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रात. ऊँची मेहराबोँ वाला संकीर्ण गोथिक कक्ष. कक्ष मेँ ऊँची खिड़की से दिखाई देता पूरा चाँद. उस के मद्धम प्रकाश मेँ डाक्टरोँ वाला कंकाल और कुछ अस्थियाँ.
मेज़ कुरसी पर अर्धप्रकाश मेँ फ़ाउस्ट.
फ़ाउस्ट
घोँट डाले मैँ ने सब दर्शन
रट लिया चिकित्सा शास्त्र, न्याय…
नहीँ छोड़ा अध्यात्म ज्ञान.
हो गया पारंगत, कर के सब उपाय.
मूर्ख हूँ अभी तक, पूर्णतः निराश –
न मिला ज्ञान, न मिटी भूख, न प्यास.
जहाँ से चला था, अभी तक हूँ उसी के पास.
लोग कहते हैँ मुझे विद्वान, मास्टर, डाक्टर.
पिछले दस वर्षोँ मेँ देख लिया पढ़ा कर.
छात्रोँ को घसीटा ज्ञान के दलदल मेँ,
पथरीले ग्रंथोँ पर, नीचे, उपवन मेँ, जंगल मेँ.
धधक उठता है मन, जब होता है भान –
दूर नहीँ कर सकता मैँ मानव का अज्ञान.
मानता हूँ ये जो हैँ पाखंडी तथाकथित विद्वान,
शास्त्री, अध्यापक – इन से बढ़ कर है मेरा ज्ञान.
लेकिन दूर हैँ मुझ से हर्ष उल्लास.
क्योँ कि जानता हूँ मैँ – सच्चा ज्ञान मुझ से अभी है दूर.
जानता हूँ मैँ – निरर्थक है हर प्रयास –
मानव के सुधार का, करने को जन जन के दुःख दूर.
व्यर्थ है करना शिक्षा प्रदान,
करना उन विषयोँ का बखान
जिन का स्वयं मुझे नहीँ है पूर्ण ज्ञान…
क्या है मेरा जीवन – कुत्तोँ से बदतर…
ना नाम है मेरा, ना ऐश्वर्य मेरे पास…
रोकते नहीँ मुझे परंपरा, मोह, अंधकार, अज्ञान,
डराते नहीँ मुझे भूत, पिशाच और शैतान.
इसी लिए तंत्र मंत्र मेँ लगाया है ध्यान,
किया है भूत प्रेत और पिशाचोँ का ध्यान.
वहाँ पहुँचने का है मेरा अभिप्राय –
जहाँ नहीँ ले जा सकता मानव का ज्ञान.
करना चाहता हूँ मैँ आत्माओँ की शक्ति की पहचान.
देखना है – क्या उस से मिल सकता है गुप्त ज्ञान.
नरक और शैतान के भय से ऊपर हूँ मैँ.
मैँ ने त्याग दी है शब्दोँ से गुत्थम गुत्था.
मुझे तो प्राप्त करना है उस का ज्ञान –
अखिल विश्व को धारती है जो सत्ता.
राकापति दैदीप्यमान! आप ने देखा है मुझे
इस कुरसी मेँ जागते आधी आधी रात.
रात के अँधेरे मेँ आप देते रहे हैँ प्रकाश,
मेरे कष्टोँ मेँ आप देते रहे हैँ साथ.
देखा है आप ने मुझे
करते गूढ़ ग्रंथोँ का सत आत्मसात.
यही है कामना मेरी, यही है अभिलाष –
अंतिम बार मुझे देखेँ इस दशा मेँ आप.
विचरूँ पर्वतोँ पर जहाँ फैला हो आप का प्रकाश,
कंदराओँ मेँ छिपी आत्माओँ से करूँ बात,
निहारूँ शाद्वल वनोँ पर फैली उजास,
त्याग हूँ धुंध अंधकारपूर्ण ज्ञान का अर्जन,
नहाऊँ उजली ओस मेँ – पाऊँ नव जीवन.
लेकिन बंदी हूँ इस कारागार का!
घुटन का, गलन का, सड़न का, अंधकार का.
वर्जित है यहाँ दिव्य ज्योति का प्रवेश.
