शब्देश्वरी–यह पौराणिक नामों का संकलन

In Books, Culture, History by Arvind KumarLeave a Comment

 

शब्देश्वरीयह पौराणिक नामों का संकलन है.

इस में ईश्वर, आत्‍मा, देह, पुरुष आदि से ले कर त्रिमूर्ति (ब्रह्‍मा, विष्‍णु, विष्‍णु के सभी प्रमुख अवतार, महेश/शिव) के, देवयोनियों में अप्‍सराओं से ले कर यक्षों, वानरों, विद्याधरों के, प्रजापतियों, मनुओं, ऋषियों मुनियों के, असुरों, दानवों, दैत्‍यों, राक्षसों के, ग्रहों, लोकों और स्‍वर्ग, नरक और मोक्ष के पर्यायवाची या समांतर शब्‍दों का संकलन किया गया है.

यह संकलन थिसारस या समांतर कोश वाले क्रम से किया गया है.

आजकल हिंदी में, अँगरेजी में, और अनेक भारतीय भाषाओं में, पौराणिक नामों के अनेक आधुनिक कोश उपलब्‍ध हैं. उन में नामों का संकलन अकारादि क्रम से किया जाता है. परिणाम यह होता है कि ईश्वर विषयक शब्‍द आत्‍मा या पुरुष या प्रकृति विषयक शब्‍दावली से बहुत दूर पाए जाते हैं. विष्‍णु लक्ष्मी से बहुत दूर हो जाते हैं, ब्रह्‍मा सरस्‍वती से, शिव पार्वती से, राम सीता से और ये दोनों दशरथ कौशल्‍या से, लक्ष्मण भरत शत्रुघ्‍न से, कैकेयी, सुमित्रा से.

ऐसे कोशों में किसी एक देवता या देवयोनि के लिए संिक्षप्‍त विवरण/अर्थ तो दिया जाता है, उन के लिए पर्याय या समांतर शब्‍द नहीं मिलते. मिलते हैं तो बस नाम मात्र को.

इन के विपरीत शब्देश्वरी में नामों का संकलन विषय क्रम से किया गया है. इसे आज की भाषा में समांतर कोश या थिसारस कहते हैं. इस में पाठक को किसी भी एक विषय से संबंधित सभी नाम एक ही स्‍थान पर मिल जाते हैं.

पौराणिक नामों का समांतर कोश बनाने की शब्देश्वरी कोई पहली कोशिश नहीं है. यह लगभग पाँच हज़ार साल पहले निघंटु से शुरू हुई थी. उस में वैदिक शब्‍दों का संकलन विषय क्रम से किया गया था. उस के अंतिम अध्‍याय में देवताओं के नाम हैं. उसे संसार का सब से पहला समांतर कोश या थिसारस होने का गर्व प्राप्‍त है.

निघंटु की रचना किस ने की–यह पता नहीं है. पुराण प्रेमी जन उसे प्रजापति भगवान कश्‍यप की रचना मानते हैं. कुछ लोग उसे परंपरा से प्राप्‍त शब्‍दावली मानते हैं. महर्षि यास्‍क ने निघंटु की व्‍याख्‍या की थी. इस व्‍याख्‍या का नाम निरुक्त है.

बाद में संस्‍कृत में ऐसे अनेक कोश बने. उन में अमर सिंह का अमर कोश शीर्षस्‍थ माना जाता है. लेकिन उस का विषय विस्‍तार अपने समय का पूरा समाज और भाषा थी. उस के संिक्षप्‍त कलेवर में यह संभावना नहीं थी कि सभी पौराणिक नामों को समेटा जा सके. यही कारण है कि उस में ब्रह्‍मा के लिए केवल २०(९ शब्‍द हैं, विष्‍णु/कृष्‍ण के लिए ३९(७ शब्‍द हैं और शिव के लिए ४८(४. तीन रामों (परशुराम, बलराम और दाशरथि राम) का बस उल्‍लेख मात्र है.

पौराणिक नामों के संकलनों की परंपरा में विष्‍णु और शिव के सहस्रनाम प्रसिद्ध हैं.

शब्देश्वरी उस परंपरा को और आगे बढ़ाती है.

