21वीँ सदी की छलछल उच्छल हिंदी

In Culture, English, Hindi, History, People by Arvind KumarLeave a Comment

–अरविंद कुमार

24 अप्रैल 2007 के हिंदुस्तान (दिल्ली) के मुखपृष्ठ पर छपे एक चित्र का कैप्शन–

पीऐसऐलवी सी-8 से इटली के उपग्रह एजाइल को कक्षा मेँ स्थापित कर भारत ने ग्लोबल स्पेस मार्केट मेँ प्रवेश किया. इसरो की यह उड़ान पहली व्यावसायिक उड़ान थी. इसरो दुनिया की अग्रणी एजेसियोँ की श्रेणी मेँ आया. (श्रीहरिकोटा से) लांचिंग के दौरान सतीश धवन केँद्र के इसरो प्रमुख जी. माधवन व वरिष्ठ वैज्ञानिक मौजूद थे.”

यह है आज़ादी के साठवें वर्ष मेँ नौजवान हिंदुस्तान, और नौजवान हिंदी — संसार से बराबरी के स्तर पर होड़ करने के लिए उतावला हिंदुस्तान. और पूर्वग्रहोँ से मुक्त हर भाषा से आवश्यक शब्द समो कर अपने को समृद्ध करने को तैयार हिंदी, जो इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय नगर न्यू यार्क मेँ विश्व सम्मेलन कर रही है, और अपने लिए अधिकारपूर्वक जगह माँग रही है.

कहाँ 1947 का वह देश जहाँ एक सूई भी नहीँ बनती थी, जहाँ चमड़ा कमा कर बाहर भेजा जाता था, और जूते इंपोर्ट किए जाते थे. जहाँ साल दो साल बाद भारी अकाल पड़ते थे. बंगाल के अकाल के बारे मेँ आजकल के लोग नहीँ जानते, पर अँगरेजी राज के हिंदुस्तान की वही सच्ची तसवीर हैभूखा नेगा किसान, बेरोज़गार नौजवान. कहाँ आज अपनी धरती से देशी राकेट मेँ अंतरिक्ष की व्यवासायिक उड़ान भरने वाला, चाँद तक अपने राकेट भेजने के सपने देखने वाला देश!

आज़ादी मेँ हिंदी का पहला मतलब…

ऐसे मेँ मेरा मन साठ बासठ साल पीछे चला जाता है. होश सँभालने पर मैँ ने आज़ादी की लड़ाई के अंतिम दो तीन वर्ष ही देखे–1945 से 1947 तक. 15 अगस्त की झूमती गाती मस्ती और उत्साह से रात भर सो न सकने वाली दिल्ली मुझे याद है. मुझे यह भी याद है कि किस प्रकार सितंबर से सांप्रदायिक दंगोँ से घिरी दिल्ली मेँ हमारा स्वयंसेवकोँ का दस्ता दिन भर करौल बाग़ के आसपास के उन मकानोँ का जायजा लेता था जिन के निवासी पाकिस्तान जाने वाले शिविरोँ मेँ चले गए थे (ऐसे ही एक घर मेँ मैँ ने तवे पर अधपकी रोटी देखी थी, और किसी कमरे मेँ किताबों से भरे आले अल्मारियाँ देखे थे, जिन मेँ से मैँ प्रसिद्ध अँगरेजी उपन्यास वैस्टवर्ड हो उठा लाया था), और रात को रेलवे स्टोशन पर उतरने वाले रोते बिलखते या सहमे बच्चोँ वाले परिवारोँ को ट्रकोँ मेँ लाद कर उन घरोँ मेँ छोड़ आता था. आज़ादी के पहले दिनोँ की याद आए और वे दिन याद न आएँ ऐसा हो नहीँ सकता.

मुझे याद है आम आदमी की तरह हमारे मनोँ मेँ भाषा को ले कर कोई एक बात थी तो थी अँगरेजी से मुक्त होने की ललक. (मैँ मैट्रिक पास कर चुका था, कोई भाषाविद नहीँ था, पर भाषा प्रेम तो कूट कूट कर भरा था.) चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अँगरेजी की सफ़ाई बिदाई के बाद हिंदी की ताजपोशी हो, सत्ताभिषेक–जल्दी से जल्दी, तत्काल, फौरन. उन दिनोँ जनता के स्तर पर ब्रिटिश इंडिया मेँ हिंदी कहीँ नहीँ थी. कोर्ट कचहरी थाने तहसील मेँ काररवाई अँगरेजी के बाद उर्दू मेँ होती थी. कारण ऐतिहासिक थे. लेकिन हिंदी वालोँ के मन मेँ उर्दू का विरोध भी गहरे बसा था. उसे सांप्रदायिक रंग भी दिया जाता था, जिस के पीछे एक भ्रामक नारा था — हिंदी, हिंदु, हिंदुस्तान. जैसे देश मलयालम, तमिल, गुजराती, बांग्ला आदि भाषाएँ होँ ही नहीँ! उत्तर भारत के बहुत सारे लोगोँ को वह नारा मोहक लगता था.

आज़ाद होते ही हर क्षेत्र की तरह भाषा के क्षेत्र मेँ भी देश ने दूरगामी क़दम उठाने शुरू कर दिए. तरह तरह के वैज्ञानिक संस्थान और शिक्षा के लिए अच्छे से अच्छे तकनीकी विद्यालयोँ की योजनाएँ बनाई जाने लगीं. छलाँग लगा कर पचास सालोँ मेँ तेज दौड़ती दुनिया के निकट पहुँचने के पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं. आकलन किया गया था कि 1984 के आसपास हम लक्ष्य के कहीँ क़रीब होँगे. 84 तक हिंदुस्तान की उन्नति का लांचिंग पैड तैयार हो चुका था, अब उड़ानेँ नज़र आ रही हैँ.