उस पर पहरा है धुँधले रंगीन काँच का.
ऊपर गुंबद तक लदे हैँ जर्जर पोथियोँ के ढेर –
घुन लगा, धूल से लथपथ यह ज्ञान है बेकार.
काल से कलुषित मानचित्र अटारी तक अटे हैँ.
पैतृक सौग़ात, बोतलेँ, बोरियाँ छत तक सटे हैँ.
यह है मेरा संसार. इसे कहते हैँ संसार?
तुम ने कभी देखा है अपना अंतर्मन?
पूछा है कभी – क्योँ रहते हो ग़मगीन.
किन आशंकाओँ से प्रताड़ित है मन!
नवरचित मानव को था भगवान का संदेश –
प्रकृति होगी तुम्हारा घर और परिवेश.
लेकिन –
मेरे चारोँ ओर है सड़ता कबाड़…
नर कंकाल, दुर्गंधमय पशुओँ के हाड़…
चलो, ज्ञान के खुले मैदान मेँ चलो.
नोस्त्रादामुस के रहस्य संसार मेँ चलो.
गुरु मानो उसे, उस के संदेश को सुनो.
उस की पोथी के एक एक शब्द को गुनो.
ग्रहोँ की चाल पहचानो,
प्रकृति का गुरुकुल अब अपना जानो.
तर्क से परे हैँ तंत्र के गूढ़ संकेत -
प्रेतोँ की सहायता है अभिप्रेत.
पुकारो, विचरती आत्माओँ को पुकारो.
(पोथी खोलता है, विश्वात्मा चक्र देखता है.)
विश्वचक्र! करते ही इस का दर्शन –
इंद्रियोँ मेँ हो उठा सुख का संचार.
शिरा शिरा मेँ हो रहा है
यौवन की पावन ज्वाला का उद्दाम प्रसार.
क्या दिव्यात्मा ने स्वयं किया था
इस चक्र का, इन संकेतोँ का, आविष्कार?
सारे आंतरिक तनाव से हो रहा हूँ मुक्त…
कोई अज्ञात सत्ता कर रही है सुख का विस्तार…
अवगुंठन मेँ थी जो प्रकृति की अभ्यंतर
वर्णनातीत चेतना, गुप्त भाषा,
कर दी किस ने उस की परिभाषा?
क्या मैँ स्वयं देवता हूँ? उड़ रहा हूँ मैँ.
इन झोँकोँ मेँ अचानक देख रहा हूँ मैँ
प्रकृति का संपूर्ण कार्यकलाप.
ऋषि के शब्द समझ मेँ आ रहे हैँ अपने आप –
आत्मा को नहीँ बाँध सकता कोई जाल
चाहे मस्तिष्क हो क़ैद, हृदय हो बेजान.
उषा जहाँ भरती है प्रातः मेँ रंग लाल,
जाओ, मुमुक्षु, वहाँ, जाओ
नश्वर तन को नहलाओ
और लो स्वयं को पहचान!
(विश्वात्मा चक्र का ध्यान करता है.)
हर एक मेँ है हर एक का वास.
हर पदार्थ का गंतव्य है एक.
निसर्ग की शक्तियाँ उतरती हैँ, चढ़ती हैँ,
स्वर्णिम उपहार आपस मेँ भेँट करती हैँ.
आकाश से जब वे धरती पर उतरती हैँ
उन के पंखोँ से बरसता है वरदान,
सामंजस्य के जन्म का गूँजता है सहगान.
विस्मयोँ से पूर्ण है यह रूप.
फिर भी है बस रूप. इस मेँ क्या खोजूँ?
कहाँ है इस मेँ मनोकामना की देवी?
वह स्तन कहाँ खोजूँ –
जीवन को कराया जिस ने प्रकाश का दुग्धपान,
जिस ने कराया व्योम को अन्नप्राश?
प्यासा हूँ मैँ, प्यासी है मेरी आत्मा.
तुम रस हो, तुम हो अन्न,
फिर भी मैँ हूँ – अतृप्त विपन्न…
(आवेश मेँ पन्ना पलटता है. धराचक्र दिखाई देता है.)
