फ़ाउस्ट – एक त्रासदी
योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे
काव्यानुवाद - © अरविंद कुमार
५. रोड्स द्वीप के कांस्यकार
समुद्री अश्वोँ और नागोँ पर सवार – हाथ मेँ नेपट्यून का त्रिशूल लिए.
कोरस
हमीँ ने बनाया है त्रिशूल – जो धारता है नेपट्यून
त्रिशूल जो करता है शांत – जब भड़कता है भाड़
झंझावात को, मेघ को, द्यौस – जब देता है फाड़
होता है जो घोर गुंजन निनाद – झेलता है नेपट्यून
कौँधती रहे ऊपर – दामिनी जो कौँधती है निरंतर
नीचे से उछलती उफनती रहती है लहर पर लहर
यह सब भी, और भी सब कुछ, तड़पता, भड़कता
जितने भी भय हैँ – सागर का दैव नेपट्यून लील लेता
इसी वास्ते हमेँ अब दिया है नेपट्यून ने त्रिशूल
और हम – रहे हैँ तैर – उत्सव मनाते मस्ती मेँ चूर
साइरनेँ
तुम करते सूरज का वंदन –
तुम्हेँ मिला दिन का उजलापन –
तुम को शुभ हो उन्नत अवसर!
बना रहे लूना का वंदन!
कांस्यकार
सुंदरतम देवी – जिस पर रजनी के वितान की छाया!
हर्षित मन से तुम सुनती हो – उस के भ्राता का वरवंदन.
रोह्डवासियोँ के स्वर सुनने उच्च गगन मेँ तुम झुकती हो
रोह्ड द्वीप मेँ होता रहता – सूर्यदेव का गुंजित वंदन.
जब वह दिन को उपजाता है, जब वह दिन को उतराता है –
उज्ज्वलतम होती हैँ किरणेँ – जो वह हम पर बरसाता है.
सब – पर्वत, घाटी, ग्राम, नगर, सागर, सागरतट –
रोह्ड द्वीप मेँ सुंदरतम हैँ, सूर्यदेव को हैँ सब अर्पित.
हम पर धुंध नहीँ छाती है. भूले भटके यदि आती है
एक किरण से, एक पवन से – छँट जाती है.
अपने सुंदर आकार हज़ारोँ – फीबस देव वहाँ हैँ पाते -
सब विशाल हैँ, कुछ कोमल हैँ, कुछ मेँ यौवन – वीरोँ सी मुद्रा दिखलाते.
इष्टदेव के पूजक हैँ हम, मानवसम पुतले ढाले हैँ
कांस्यकला कौशल के स्वामी – जग मेँ हम सब से पहले हैँ
प्रोटियस
करने दो इन्हेँ अपना बखान – भरपूर गुणगान!
उज्ज्वल किरणोँ से जगता है जो जीवन महान
उस के सामने – जो इन की कला है, क्या है –
नहीँ है जीवन का उपहास – तो और क्या है?
बड़े मन से, गहरी लगन से – ढालते हैँ गलाते,
कांस्य प्रतिमाएँ – जो ये हैँ बनाते –
सुंदर हैँ – सर्वोत्तम कला है – ये मानते हैँ मनाते.
गर्वीले गौरवमंडित नायक केवल धातुनिर्मित पुतले बन जाते.
कभी जो होते थे देवताओँ की प्रतिमा – दैदीप्यमान
एक भूकंप कर गया था उन्हेँ धराशायी लुंठायमान
फिर से गलाई जा चुकी हैँ कभी की.
यह कठोर श्रम – जो भी इसे कहेँ हम –
नहीँ है कुछ भी – बेकार के खटने से अधिक या कम.
उठती आती लहरेँ ला रहीँ हैँ नव जीवन का संदेश –
अंतहीन सागर मेँ अभी ले जाएगा तुझे प्रोटियस-तिमिंगल.
(अपने को तिमिंगल डौल्फिन मेँ परिवर्तित करता है.)
देख! जाग! बुला रहा है सौभाग्य, शुभ मंगल
मेरी पीठ पर सवार जाएगा तू
बूढ़े सागर के पास अब जाएगा तू.
थलीस
मान ले इस की बात –
शुभ कामना से पूर्ण है यह बात.
जीवन का है जो स्रोत
वहीँ पर हो तेरा उद्गम उत्स्रोत.
तीव्र समायोजन हेतु हो जा तैयार!
अनंत नियमोँ के अधीन
कोटि कोटि योनियोँ मेँ परिवर्तनाधीन
धीरे धीरे आएगा समय – तू बन जाएगा मानव.
(मनुडिंभ प्रोटियस-तिमिंगल पर सवार होता है.)
प्रोटियस
अंतर्तम मेँ धार जलीय अंतराल!
तेरे अस्तित्व के अंत का वहाँ होगा नहीँ काल!
मनचाहे जहाँ विचरेगा
करना नहीँ उच्चतर योनियोँ की कामना!
एक बार मानव तू बन जाएगा -
वही है तेरे उत्थान की सीमा – यह मानना.
थलीस
यही है जो होता – यह नहीँ है दुर्भाग्य –
हो पाना मानव – उन्नत, महान – यही है सौभाग्य.
