फ़ाउस्ट – भाग 1 दृश्य 14 – वन और कंदरा

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

१४. वन और कंदरा

फ़ाउस्ट (अकेला – )

ओ दैवी सत्ता!

मेरा है सृष्टि का सारा वैभव.

प्रकृति नटी से हो पाया संभव

अंतरंग आलाप निकटतम.

मैँ ने देखा है जग का अंतर्तम.

नभ मेँ, जल मेँ, थल मेँ, निश्चल वन मेँ

मेरा ही है अंश, सहोदर मेरा.

गहन कंदरा है गिरि गह्वर

यहाँ किया मैँ ने निज दर्शन.

मुझ पर मेरी आत्मा का उद्घाटन.

शांत चंद्रमाज्योतित निर्मल पावन

हिम शिखरोँ पर किरणोँ का चुंबन

अब जाना हूँ

जो है चरम चिरंतन

कभी नहीँ पाएगा मानव मन…

इस के साथ दिया तू ने यह सहचर

रहना इस से दूरहुआ है दूभर.

घोर विवशता है मेरी यह कूट निशाचर.

मुझे खीँचता रहता नीचे

अंधोँ सा वासना मेँ खोजता हूँ संतोष

संतोष मेँ वासना की करता हूँ खोज.

 

(मैफ़िस्टोफ़िलीज़ आता है.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

छलावा है – बड़ी देर से जो सुख खोज रहे हैँ आप

रमेगा कब तक इन मेँ आप का मन?

अच्छा है चख लिया एक बार स्वाद.

चाहिए कुछ अनोखा, कुछ नया, उस के बाद.

फ़ाउस्ट

नहीँ है तुझे कुछ और काम…

जब निकट है हर्ष आनंद तो पड़ा है मेरे पीछे.

जा, जा कहीँ और! भोगने दे मुझे सुख के क्षण

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ठीक है जो चाहे सो करो

पर बात सच्चे मन से करो.

नहीँ चाहते जो मुझे तुम

तो हो जाते हैँ अलग हम.

अक्खड़ हो, ज़िद्दी हो, बूदम.

मुझे भी नहीँ हैँ काम कुछ कम.

नहीँ चाहते, और चाहते हैँ जो आप – मेरी समझ से हैँ बाहर.

फ़ाउस्ट

वाह! क्या कही है बात!

होना चाहिए मुझे आभारी तेरा –

जब मनोयोग करे भंग तू मेरा!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

धरती के नाचीज़ पूत! बता –

क्या कर पाता तू जो न दिखाता मैँ राह?

ठीक था, रहने देता मैँ

तुझे बौखलाए अँधेरे मेँ

अर्धसत्य के घेरे मेँ.

न होता मैँ तो आप कहाँ होते?

धरती के गोले से उठ चुके होते.

नहीँ हो तुम उल्लू जो रहो मगन पेड़ोँ के कोटर मेँ

अँधेरे पर्वत गह्वर मेँ.

नहीँ हो मेँढक काही मेँ

सड़ने को सीलन मेँ, पानी मेँ.

रहे अभी तक वही – डाक्टर के डाक्टर!

फ़ाउस्ट

नहीँ देख पाया तू? यह नव जीवन –

जो दे गया मुझे इस वन का प्रांगण?

देख भी पाता तो, तू ठहरा अधम.

बुरा ही लगेगा तुझे यह सौम्य समागम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

वाह! क्या दैवी सुख है!

लेटना ओस मेँ, ऊपर हो पर्वतोँ का खुला आकाश.

लिपटना धरती से, फटी आँखोँ ताकना आकाश.

समझना अपने को देवता!

कोरी कल्पना मेँ चूसना धरती की छाती!

सोचना धरती की सारी संपदा है तुम्हारी.

यह जो नश्वर काया है तुम्हारी

ले जा सकती है तुम्हेँ उस पार –

यह ख़ामख़याली है तुम्हारी,

तुम्हारी मन की उड़ान.

सौंदर्य की हर भावना का होता है बस एक ही अर्थ.

मुँह से कहते मुझे आती है शर्म…

(अश्लील संकेत करता है.)

फ़ाउस्ट

कुछ तो कर शर्म!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो सच होता है इतना कड़वा!

धर्म और नीति लगाते हैँ रोक

कहने पर वह बात जो मन ही मन करना चाहते हैँ लोग.

छोड़ो यह बात! क्या जाता है मेरा

जो पल दो पल भोगते हो कल्पना लोक!

