भाषा पर विवाद – अच्छे हैँ

In Culture, Language, People by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

अनुराग के प्रश्नोँ के उत्तर

 

 

Ø  भारत में समय-समय पर भाषा को लेकर विवाद उठता रहता है। इसका क्‍या समाधान है?

 

भाषा पर विवाद उठते रहना स्वाभाविक है। यह हमारे समाज के जाग्रत होने का प्रमाण है। भाषाई विवाद केवल हमारे यहाँ नहीँ हैँ, संसार के अधिकांश देशों में, ब्रिटेन में, कनाडा मेँ, अमरीका मेँ हर जगह जब तब उठते रहते हैं। भाषा से समाजोँ की अस्मिता जुड़ी होती है। कारण यह कि भाषा ही वह उपकरण है जो जीवन के हर अंग को, गतिविधि को संचालित करता हैचाहे वह पारिवारिक हो, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय। भाषा न होती तो हम अभी तक आदिम युग में होते। जिस समाज की भाषा जितनी विकसित है, वह उतना ही विकसित है। निज भाषा से प्रेम मानव के मन में अंकित होता है।

यहाँ हम यह भी ध्यान मेँ रखें कि भाषा को बनाने वाला आम आदमी होता हैवह जिसे हम ऐराग़ैरा नत्थू ख़ैरा कहते हैं, वह भी जो ज़ाहिल है, गँवार है, और जो करख़नदार है… । मैं भी, तुम भी, तुम्हारे संपादक भी। निजी स्तर पर हम सब आम आदमी या जन साधारण हैं। माँ, बाप, संतान, जीजा, साली…

भाषा को संस्कार देते हैँ पंडित, विद्वान… साहित्यकार…। व्याकरण बनाने वाले भाषा में एकरूपता और स्थायित्व लाने के लिए नियम बनाते हैं। यदि नियम उचित होते हैं तो प्रचलित हो जाते हैं। आम आदमी भी भरसक उन का इस्तेमाल करता है। सच तो यह है कि आम आदमी की बोलचाप पर ही व्याकरण बनते हैँ। हम सब की दैनिक भाषा बोलचाल की भाषा ही रहती हैतात्कालिक। समय पर मुँह में जो शब्द आता है, वही बोला जाता है। तब व्याकरण की परवाह नहीं की जाती। कई बार टीवी पर घटनास्थल से रिपोर्टिंग करते समय पत्रकारों को भी व्याकरण भूल कर बात कहनी होती है। तब वे यह परवाह नहीं करते कि भाषा शुद्ध है या अशुद्ध… शब्द हिंदी का है, इंग्लिश का या स्थानीय भाषा का। जिन से वे इंटरव्यू करते हैँ, उन की भाषा शुद्ध कर के नहीं जैसी की तैसी प्रसारित करते हैं। जब कि समाचार पत्रों में उसे परिष्कृत करने की सुविधा रहती है।

टालते रहो तो भी देर सबेर भाषाई विवादोँ का समाधान निकालना ही पड़ता है। पर नए विवाद नहीं उठेंगे, इस की कोई गारंटी नहीं होती।

 

Ø  2. भारत में राष्‍टभाषा की समस्‍या का समाधान कैसे निकल सकता है?

 

राष्ट्रभाषा पर बात करते समय हमें इस राज्यभाषा से अलग कर के देखना होगा। समस्या तब होती है जब हर क्षेत्र के लोग अपनी भाषा को राष्ट्रभाषा की गिनती में लाना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि भाषा बोलने वालों की संख्या कितनी बड़ी हो कि उन की भाषा को स्वतंत्र रूप में मान्यता मिल सके। आख़िर हर गाँव की भाषा तो राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। लेकिन खड़ीबोली की टक्कर की भोजपुरी जैसी भाषाओँ को पीछे नहीं रखा जा सकता। नए राज्यों की अपनी आंचलिक भाषाएँ भी कब तक पीछे रहेंगी। टकराव का या रोध का रवैया न अपना कर हमें गिव ऐंड टेक की नीति अपनानी चाहिए। आज हर क्षेत्र की अस्मिता उभर रही है। और इस का उसे अधिकार भी है। राष्ट्रभाषाएँ बना कर हम इन्हें देश की राज्यभाषा तो नहीं बना रहे। केवल इन के विकास के नए दरवाज़े ही खोलेंगे। उन की भाषा के पंडितों को रोज़गार के अवसर मिलें तो क्या नुक्सान है।

 

Ø  3. हिंदी में तेजी से बदलाव आ रहा है। इसके बारे में आपको क्‍या कहना है। अंग्रेजी के ऐसे शब्‍दों का भी इस्‍तेमाल किया जा रहा है, जो हिंदी में आसान हैं, अंग्रेजी में मु‍श्किल।

 