इसी प्रकार हिंदी की उन्नति के लिए आयोग बने, नई शब्दावली का निर्माण आरंभ हुआ. तरह तरह के कोशोँ के लिए अनुदान दिए गए. डाक्टर रघुवीर की कंप्रीहैँसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी और पंडित सुंदर लाल का विवादित हिंदुस्तानी कोश उन्हीं अनुदानोँ का परिणाम थे. हिंदी के सामने चुनौती थी उस अँगरेजी तक पहुँचने की जो औद्योगिक क्रांति के समय से ही तकनीकी शब्द बनाती आगे बढ़ रही थी. वहाँ शब्दोँ का बनना और प्रचिलत होना एक ऐसी प्रक्रिया थी, जैसे सही जलवायु मेँ किसी बीज का विशाल पेड़ बन जाना. हिंदी के पास यह सुविधा नहीँ थी, या कहेँ कि इस का समय नहीँ था. रास्ते मेँ उसे ग़लतियाँ करनी ही थीं. ऊपर वाले दोनोँ कोश वैसी ही ग़लतियाँ कहे जा सकते हैँ. (रघुवीरी कोश को भी ग़लती मान कर मैँ ने कोई कुफ़्र तो नहीँ कर दिया? लेकिन मैदाने जंग मेँ शहसवार ही गिरते हैँ, घुटनोँ के बल चलने वाले बच्चे नहीँ. डाक्टर रघुवीर हमारे कुशलतम घुड़सवार थे, इस मेँ कोई शक नहीँ.)

आज़ादी के बाद हिंदी का मतलब पंडिताऊ हिंदी से बचती हुई लेकिन संस्कृत शब्दोँ से प्रेरित नवसंस्कृत शब्दोँ वाली भाषा हो गया था. अचानक राष्ट्रभाषा और राज्यभाषा पद पर बैठने वाली भाषा को अँगरेजी की सदियोँ मेँ बनी वौकेबुलैरी के नज़दीक पहुँचना था. हिंदी के लिए तकनीकी शब्दावली बनाने का महाभियान या आपरेशन शुरू किया गया. यह ज़रूरी भी था. नई स्वतंत्र राष्ट्रीयता के जोश मेँ वैज्ञानिकोँ के साथ बैठ कर हिंदी विद्वान शब्द बनाने बैठे. जैसा चीन मेँ हुआ वैसा ही भारत मेँ भी. तकनीकी शब्दोँ के अनुवाद, कई जगहोँ पर अनगढ़ अप्रिय अनुवाद, किए जाने लगे. जो भाषा बनी वह रेडियो समाचारोँ और हिंदी दैनिकोँ पर कई दशक छाई रही. लेकिन लोकप्रिय न हो पाई. कारण : यह फ़ैक्ट ओवरलुक कर दिया गया कि तकनीकी शब्द वे लोग बनाते हैँ जो किसी उपकरण को यूज़ करते हैँ या इनवैंट करते हैँ. यह भी नज़रंदाज कर दिया गया कि उन्नीसवीँ सदी वाली आधी-ऊँघती आधी-जागती दुनिया इक्कीसवीँ सदी की तरफ़ दौड़ रही है. अब इनफ़ौर्मेशन क्रांति के युग मेँ हर रोज़ इतनी सारी नई चीज़ें बन रही हैँ कि उन के नामो का अनुवाद करते करते और अनुवाद को लोकप्रिय करते करते संसार हमेँ पीछे छोड़ जाएगा.

जो भी हो पिठले सौ सालोँ मेँ हिंदी मेँ जो तीव्र विकास हुआ है, एक आधुनिक संपन्न भाषा उभर कर आई है, वह संसार भर मेँ भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है. लैटिन से आक्रांत इंग्लैंड मेँ अँगरेजी को जहाँ तक पहुँचने मेँ पाँच सौ से ऊपर साल लगे, वहाँ तक पहुँचने मेँ हिंदी को मेरी राय मेँ कुल मिला कर डेढ़ सौ साल लगेंगे–2050 तक वह संसार की समृद्धतम भाषाओँ मेँ होगी– सिवाए एक बात के. वह यह कि आज अँगरेजी संसार मेँ संपर्क की प्रमुख भाषा है. इस स्थान तक हिंदी शायद कभी न पहुँचे, या पहुँचे तो तब जब भारत दुनिया का सर्वप्रमुख देश बन पाएगा. दुरदिल्ली! संख्या की दृष्टि से हिंदी बोलने वाले आज दुनिया मेँ चौथे स्थान पर हैँ. वे धरती के हर कोने मेँ मिलते हैँ. कई देशोँ मेँ वे इनफ़ौर्मेशन तकनीक मेँ मार्गदर्शक ही नहीँ नेता का काम कर रहे हैँ, जब कि भारत मेँ यह तकनीक काफ़ी बाद मेँ पहुँची. इस सब के पीछे है वह आंतरिक ऊर्जा जो हर भारतवासी के मन मेँ है. वह ललक जो हमेँ किसी से पीछे न रहने के लिए उकसाती है. अँगरेजी राज के दौरान भी यह भावना हम मेँ सजग थी. कुछ सत्ता सुख भोगी या सत्ताश्रित वर्गों के अलावा आम आदमी ने विदेशी राज को कभी स्वीकार नहीँ किया.

इतिहास गवाह है…

लेकिन इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रकार और स्तर पर अंतरसांस्कृतिक संपर्क परिवर्तन और विकास का प्रेरक रहा है. भारत के आधुनिकीककरण के पीछे अँगरेजी शासन और यूरोपीय संस्कृतियोँ से संपर्क के प्रभाव को नकारा नहीँ जा सकता. राजा राम मोहन राय के ज़माने से ही समाज को बदलने की मुहिम भीतर तक व्यापने को उतावली हो गई थी. सुधारोँ के सतही विरोध के बावजूद ऊपरी तौर पर दक़ियानूसी दिखाई देने वाले लोग भी एक अनदेखी सांस्कृतिक प्रणाली से साबक़ा पड़ने पर मन ही मन अपने को बदलाव के लिए तैयार कर रहे थे. ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे आंदोलन यूरोप, सत्ता द्वारा प्रचारित ईसाइयत और विदेशी शासन कं ख़िलाफ़ और अपने आप को उस से बेहतर साबित करने के तेजी से लोकप्रिय होते तरीक़े थे. इंग्लिश थोप कर भारतीयोँ को देसी अँगरेज बनाने की मैकाले की नीति उलटी पड़ चुकी थी. वह केवल कुछ काले साहब बना पाई, आम जनता जिन का मज़ाक़ उड़ाती रही. मैकाल की मनोकल्पना के विपरीत अँगरेजी शिक्षा ने विरोधी विचारकोँ और नेताओँ की एक पूरी फ़ौज ज़रूर तैयार कर दी जो यूरोप मेँ प्रचलित नवीनतम बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को समझ कर अँगेरजी शासन के ख़िलाफ़ जन जागरण का बिगुल फूँकने लगे. इस परिप्रेक्ष्य मेँ कई बार विचार जागता है कि अगर मैकाले न होता, उस ने अँगरेजी न थोपी होती, तो क्या हमारा देश आज भी अफ़गानिस्तान ईरान और अनेक अरब देशोँ जैसा मध्यकाल मेँ रहने वाला देश न रह जाता!