इस चक्र का प्रभाव है कितना भिन्न!
धराचक्र! धरती की आत्मा, मेरे मन के समीप.
हो रहा है शिराओँ मेँ शक्ति का प्रवेश –
जैसे जीवन का दिव्य मदिर संदेश…
नया उत्साह है, नया जोश –
सहने को धरती की पीड़ा,
भोगने को धरती के भोग,
सहने को लहरोँ के थपेड़े,
जूझने को झंझावात.
घिरे आ रहे हैँ काले मेघ घनघोर,
छिप गई चंद्रमा की ज्योति,
रो रही है मंद दीपक की बाती,
घेरता आ रहा है कोहरा,
मँडराने लगी ज्वाला घरोँ पर,
गुंबद से उतर आए भूतोँ के दल,
घेर रहे हैँ मुझे, रहे हैँ झकझोर.
धड़क रही है धड़कन
फड़ फड़ करती है शोर.
इंद्रियाँ व्याकुल हैँ भोगने को नए भोग.
मेरा हृदय – हो गया है बेबस.
आओ! आना है तो आओ, धरादेव.
जो होनी है – हो!
(पोथी को जकड़ कर उठा लेता है, चक्र का मंत्र जाप सा करता है. लाल ज्वाला भड़कती है. ज्वाला मेँ से धरादेव प्रकट होता है.)
धरादेव
कौन है? मुझे किस ने बुलाया?
फ़ाउस्ट (मुँह फेरते हुए)
भयानक! विकराल!
धरादेव
देर से पुकारते थे मुझे.
शक्तिशाली था आप का आवाहन.
और अब -
फ़ाउस्ट
असह्य है आप का दर्शन.
धरादेव
दम साधे कर रहे थे साधना.
व्याकुल थे पाने को मेरा दर्शन,
सुनने को मेरी वाणी.
मंत्र शक्ति ने आप की कर दिया मुझे लाचार
आना पड़ा मुझे साक्षात साकार.
महामानव हैँ आप! क्योँ भयभीत हैँ आप?
कहाँ है आप का वह प्रबल मानस
जिस ने रचा एक संपूर्ण संसार
और किया उस का पोषण!
कहाँ है वह मानस जिस मेँ था साहसिक चिंतन,
जिस ने की थी वह ऊँची उड़ान,
जिस ने बना दिया आप को हमारे समकक्ष, समान?
कहाँ है वह फ़ाउस्ट
जिस के स्वर से निनादित था त्रिभुवन?
अदम्य आकांक्षा से पूर्ण जो पुकारता था मुझे?
वही हैँ आप? पा कर मुझे – कंपित, परेशान,
उत्सुक हैँ त्यागने को प्राण.
भीषण पीड़ा से बिलबिला रहे हैँ आप –
जैसे कोई रेँगता कीड़ा?
फ़ाउस्ट
तुम समझते हो देख कर तुम्हेँ ज्वाला समान
झुक जाऊँगा मैँ! नहीँ.
फ़ाउस्ट हूँ मैँ – तुम्हारा समकक्ष, तुम्हारे समान.
धरादेव
जीवन के ज्वार पर – काल की धार पर
बुनता हूँ मैँ जीवन की चादर
ऊपर से नीचे – नीचे से ऊपर
उधर से इधर – इधर से उधर
अंतहीन तार…
गुंफित परिवर्तन – भीषण प्रवर्तन
जो है दिव्य उस का अवगुंठन…
फ़ाउस्ट
तुम – जो बुनते हो जीवन की चादर
जोड़ते हो जो पूरा संसार –
मुझे लगता है –
जो तुम हो, वही हूँ मैँ.
धरादेव
तुम नहीँ हो – जो हूँ मैँ.
वही हो तुम – जो है तुम्हारी अवधारणा.
(अंतर्धान होता है.)
फ़ाउस्ट (निराशा से बिखर सा जाता है.)
तुम नहीँ हूँ मैँ? तो कौन हूँ मैँ?
भगवान की मूरत हूँ मैँ.
फिर भी तुम नहीँ हूँ मैँ!
(द्वार पर दस्तक होती है.)
बुरा हो! अभी आना था तुझे भी!