पहले प्रश्न के उत्तर में मैं ने कहा कि भाषा बनाने वाला होता है आम आदमी। जो आम आदमी की भाषा है (मैं तकनीकी भाषा की बात नहीं कर रहा) वही भाषा का सही रूप है। आज दैनंदिन नई तकनीकें आ रही हैं। वे अपने साथ नई शब्दावली ले कर आ रही हैं। नए शब्द हमें स्वीकार करने ही होंगे। साथ ही आज कल विज्ञापन पाने की होड़ में कई समाचार पत्रों के मालिकान इंग्लिश पढ़ेलिखे वर्ग के विज्ञापन क्षेत्र के हाईफ़ाई लोगों पर यह सिद्ध करने में लगी हैं कि उन के पत्रों के ग्राहक भी हाईफ़ाई हैं। वे पढ़ेंगे तो उन का माल ज्यादा बिकेगा। आज इंग्लिश पढ़ेलिखे आदमी के पास क्रय शक्ति अधिक है–यह बाज़ार का ठोस सत्य है। तो भाषा का हिंग्लिश रूप उभर रहा है। यह भी मत भूलो कि हिंदी बोलने वालोँ की बड़ी संख्या उस के बड़े बाज़ार का जीताजागता प्रमाण है। जैसे जैसे गाँवों में पैसा पहुँच रहा है, जैसे जैसे कस्बाती शहर अमीर होते जा रहे हैं… वैसे वैसे विज्ञापक को उन की शरण में जाना होगा। तब भाषा का क्या रूप होगायह अभी देखा जाना बाक़ी है।

 

Ø  4. कुछ लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भारत तरक्‍की नहीं कर सकता।  आप इससे बात से सहमत हैं?

 

अंग्रेजी के बग़ैर भारत की तरक्की होगी या नहीं, यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। हाँ अभी तक इस में इंग्लिश ने काफ़ी बड़ी भूमिका निभाई है। यह भी निर्विवाद है। लोग अपनी राय पिछले अनुभव के आधार पर ही बनाते हैं। एक मिनिट के लिए आप अंग्रेजी को भारत की पराधीनता की भाषा के रूप में ना देखें, तो मानना पड़ेगा कि आज संसार के फ़्राँस जैसे कट्टर इंग्लिश-विरोधी देश भी उस भाषा के पास जा रहे हैं। कोई तो कारण है ना! कारण है आज संसार की सर्वाधिक प्रगति अँग्रेजीदाँ देशों की सरकारें, वैज्ञानिक संस्थाएँ, वहाँ के बिल गेट्स जैसे लोग कर रहे हैं। चढ़ते सूरज को कौन प्रणाम नहीं करता! भारत का काम है जिस से जब जिस तरह नई तकनीक मिले उसे ले कर आगे बढ़े। एक समय आएगा जब भारत, चीन, ब्राज़ील आदि देश तथाकथित पश्चिमी देशोँ को अपनी तरफ़ देखने को मजबूर कर देंगे।

हिंदी ने अभी तक साहित्य और आलोचना पर ध्यान दिया है। तकनीकी साहित्य की बेहद कमी है।

 

Ø  5. हिंदी का क्‍या भविष्‍य क्‍या है?

 

हिंदी की गिनती संसार की सब से अधिक बोली जाने वाली भाषाओँ में की जाती है। हिंदी पर सूरज कभी नहीँ डूबता।

सन 1900 से अब तक हिंदी ने जो तरक्की की है वह अद्भुत है। 1947 से बाद से हिंदी की प्रगति की गति तेज़ी से बढ़ी है। और अब यह गति हर साल नई तेज़ी पकड़ती रहेगी। मैं दावे से कह सकता हूँ कि 2050 तक हिंदी संसार की दो तीन सब से बड़ी ही नहीं सब से विकसित भाषाओँ मेँ होगी।

मेरे पास इस दावे के लिए ठोस तर्क है। हिंदी के हर उस संस्थान मेँ जिस का संबंध संप्रेषण से है, दैनिक पत्र, रेडीयो, टीवी, इंटरनेट, हर क्षेत्र में गाँव गाँव शहर शहर हर वर्ग के लोग, न केवल उच्च जातियोँ के बल्कि तथाकथित पिछड़े वर्गों के लोग अपनी नई अनुभूतियाँ, नए प्रयोग ले कर आ रहे हैं। हर तरफ़ नई तकनीकें, भारत में ही नहीं जापान से अलास्का तक, न्यू ज़ीलैंड से स्वीडन तक हिंदी वाले मुस्तैदी से लगे हैं।

हिंदी का नेतृत्व कोरे साहित्यकारों के हाथोँ से निकल कर नवीनतम डिजिटल तकनीक के पारंगत अशोक चक्रधर जैसों के हाथों में आ रहा है। विजय कुमार मल्होत्रा (नेता नहीं, भाषाविद), अमरीका से प्रोफ़ेसर सुरेंद्र गंभीर… अमरीका से ही हिंदी की विज्ञान पत्रिका प्रकाशित करने में अपने जीवन भर की कमाई और बचत होमने वाला डाक्टर राम  चौधरी, वहीं के श्री अनूप भार्गव, न्यू ज़ीलैंड से रोहित कुमार हैप्पी, दुबई से पूर्णिमा वर्मा, भारत में रतलाम से प्रोफ़ैसर रवि रतलामी, न जाने कहाँ कहाँ से न जाने कितने जाने अनजाने लोग हिंदी को आगे ले जाने में लगे हैं। कोशकारिता में पहले जो क्रांति डाक्टर हरदेव बाहरी ने की, उसे आगे बढ़ा रहे बदरीनाथ कपूर,  मैं अपनी और अपने का बात करूँ, तो पहले 1996 में समांतर कोश, फिर पिछले साल इंग्लिश-हिंदी का संसार का सब से बड़ा द्विभाषी थिसारस. और अब इंटरनेट के लिए क्रांतिकारी ई-कोश दे कर हम ने भी इस दिशा में थोड़ा बहुत योगदान किया है। नया गुल खिलाए बग़ैर नहीं रहेगा…

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आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ

©अरविंद कुमार

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