पड़े रहोगे यदि मन के इस भ्रम मेँ, माया मेँ,

हो जाओगे पागल, उन्मत्त, संत्रस्त!

सुनो – प्रियतमा तुम्हारी है शोकाकुल – विरहा की मारी.

मन मेँ है केवल तुम्हारा नाम.

मन से तुम्हेँ निकाल नहीँ पाती.

उद्दाम पहाड़ी निर्झर सी फूटी थी जो प्रेम की घारा

पिघली हिमानी नदी सी फैली है मैदानी धरती पर.

बह रही है महानद सी मंद मंथर.

मुझे लगता है –

स्वामी को चाहिए छोड़ना प्रकृति का यह सुख साम्राज्य.

जाना चाहिए उस विरहिणी के पास,

देना चाहिए उसे उस के प्रेम का प्रतिदान.

बना है उसे पूरा लंबा काल –

विरहा का एक एक पल.

खिड़की से ताकती रहती है प्राचीर के ऊपर तैरते बादल

उस के होँठोँ पर है बस एक ही गीत –

होती मैँ चिरैया, मेरे मनमीत.

दिन रात गुनगुनाती है यह गीत.

कभी हँसती है पल भर

रोती रहती है दिन भर

आँसू से कपोल हैँ तरबतर

फिर कभी ऊपर से हो जाती है शांत

मन मेँ उठते रहते हैँ प्रेम के तूफ़ान…

फ़ाउस्ट

पापी नाग! शैतान!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (स्‍वगत – )

जल्दी ही सीख जाओगे, बच्‍चू, मेरी तान.

फ़ाउस्ट

दूर हो जा, शैतान!

मत ला होँठोँ पर उस निष्कलंक का नाम.

मत भड़का मेरे मन मेँ वासना की आग.

मत जगा तन मेँ उस के भोग की प्यास.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

क्या करेँ हम! वह समझती है

छलिया कर गया छल!

फ़ाउस्ट

मैँ हमेशा पास ही हूँ उस के.

दूर हूँ तो भी उस मेँ रहता है मेरा मन.

भूल नहीँ पाता मैँ उस को एक पल क्षण.

पूजा मेँ वह देती है ईसा की प्रतिमा को चुंबन

ईर्षा से जल उठता हूँ मैँ मन ही मन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, हाँ! देख कर कुंज मेँ तुम्हारी जुगलबंदी

ईर्षा करने लगता है मेरा मन भी.

फ़ाउस्ट

जा, दूर हो जा! कुटने, पाप के दूत.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आप की गालियोँ मेँ आता है रस.

जिस भगवान ने रचे हैँ नर और नारी

उसी ने रची है एक से एक नई जुगत

कराने को संगम.

उठो, शोकाकुल अवधूत!

छोड़ो दूसरी दुनिया मेँ जाने का विचार,

चलो, तुम्हारी नायिका रही है पुकार…

फ़ाउस्ट

कितना सुख मिलता है

जब छूती है वह मेरा तन

जब उस के वक्षस्थल पर रखता हूँ मस्तक.

जाने क्योँ उस के दिल की धड़कन

देती है मुझे सर्वनाश की आहट.

गृहहीन, पलायनवादी, उद्देश्यहीन, अशांत, मैँ – पशु नर!

उफनाता निर्झर, गिरता पड़ता, खाता ठोकर,

टूट बिखरता शिला खंड पर…

वहाँ उधर पर्वत शाद्वल पर

छोटी सी कुटिया मेँ वह भोली शिशु सम.

सीमित है उस का जीवन

घर की चौखट ही है उस का कुल जीवन.

मैँ? शापित, निष्कासित, ईश कृपा से वंचित.

चकनाचूर कर दिया मैँ ने उस का सुख जीवन.

हो सकता है यह बलिदान मात्र पाप को अर्पण.

चल, शैतानी पाप के दूत! चल…

होगा वही चाहता है जो तू!

जो भी करना है – जल्दी से डालेँ हम कर.

उस की नियति बनेगी मेरा बंधन पत्थर.

उस का मेरा होगा अंत दुर्दांत कठोरतम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आप के मन मेँ है तूफ़ान भयंकर

जलती है ज्वाला धू धू कर.

मूरख, चल, बहला उस का मन.

दुविधा मेँ पड़ कर कायर मन

डरते हैँ फटने को है धरती.

केवल वीर भोगते हैँ यह धरती.

दुविधा मेँ पड़ जाते हैँ जो नर

उन को मिलते हैँ मुझ से केवल निंदा और निरादर.

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