आज जापान दुनिया मेँ हम से भी बहुत आगे है. जापान मेँ सम्राट मेजी का जो सुधार अभियान (चुने नौजवानोँ को अमेरिका भेज कर अँगरेजी सिखाना, नवीनतम तकनीक सीख कर देश को आधुनिक बनाना, और कुरीतियोँ को मिटा कर समाज सुधार करना) 19वीँ सदी के अंतिम दो दशकोँ मेँ आरंभ हुआ, भारत मेँ उस की नीवँ मैकाले ने अँगरेजी शिक्षा का माध्यम बना कर अनजाने ही लगभग पचास साल पहले रख दी थी. तकनीकी विकास पर ज़ोर हमारे यहाँ नदारद था, क्यों कि वह शासकोँ के हित मेँ नहीँ था. लेकिन तकनीकी विकास और भारत की पुरानी तकनीकी अग्रस्थिति को फिर से पाने की तमन्ना भारत मेँ आज़ादी की पहली लड़ाई से पहले ही जाग उठी थी. अँगरेजो से लड़ाई के लिए टीपू सुल्तान ने फ़्रांस से संपर्क किया था, कई नौजवान वहाँ भेजे थे, नवीनतम तकनीक सीखने. टीपू की हार ने वह सब समाप्त कर दिया. ढाके की मलमल का और किस प्रकार उसे बनाने वाले कारीगरोँ के अँगूठे कटवाए गए–इस बात का ज़िक्र बीसवीँ सदी के स्वतंत्रता आंदोलनोँ पर लगातार छाया रहा. 1857 से कुछ वर्ष पहले ही सेठ रणछोड़ ने अहमदाबाद मेँ पहली सूती मिल खोल दी थी. जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने इस्पात संयंत्र की स्थापना बीसवीँ सदी के मुख पर 1907 मेँ कर दी थी. स्वदेशी आंदोलन इस से पहले शुरू हो चुके थे.

समाज सुधार और आज़ादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था. हिंदी राजनीतिक संवाद की भाषा और जनता की पुकार बनी. पत्रकारोँ ने इसे माँजा, साहित्यकारोँ ने सँवारा. उन दिनोँ सभी भाषाओँ के अख़बारोँ मेँ तार द्वारा और टैलिप्रिंटर पर दुनिया भर के समाचार अँगरेजी मेँ आते थे. इन मेँ होती थी एक नए, और कई बार अपरिचित, विश्व की अनजान अनोखी तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक शब्दावली जिस का अनुवाद तत्काल किया जाना होता था ताकि सुबह सबेरे पाठकोँ तक पहुँच सके. कई दशक तक हज़ारोँ अनाम पत्रकारोँ ने इस चुनौती को झेला और हिंदी की शब्द संपदा को नया रंगरूप देने का महान काम कर दिखाया. पत्रकारोँ ने ही हिंदी की वर्तनी को एकरूप करने के प्रयास किए. वाराणसी का ज्ञान मंडल का कोश दैनिक आज के संपादन विभागोँ से उपजे विचारोँ और उसके प्रकाशकोँ की ही देन है. मुझ जैसे हिंदी प्रेमियोँ के लिए यह वर्तनी का वेद है. तीसादि दशक मेँ फ़िल्मोँ को आवाज़ मिली. बोलपट या टाकी मूवी का युग शुरू हुआ. अब फ़िल्मोँ ने हिंदी को देश के कोने कोने मेँ और देश के बाहर भी फैलाया. संसार भर मेँ भारतीयोँ को जोड़े रखने का काम बीसवीँ सदी मेँ सुधारकोँ, स्वतंत्रता सेनानियोँ, पत्रकारोँ, साहित्यकारोँ और फ़िल्मकारोँ ने बड़ी ख़ूबी से किया…

आज कुछ वर्गों मेँ ग्लोबलाइज़ेशन का विरोध फ़ैशन बन गया है. ग्लोबलाइज़ेशन या ग्लोबलन या फिर सुधीश पचौरी के बनाए शब्द ग्लोकुल के आधार पर ग्लोकुलन है क्या? व्यापारिक, सांस्कृतिक और संप्रेषण के स्तर पर दुनिया का एक गाँव भर बना जाना, या ऐसा परस्पर-संपृक्त कुल बन जाना जो परस्पर तत्काल व्यवहार कर रहा हो, एक दूसरे से आदान प्रदान कर रहा हो. आज आज़ाद हिंदुस्तान इस दुनिया मेँ अपनी जगह सुदृढ़ करने के लिए उतावला है. हिंदी का विकास और प्रसार इस मेँ सबल भूमिका निभा रहा है. परिणामस्वरूप भाषाई स्तर पर जो उलटफेर हो रहा है, उस से कुछ हिंदी वाले कई तरह की आशंकाओँ, दुश्चिंताओँ और भयोँ से त्रस्त हैँ. कई प्रतिक्रियाएँ तो ऐसी हैँ जो इस वैश्विक परिवर्तन के युग मेँ, अंतरराष्ट्रीय (विशेषकर इंग्लिश) शब्दावली की तीखी भरमार के कारण देखने को मिलती हैँ.

