फ़ाउस्ट – भाग 1 दृश्य 08 – संध्या

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

८. संध्या

छोटा सा कमरा. बिलकुल साफ़ सुथरा.

मार्गरेट (केश सँवार कर गूँथ रही है.)

कोई बतला दे मुझे वह कौन था?

जो गैल मेँ मुझ को मिलावह कौन था?

सुंदर, छबीला, बाँकपन का देवता.

चाल मेँ उस की बड़ा विश्वास था.

वंश ऊँचाथा भाल पर उस के लिखा.

किस घराने का कुँवर था? कौन था?

(बाहर जाती है.)

(मैफ़िस्टोफ़िलीज़ और फ़ाउस्ट आते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

आइए, आहिस्ता. सँभल कर…

फ़ाउस्ट

छोड़ दे अकेला, मिलेँगे फिर.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

छोकरी क़रीने से रखती है घर!

(जाता है.)

फ़ाउस्ट

संध्या का प्रकाश आता है छन कर.

है सुख का साम्राज्य मधुर मनोहर.

शांति प्रदायक.. कोमल जैसे रेशम.

कैसी खट्टी मीठी चुभन प्रेम की!

तुहिन तुषार सी आशा मन मेँ पिया मिलन की.

सुख, शांति, संतोष, व्यवस्था का है ज्ञापन.

छाया जाता है मन पर सुख जीवन.

निर्धनता मेँ इतना वैभव!

कुटिया मेँ भी इतना वैभव!

(बिस्तर के पास चमड़े की आराम कुरसी मेँ पसर जाता है.)

ले, मुझे थाम ले पसरी बाँहोँ मेँ,

तू ने थामे पिछले सुख दुःख सारे.

सिंहासन बन कर अपनी बाँहोँ मेँ

थामे होँगे तू ने गृहपति प्यारे.

खेले होँगे उन स्नेहिल बाँहोँ मे

प्रिय शिशु जाने कितने सारे.

शायद हो उन मेँ मेरी प्रियतम भी.

क्रिसमस पर उपहार मिले होँगे उस को भी,

दमक उठा होगा उस का मुखमंडल.

दादा जी के उन जर्जर हाथोँ पर

बरसाए होँगे मृदु चुंबन.

जैसे अब तुम बरसाती हो मुझ पर

नई भावना, नई संपदा सुखकर.

प्रियतम, नारी का गौरव हो तुम.

मुझ पर आज छा रही हो तुम.

नारी की महिमा से मंडित घर.

शिकनहीन कैसी यह सुंदर चादर.

उस के चरणोँ से पावन यह आँगन.

कुटी नहीँ यह स्वर्गलोक का है सुख प्रांगण.

(परदे का छोर पकड़ता है, और उस पर की कढ़ाई को मुग्‍ध भाव से देखता रहता है.)

यूँ घंटोँ बैठा रहूँ यहाँ मैँ

होती हो मन मेँ मधुमय सिहरन.

विधि ने यहाँ बुने थे सपने.

हुआ यहाँ देवी का सर्जन.

यहाँ सँवरता पलता था बचपन.

धारा सा बहता चलता था जीवन.

मनहर विकास था सतत सचेतन.

होता उस मेँ अब प्रभु का दर्शन.

 

कौन खीँच लाया यहाँ मुझे? किस कारण?

क्योँ जूझ रहे मन मेँ तूफ़ान, प्रभंजन?

बैठा हूँ किस चाहत मेँ, किस कारण?

अपने से अनजान! दुःखी! किस कारण?

जादू है इस घर मेँ या सम्मोहन?

खीँच मुझे लाया दैहिक आकर्षण,

प्रेम अगन ने मुझे बनाया कुंदन.

कौन कर गया यह अद्भुत परिवर्तन?

यहाँ अगर आ जाए वह इस क्षण

क्या उत्तर देगा मेरा दंभी मन?

बस, छू पाऊँगा उस के पद पावन.

बह जाएगी सारी शेख़ी कण कण प्रतिक्षण…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

चलो! जल्दी! वह आ रही है!

फ़ाउस्ट

फिर नहीँ आऊँगा मैँ यहाँ. चल.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

लो, यह मंजूषा भारी भरकम.

