्यूकोँ सामंतोँ की अंतहीन प्यास

कर गई है एक एक बूँद ख़ल्लास.

अब आस नगर परिषद के भंडार पर लगी है.

मग हो या जग हो – होड़ पीने की लगी है.

लड़खड़ाते लड़ते हैँ पियक्कड़

गिरते पड़ते मचाते रहते हैँ फैलफक्कड़.

उन की मौज मस्‍ती का बोझ सहता हूँ मैँ.

शराब का, पगार का, भुगतान करता हूँ मैँ.

लेकिन यहूदी? वह छोड़ेगा नहीँ वसूली.

वह जो भी देता है उधारी,

बरसोँ तक ख़ज़ाने को करती रहेगी ख़ाली.

मोटे होने से पहले कट जाते हैँ सूअर.

जागने से पहले मसनद हो जाते हैँ गिरवी.

मेज़ तक पहुँचे, इस से पहले खाई जाती है रोटी.

सम्राट (कुछ देर सोच विचार के बाद, मैफ़िस्टोफ़िलीज़ से)

क्योँ, रे, पगले, है तेरी भी कोई रोवनिया कहानी?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मेरी? नहीँ, बिल्कुल नहीँ… सिरमौर!

मुझे तो दिखती है आप के सिर पर सुख की निशानी –

चकाचौँध आभा का मंडल, स्वर्ग की ज्योति का मौर.

जब तक संसार पर है आप के छत्र की छाया

जब तक काँपते हैँ दुश्मन देख कर आप की शक्ति की माया

जब तक आप के हाथ मेँ है देश की कमान

जब तक कार्यकारिणी को चला रहा है आप जैसा बुद्धिमान

तब तक क्योँ सताए किसी को कोई कैसी भी चिंता?

दुष्टोँ के दलबल मिल कर कर लेँ कितना ही अँधेरा

जगमगाता रहेगा सम्राट के शीश पर प्रकाश का घेरा!

कानाफूसी

पूरा शैतान है – इस को सारा ज्ञान है

झूठ रहा है बोल – कानोँ मेँ मिश्री रहा है घोल

समझ गया – क्या है इस के मन मेँ

इस का मन लगा है किसी उधेड़बुन मेँ…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

है पूरे संसार मेँ कोई ऐसा स्थान, महानुभाव,

जहाँ नहीँ है कोई कमी, कोई अभाव!

यहाँ यह कम है, तो वहाँ वह नहीँ है.

बात इतनी सी है – हमारे पास धन नहीँ है!

सही है धरती पर पड़ा नहीँ मिलता धन जो उठा लेँ हम.

लेकिन जो है धरती के नीचे – बुद्धि से पा सकते हैँ हम.

पर्वतोँ की कोख मेँ, मकानोँ की नीवोँ मेँ

स्वर्ण ही स्वर्ण है – धातु मेँ, सिक्कोँ मेँ.

पूछेँगे आप – यह सब निकालेगा कौन?

जी, हाँ, वह जिस के पास बुद्धि है और है प्रकृति का ज्ञान –

और कौन?

महामात्य

बुद्धि और प्रकृति! सच्चे ईसाई को इन से क्या काम?

इन के नाम पर हम जलवाते हैँ सरे आम,

करवाते हैँ नास्तिकोँ का काम तमाम.

प्रकृति है स्वयं पाप, बुद्धि है साक्षात् शैतान –

मत ले उन का नाम.

शंका और संदेह उकसाते हैँ वे.

शंका और संदेह मेँ मौज मनाते हैँ वे.

उन के संगम के दुष्परिणाम की संतान है हराम.

उन से भला हमारा क्या काम?

हमारे सम्राट का सनातन साम्राज्य

बचाते रहे हैँ बस दो वर्ग – ईसाई संत और राजसी सामंत.

वे ही हैँ हमारी सत्ता के स्थायी स्तंभ.

दोनोँ मिल कर करते रहे हैँ

भयंकर से भयंकर आपदा का सामना.

बदले मेँ सत्ता और चर्च पर आधिपत्य रही है उन की कामना.