ग्लोकुलन कोई नई प्रक्रिया नहीँ है. बड़ी संख्या मेँ मानविकी, नृवँशिकी, भाषाविज्ञानी मानते हैँ कि कोई दो हज़ार संख्या वाले एक मानव वंश ने पेचीदा भाषा रचना का गुर पा लिया. भाषा के हथियार के सहारे यह वंश सुनियंत्रित सुगठित दलोँ की रचना कर के वे भयानक जीवोँ पर विजय पा सकने मेँ सफल हो गया. उस का वंश तेजी से बढ़ने फैलने लगा. तकरीबन 50 हज़ार साल पहले इस के वंशजों को नौपरिवहन के गुर पता चल गए तो अरब सागर (पुरानी शब्दावली मेँ वरुण सागर) पार कर के वे भारत भूखंड के उत्तर पश्चिम तट पर कहीँ गुजरात के आसपास पहुँचे. यहाँ से वे सारी दिशाओँ मेँ बढ़ते चले गए. यह था पहला ग्लोकुलन अभियान. अफ़्रीका मेँ टिके रहे साथी पूरे महाद्वीप मेँ फैलते रहे. जो लोग भारत आ गए थे, वे देश मेँ तो फैले ही, साथ साथ अफ़ग़ानिस्तान-इराक़-ईरान के रास्ते एक तरफ़ यूरोप, दूसरी तरफ़ चीन, मंगोलिया, जापान और एशिया के उत्र पूर्वी छोर से अलास्का के रास्ते अमरीकी महाद्वीपों पर छा गए. मानव वंश बढ़ता बँटता रहा, बदलते देश, भूगोल और आवश्यकताओँ के अनुसार भाषाएँ बनती बदलती रहीँ. अब दुनिया विविध जातियोँ और 5,000 से अधिक भाषाओँ मेँ बँटी है. उन की मूल भाषा का कोई रूप अब नहीँ मिलता. इसी ग्लोकुलन के सहारे मानव सभ्यता आगे बढ़ी है.

पिछली तीन चार सदियोँ मेँ विज्ञान और औद्योगिक क्रांति ने बिखरी जातियोँ और भाषाओँ को बड़े पैमाने पर नजदीक लाना शुरू कर दिया था. कभी साम्राज्यों के द्वारा, कभी विचारोँ के द्वारा. आज हम लोग ग्लोकुलन की नवीनतम और सबलतम धारा के बीच है. दुनिया तेजी से छोटी हो रही है. ग्लोब का कोई कोना आवागमन की तेज धारा से बचा नहीँ है. स्वयं हिंदुस्तान के लोग किस कोने मेँ नहीँ हैँ? उन पर सूरज कभी नहीँ डूबता. पिछले दशकोँ मेँ सूचना तकनीक मेँ दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई है. इस मेँ हम भारतीयोँ का योगदान कम नहीँ है, तो इस लिए भी कि हम अँगरेजी भाषा मेँ पारंगत हैँ. संप्रेषण के क्षेत्र मेँ व्यापकता और तात्कालिकता आई है. सारी दुनिया हर ख़बर साथ साथ अपनी आँखों देखती है. लिखित समाचार के ऊपर बोला गया वाचिक रिपोर्ताज हावी होता जा रहा है. मुम्ाकिन नहीँ था कि इस सब का असर समाज और भाषा पर न पड़े. सारी भाषाएँ बदलाव की तेज रौ मेँ बह रही हैँ. नई तकनीकेँ नए विचार, नए शब्द, ला रही हैँ.

विश्व के परस्पर संलग्नन का सब से ज़्यादा असर जीवन स्तर और शैली पर और भी ज़्यादा हुआ है. हर साल नए से नया परिवर्तन. नई समृद्धि का संदेश, नई आशा! नए से नया बेहतरीन माल!

हिंदुस्तान अब वह नहीँ है जो 1907 मेँ था, या 1947 मेँ या 1957 मेँ था. आज का नौजवान हिंदुस्तान वह नहीँ है जो 1991 मेँ था. 2001 से 2007 तक भी इंडिया बदल गया है. 1947 मेँ बीए ऐमए पढ़े लिखे युवक के सामने रोज़गार के गिने चुने पेशे थे. पहला क्लर्की, टाइपिंग, शार्टहैँड, अध्यापकी. वह भी सिफ़ारिश हो तो. कोई कोई प्रबंधन मेँ भी पहुँच जाता था. मैनेजमैंट के स्कूल नहीँ थे. कामर्स वाले अकाउंटैंट बन सकते थे. साइंस पढ़ने पर भी कुछ ख़ास अवसर नहीँ थे. हाँ, इंजीनियरिंग वालोँ के लिए संभावनाएँ थीं. पर कितनी? इंजीनियरिंग सिखाने के संस्थान ही कितने थे! आज हर तरफ़ उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए मारामारी. नए से नए कालिज खुल रहे हैँ. मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर छात्रों को अंतिम वर्ष पार करने से पहले ही दुनिया के इंडस्ट्रियलिस्ट मुँहमाँगे इनकम पैकेज पर रखने को मुँह फाड़े खड़े रहते हैँ. इस के पीछे देश मेँ अँगरेजी जानने पढ़ने और लिखने वालोँ की बेहद बड़ी संख्या होना है. मध्य वर्ग की संख्या और ख़रीद शक्ति का विस्तार हुआ है. सब से पहले मोबाइल उस के पास आए, एक से एक बढ़िया माल उसे मिल सकता है. कंप्यूटर, इंटरनैट जीवन का आवश्यक अंग है. बहुत सारी ख़रीद फ़रोख्त वह आनलाइन करता है. हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदता, न्यू यार्क मेँ होटल बुक करता है. नई से नई कारोँ के माडल उस के पास हैँ. क्रैडिट कार्ड, एटीऐम.

