सनातन धर्म – विरोघियोँ के प्रति सहनशीलता

In Books, Culture, History by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

सनातन जीवन शैली अपने अवलंबियों के सामने स्‍वतंत्र चिंतन के लिए अनंत, असीम और उन्‍मुक्त आकाश रखती है और एक अनोखी उदारता. यह संसार की सभी विचार धाराओं को, उन को भी जो इस का विरोध करती हैं… इसी लिए सनातन धर्म भारत की आत्‍मा बन गया है और पूरे संसार में भारत की पहचान.

 

भारतीय समाज में विचार धाराओं के उस विशाल समूह की, उस जीवन शैली की, जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, कोई एक सहज सर्वसम्‍मत परिभाषा नहीं की जा सकती. इस के बारे में जो एक बात आसानी से, निर्विवाद रूप से, कही जा सकती है, वह यह है कि इस नाम के नीचे अनगिनत छाप/तिलक/अखाड़ों के वे सब मतमतांतर परस्‍पर स्‍वीकार भाव से रहते हैं, ऊपरी तौर पर जो एक दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं, और कई बार जो एक दूसरे को बुरा भला कहते भी दिखाई देते हैं.

सनातन जीवन शैली अपने अवलंबियों के सामने स्‍वतंत्र चिंतन के लिए अनंत, असीम और उन्‍मुक्त आकाश रखती है और एक अनोखी उदारता. यह संसार की सभी विचार धाराओं को, उन को भी जो इस का विरोध करती हैं, चाहे वे कोई ऐसा हिंदू सुधारवादी आंदोलन हो जिस का आधार ही सनातन धर्म का विरोध हो, या कोई हिंदू-इतर धर्म हो या नास्‍तिक विज्ञानवादी अधर्म’, सभी को सहज समभाव से स्‍वीकार करती है. इसी लिए सनातन धर्म भारत की आत्‍मा बन गया है और पूरे संसार में भारत की पहचान.

आज के संदर्भ में इस शैली की कोई सीमा निर्धारित करनी हो, तो–

सनातन जीवन शैली उन्नीसवीं शताब्‍दी से प्रवर्तित अनेक नए सुधारवादी आंदोलनों और मतमतांतरों से पहले के अधिकांश हिंदू मठों, मतों और मान्‍यताओं को अपने में समाहित करती है.

 

उस के मुक़ाबले में नए मतमतांतरों और सुधारवादी आंदोलनों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे सब किसी न किसी एक सुधारक या विचारक द्वारा चलाए गए मत हैं. उन के पीछे कोई एक गुरु है, कोई एक किताब है. उन के अनुयायियों की मानसिकता की एक पहचान यह है कि यदि वे अपने मत के सच्‍चे और कट्टर अनुयायी हैं तो वे अपने प्रवर्तक के व्‍यक्तित्‍व, उस के प्रवचनों और उस की किताब से आगे नहीं जा सकते. संक्षेप में हम उन के अनुयायियों को अहले किताब कह सकते हैं…  एक मोटा सा उदाहरण देने के लिए, ईसाइयों के चिंतन की सीमा यदि बाइबिल है, मुसलमानों की क़ुरआन शरीफ़, तो आर्य समाजियों के चिंतन की सीमा है सत्‍यार्थ प्रकाश.

इस से उन की मानसिकता को जो संकुचित दायरा मिलता है, उस के विवरण में जाने की ज़रूरत नहीं है. और यह बात किसी बहस के लिए कही भी नहीं गई है, बल्‍कि एक संिक्षप्‍त सा संकेत मात्र है उन में और सनातनियों के बीच एक प्रमुख अंतर स्‍पष्‍ट करने के लिए…

धर्म के तीन पक्ष

हर धर्म के तीन पक्ष, तीन पहलू, देखने में आते हैं.

1.  एक का संबंध आत्‍मा और परमात्‍मा की परिकल्‍पना से है और इन दोनों के परस्‍पर संबंध से है. जो लोग आत्‍मा और परमात्‍मा के अस्‍तित्‍व से इनकार करते हैं, वे अपने को नास्‍तिक या अधार्मिक मानते हैं. हम चाहें तो आस्‍तिकता के साथ, नास्‍तिकता को भी एक धर्म कह सकते हैं. आस्‍तिकों की आस्‍था और नास्‍तिकों की अनास्‍था की सत्‍यता को किसी भी वैज्ञानिक तरीक़े से साबित या सिद्ध या प्रमाणित या सत्‍यापित नहीं किया जा सकता. अतः ये दोनों मान्‍यता मात्र ही हैं और इन में दृढ़ विश्वास एक तरह से धर्म ही हैं, जिन का धारण इन के श्रद्धालु करते हैं और जो अपने श्रद्धालुओं का धारण करते हैं.