जनता के मन मेँ जब उगता है भ्रम और संदेह,

तो भयानक बाढ़ सा उमड़ पड़ता है विद्रोह.

नास्तिक! जादूगर! विद्वान! माया की संतान!

ये नष्ट कर डालते हैँ देश नगर ग्राम.

उन्हेँ घुसाना चाहते हो दरबार मेँ?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

वाह! कैसी बातेँ कर रहे हैँ आप, अनोखे ज्ञान से भरपूर.

जो छू नहीँ सकते आप, आप के लिए है वह कोसोँ दूर!

जो पकड़ नहीँ सकते आप, वह पूर्णतः हो चुका है लुप्त!

जो सोच नहीँ पाते आप, वह है असत्य अशुद्ध!

जो तौल नहीँ सकते आप, आप के लिए वह नहीँ है भारी!

जो ढाले नहीँ आप ने, वे सिक्के हैँ जाली!

सम्राट

इस तरह समस्या का समाधान नहीँ होगा.

शास्त्रार्थ मेँ उलझने से कुछ काम नहीँ होगा.

अंतहीन किंतु परंतु से ऊब चुके हैँ हम.

नहीँ है हमारे पास धन. तत्काल धन चाहते हैँ हम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जितना चाहते हैँ आप, उस से ऊँचा लगा सकता हूँ मैँ अंबार.

सच, हलका है यह काम. लेकिन हलकेपन मेँ भी होता है भार.

दबा पड़ा है सोना. – निकाल पाना वह सोना

अपने आप मेँ कला है.

कौन है – जो जानता यह कला है?

याद कीजिए वे दुर्दिन, वह भयानक काल,

जब आक्रांता बर्बरोँ की आ गई थी बाढ़.

डूबने लगा था देश और देश के लोग.

लूट और मौत के भय से लोगोँ ने गाड़ दिए थे कोश.

अनमोल संपत्ति से भरपूर अकूत थे वे कोश.

ऐसा तब भी हुआ था जब छा गए थे रोम के लोग.

कल तक यहीँ था, आज भी यहीँ है,

बेशुमार धन और स्वर्ण का कोश धरती मेँ ही कहीँ है.

धरती के स्वामी हैँ सम्राट. इस कोश के स्वामी हैँ सम्राट.

कोशाध्यक्ष

है तो विदूषक, बात करता है पते की.

पुराना नियम है – धरती है सम्राट की.

महामात्य

शैतान बना रहा है सोने का फंदा.

अधिकार और पुण्य नहीँ हैँ हमारा धंधा.

महाकक्षाध्यक्ष

कोई लाए तो सही ऐसे उपहार

होने दो यदिे होता है छोटा मोटा अपकार…

महासंचालक

चालाक है विदूषक – दिखा रहा है मनमोहक सपना.

कहाँ से आता है माल, सिपाही करते नहीँ चिंता,

असली बात है – काम चल जाए अपना.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आप के मन मेँ हो कोई शंका,

तो लीजिए, ये खड़े हैँ ज्योतिषी जी महाराज –

राशियोँ के चक्र और होड़ा शास्त्र के ज्ञाता – महापंडित.

इन्हीँ से पूछ लीजिए आप. क्योँ होते हैँ चिंतित?

कानाफूसी

दोनोँ के दोनोँ पूरे ठग – एक दूसरे के साथी.

एक देखता है सपने – दूसरा मूरख है पाजी.

दोनोँ के दोनोँ सम्राट के मुँहलगे हामी!

घिसी पिटी कहानी है पुरानी –

मूरख पाठ पढ़ाए – पंडित होँठ हिलाए!

ज्योतिषी (होँठ हिला रहा है. पीछे से मैफ़िस्टोफ़िलीज़ बोल रहा है)

शुद्धतम स्वर्ण की किरण है सूर्य.

घोषक है बुध – प्रेम और लाभ का पारदीय तूर्य.

शुक्र की देवी वीनस का यौवन है काल पर्यंत

डाल रही हैँ आप पर दृष्टि कोमल प्रेमल अनंत.