प्रोटियस (थलीस से – )
संभवतः, भाग्यवश, कुछ तेरे समान!
चिरकाल तक जीते हो तुम लोग –
बीत गए सैकड़ोँ साल
देख रहा हूँ तुझे – और अनेक आकार तेरे समान.
साइरनेँ (शिलाओँ पर – )
देखो – मेघोँ के लच्छे
चंदा के चक्कर खाते
लगते कितने अच्छे!
श्वेत कपोत ही हैँ वे
उजले दिन जैसे जिन के डैने
है इन को प्रेम चलाता.
उन्मादमग्न ये पक्षी –
पाफोस नगर ने भेजा
वीनस संदेशा लाए
उत्सव मेँ रंग लाए
हम निर्मल मोद मनाएँ!
नीरेस (थलीस की ओर बढ़ता हुआ – )
चंचल निशिचर के सपने से
वायव छाया से – तुम आते
अशरीरी हम – निज विवेक से
हम बेहतर निर्णय कर पाते.
ये कपोत दल – जो हैँ आते
ये मेरी दुहिता के रथ के
साथ साथ सदा मँडराते –
इन की उड़ान मेँ भी जादू है
पितरोँ से इस को कला मिली है.
थलीस
मैँ समझता हूँ – सच भी यही है
सच्चे जन को सुख का संदेश यही है –
उस की ख़ातिर कोई जन
कोमल पावन नीड़ोँ मेँ बसते हैँ.
सिली और मार्सी (समुद्री वृषभोँ, बछियाओँ और मेढ़ोँ पर सवार – )
साइप्रस तट पर – गिरि कंदर अंदर
उच्छल सागर जल से – कुछ ऊपर हट कर
भूकंप देव के नाशक झटकोँ से बच कर
चलता सुंदर पवन निरंतर – झर झर
मौन तोष से सुख से सिझ कर – बँधे काल से दिन हैँ गत्वर
साइप्रस निवासिनी देवी के रथ की रक्षा मेँ हम हैँ तत्पर.
लहरोँ की धड़कन पर – रजनी की सिहरन पर
कंपन मर्मर –
नए काल के नए जनोँ की नज़रोँ से हट कर
लाते हैँ हम, लाते हैँ हम –
प्रियतम दुहिता – सब को प्रियकर.
हलके हलके उड़ते आते
उड़ते सिंहोँ से, गिद्धोँ से, ना घबराते –
ना हिलाल से – ना क्रूसोँ से
चाहे उन से अंकित हो नभ.
हार जीत परिवर्तन नश्वर
खो जाते हैँ स्मृति के तट पर
नगर ग्राम को करते खंडहर.
हम चलते हैँ सीधे सत्वर
हम लाते हैँ दुहिता प्रियकर.
साइरनेँ
हौले, हौले, सँभल सँभल कर
रथ के खाओ चक्कर मिल कर.
पाँत पाँत ताने बाने सी
सर्पिल सी सब शृंखल बन कर.
संडी मुस्टंडी – उच्छृंखल वनचर,
दमदार निरीइद, आओ, हम को घेरो,
कोमल द्रुमिणी – लाओ हम तक.
देवोँ सी है सागर माता –
गुणशाली औ वैभवशाली
गालातिया – ओ अमर, अनश्वर!
मानव सम मूरत – मधुरा वरशाली.
द्रुमिणी (कोरस मेँ – तिमिंगल पर सवार, नीरेस के सामने से गुज़रती – )
लूना, दो, हम को दो आभा छाया
दो – हम को दो पुष्पित यौवन,
दो हम को दो यौवन की ज्वाला.
हम अपने वर ले कर आईँ –
पूज्य पिता से पाने वर आईँ.
(नीरेस से – )
ये नौजवान हैँ,
लहरोँ के चंगुल से हम ने इन्हेँ बचाया.
वेत्रलता शैवाल दलोँ पर इन्हेँ सुलाया
फिर से जीवन इन्हेँ दिलाया.
अब – इन को चुंबन बरसाने होँगे
धन्यवाद जतलाने होँगे –
इन पर करो कृपा का दान!
नीरेस
वाह! तुम्हारा था कृत्य महान, माँगता है दोहरा वरदान –
करती कृपा हो, लेती मज़ा हो!
द्रुमिणी
आप करते हैँ हमारे कृत्य का गुणगान
तो, पिता, दीजिए वरदान
हम रखेँ इन्हेँ अपने पास निरंतर
अपने युवा वक्ष पर.
नीरेस
सानंद भोगो – बचाया है जिन को
किशोरे हैँ छोरे, पोशो बढ़ाओ इन को.
दे नहीँ सकता मगर – जो माँगा है वर
यह वर दे सकते हैँ केवल द्यौस – देववर.
डोलती डुलाती रहती है लहर.
संभव नहीँ – उस पर प्रेम का विस्तर.
इसी लिए – सुनो मेरा कहना –
उतर जाए मन से जब तृष्णा का ज्वर
चुपचाप भेज देना इन्हेँ – घर.