पहचानता हूँ यह दस्तक–
यह है वाग्नर – मेरा सहायक.
भंग कर दी साधना. मैँ था तल्लीन,
धरा का देव हो गया विलीन
सुनते ही इस की दस्तक.
(शयन के कपड़े पहने वाग्नर आता है. हाथ मेँ लैंप है. फ़ाउस्ट बड़ी झुँझलाहट से उसे देखता है.)
वाग्नर
क्षमा करेँ –
आप कर रहे थे ना किसी प्राचीन
यूनानी नाटक का सस्वर वाचन.
महान है वाचन की कला.
इस मेँ पारंगत हैँ आप.
देख सुन कर आप का वाचन
सीख पाऊँगा मैँ भी सस्वर वाचन की कला.
मैँ ने सुना है –
अभिनेताओँ से सीख सकते हैँ
पादरी भी – कैसे दिया जाता है भाषण.
फ़ाउस्ट
हाँ, यदि पादरी भी कर रहा हो बस नाटक.
यूँ तो पादरी भी करते हैँ बस नाटक.
वाग्नर
हम छात्र रहते हैँ बंद प्राचीरोँ के पीछे – निर्जीवन.
कभी कभार उत्सवोँ पर ही देख पाते हैँ हम जीवन,
वह भी बस काँच के पीछे से, दूर से.
सीखना है – शब्द कैसे सुधार सकते हैँ जीवन.
फ़ाउस्ट
कोरे शब्द नहीँ ला सकते परिवर्तन…
व्यर्थ है भाषण – नहीँ है जब तक उस मेँ अंतर्मन.
श्रोता के मन मेँ पैठना चाहिए तुम्हारा कथन,
अनुभूत होना चाहिए वह उल्लास
जो है तुम्हारे भीतर, तुम्हारे पास.
तुम जैसे विद्वान करते हैँ जोड़ तोड़
बासी विचारोँ मेँ लगाते हैँ पैबंद फूहड़.
राख को फूँक मार मार कर
उकसा पाते हैँ बस मरी मरी सी ज्वाला.
बच्चोँ पर, वानरोँ पर,
जमाने को रौब काफ़ी है कोरा भाषण.
पत्थर हो मन, बाँझ होँ विचार –
तो कैसे होगा मन से मन तक संवाद का संचार?
वाग्नर
जानता हूँ मैँ –
महान वक्ताओँ मेँ होता है वाग्मिता का गुण.
कहाँ जाऊँ, कहाँ खोजूँ मैँ वह गुण?
फ़ाउस्ट
खोजना है तो खोजो सत्य और निष्ठा.
बेकार है टीमटाम, दिखावा, आकर्षक लबादा.
लोगोँ तक पहुँचाना चाहते हो बात
तो खोजो मत शब्द –
खोजो सही भाव, तर्कसंगत विचार.
बात मेँ दम हो, तर्क हो सुसंगत,
तो कलाहीन भाषण भी होता है स्वीकार.
पतझड़ की हवा मेँ खड़खड़ाते पत्तोँ जैसा होता है
अच्छी ध्वनियोँ से अलंकृत बंजर भाषण…
वाग्नर
हे भगवान,
कला का पथ लंबा है और बीहड़.
जीवन है क्षणभंगुर, नश्वर.
ज्ञान का दुर्ग पाना है दुष्कर.
बार बार मन हो उठता है भय से कातर.
पहले उठते हैँ कुछ ऊपर,
फिर मार्ग मेँ ही गिरते हैँ खोजी अधिकतर
खा कर ठोकर.
फ़ाउस्ट
मरीचिका से बुझाना चाहते हो प्यास?
आत्मा मेँ होना चाहिए उल्लास
तभी फूटता है जल पावन…
वाग्नर
क्षमा करेँ – जब देखते हैँ हम काल पुरातन,
तो सीमाहीन हो जाता है उल्लास.
यह जान कर मिलता है संतोष –
पूर्वजोँ के क्या थे विचार,
कैसे पहुँचा मानव इन शिखरोँ तक…
फ़ाउस्ट
हाँ, हाँ. मानव पहुँच गया है नक्षत्रोँ तक!
