फ़ाउस्ट – भाग 1 दृश्य 23 – अंधकारपूर्ण दिन

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फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

२३. अंधकारपूर्ण दिन

खुला मैदान.

फ़ाउस्ट. मैफ़िस्टोफ़िलीज़

फ़ाउस्ट

विपदा की मारी! बेचारी! अकेली! भरे पूरे संसार मेँ एकदम अकेली! कारागार मेँ मेरी भोली सुकुमारी – प्रेम की मारी! काल कोठरी मेँ सड़ रही है… भोग रही है अपार कष्ट, घोर अत्याचार – जैसे हो कोई पापन साधारण! पीड़ा! दमन! यह हुआ उस के साथ! यह? – अरे पापी! नराधम! धोखबाज़! बदज़ात! तू ने छिपाई मुझ से हर बात? ठहर! ठहर! अच्छा, तरेर रहा है आँखेँ. खड़ा है मेरे आगे! – जेल मेँ है वह! भोग रही है घनघोर पीड़ा, सह रही है संसार के ताने! निर्दयी बोल! और तू! तुझे सब पता था. फिर भी तू बहला रहा था मुझे पिशाचोँ के मेले मेँ! मुझ से छिपा रहा था उस के सब क्लेश. छोड़ दिया उसे निपट अकेली…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

पहली नहीँ है वह!

फ़ाउस्ट

कुत्ते! हरामी पिल्ले! राक्षस!

धरती की महान आत्मा, इस सँपोले को बना दो फिर से पिल्ला. कूँ कूँ करते फिरने दो फिर से मेरे पीछे, हिलाने दो दुम. चाटने दो राह चलतोँ की ठोकर. रौँद डालूँगा मैँ इसे! पहली नहीँ है वह! यह दुख! यह पीड़ा! सहन सीमा से परे है यह बात – एक से ज़्यादा नारी को सहनी पड़े यह पीड़ा! यह अत्याचार! जो भी थी पहली नारी, सब से पहले जिस ने सहा यह अत्याचार – वही क्या कम थी? सब को दिलाने को मुक्ति! इस एक अबला की पीड़ा से बिँध रहा है मेरा पूरा जीवन! और तू! तू खिलखिल हँस रहा है ऐसी हज़ारोँ की पीड़ा पर!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो! फिर वहीँ आ पहुँचे हम! जो है तुम्हारे चिंतन की सीमा, जिस के आगे इनसान की बुद्धि नहीँ करती काम! तुम लोग आते ही क्योँ हो हमारे पास जब तुम मेँ नहीँ होता साहस? चाहते हो उड़ना, डरते हो ऊँचाई से! हम आते हैँ तुम्हारे पास या तुम आते हो हमारे पास?

फ़ाउस्ट

मत झाड़ घिनौने भाषण! मुझे आती है घिन! ओ महान आत्मा, क्योँ बाँध दिया मुझे तू ने इस कमीने पापी के साथ. पाप है इस का कलेवा, महानाश है इस का भोजन.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

बस! निकल गई भड़ास!

फ़ाउस्ट

बचा! उसे बचा! वरना पछताएगा तू! अनंत काल तक भोगेगा मेरा भारी भरकम शाप.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जेल के बंधन नहीँ खोल सकता मैँ, न ही जेल के कपाट. मैँ? बचाऊँ उसे! किस ने किया था उस का सर्वनाश? वह मैँ था? या आप!

(पागलोँ की तरह फ़ाउस्ट इधर उधर देखता है.)

तलाशते क्या हो? वज्र! अच्छा है तुम मानवोँ को नहीँ मिला वह हथियार! हर विरोधी को कर डालते तुम मटियामेट! अत्याचारियोँ आतताइयोँ को नहीँ सूझती कुछ राह तो खीझ मिटाने को सूझता है उन्हेँ यही उपाय!

फ़ाउस्ट

चल, ले चल उस के पास! बचाना ही होगा उसे!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

और – जो ख़तरा है उसे बचा निकालने मेँ? भूल गए ख़ून से रँगे हैँ तुम्हारे हाथ! नहीँ भूले हैँ गाँव के लोग. हर भगोड़े के पीछे मँडराता रहता है न्याय का भूत. जैसे ही लौटता है वह – दबोच लेता है जल्लाद!

फ़ाउस्ट

यह भी करेगा तू! तू? भाड़ मेँ जाए तू! सुन. ले चल मुझे उस के पास, छुड़ा उसे कारागार से…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ले तो चलूँगा मैँ, लेकिन पहले से सुन लीजिए मेरी सीमा. धरती और आकाश कहा नहीँ मानते मेरा. मैँ जेलर को कर दूँगा बेहोश. अब आप का काम है चाभियाँ उठा लाना और उसे कारागार से निकालना. मैँ करूँगा निगरानी. जादुई घोड़े हैँ तैयार. चलिए, ले चलता हूँ. बस, यही है मेरी सीमा.

फ़ाउस्ट

तो चल! तत्काल!

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