द्रुमिणी
सुंदर किशोरो, बिछड़ना पड़ेगा
मन मेँ रहोगे – यह कहना पड़ेगा.
मिलन हम ने चाहा निरंतर चिरंतन
मगर देवताओँ का – इस मेँ नहीँ मन.
किशोर दल
हम नाविक किशोर हैँ
पाया तुम से प्रेम, विभोर हैँ
वैसा ही प्रेम करो तुम हम से –
मन मेँ चाहत नहीँ और है!
(शंख के रथ पर सवार गालातिया आती है.)
नीरेस
आ गई, लाड़ो, मेरी दुलारी!
गालातिया
वाह, तात! सब कितना सुंदर, अभिराम, मनोहर!
ठहरो, तिमि, ठहरो पल भर. देखूँ जी भर!
नीरेस
रुके नहीँ कुछ, चले गए, कितनी तेज़ी से गए गुज़र!
मँडराते, गोला बाँधे, खाते चक्कर!
उन को क्या! मन के गहरे भावोँ से उन को क्या मतलब!
काश, मुझे भी ले जाते – साथ साथ, उस ओर, उधर.
पर एक नज़र भी काफ़ी है – भरने को एक बरस का सूनापन.
थलीस
जय! जय! नव स्वर से जयकार करो – मिल कर, खुल कर!
मन मेँ कैसा नव उत्साह भरा!
सत्यं और सुंदरं का संचार हुआ कितना गहरा!
जल से था जीवन का पहला उद्गम!
जल से चलता रहता है जीवन का क्रम!
सागर, दे हम को अपना शाश्वत शासन!
यदि मेघ नहीँ तू ने भेजे होते,
यदि स्रोतोँ से प्लाव नहीँ होते,
यदि नदनाले बल खाते ना बहते होते,
यदि सब के सब अंत नहीँ तुझ मेँ पाते,
तो पर्वत, शाद्वल – सारी धरती क्या हो पाते?
जो कुछ भी नव है, ताज़ा है – सब तुझ से जीवन पाते.
कोरस (समवेत चक्रों मेँ एकस्वर गायन)
जो कुछ भी नव है, ताज़ा है – सब तुझ से जीवन पाते!
नीरेस
मुड़ते चक्कर खाते, सब दूर दूर अब जाते हैँ.
अभिमुख नहीँ विमुख हो कर – अब चक्र फैलते जाते हैँ.
उत्सवमय नर्तन गायन मेँ तन्मय अनगिन दल दर्शाते हैँ.
गालातिया अभी तक शंखरथारूढ़ मनोहर दिखती है –
जन समूह मेँ रिलीमिली तारे सी दिपदिप करती है –
रेलपेल से राग अभी तक जगमग करता है.
अंतराल के पार धवल निर्मल
भासित ज्योतित द्योतित ज्वलंत
शुभ्र सत्य निकट सा लगता है.
मनुडिंभ
यह महा ओघ कोमल फेनिल
इस पर मेरा होना द्युतिमय उज्ज्वल
होगा सुंदरता से अभिमंडित.
प्रोटियस
यह चिक्लिद, यह गीलापन
इस मेँ स्थित तेरा ज्योतित जीवन
देता है संदेश – सुस्पष्ट कथित, गौरवमंडित.
नीरेस
रेलमपेले मेँ यह क्या, कैसा रहस्य –
गोचर यह मंडल कैसा ज्योतिर्मय?
राजकुमारी के चरणोँ मेँ कैसी ज्वाला
जैसे मन मेँ प्रेमल धड़कन –
शांत कभी, उद्दाम कभी.
थलीस
मनुडिंभ है यह – प्रोटियस की कृपा से पथच्युत, दिग्भ्रांत…
और यह – जो देख रहे हैँ आप -
ये हैँ प्रबल, उत्कट आकांक्षा के आभास –
चेतना के उद्दाम ज्वार का, आतुरता का, प्रभास.
राजकुमारी के दैदीप्यमान सिंहासन पर वह करेगा कंपायमान
अपना संपूर्ण अस्तित्व जो भोग रहा है काँच मेँ कारावास.
चमक उठा, कौँध उठा – हो गया उड्डीयमान!
साइरनेँ
प्रज्वल कांचकलश – लहरोँ पर कैसा चमत्कार!
एक दूसरे पर दोनोँ टूट बिखर गिरते उठते जलते खिलते!
आता है क्रीड़ा करता, कौँध कौँध उठता, हिलता!
रजनी के पथ पर धवल विमल काया होतीँ प्रज्वल!
हर पिंड हुआ ज्वाला मंडित जगमग उज्ज्वल.
जग के उद्भावक कामदेव ईरोस करेँ अब जग पर शासन!
जय हो, जय, लहरोँ की जय!
जय हो, असीम अनंत सागर की जय!
जय हो, जल! जय हो, अग्नि प्रज्वल!
जय हो, अभियान जो हुआ सफल!
सब समवेत
जय हो, अलस पवन कोमल मंथर
जय हो, धरती के गहरे कंदर!
वंदित हैँ, पाएँ सदा सतत वंदन
चारोँ पुद्गल – बनता है जिन से जीवन!
Comments