एक ओर इस में हर देवी देवता के लिए ऊपरोक्त ग्रंथों से कहीं अधिक नाम हैं. उदाहरण के लिए इस में आप को ब्रह्‍मा के लिए ११६, तो विष्‍णु के लिए १,६८०, और शिव के लिए २,३२१ नाम मिलेंगे. यही नहीं. इस में कुछ और प्रमुख देवी देवताओं के नामों की संख्‍या इस प्रकार है: ईश्वर ५६६, आत्‍मा १०२, ब्रह्‍म १५१, निर्गुण ब्रह्‍म ५२, ओम् ४०, माया ४७, सरस्‍वती १०७, मी १२१, राम ११९, सीता ६८, कृष्‍ण ४११, अर्जुन ८५, कर्ण ८०, बलराम १००…

दूसरी ओर हर देवी देवता से संबंधित नामों को उस संबद्ध अध्‍याय में यथास्‍थान संकलित किया गया है, जैसे शिव नामक अध्‍याय में शिव के सभी शब्‍द तो मिलेंगे ही, सती, पार्वती, दुर्गा, गणेश, स्‍कंद, रुद्र आदि के पर्यायवाची शब्‍द भी उसी अध्‍याय में होंगे.

पहले यहाँ पर्यायवाचीशब्‍द के बारे में ही कुछ कहना ठीक रहेगा.

देखा जाए तो किसी भी शब्‍द का कोई दूसरा हूबहू पर्याय नहीं होता. समार्थक होते हुए भी कोई दो शब्‍द पूरी तरह समार्थी नहीं होते. हर शब्‍द का अपना एक इतिहास होता है, वज़न होता है, संदर्भ होता है. उदाहरण के लिए शब्देश्वरी में शिव के जो २,३२१ नाम दिए गए हैं, उन में से कुछ यूँ ही देखते हैं–अंतक, अंधकारि, अनंगारि, अर्धनारीश्वर, आयुष्‍पति, उमाकांत, उरगभूषण, उद्योगी, उन्‍मत्तवेश… इन सब से शिव का बोध तो होता है, लेकिन शिव के भिन्न रूपों का. अब यदि विषय को सीमित कर हम सतीश और उमेश लें तो दो अलग पत्‍नियों के पति का बोध होता है. अब विषय को और सीमित कर केवल पार्वती के पति शिव को लें–उमाकांत, उमेश, गौरीश्वर, पार्वती पति…, तो हमें हरेक में पार्वती के भिन्न रूपों के कारण भिन्न पार्वती और भिन्न शिव का बोध होता है. इन्‍हें पर्यायवाची कहने के बजाए समांतर शब्‍द कहना अधिक समीचीन होगा…

भारत में शब्देश्वरी जैसी शैली वाले शब्‍द संकलनों की, समांतर कोशों की, थिसारसों की, परंपरा प्राचीन तो है, लेकिन हम ने इन्‍हें फिर से पाया है–अँगरेजी के माध्‍यम से.

इस का एकमात्र कारण यह है कि अँगरेजी राज में भारतीय शिक्षा पद्धति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया गया और अँगरेजी को शिक्षा का माध्‍यम बना दिया गया. इस का एक दुष्‍परिणाम यह हुआ कि हमारे यहाँ सत्ता और समाज के अग्रणी स्‍थानों पर वही लोग पहुँच पाए जो अपनी परंपरा से कट गए थे. जो कुछ भी हमारे इतिहास और वर्तमान से संबद्ध था वह गौण, अव्‍यावहारिक, हास्‍यास्‍पद, निरर्थक बनता चला गया. उस के बारे में समाज के नए कर्णधारों को केवल वही पता चलता था जो अँगरेजी के माघ्‍यम से वह जान सकते थे.

रोमन लिपि ने तो हमें राम के स्‍थान पर रामा बोलना सिखाया. उच्‍चारण के स्‍तर पर राम, रामा, और रमा में कोई अंतर नहीं रह गया. यहाँ तक कि हमारे सब प्रदेश एक दूसरे से कट गए. उत्तर के अग्रवाल बंगालियों के लिए आगरावाला बन गया, उड़िया शात्‍कडि बाहर वालों के लिए सत्‍कारी बन गया… अँगरेजी में भारतीय नामों के हिज्‍जों के साथ जो खिलवाड़ हुआ, जैसे, मुटरा, मीरुट, िट्रवेंड्रम, धुले, लकनाव आदि, वह भी कम वीभत्‍स नहीं रहा…

आज़ादी के पचास साल बाद भी स्‍थिति कुछ सुधर नहीं पाई है, बल्‍कि बिगड़ती ही जा रही है. अँगरेजी के माध्‍यम से शिक्षा पाने का एक भूत सा सवार हो गया है. लेकिन किसी भी स्‍कूल में, चाहे वह महँगे से महँगा तथाकथित पब्‍लिक स्‍कूल ही क्‍यों न हो, छात्रों को भारतीय नामों के सही उच्‍चारण सिखाने की कोशिश तक नहीं की जाती. खेद की बात यह है कि ऐसा करने की माँग तक कहीं से नहीं उठ रही.