सब का असर भाषा पर न पड़े यह संभव नहीँ था. आज़ादी के बाद हिंदुस्तान ने और हिंदी ने कट्टर अँगरेजी विरोध का युग देखा. हम चाहते थे अँगरेजी का कोई शब्द हमारी भाषा मेँ न हो. ऐसी हिंदी बने जिम मेँ किसी और बोली का पुट न हो. लेकिन दुनिया मेँ ऐसा कभी होता नहीँ है कि कोई भाषा दूसरी भाषाओँ से अछूती रहे. अँगरेजी का पहला आधुनिक कोश बनाने वाले जानसन का सपना थी कि अपनी भाषा को इतना शुद्ध और सुस्थिर कर दे कि उस मेँ कोई विकार न हो. यही सपना अमेरिका मेँ कोशकार वैब्स्टर ने भी देखा था. उन की अँगरेजी आज हर साल लाखों नए शब्द दुनिया भर से लेती है!

आज हिंदी रघुवीरी युग से निकल कर नए आयाम तलाश रही है. अँगरेजी शब्दोँ का होलसेल आयात कर रही है, बस यही परेशानी है जो शुुद्धतावादियोँ की पेशानी को परेशान को परेशान कर रही है. कहा जा रहा है, हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट रही है. टीवी चैनलोँ ने तो हद कर दी है! कुछ का कहना है कि यह विकृत भाषा मानवीय संवेदनाओँ को छिछले रूप मेँ ही प्रकट कर सकने की क्षमता रखती है, इस से अधिक नहीँ. उन्हेँ डर है हिंदी घोर पतन की कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली… और… उन्हेँ लगता है कि वह दिन जल्दी आएगा, जब कह सकेँगे– लो फिसल ही गई!

वे लोग भूल जाते हैँ कि हिंदी लगातार बढ़ती रही है तो इस लिए कि वह पिछली दस सदियोँ से अपने आप को हर बदलते समय के साँचे मेँ ढालती रही, नए समाज की नई ज़रूरतोँ के अनुसार नई शब्दावली बना कर या उधार ले कर समृद्ध होती रही है. आज़ादी के बाद नए से नए सृजन आंदोलनोँ से यह समृद्ध हुई, सजीव बहसों से गुज़री. इन बहसों मेँ जो गरिष्ठ हिंदी तथाकथित विद्वान लिखते थे, वह कठिनतम भाषाओँ के उदाहर के रूप मेँ पेश की जा सकती है. इसी रुझान मेँ रेडियो के समाचारोँ मेँ जो हिंदी सुनने को वह सब के सिर से उतर जाती थी. भाषाई आयोगोँ और रघुबीरी कोशोँ को आर्थिक सहायता देने वाले पंडित नेहरु शिकायत करते सुने जाते थे कि यह हिंदी वह नहीँ समझ पा रहे. पर विद्वज्जन (!) यह कह कर टाल देते कि परिवर्तन के दौर मेँ ऐसा तो होता ही है. एक दिन आम आदमी यही भाषा बोलने लिखने लगेगा. ऐसा हुआ नहीँ.

हिंदी को विश्वनाथ जी का योगदान…

मेरा सौभाग्य है कि पिछले बासठ सालोँ से (1945 से) मैँ मुद्रण, पत्रकारिता (सरिता, कैरेवान, मुक्ता, माधुरी, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजैस्ट) से जुड़ा रहा हूँ. पत्रकार, लेखक, अनुवादक, कला-नाटक-फ़िल्म समीक्षक होने के नाते अनेक क्षेत्रों से मेरा साबक़ा पड़ा. दिल्ली मेँ रंगमंच से सक्रिय संपर्क रहा, और मुंबई मेँ फ़िल्मोँ की दुनिया को निकट से देखने का मौक़ा मिला. इस का लाभ हुआ भिन्न विधाओँ की भाषा समस्याओँ को नज़दीक से देखना समझना. चाहे तो कोई भाषा को कितना ही गरिष्ठ बना सकता है. लेकिन पाठक को दिमाग़ी बदहज़मी करा के न लेखक का कोई लाभ होता है, न पाठक लेखक की बात पचा पाता है–यह पाठ मुझे पत्रकारिता और लेखन मेँ मेरे गुरु सरिता-कैरेवान संपादक विश्वनाथ जी ने शुरू मेँ ही अच्छी तरह समझा दी थी.

हिंदी साहित्यिक दुनिया मेँ विश्वनाथ जी का नाम कभी कोई नहीँ लेता. सच यह है कि 1945 मेँ सरिता का पहला अंक छपने से ले कर अपने अंतिम समय तक उन्होँ ने हिंदी को, समाज को, देश को जो कुछ दिया वह अप्रशंसित भले ही रह जाए, नकारा नहीँ जा सकता. उन्होँ ने भाषा का जो गुर मुझे सिखाया, वह अनायास मिला वरदान था.

सरिता के संपादन विभाग तक मैँ 1950 के आसपास पहुँचा. उपसंपादक के रूप मेँ मैँ हर अंक मेँ बहुत कुछ लिखता था. विश्वनाथ जी मेरे लिखे से ख़ुश रहते थे. मेरे सीधे सादे वाक्य उन्हेँ बहुत अच्छे लगते थै. लेकिन कई शब्द? एक दिन उन्होँ ने मुझे अपने कमरे मेँ बुलाया, पूछा, क्या तेली, मोची, पनवाड़ी, ये ही क्यों क्या आम आदमी, विद्वानोँ की भाषा समझ पाएगा? क्या यह विद्यादंभी विद्वान तेली आदि की भाषा समझ लेगा?” स्पष्ट है मेरे पास एक ही उत्तर हो सकता था : विद्वान की भाषा तो केवल विद्वान ही समझेंगे, आम आदमी की भाषा समझने मेँ विद्वानोँ को कोई कठिनाई नही होगी. थोड़े से शब्दोँ मेँ विश्वनाथ जी ने मुझे संप्रेषण का मूल मंत्र सिखा दिया था. जिस से हम मुख़ातिब हैँ, जो हमारा पाठक श्रोता दर्शक आडिएँस है, हमेँ उस की भाषा मेँ बात करनी होगी.

मुझ से उस संवाद का परिणाम था कि विश्वनाथ जी ने सरिता मेँ नया स्थायी स्तंभ जोड़ दिया: यह किस देश प्रदेश की भाषा है? इस मेँ तथाकथित महापंडितोँ की गरिष्ठ, दुर्बोध और दुरूह वाक्यों से भरपूर हिंदी के चुने उद्धरण छापे जाते थे. उन पर कोई कमैंट नहीँ किया जाता था. इस शीर्षक के नीचे उन का छपना ही मारक कमैंट था.