बंद पोथी है विनष्ट अतीत का ज्ञान.
सात तालोँ मेँ बंद है वह ज्ञान.
पुरातन ज्ञान के पुनर्जीवन के प्रयास
कुछ भी नहीँ हैँ, हैँ बस कल्पना के अभ्यास.
हमारे पास होता है कल्पना का दर्पण.
उस मेँ हम करते हैँ निज भावना का दर्शन.
गहरे झाँको तो पाओगे अंधकार.
जानते हो – क्या दे सकता है हमेँ पुरातन ज्ञान का दर्शन –
पलायन, केवल पलायन.
कुछ भी नहीँ है प्राचीन,
बस, कूड़े कर्कट का ढेर, कबाड़ का कुठियार,
चुभती सूक्तियोँ कहावतोँ का अंबार
जिन से शोभित हो सकते हैँ केवल
कठपुतलियोँ के खेल.
वाग्नर
यह तो मानेँगे आप –
यह जानने की है मानव की प्यास –
क्या है संसार, क्या है मानव का मन
और मानव की पहचान.
फ़ाउस्ट
प्रश्न यह है – किसे कहते हो तुम ज्ञान?
किस मेँ साहस है जो ले संतान का असली नाम खुले आम?
जिन्होँ ने सचमुच बढ़ाया था हमारा ज्ञान –
कितने कम लोग थे वे.
जानते हो – क्या हुआ उन का अंजाम –
जिन्होँ ने सचमुच पाया था ज्ञान,
जिन्होँ ने भोगी थी सत्य की सिहरन,
जिन्होँ ने जन जन तक पहुँचाना चाहा वह ज्ञान?
उन्हेँ दे दी गई सूली…
अब हो गई है बहुत रात.
कभी और करेँगे हम संवाद.
वाग्नर
नहीँ है आँखोँ मेँ नीँद, नहीँ है प्रमाद,
अच्छा नहीँ है अधूरा छोड़ना कोई विवाद.
कल है ईस्टर महोत्व महान.
कल करने देँ मुझे प्रश्न कुछ और.
परिश्रम से पढ़ा हूँ मैँ, श्रीमान,
काफ़ी जानता हूँ. जानना है अभी बहुत कुछ और.
(जाता है.)
फ़ाउस्ट (अकेला)
कभी थकते नहीँ, निराश नहीँ होते वे लोग
कूड़ा करकट तलाशते रहते हैँ जो लोग.
ढूँढ़ते फिरते हैँ वे रहस्योँ के गड़े कोश,
हाथ आते हैँ रेँगते कीड़ोँ के मरे कोश.
कैसा दुस्साहस, मूर्ख नादान,
डाल दिया व्यवधान,
जब देवात्मा से हो रहा था संवाद.
मूर्ख सही, स्वीकारो धन्यवाद.
ग्रस लिया था मुझे छलावे ने.
आ गया था मैँ भुलावे मेँ.
तुम ने आ कर – मुझे लिया उबार.
हीन भाव जगा रहा था वह – मायावी आकार.
भगवान के आकार मेँ ढला हूँ मैँ.
पल भर को ठगा गया था मैँ.
मानो हो कर विदेह खड़ा था मैँ.
चरम सत्य के निकट था मैँ.
देवदूतोँ से बड़ा हूँ मैँ,
देवोँ सा विचरना चाहता था मैँ.
प्रकृति की नस नस मेँ उल्लसित दौड़ना चाहता था मैँ.
हुआ वज्र सा घोष – आ गिरा धरा पर मैँ.
तुम्हारे आवाहन मेँ सक्षम था मैँ.
सोचना – मैँ हूँ तुम्हारे समान – थी भूल.
नहीँ थी सामर्थ्य – तुम्हेँ रोक पाऊँ मैँ.
भाग रहा था चरम आनंद का पल.
मैँ खड़ा था – इतना क्षुद्र, इतना महान.
लौट आया फिर नश्वर काया मेँ मैँ –
फिर से लघु मानव. कौन देगा मुझे यह ज्ञान –
किस से बचूँ मैँ?
फिर से उभर रही हैँ इच्छा आकांक्षा मन मेँ.
