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रुकना मेरा काम नहीं

In Culture, Journalism, Memoirs, People by Arvind KumarLeave a Comment

दास्ताने अरविंद

मैं एक साप्ताहिक समाचार पत्र में काम कर रहा था। उसकी दो-तीन प्रतियां ले गया था। वे अरविंदजी को दीं। वह त्यागीजी से अधिक मुझसे बात करते रहे। उनका व्यक्तित्व और व्यवहार बिल्कुल सहज। ऐसा नहीं लग रहा था कि किसी पहाड़ के सामने हूं या यह मेरी पहली मुलाकात है। ऐसा लगा- जैसे अपने मित्र या ज्यादा से ज्यादा बड़े भाई से वर्षों बाद मिल रहा हूं।

–अनुराग

17 जनवरी, 1930 को मेरठ में जन्‍मे शब्‍दशि‍ल्‍पी अरविंद कुमार के करियर की शुरुआत दि‍ल्‍ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर के रूप में हुई और तरीके करते-करते वह वहां की सभी पत्रि‍काओं के इंचार्ज बने। माधुरी और सर्वोत्‍तम की शुरुआत उन्‍होंने की। इनके अलावा हिंदी के पहले आधुनि‍क थि‍सारस समांतर कोश के रूप में एक अनमोल खजाना दि‍या है। उन की संघर्षमय गौरवगाथा पर कुछ संस्‍मरण…

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1 अरविंद कुमार

भारतीय लेखक निकालने की योजना बन चुकी थी। भीमसेन त्यागीजी लीक से हटकर पत्रिका निकालना चाहते थे। इसी के तहत उन्होंने पहले अंक में आधुनिक युग के हिंदी के पहले थिसारस- समांतर कोश पर आलेख प्रकाशित करने का निश्‍चय किया।

अक्टूबर या नवंबर, 2003 को कोई दिन था। मैं और त्यागीजी कोशकार अरविंद कुमार से मिलने उनके घर चंद्रनगर गए। त्यागीजी की उनसे फोन पर बात हो गई थी। वह बॉलकोनी में खड़े इंतजार कर रहे थे। हमें देखते ही खिल उठे।

त्यागीजी ने प्रारंभिक दौर में दिल्ली प्रेस में काम किया था। अरविंदजी भी वहां थे। इस नाते करीब चालीस साल पुरानी जान-पहचान थी। त्यागीजी ने उनके बारे में बहुत-सी बातें बताईं कि मामूली से कर्मचारी के रूप में नौकरी शुरू कर वह दिल्ली प्रेस में सभी पत्रिकाओं के इंचार्ज बने, माधुरी और सर्वोत्तम की शुरुआत उन्होंने की और दोनों को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। मैं सोचने लगा कि कहां पत्रकारिता के शिखर पुरुष और कहां मैं? ठीक से बात करेंगे भी या नहीं? त्यागीजी ने मेरा परिचय करवाया। वह खुश हुए।

त्यागीजी ने उन्हें भारतीय लेखक का प्रारूप दिखाया और पहले अंक में समांतर कोश पर लेख प्रकाशित करने की इच्छा जाहिर की। अरविंदजी ने जरूरी जानकारी और कुछ प्रिंटिड सामग्री दे दी।

मैं एक साप्ताहिक समाचार पत्र में काम कर रहा था। उसकी दो-तीन प्रतियां ले गया था। वे अरविंदजी को दीं। वह त्यागीजी से अधिक मुझसे बात करते रहे। उनका व्यक्तित्व और व्यवहार बिल्कुल सहज। ऐसा नहीं लग रहा था कि किसी पहाड़ के सामने हूं या यह मेरी पहली मुलाकात है। ऐसा लगा- जैसे अपने मित्र या ज्यादा से ज्यादा बड़े भाई से वर्षों बाद मिल रहा हूं। बड़े भाई की तरह ही शुभ चिंताएं कि तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारी क्या प्लानिंग है? तुम्हें यह क्या करना चाहिए, वह करना चाहिए आदि।