जीवंत समाज और भाषा बदलते रहते हैँ. हिंदुस्तान बहुत बदला है, बदल रहा है. हिंदी बदली है, बदल रही है, बदलेगी. मैँ समझता हूँ न बदलना संभव नहीँ है. न बदलेगी तो इस की गिनती संस्कृत जैसी मृत भाषाओँ मेँ होगी, जिस से विद्रोह कर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना भाषामेँ की. मैँ संस्कृत भाषा की समृद्धता के विरुद्ध कुछ नहीँ कह रहा हूँ. संस्कृत न होती तो हमारी हिंदी भी न होती. हमारे अधिकतर शब्द वहीँ से आए हैँ, कभी तत्सम रूप मेँ, तो कभी तद्भव रूप मेँ. संस्कृत जैसे शब्दोँ की हमारी एक बिल्कुल नई कोटि भी है. वे अनगिनत शब्द जो हम ने बनाए हैँ, लेकिन जो प्राचीन संस्कृत भाषा और साहित्य मेँ नहीँ हैँ. यदि हैँ तो भिन्न अर्थों मेँ हैँ. इन नए शब्दोँ का आधार तो संस्कृत है पर इन की रचना बिल्कुल नए भावोँ को प्रकट करने के लिए की गई है. इन्हेँ संस्कृत शब्द कहना ग़लत होगा. ये आज की हिंदी की पहचान बन गए हैँ. उदाहरण के लिए अँगरेजी के कोऐग्ज़िटैंस का हिंदी अनुवाद सहअस्तित्व. यह किसी भी प्रकार संस्कृत शब्द नहीँ है. संस्कृत मेँ इसे सहास्तित्व लिखा जाता. इस शब्द के पीछे जो भाव है वह भी संस्कृत मेँ इस विशिष्ट संदर्भ मेँ नहीँ मिलेगा. इन शब्दोँ को हम नवसंस्कृत कह सकते हैँ.

इंडिया मेँ न्यू हिंदी: रघुबीरी को ढूँढ़ते रह जाओगे!

ख़ुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावोँ से मुक्त होती जा रही है, और रघुबीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. पत्रकार अब हर अँगरेजी शब्द का अनुवाद करने की मुसीबत से छूट चुके हैँ. वे एक जीवंत हिंदी की रचना मेँ लगे हैँ. आतंकवादी के स्थान पर अब वे आतंकी जैसे छोटे और सार्थक शब्द बनाने लगे हैँ. उन्होँ ने बिल्कुल व्याकरण असंगत शब्द चयनित गढ़ा है, लेकिन वह पूरी तरह काम दे रहा है. आरोप लगाने वाले आरोपी का प्रयोग वे आरोपित व्यक्ति के लिए कर रहे हैँ. अगर पाठक उन का मतलब सही समझ लेता है, यह भी क्षम्य माना जा सकता है. तकनीकी शब्दोँ या चीज़ों या नई प्रवृत्तियोँ के नामों के अनुवाद मेँ सब से बड़ी समस्या एकरूपता की होती है. कोई रेडियो को दूरवाणी लिखेगा, कोई आकाश वाणी, कोई नभवाणी, तो कोई विकीर्ण ध्वनिमेरी राय मेँ नए अन्वेषणों का अनुवाद अनुपयुक्त प्रथा है. स्पूतनिक का अनुवाद नहीँ किया जा सकता. गाँधी चरखे या अंबर चरख़े को अँगरेजी मेँ इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. इंग्लैंड मेँ आविष्कृत कताई मशीन स्पिनिंग जैनी को हिंदी मेँ कतनी छोकरी नहीँ कहा जा सकता. ख़ुशी है कि रेलगाड़ी को लौहपथगामिनी लिखने वाले अब नहीँ बचे.

दैनिक पत्रों के मुक़ाबले टीवी की तात्कालिकता निपट तात्कालिक होती है, विशेषकर समाचार टीवी मेँ. यह तात्कालिकता ही हमारी भाषा के नए सबल साँचे मेँ ढलने की गारंटी है. नई भाषा की एक ख़ूबी है कि वह नई जीवन शैली जीने को उत्सुक नवयुवा पीढ़ी की भाषा है. यह पीढ़ी 1947 के भारत की हमारी जैसी पीढ़ी नहीँ है. पर मुझ जैसे अनेक लोग हैँ जो इस बदलाव के साथ बदलते आए हैँ और बदलते ज़माने के साथ बदलते रहे हैँ औ अपने आप को उस के निकट पाते हैँ.

मैँ नहीँ समझता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है. मैँ तो कहूँगा कि वह हर दिन समृद्ध हो रही है. नए समाज मेँ नौजवानोँ की अपनी भाषा बदल गई है. एक ज़माना था जब हिंदी समाचार पत्र दुकानदारोँ, नौकरोँ और कम पढ़ेलिखे लोगोँ के अख़बार माने जाते थे. आज हिंदी पत्रकार नई नौजवान पीढ़ी के लिए अख़बार निकाल रहे हैँ. उन मेँ शिक्षा के, रोज़गार के नए अवसरोँ की जानकारी होती है. नई बाइकोँ कारोँ की जानकारी होती है. कभी देखा था इन्हेँ हिंदी दैनिकोँ मेँ.