क्या फिर पा सकता हूँ दुस्साहस जो पहले था मुझ मेँ?
हर सिद्धि उपलब्धि अंत मेँ हो जाती है क्षीण,
बन जाती है दुख का कारण.
जहाँ तक पहुँच सकता है निज मानस से मानव,
अभौतिक सत्ताएँ डाल देती हैँ उस पर भ्रमजाल.
धरती पर भगवान को पा भी ले मानव,
पाता है – शेष है अभी तक मायाजाल.
जीवन हमेँ देता है जो दिव्य चेतना
आरंभ मेँ विचरती है स्वच्छंद, पाने को अनंत.
शीघ्र ही काल के भँवर मेँ फँसती है वह चेतना.
आशा पड़ जाती है मंद, अनिश्चय मेँ होता है अंत.
मन मेँ चोरी छिपे व्याप जाती है आशंका.
उबलने लगते हैँ हमारे दुःख आभोग.
नए नए भेष मेँ आने लगती है चिंता
लगा कर भ्रामक मुखौटे –
कभी पत्नी का, कभी संतान का
खेत का, खलिहान का
विष का, विश्वासघात का
आग का, बाढ़ का.
अनागत भयोँ से कंपित होते रहेँगे आप,
अनखोई निधियोँ पर करते रहेँगे विलाप.
समझ गया हूँ मैँ…
देवता नहीँ हैँ मेरे समकक्ष.
बिलबिलाते कीड़े हैँ मेरे समकक्ष,
जिन का भोजन है माटी
जो बनती है हमारी समाधि.
माटी नहीँ, तो क्या है – यह सब –
ये ऊँची ऊँची दीवारेँ,
पुस्तकोँ से लदे ऊँचे अलिंद,
ये भुनगे जिन्होँ ने घेरा है मुझे,
पुराना काठ कबाड़, जो नहीँ है मेरा,
यह बोझ, जिस ने दबा रखा है मुझे.
क्या देख सकती हैँ मुझे ये हज़ारोँ किताबेँ?
अंत मेँ पाऊँगा मैँ केवल इतना ही ज्ञान –
स्वनिर्मित काँटोँ की सेज पर लेटा है इनसान.
कभी कहीँ मिल जाता है कोई एक संतोषी जीव…
मौत के मुखौटे! नर कंकाल! हँसता है मुझ पर!
कहता है – तू भी था कभी मुझ जैसा,
तुझे भी घेरे था भ्रमजाल,
तुझे भी थी सत्य और प्रकाश की खोज.
तेरे मस्तिष्क पर था जो छाया का बोझ
कर गया पागल!
मेरी आजीविका के उपकरणो,
घूरते हो मुझे, हँसते हो मुझ पर.
चक्र, चक्र की धुरी, कील काँटे, चूल, कब्ज़े.
मैँ खड़ा हूँ द्वार पर.
ज्ञान की कुंजी हो तुम.
कैसे भी तुम्हेँ घुमाओ फिराओ
खोल नहीँ सकते तुम
संसार के रहस्योँ का ताला.
प्रकृति ने छिपा कर रखे हैँ जो गूढ़ रहस्य,
उन्हेँ खोल नहीँ सकता कोई सब्बल, पेचकस.
बेमतलब सँजो कर रखे हैँ मैँ ने यंत्र
जो थे मेरे पिता के पास,
जो कभी नहीँ आए मेरे काम.
धुँधलाए पन्नोँ पर लिखे हैँ जो शब्द
उन पर चढ़ गई है – धुँधुआते दीप की कालिख.
जो कुछ भी पुरखोँ की दौलत है मेरे पास
ढोने से उस का बोझ –
बेहतर है वह सब लुटा दूँ निरायास.
चाहे मिले कितना भी पैतृक दायभाग
वह सब निरर्थक है – गले मेँ बँधा पाषाण!
हर एक को अर्जित करना होता है अपना आभोग.
वर्तमान से जो भी छीन सकते हैँ हम -
वही है हमारी सफलता, हमारा उपभोग.
क्योँ जम गई है वहाँ, उस जगह, मेरी आँख?