जल्दी! रख दो इस ख़ाने मेँ.

क़सम से! सुंदर हैँ आभूषण.

किसी और के थे ये आभूषण.

लेकिन – छल्ले छल्ले पर लिखा है

पहनने वाली का नाम!

चकरा जाएगी, प्यारे!

हो जाएगी दीवानी, जी जान से निछावर!

फ़ाउस्ट (अनिश्चय मेँ सोचता रहता है – )

ठीक नहीँ होगा यह? – या ठीक रहेगा यह?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हिचकिचा रहे हैँ आप?

हड़पना चाहते हैँ यह माल?

यह बात है, तो सुनो –

भूल जाओ दिल की हवस!

फिर मुझे मत देना तकलीफ़!

आप भरते रहेँ अपना घर

मैँ करता रहूँ चोरी?

(अलमारी मेँ मंजूषा रख कर ताला लगाता है.)

चलो, जल्दी करो!

पूरी करने मेँ जुटा हूँ मैँ आप की हर बात.

यह कमसिन – देनी है मुझे आप को सौग़ात.

और आप हैँ? लगे हैँ करने मेँ वाद विवाद

मानो अध्यात्म का कोई प्रश्न हो

जीती जागती सुंदर नार!… चलो!

(जाते हैँ.)

मार्गरेट (हाथ मेँ लैंप -)

यहाँ हुमस है, बड़ी घुटन है.

बाहर थोड़ी भी नहीँ तपन है.

जाने क्योँ अजीब सा लगता है घर.

जल्दी से आ जाओ, माँ, तुम अब घर.

यह कैसी सिरहन है, कैसा कंपन

अर्थहीन नाहक़ सा डर!

(कपड़े उतारते उतारते गाने लगती है.)

थूले के राजा की

    है अनुपम प्रेम कहानी

अंत समय आया था

    थी विदा हो रही रानी

 

जाते जाते रानी ने

    प्याला दिया निशानी

राजा था दुख से कातर

    देखे हसरत से रानी

 

था जान से प्यारा प्याला

    रखता पूरी निगरानी

जब अधर लगाता प्याला

    आँखोँ मेँ आता पानी

 

अंत समय आया तो

    बेटा युवराज बनाया

सब कुछ उस को दे डाला

    बस एक बचाया प्याला

 

सारे सरदार बुलाए

    सब दावत पर बुलवाए

प्राचीन दुर्ग के नीचे

    गहरा सागर लहराए

 

जीवन सूरज ढलता था

    जब अधर लगाया प्याला

खिड़की से बाहर झाँका

    फिर बाहर फेँका प्याला

 

थी सागर की गहराई

    था डूब रहा प्रिय प्याला

लो, ज्योत बुझी नयनोँ की

    फिर छुआ न उस ने प्याला

 

सागर लहरेँ लेता था

    गहरा था नीला पानी

राजा ने उमर बिताई

    थी साँस साँस मेँ रानी

(कपड़े रखने के लिए आलमारी खोलती है. वहाँ रखी सजावटी मंजूषा पर नज़र जाती है.)

यह मंजूषा? यह! कहाँ से आई?

पहले तो नहीँ थी यह मंजूषा.

वाह! कैसी सुंदर? क्या है इस के अंदर?

क्या माँ ने रखी है किसी की धरोहर?

यह चाबी! खोलूँ, देखूँ तो भीतर…

हे भगवान, आभूषण… कितने सुंदर!

बड़े घरोँ जैसे हैँ आभूषण!

कैसा लगता है यह कंठहार मुझ पर?

किस के हो सकते हैँ ये आभूषण!

(कुछ आभूषण धारण करती है और दर्पण मेँ अपने को निहारती है.)

ये कर्णफूल! काश, मुझे मिल जाएँ.

कैसे शोभित होगा इन से मेरा तन?

यौवन है बेकार! रूप है निष्फल!

सौ बातोँ की एक है बात –

मुँहदेखे सब मिलते हैँ हम से हँस कर

लेकिन मन ही मन हँसते हैँ हम पर.

है सब सोने की माया

कोई इस से पार न पाया…

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