चंद्रमा की पावन देवी लूना है परिवर्तनशील.

यद्यपि युद्ध के देवता मंगल मार्स नहीँ हैँ आक्रमणशील

फिर भी आतंकित करते रहते हैँ हरदम.

द्युपति जुपीटर हैँ नक्षत्र सुंदरतम.

देखने मेँ छोटे शनि मेँ लौह तत्व है प्रधान

इसलिए उन को हम मानते नहीँ महान.

जब होता है सूर्य देव का सती चंद्रिका से संयोग,

जब होता है स्वर्ण और रजत का सघन योग,

चमचमा उठता है उत्फुल्ल संसार.

सहज है तब पा लेना मनवांछित उपहार –

उपवन कानन, महल अटारी, वक्षस्थल, लाल लाल गाल.

हम मेँ से कोई पा नहीँ सकता इन मेँ से कोई भी माल.

लेकिन यह सब दिलवा सकता है एक महान विद्वान.

कानाफूसी

वही निकली न बात – धोखा, मायाजाल

घिसा पिटा मज़ाक़ – ज्योतिष हो या कीमियागरी का कमाल

सुनी सुनाई बात – आशा का छलिया खेल

महान विद्वान – होगा कोई मक्कार.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

सब के सब खड़े हैँ मुँह बाए, हैरान, परेशान.

नहीँ जानते वे – मंत्र मेँ होती है शक्ति महान.

सपने मेँ कई देखते हैँ रातो रात बढ़ने वाली मैनड्रेक की बेल.

किसी को सपने मेँ दिखता है सारमेयी श्वान.

तो कोई क्योँ कहे किसी ने कर दिया है जादू,

हँसी मेँ क्योँ उड़ाए कोई बात –

जब तलवोँ मेँ होने लगे खुजलाहट

पैर होने लगेँ भारी, आ जाए चाल मेँ लंगड़ाहट…

आप जानते हैँ – प्रकृति की शक्ति का अनवरत है अप्रकट प्रवाह…

भीतर ही भीतर आप करते हैँ इस का अनुमोदन…

धरती के अंतरतम से उठती है एक क्षीण सी धार

उठती है, छूती है, ज्योति का उच्चतम संसार…

अंग अंग मेँ जब होने लगे खलबली का संचार,

जब कुछ अज्ञात सा जकड़ ले तन मन,

तो पैठो गहरे तत्काल, निकाल लो माल!

वहीँ पर है गंधर्व की समाधि, वहीँ पर है स्वर्ण की खान!

कानाफूसी

मेरा पैर है भारी – सो गया मेरा हाथ –

मेरे पैर के अँगूठे मेँ लगी है खाज –

हाय, मेरी पीठ मेँ है दर्द –

हाँ, हाँ, खोदो, निकाल डालो सारी गर्द

यहीँ है, यहीँ है, संसार का कोश.

सम्राट

तो क्या है देर! बच्‍चू, बच नहीँ पाओगे आज!

साबित करनी पड़ेगी एक से एक ऊँची बात!

अभी दिखला दे वे सब स्थान अज्ञात!

ले, उठा कर रखे देते हैँ हम राजदंड, तलवार.

यदि मिथ्या नहीँ है तेरी बात,

तो हम भी लगाएँगे अपने राजसी हाथ.

और यदि झूठ निकली तेरी बात,

तो पठा देँगे हम तुझे अभी पाताल.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

निकाल तो मैँ भी सकता हूँ जो छिपाए है पाताल.

लेकिन पहले से बता पाना –

कहाँ है, क्या है – धरती के भीतर छिपा माल –

यह है मेरी क्षमता के पार.

हल चलाते किसान अचानक पा जाते हैँ सोने का ढेला.