नए ज़माने के नए शब्द बेहिचक, बेखटके, बेधड़क, निश्शंक, पूरे साहस के साथ ला रही है. दो तीन दिन के हिंदुस्तान और दैनिक जागरण से कुछ शब्द देता हूँ: हॉट शॉट, बॉलीवुड, ट्रेलर, चैनल, किरदार, समलैंगिक…, एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति), दिल्ली विवि (विश्वविद्यालय), रजिस्ट्रार, फ़्लाईओवर, स्टेडियम, पासवर्ड, इनफ़ोटेनमैंट, सब्स्क्राइबर, नैटवर्किंग, डायरैक्ट टु होम (डीटीएच). सेंट्रल लाइब्रेरी, ओपन स्कूल, हाईवे, इन्वेस्टमैंट मूड, प्रॉपर्टी, लिविंग स्टाइल, लोकेशन, शॉपिंग सेंटर…

21वीँ सदी के हिंदुस्तान ने ग़ुलामी के दिनोँ के अंधे अँगरेजी विरोध वाली मैँटलिटी से छुट्टी पा ली. नई सोसाइटी मेँ रीडर बदल रहे हैँ, भाषा बदल रही है. परिवर्तन को सब से पहले पहचाना मीडिया ने. उस की शैली बदल गई, भाषा बदल गई, नीति बदल गई. टीवी वाले तात्कालिकता के साथ नई सरपट ज़बान मेँ भड़भड़ गाड़ी दौड़ाते हैँ.

हिंदी न्यूज़पेपर अब जो छाप रहेँ हैँ, पेश हैँ उस के कुछ नमूने–

हाई कोर्ट का आयोग से जवाबतलब (कहाँ गया उच्च न्यायालय?).

कोर्ट ने ओबीसी की पहचान का आधार पूछा… जस्टिस अरिजीत पसायत…

आंबेडकर यूनिवर्सिटी के वीसी हटाए गए

गुजरात के दंगोँ मेँ बीजेपी के दो पार्षदों को सज़ा (भाजपा नहीँ)

पेट्रोल मेँ सॉल्वेंट की मात्रा इतनी अधिक मिला देते हैँ कि हाईटेक कार भी…

हॉबवुड सर्फ़िंग सेशन के विनर रहे (विजेता नहीँ)

वज़ीराबाद वाटर ट्रीटमैंट प्लांट… 2 पीपीएम बढ़ जाएगी.

एडमिशन शुरू होने से पहले (प्रवेश या दाखिला नहीँ)… डीयू (दिल्ली विश्वविद्यालय) के अंडरग्रेजुएट कोर्सों मेँ … प्री-एडमिशन फ़ॉर्मइनर्फ़मेशन बुलेटिनस्टूडैंट्स को… (छात्र अब कितने लोग बोलते हैँ?)

लेटेस्ट इंस्ट्रूमेँट रोकेगा पानी की बरबादी

एमसीडी मेट्रो मेँ विवाद

इन्फ़्रास्ट्रकचर तैयार करने मेँ जुटा, 1 सबस्टेशन अगले महीने शुरू

रणपाल के एनकाउंटर से उठे कई सवाल

ऑटो पेंट की फ़ैक्ट्री मेँ आग

इंटैग्रेटिड टाउनशिप प्रोजेक्ट

इंटरनेट सर्फ़िंग आसान होगी पाकिट सर्फ़र से… पाकिट सर्फ़र लॉन्च किया… कस्टमर बिना किसी सेल्यूलर या लैंडलाइन मोडेम से जोड़े … इंटरनेट सर्फ़िग कर सकता है…

चेन्नै मेँ मैन्यूफ़ैक्चरिंग यूनिट लगा सकती है मोटोरोला…

SBI को कलाम ने दिया 7 सूत्रीय मिशन

बेहतर ट्रेनिग के लिए NIIT से हाथ मिलाया

अक्रॉस दे बॉर्डर

विंडो शॉपिंग

रीडर्स मेल (पाठकोँ के पत्र नहीँ)

फ़ुटबॉल पॉपुलर खेल ही नही रहा, यह ग्लोबल रिलीजन बन गया है… मेरा कर्मा तू मेरा धर्मा तू…

POLIO रविवार

सर्विकल कैंसर वैक्सीन

बुक ऑफ़ लाइफ़ मेँ जुड़ा बड़ा अध्याय… वर्णावली सीक्वेंसिंग का काम पूरा कर लिया है.

युवाओँ का आइकॉन (आदर्श पुरुष नहीँ, युवा हृदय सम्राट नहीँ)

आरक्षित आग्रहोँ का कवरेज (मीडिया मेँ रिपोर्ट)

अवार्ड की लाइन मेँ

बात थोड़ी सीरियस हुई … मेरी हैक्टिक लाइफ़तबीयत ख़राब होने के बाद रिकवरी

कैसे ऑर्गनाइज़ करेँ परफ़ेक्ट पार्टी

ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ — डबल ऑफ़र

बीएसए ने किया इनकार, डीएम ने माँगा जवाब… वीआईपी का इंतज़ार बच्चोँ पर मार

मोबाइल क्लोनिंग मेँ चार दबोचे

Jodee No. 1 copy – Rs. 144 per month

ताश के पत्तों की तरह गिरे पोल (खंभे नहीँ)

लाइफ़ मेँ लाओ चेंज पुराना टीवी करो एक्सचेंज

मास्को मेँ दिल्ली फ़ेस्टिवल शुरू (समारोह या उत्सव नहीँ)

स्टूडेंट्स फ़ंडिग के लिए कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप

एनबीटी कमबोला के लिए… बहुमूल्य वस्तु… डायमंड हो या प्लाज़्मा कलर टीवी… 108 लकी प्रतियोगियोँ के लिए art d’ enox के फ़्री गिफ़्ट मिलते हैँ… पिछले 3 कॉन्टेस्टके टोटलडियर रीडर्स

सर्च इंजन (वर्गीकृत विज्ञापन नहीँ.)

- डाक्टर लड़का अवधिया कुर्मी (MBBS) 33/5’6” (सरकारी सेवारत झारखंड सरकार) हेतु डा. वधु (MBBS/BDS) चाहिए… पिता सरकारी सेवारत (MS OBST & GYNAE) अपना नर्सिंग होम.

- अंबष्ठ गोरी लंबी ख़ूबसूरत MBA, MCA, BE प्रतिष्ठित परिवार की लड़की मांगलिक 29/5’6″ Sr. Software Engineer, Satyam Computer, Pune मेँ कार्यरत लड़की के लिए

कुछ इसे महापतन मानते हैँ. लेकिन नई पीढ़ी को इस की ज़रा भी चिंता नहीँ है. वे लोग भाषा कोश देख कर नहीँ बोलते, न उन्हेँ अपने आप को विद्वानी हिंदी का दिग्गज साहबित करना है.