इस बोतल मेँ कौन सा चुंबक है जो खीँच रहा है मेरी आँख?
चारोँ ओर जगमगाई कैसी यह आभ –
जैसे वनोँ मेँ शुक्ल चंद्रमा की उजास?
बोतलोँ मेँ श्रेष्ठ बोतल हो तुम.
मैँ करता हूँ तुम्हेँ सादर प्रणाम.
सविनय उठाता हूँ तुम्हेँ. तुम मेँ है
मानव निर्मित मिश्रण सर्वोत्तम –
देशविदेश से संचित बूटियोँ से
निषेचित सुखनिद्रा की औषध सर्वोत्तम –
विष – कालकूट – हलाहल.
तुम्हेँ कस कर उठाए हैँ मेरे हाथ.
स्वामी हूँ तुम्हारा. बनाए रखना कृपाभाव.
मात्र पा कर तुम्हारा दर्शन
हो रहा है कष्टोँ का अंत.
धमनियोँ का ज्वार हो रहा है शांत.
भवसागर के अनजाने अनचीन्हे
वारापार – बुला रहे हैँ मुझे.
मेरे चरणोँ पर हैँ लहरेँ ही लहरेँ.
नए दिवस के नए तटोँ का आकर्षण आवाहन.
प्राची की कोर पर मँडराने लगा है रथ जाज्वल्यमान.
शीघ्र ही हो जाना है मुझे कायाहीन –
पूर्णतः स्वतंत्र – करने को वायवी दिशाओँ का अवलोकन,
खोजने को शुद्ध कर्म का मर्म…
मात्र कीड़ा था मैँ?
अनश्वर आनंद का भोग
कभी हो सकता है कीड़े का भोग?
कैसे भोग सकता है नश्वर मानव
अनश्वर देवोँ के देश के भोग!
संभव है यह सब!
फेर लो सूर्य की ओर से मुँह!
साहस से काम लो. खोल दो द्वार –
अनचाहा द्वार. सब लोग करना चाहते हैँ इसे पार.
पुकारता है काल –
डरो मत उस से – जो है ईश्वर की सत्ता.
पाने को मानव की अस्मिता
उठा लो यह अंतिम चरण.
क्या है नरक की यातना?
डरो मत! कुछ भी नहीँ है नरक और नरक की यातना.
वह है कोरी कपोल कल्पना
जो रचते हैँ हम अपने को देने को यातना.
काल के गाल मेँ धधकती है जो ज्वाला
उस के पार है मेरा अडिग गंतव्य.
पहुँचना ही है मुझे वहाँ उस गंतव्य तक निर्भय –
हो चाहे वहाँ बस शून्य, केवल शून्य.
(आले मेँ से प्याला निकालता है. उस मेँ कोई तरल पदार्थ उँडेलता है.)
मेरे प्रिय चषक! पारदर्शी हो तुम.
स्फटिक मणि से बने हो तुम.
बरसोँ से भूले बिसरे रखे हो तुम!
अब निकालता हूँ मैँ – तुम्हेँ तुम्हारे अलिंद से!
पिता की गोष्ठियोँ मेँ हम पीते थे मदिरा तुम से.
तुम लगते थे मेहमानोँ के अधरोँ से.
तुम्हारी यह कगार… इस पर बने हैँ मदिर मोहक चित्र.
पहले मेहमान देखते थे ये चित्र.
रचते थे, सुनाते थे, कविता इन चित्रोँ पर.
याद करो वे दिन – पुराने सुहाने!
आज के बाद कोई नहीँ, कोई नहीँ, लगाएगा तुम्हेँ अधरोँ से.
अब नहीँ करेगा कोई कविता इन चित्रोँ पर.
तुम्हारी काया मेँ भर दिया है मैँ ने जो रस,
वह सोख लेगा मेरी हर चेतना. हो जाएगा मेरा अंत.
लो, तुम्हेँ अंतिम बार उठाता हूँ मैँ –
अपनी आत्मा को पुकारता हूँ मैँ -
कल के उगते सूर्य को अंतिम नमस्कार.
(प्याला अधरोँ से लगाता है. घंटियोँ की आवाज़. पूजा के गीत सुनाई पड़ रहे हैँ.)