खोँचते खरोँचते रेह लगी दीवार

कभी कभी हाथ लग जाता है सोने का रेला,

खोह मेँ, भूले बिसरे तलघर मेँ

सुंरगोँ मेँ, खंदकोँ मेँ, गुहा मेँ, गह्वर मेँ

असमंजस मेँ सहमते, डरते

स्वर्णखोजी के पग आगे बढ़ते

पहुँचते हैँ जहाँ है गहरा पाताल…

वहाँ जहाँ हैँ बड़े बड़े दालान

स्वर्ण पटल, पत्तर, परात, थाल

आलोँ मेँ रखे हैँ क़तार दर क़तार, सिलसिलेवार.

माणिक के चषक, और उन के ही पास,

पुरातन रहस्यमय रसोँ से परिपूर्ण कलश और ढोल.

हाँ, उसी पर कीजिए भरोसा विश्वास

जिस को है इस विद्या का सही ज्ञान,

जो जानता है मदिरा के काष्ठ के ढोल

जिन मेँ सुरक्षित है पुरातनतम सुरा,

अब तक बन चुके हैँ लवण शर्करा के खोल.

केवल स्वर्ण ही नहीँ है – जो छिपा है,

श्रेष्ठतम सुराओँ का महाकोश भी छिपा है.

आतंकमयी रजनी के गहनतम आँचल मेँ

खोजने निकलते हैँ ऐसे ज्ञानी जन विद्वान.

दिन के उजाले मेँ यह सब लगता है मज़ाक़,

लेकिन जब घिर आता है सघन अंधकार

तो रजनी के गूढ़ चक्र मेँ रहस्य हो जाते हैँ यथार्थ.

सम्राट

किस काम का है सघन अंधकार!

भाड़ मेँ जाएँ गूढ़ चक्र के रहस्य जो बन जाते हैँ यथार्थ!

प्रकाश मेँ आलोकित हो – तभी है कोई चीज़ मूल्यवान.

अंधकार मेँ कौन खोल सकता है पाखंड की पोल?

अँधेरे मेँ हर गाय दिखती है काली,

सलेटी लगती है हर बिल्ली.

कहीँ गहरे मेँ हैँ यदि सोने से भरे ढोल,

चला दे हल, तोड़ दे उन के खोल.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अपने हाथोँ करेँ यह शुभ काम! थामिए खुरपा, कुदाल.

कृषकोँ जैसे शारीरिक श्रम से आप बन जाएँगे महान.

माटी मेँ जनमेँगे सोने के बैल.

वे उगलेँगे जगमगाते अनमोल रत्नोपल

नीलम, माणिक, पन्ने, मोती, गंगोल

जिन्हेँ धार लेँ आप और आप की प्रियतमा तत्काल.

सम्राट

तो मत कर देरी! लगेगी कितनी देर?

ज्योतिषी (पहले की तरह मैफ़िस्टोफ़िलीज़ के कहे पर होँठ हिलाता हुआ)

श्रीमान, धारिए धीरज. क्या है इतनी जल्दी!

पहले पूरे हो जाने देँ आनंद मौज के मेले –

मुखौटोँ के नाच के खेले.

कर लेँ मन शांत. तप साघना का पालेँ हर नियम.

आप को हो जाना चाहिए अपने पर संयम.

नहीँ करना चाहिए कोई बड़ा काम – जब मन हो उतावला, अशांत.

जिसे पाना है कल्याण, उसे करना भी चाहिए कल्याण.

जिसे भोगना है आनंद, उसे रहना चाहिए पूरी तरह शांत.

जिसे चाहिए मदिरा, उसे पेलने पड़ते हैँ अंगूर.

जिस की चाहत है चमत्कार,

उस मेँ होना चाहिए विश्वास भरपूर.

सम्राट

चलो तब तक होने दो भोग विलास उल्लास का मेला!

आने वाला है ईस्टर वाला राखिया बुधवार –

तप और साधना का त्योहार.

तब तक होने दो मुखौटोँ का खेल.

(तूर्यनाद. सब जाते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

भाग्य और तदबीर मेँ है कितना तालमेल –

यह बात जानते हैँ कितने मूर्ख?

मूर्खोँ को मिल भी जाए यदि पारस मनका,

घिस घिस कर बुरा हाल कर लेँगे वे तन का.

 

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