दर्शन और चिंतन के क्षेत्र में भारत ने, विशेषकर सनातन धर्म ने, विश्व को एक विशद शब्‍दावली दी है. अमूर्त धारणाओं के मनन के लिए मूर्त प्रतीक और शब्‍द दिए हैं. उस दार्शनिक शब्‍दावली और बिंब विधान की बराबरी संसार की कोई अन्‍य संस्‍कृति शायद ही कर पाए. अनेक पौराणिक नाम उन अमूर्त धारणाओं के प्रतीक हैं.

देवीदेवताओं के नामों में एक पूरा सांस्‍कृतिक और सामाजिक इतिहास, कई बार राजनीतिक इतिहास भी, छिपा होता है. उन में होती हैं जन साधारण की आकांक्षाएँ, भावनाएँ, मान्‍यताएँ, विश्वज्ञान की उन की समझ, मतों और मठों की परस्‍पर प्रतिस्‍पर्धाएँ.

हम यह भी जानते हैं कि हमारी प्राचीन कथाओं के पात्रों के नाम उन के गुणों के सूचक हैं और उन से सबंधित घटनाओं की भी. कई बार इन शब्‍दों और नामों के प्रतिबिंब आयुर्वेद, ज्‍योतिष शास्‍त्र, गणित शास्‍त्र, व्‍याकरण शास्‍त्र और पिंगल शास्‍त्र में मिलते हैं.

अभी तक हमारे सांस्‍कृतिक इतिहास का अध्‍ययन या तो पुरातत्त्व के आधार पर होता रहा है या उपलब्‍ध प्राचीन ग्रंथों के पाठ के आधार पर. परंपरा, जनश्रुति और भाषाशास्‍त्र को ऐसे अध्‍ययनों में लगभग नगण्‍य स्‍थान मिलता रहा है. जनश्रुति को जनस्‍मृति में संघनित इतिहास कहें तो अत्‍युक्ति न होगी. हमारे बहुत से प्राचान ग्रंथ लुप्‍त हो गए हैं. जनश्रुतियों में उन की कुछ झलक मिलती है. देवताओं के अनेक नामों में ये कहानियाँ भी प्रतिबिंबित होती हैं. अतः वे इतिहास की गवेषणा में सम्‍मिलित की जानी चाहिएँ.

इसी प्रकार देवताओं से जुड़ी वस्‍तुओं, रूपों, से भी हमें भाषा के स्‍तर पर बहुत कुछ पता चल सकता है. वे भी उन पात्रों या देवी देवताओं की कल्‍पना करने वालों के बारे में हमें बताते हैं. इंद्र के वज्र की और शिव के त्रिशूल की कल्‍पना क्‍या हमें कुछ नहीं बताती? व्‍यास, कर्ण और कुंती के नामों में कोई ज्‍यामितीय संदर्भ है या सूर्य घड़ी है? कृष्‍ण के सुदर्शन चक्र और गौतम बुद्ध के धर्म चक्र में क्‍या संबंध है? अहल्‍या उद्धार और सीता स्‍वयंवर एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं क्‍या? पार्वती के नाम के पीछे क्‍या बिंब विधान है. असुरों के नाम देखें तो हमें अनेक धन वैभव और धातुओं के उपमान मिलते हैं. पूतना जैसे नामों के पीछे बाल व्‍याधियाँ हैं. भाषाशास्‍त्रीय अध्‍ययन से हम इन के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं.

शब्देश्वरी में पौराणिक पात्रों और कल्‍पनाओं के नामों के संकलन का उद्देश्‍य है–जगह जगह फैली इस तरह की सामग्री को एक जगह लाना और सनातन धर्म के पुनराकलन की भूमिका तैयार करना.

हमारा विश्वास है कि अनेक वर्गों के पाठक, चाहे वे साधारण विश्वासी जन हों, पंडित हों, पुरोहित हों, भाषा वैज्ञानिक हों, सांस्‍कृतिक इतिहास शोधक हों, इस छोटी सी पुस्‍तक को उपयोगी पाएँगे.

शब्देश्वरी को एक छोटी शुरुआत मात्र है. यह शुरुआत अनेक भूलों से भरी होगी, जो अपनी तरह के इस पहले प्रयास में स्‍वाभाविक ही है. यह संपूर्ण संकलन भी नहीं है. सभी देवीदेवताओं के सभी नाम इस में हों–ऐसा नहीं है. बहुत से छूट गए हैं.

.आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ

©अरविंद कुमार

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