फ़रिश्तोँ का गीत
उठ गया ख्रीस्त
तोड़ कर पाप की भीत
तोड़ कर पीढ़ी दर पीढ़ी बंधन.
हर्षित है जन जन
मोदमंगलमय गायन.
फ़ाउस्ट
कैसा स्पंदन! नव चेतन सिहरन!
यह दिव्यगीत! आशामय संगीत!
रोक लिया हाथ –
कर दिया होँठोँ से विष का चषक दूर.
घंटियोँ का आकंठ निनाद
क्या कर रहा है उद्घोष?
क्या हो गया ईस्टर का प्रभात?
ईसा की समाधि से फ़रिश्तोँ का गीत,
आदम के दुःखोँ के अंत का घोष
गूँज उठा फिर एक बार. फिर नव प्रभात.
स्त्रियोँ का कोरस
हम ने उस का तन नहलाया,
हम ने गंधित आलेप लगाया,
हम ने धरती पर उसे लिटाया,
झीना चीर उसे पहनाया.
आज न हम ने उस को पाया.
ख्रीस्त नहीँ है… ख्रीस्त नहीँ है…
फ़रिश्तोँ का गीत
उठ गया ख्रीस्त
प्रेम का अवतार पा गया प्रीत.
प्रवंचना, परीक्षा, प्रलोभन पर जीत…
फ़ाउस्ट
कीच मेँ, दलदल मेँ, धँसा हूँ मैँ,
क्योँ बुलाता है मुझे स्वर्ग का गान?
बहाओ गीतोँ के मृदुल मधुर स्वर वहाँ
बसते होँ मन कोमल जहाँ.
सुनता हूँ मैँ तुम्हारा संदेश,
लेकिन अपंग है मेरा विश्वास.
चमत्कार होते हैँ वहाँ – निष्ठा होती है जहाँ.
वहाँ प्रवेश का नहीँ है मुझ मेँ साहस
जहाँ गूँजते हैँ पावन शुभागमन के गीत.
बचपन से सुनता आ रहा हूँ मैँ धर्म के गीत.
हूँ आदत से मज़बूर – लौटता हूँ फिर जीवन की ओर.
कभी थे ऐसे भी दिन –
जब रविवार को धर्म के दिन
दिव्य का प्रेम कर देता था चुंबन से शांत
मेरा कमसिन ललाट.
गरिमापूर्ण थे घंटियोँ के स्वर.
मन से फूटते थे आराधना के स्वर.
पावन अथाह कामना से भरपूर
जाता था मैँ वन उपवन मेँ – संसार से दूर.
नयनोँ से झरते थे आँसू भरपूर.
उद्घाटित हो उठता था विश्व संपूर्ण.
इन गीतोँ मेँ झंकृत हैँ मेरे यौवन के उद्धत दिन –
उत्सव का उल्लास भरे मेरे भोले बचपन के दिन.
जो मुझे खीँचता है – मौत की गहरी घाटी से
चरम सत्य का बोध नहीँ है –
वह है उन दिवसोँ का मोहक गुंजन.
गूँजो, दैवी गीतो, गूँजो.
गूँजो, जी भर कर गूँजो.
देखो, मेरे गालोँ पर झरते आँसू.
देखो, अब भी मैँ धरती का बंदी.
शिष्योँ का कोरस
क्या हुआ जो उठ गया ख्रीस्त?
चढ़ा आकाश, पाप से मुक्त, मरणातीत…
क्या हुआ पा गया दिव्य प्रभात?
धरती है हमारा बिछौना,
घरती पर हमेँ है रहना.
हमेँ छोड़ गए धरती पर, साईँ.
हम रोते बिलखते हैँ, साईँ.
फ़रिश्तोँ का गीत
उठ गया ख्रीस्त –
पाप की कोख से.
टूट गए बंधन –
फट गए बादल.
तुम सब जो गाते हो ख्रीस्त के गीत
तुम सब जो चलते हो ख्रीस्त की राह पर
भोजन की मेज पर गाते हो प्रेम की जीत के गीत
तुम सब के पास है साईँ.
यहीँ है साईँ, यहीँ है साईँ.
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