2.  दूसरे पहलू का संबंध समाज के गठन से है, और सामाजिक रीति रिवाज़, आचार व्‍यवहार, से है. अकसर देशों में इस दूसरे रूप का संबंध आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्‍यवस्‍था से जोड़ दिया जाता है. व्‍यवस्‍था की लड़ाइयाँ हर धर्म और समाज में पूरी तीव्रता से लड़ी जाती रही हैं.

3.  तीसरा पक्ष वह है जिस में धर्म जाति या देश का प्रतीक बन जाता है और लोगों को लड़ाने के काम में लाया जाता रहा है. जब इस संदर्भ में धर्म की बात की जाती है, तो धर्म वह धर्म नहीं रह जाता जिस का व्‍यापक अर्थ आत्‍मा परमात्‍मा के संबंधों से या कर्तव्‍य भावना से या व्‍यक्ति को धारण करने वाली शक्ति से होता है, बल्‍कि वह एक पंथ, मत या चर्च विशेष के अवलंबियों के समूह का द्योतक बन जाता है. इस सीमित अर्थ में और इस संकुचनकारी भावना के साथ जाति, और देश का भी, प्रतीक मान कर जन समूहों के हितों के परस्‍पर टकराव निपटाने के उपकरण के तौर पर भी धर्म का इस्‍तेमाल किया जाता रहा है.

स्‍वयं सनातन धर्म के देश में ऐसे चरमवादी तत्त्व भी हैं जो धर्म और समाज और परंपरा की रक्षा के नाम पर उस सब को मिटाने पर तुले हैं जो इस की सनातन शक्ति है, सनातन आधार है. यदि इस की रक्षा के नाम यह सब मिट गया, तो यह इस महान विचार धारा की हत्‍या होगी अपने स्‍वनियोजित रक्षकों के हाथों.

परिवर्तन का विरोध नहीँ

सनत्, सना और सनातन शब्‍दों के कुछ अर्थ हैं–सदा, हमेशा, नित्‍य, निरंतर, शाश्वत, स्‍थिर; दृढ़, स्‍थिर, निश्‍चित; पूर्वकालीन, पुराना.

इस अंतिम अर्थ को ले कर सनातन धर्म का अर्थ केवल पुरातन पंथी धर्म मान लिया गया है, और इस के साथ जोड़ दी गई है यह रूढ़ मान्‍यता कि यह परिवर्तन का विरोधी है. इस के पीछे आधुनिक राजनीति का एक विदेशी शब्‍द भी है–स्‍टेटस को, यथास्‍थिति… जिस के साथ इज़्‍म या वाद या पंथ या वाद जोड़ देने से परिवर्तन का विरोध अंतर्निहित हो जाता है. नए का यह विरोध राजनीति में व्‍यवस्‍था में परिवर्तन की माँग के विरोध से जुड़ जाता है. यही कारण है कि खुले मस्‍तिष्‍क वाले सनातन धर्म को हमारे देश में बंद दिमाग़ का, रूढ़िवाद का, पुरातन मोह का, प्रतिक्रियावाद का प्रतीक मान लिया गया है.

वास्‍तव में ऐसा है नहीं. कोई भी जीवन शैली तभी सनातन रह सकती है जब वह निरंतर परिवर्तनशील हो. इतिहास के पन्नों में झाँकने पर हम पाते हैं कि सनातन धर्म की सनातनता इस बात में निहित है कि वह हमेशा परिवर्तनशील रहा है. नित्‍य गतिशीलता और निरंतर परिष्‍कारशीलता ही इस की पहचान हैं. इस सनातन जीवन शैली की सद्भावना यात्रा सदियों से चलती चली आ रही है और यह संभावना भी प्रबल है कि जितनी सदियों से यह यात्रा चलती आ रही है उस से कई गुना सदियों तक और चलती रहेगी…

विरोध किया तो था…

यह सही है कि उन्नीसवीं शताब्‍दी में समाज व्‍यवस्‍था और रीति रिवाज़ में परिवर्तन के विरोधियों ने, धर्म के तथाकथित झंडाबरदारों ने, कठमुल्‍लाओं ने, लकीर के फ़कीरों ने, धर्म की रक्षा के नाम पर सती प्रथा जैसी कुरीतियों के उन्‍मूलन का विरोध किया था. कुछ पोंगापंथियों ने धर्म को केवल छुआछूत तक ही सीमित कर दिया था, चाहे वह छुआछूत रसोईघर में हो, या वर्ण व्‍यवस्‍था में हो, और वे उस में छोटे छोटे परिवर्तन तक का विरोध भी करते रहे थे.