ऐसा भी नहीँ है कि हिंदी मेँ अपने नए शब्द नहीँ बन रहे. सच यह है कि भाषा विद्वान नहीँ बनाते, भाषा बनाते हैँ भाषा का उपयोग करने वाले… आम आदमी, मिस्तरी, करख़नदार या फिर लिखने वाले. घुड़चढ़ी शब्द डाक्टर रघुवीर नहीँ बना सकते थे, न ही वे मुँहनोँचवा बना सकते हैँ. कार मेकेनिकोँ ने अपने शब्द बनाए हैँ, पहलवानोँ ने कुश्ती की जो शब्दावली बनाई है (कुछ उदाहरण: मरोड़ी कुंदा, मलाई घिस्सा, भीतरली टाँग, बैठी जनेऊ) वह कोई भी भाषा आयोग नहीँ बना सकता था. विद्वानोँ का काम होता है भाषा का अध्ययन, विश्लेषण… अख़बारोँ मेँ नई देशज हिंदी शब्दावली भी बन रही है. नए ठेठ हिंदी शब्द विद्वान नहीँ बना रहे. हिंदी लिखने वाले बना रहे हैँ–जैसे कबूतरबाजी. अँगरेजी ह्यूमैन ट्रैफ़िकिंग के लिए पूरी तरह देशी शब्द. ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से, पासपोर्ट वीजा नियमों को तोड़ते हुए हिंदुस्तानियोँ को पश्चिमी देशोँ तक पहुँचाने का धंधा. या फिर ब्लौगिया या चिट्ठाकार, और चिट्ठाकारिता. इंटरनेट की दुनिया से आम आदमी द्वारा उपजे शब्द. अँगरेजी मेँ इंटरनेट पर लिखने और परस्पर विचारविमर्श बहसाबहसी की प्रथा को पहले वैबलौगिंग कहा गया, बाद मेँ उस से बना ब्लौगिंग. उसी से दुनिया भर मेँ फैले आम हिंदी प्रेमी ने य शब्द बनाए हैँ, ब्लौगिंग करने वाला ब्लौगिया, ब्लौग (यानी लिखा गया कोई विचार) चिट्ठा, पुराने चिट्ठा और चिट्ठी को दिया गया बिल्कुल नया अर्थ. क्या कोई विद्वान ये शब्द बना पाता?

इंग्लिश मेँ कहीँ हिंग्लिश, कहीँ पूरी हिंदी

अगर हिंदी वाले अँगरेजी शब्द भारी मात्रा मेँ आयातित कर रहे हैँ, तो अँगरेजी तो बहुत पहले से ही हिंदी शब्द खुले दिल से लेती रही है…pucca kutcha (पक्का कच्चा) आदि शब्द पुराने उदाहरण हैँ. आजकल भारतीय अँगरेजी मेँ स्थानीय शब्दोँ और मुहावरोँ का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है. जो नई भाषा बन रही है, उसे लोग हिंग्लिश कहने लगे हैँ. हिंग्लिश तब होती है जब कहीँ कोई एक शब्द लिखा जाए जैसें fake gajra, desi chick. अब पूरे के पूरे हिंदी वाक्य आप को रोमन लिपि मेँ लिखे मिल जाएँगे, और कहीँ कहीँ तो सीधे देवनागरी मेँ. दोनोँ भाषाओँ मेँ यह सब बाज़ार और आडिएँस करवा रही है. पेश हैँ कुछ नमूने–

India ka naya TASHAN… Ab jeeyo poore tashan se! Presenting the Samsung C130…

masaala maar ke… रविवार को फ़िल्मो की जानकारी के साथ…

dil se… Mujhe hai apni har khata manzoor, bhool ho jati hai insano se. I’m really sorry. Please forgive me…

Boss ko patana…Mummy ko samjhana…Girlfriend ko manana….AB SAB 50 PAISE mein. (Tata Indicom)

PHIR LOOT HI LOOT….Buyanu Microtek Inverter…

2ka mazaa 1 mein… Buy one and get one free… सब कुछ सब के लिए… salasar mega store

Ab Dilli Dur Nahin… Parklands Faridabad…

Kal kare so aaj kar…ICICI Prudential

Exchange Dhamaka… एक्सचेंज बोनस Rs. 15,000/- तक…Maruti Suzuki

Property Maha saver package…. HT Classifieds

शब्दावली से जुड़ा एक और पहलू है बोलने की हिंदी और लिखित हिंदी मेँ बढते जाते भेद का. हमारी बोली मेँ ऐसे स्थानोँ पर अकार को लोप होता जा रहा है जहाँ उच्चारण मेँ यति आती है या अंतिम अक्षर अकारांत अक्षर होता है. हम लिखते हैँ कृपया . यह सही भी है. लेकिन बोलते हैँ कृप्या . अनेक स्थानोँ पर आप को यह लिखा मिलेगा. समाचार पत्रों की कृपा है कि वे कृप्या नहीँ लिखते… कृपया ही लिख रहे हैँ. उत्तराखंड के एक सरकारी विज्ञापन मेँ किसी भ्रमित कापीराइटर ने लिखा– शहीदों को शत् शत् प्रणाम. अगर यह दावा मान लिया जाए कि हिंदी मेँ हमेँ वैसा ही लिखते हैँ, जैसा बोलते हैँ, तो शत् प्रतिशत् सही!

और अंत मेँ…

तो आइए चेंजिंग भारत की लाइवली वाइब्रैंट बोली और भाषा का हार्टी वैलकम करेँ, सैलिब्रेट करेँ, जश्न मनाएँ. उन जर्नलिस्टोँ पत्रकारोँ विज्ञापकोँ के गुण गाएँ जिन्होँ ने दुनिया मेँ अपनी जगह तलाशते हिंदुस्तान को पहचाना, नई रीडरशिप को टटोला, नब्ज़ को पकड़ा, जो अख़बार कभी दुकानदारोँ, नौकरोँ और हिंदी-प्रमियोँ के ही लिए थे, उन्हेँ नई जनरेशन के नौजवानोँ तक पहुँचाया. नारोँ को भूल कर यथार्थ को समझा.

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