लेकिन हम देखते हैं कि सामाजिक अन्‍याय और रहनसहन के पिछड़ेपन का विरोध तथाकथित सुधारवादियों से भी बढ़ चढ़ कर उन लोगों ने किया था जो अपने आप को सनातनी मानते थे (जैसे, स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, ज्‍योतिबा फुले, लोकमान्‍य तिळक, महात्‍मा गाँधी, मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू). उन जैसों के किए ही सनातन धर्म अपने को नया कर पाया था. ऐसे लोग सनातन धर्म के इतिहास में हर चार पाँच दशक बाद परिवर्तन का संदेश ले कर अवतरित होते रहे हैं. मध्‍य युगों में यह काम संत परंपरा ने किया. गीता में दिए गए वचन संभवामि युगे युगेका एक अर्थ यह भी है कि जब भी धर्म को और समाज की जीवन शैली को कुत्‍सित कर दिया जाएगा तो…

बुद्धिजीवियों की सनातन धर्म से दूरी का कारण

जो भी हो उन्नीसवीं शताब्‍दी में सुधार विरोध की कुछ घटनाओं ने हमारे समाज के अग्रगामी दृष्‍टिकोण वाले बुद्धिजीवियों को सनातन धर्म से दूर कर दिया. अपने को अत्‍याधुनिक, मौड, या बुद्धिवादी मानने का दंभपूर्ण दावा करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी अपने आप के उस से कोसों दूर होने की घोषणा करते रहते हैं.

ऐसे लोग मुख्‍यतः वे हैं जो आधुनिक पश्‍चिमी सभ्‍यता से या पश्‍चिम के राजनीतिक वादों से प्रभावित हैं. या तो वे सनातन जीवन शैली कोकोई बहुत ही घटिया चीज़ समझते हैं और घृणास्‍पद नज़रों से देखते हैं, या फिर अपने आप को उस से बिल्‍कुल अलग असंपृक्त रखने का दिखावा करते हैं. हद से हद वे उसे अपने निकटतम परिवार जनों में एक अनिवार्य दक़ियानूसीपन के तौर पर स्‍वीकार करते हैं, जिसे सहना वे अपनी मजबूरी भर मानते हैं.

हाँ, यह एक अलग बात है कि इस बीच सनातन समाज अपने आप को पूरी तरह बदल चुका है. वह जन मानस में एक बार फिर लोकप्रिय होने लगा है. बस, हमारे बुद्धिजीवी उस में आए सकारात्‍मक परिवर्तन को आँक नहीं पाए हैं.

मानसिक पूर्वाग्रहों और दंभों से निकलें

आवश्‍यकता इस बात की है कि अपने आप को अत्‍याधुनिक मानने वाले लोग अपने मानसिक पूर्वाग्रहों और दंभों से निकल कर इस शैली को समझने की और इसे सही दिशा देते रहने की कोशिश करें. यह कतई ज़रूरी नहीं है कि वे इस के तथाकथित रीति रिवाज़ों का पालन करें. ये इस का अनिवार्य अंग हैं ही नहीं. वर्ण व्‍यवस्‍था भी इस का अनिवार्य अंग नहीं है, और ब्राह्‍मणवाद तो बिल्‍कुल ही नहीं है. यदि हमारा बौद्धिक वर्ग सनातन जीवन शैली के प्रति तिरस्‍कार का भाव मन से निकाल दे तो वह भारतीय समाज को एक न्‍यायपूर्ण साँचे में ढालने में अधिक सार्थक योगदान कर सकेगा.

यह बात हमेशा ध्‍यान में रखने योग्‍य है कि आज आम सनातनी जिसे हिंदू धर्म का सही रूप मानता है वह वैदिक या पौराणिक रूप नहीं है. यह वह रूप भी नहीं है जो आठवीं, दसवीं, बारहवीं, सोलहवीं या अठारहवीं सदी में था. यह वह रूप है जिसे बनाने में स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, ज्‍योतिबा फुले, लोकमान्‍य तिळक, महात्‍मा गाँधी, मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू जैसों ने काफ़ी योगदान किया है. यह रूप अब भी परिवर्तनशील है, लेकिन परिवर्तन की यह धारा पुराणपंथी धर्मगुरुओं और कथावाचकों द्वारा संचालित हो रही है, अग्रगामी बुद्धिजीवियों द्वारा नहीं. यदि बुद्धिजीवी सनातन जीवन शैली से विमुख रहे तो यह परिवर्तन एक बार फिर प्रतिगामी हो सकता है. इस का दुष्‍परिणाम पूरे देश के जन साधारण को कई दशकों तक भोगना पड़ेगा.

क्‍या ऐसा होने देना चाहिए?

 

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©अरविंद कुमार

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