अरविंदजी अपने बेटे सुमीत कुमार के साथ पोंडिचेरी रह रहे थे। बीच-बीच में दिल्ली-गाजियाबाद आते रहते। यहां आने पर ही उनसे मुलाकात हो पाती। भारतीय लेखक में संघर्षशील लेखकों पर शृंखला शुरू की- शून्य से शिखर तक। इसमें अरविंदजी पर भी लेख देने का निश्‍चय हुआ। असल में एक दिन वह भीमसेन त्यागीजी के घर आए थे। मैं भी वहां था। दो-तीन घंटे रहे। पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि उनकी एक छोटी बहन थी। उसे टी.बी. हो गई थी। उसकी कमर में कूब निकल आया था। घर की आर्थिक स्थिति खराब थी। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। इर्विन अस्पताल (लोकनायक जयप्रकाश नारायण) में पलस्तर लगवाया गया। करीब छह महीने बंधा रहा। पलस्तर खुलवाने के लिए पैसे नहीं थे। पड़ोस में चाचाजी रहते थे। उन्होंने घर पर ही चाकू से पलस्‍तर काट दिया। वह नहीं बची

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2 पुदुत्तेरी के तत्कालीन घर मेँ अरविंद कुमार

इसमेँ अनोखा क्या है

मेरे जहन में यह घटना थी। मैं सोच रहा था कि ऐसी विषम परिस्थिति में रहने के बावजूद अरविंदजी ने यह मुकाम कैसे हासिल किया!

मैंने बहन को टी.बी. वाली बात का जिक्र किया। वह बोले, ”अधिकतर लोग गरीबी से होकर गुजरते हैं। इसमें अनोखी बात क्या है? आदमी आगे बढ़ता है- मेहनत कर। महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने अनुभवों से सीखा क्या?’’

मैंने बताया कि त्यागीजी के घर आपसे बात हुई थी। शाम को अपनी पत्नी प्रिया को बताया कि आप माधुरी के संपादक थे। मुंबई में रह रहे थे। सभी फिल्मी कलाकार आपके दोस्त थे। आरामदायक जिंदगी थी। लेकिन जब समांतर कोश पर काम करने के लिए नौकरी छोडऩे का फैसला किया तो आपकी पत्नी ने तुरंत हामी भर दी। उनकी जगह कोई और होती तो शायद विरोध करती। प्रिया, बड़ा काम ऐसे ही होता है।

वह मेरे काम में रुचि नहीं लेती। लेकिन पिछले सप्ताह मैं कोटद्वार गया था। तीन-चार काम अधूरे थे। मैंने प्रिया से कहा कि कल कोटद्वार जाना है। समझ में नहीं आ रहा कि काम कैसे पूरा करूं? उसने जवाब दिया कि मुझे बताओ। मैं कर दूंगी। फिर मायूसी से बोली कि मैं तो नहीं कर सकूंगी।’’

अरविंदजी ने कहा, ”यह तो बड़ा अंतर है। तुम्हारी पत्नी कितनी पढ़ी-लिखी हैं?’’

मैंने जवाब दिया, ”बहुत कम। केवल हाईस्कूल।’’

अरविंदजी बोले, ”हाईस्कूल पढ़ा-लिखा तो बहुत होता है। हिंदी पढऩी-लिखनी आनी चाहिए और समझ होनी चाहिए। केवल डिग्री लेने से क्या होता है?’’ वह आगे बोले, ”पत्नी को हर काम में शरीक करना चाहिए। हम अकसर सोचते हैं कि यह तो मूर्ख है। हमारा विरोध करेगी। यह गलत है। हर कोई तरक्की करना चाहता है। वह भी करना चाहती है। एक बार ट्राई तो करो।’’

मैं चलने लगा तो बोले, ”असफलता से कभी घबराना नहीं। इसके दो कारण हो सकते हैं। आप इसके योग्य ही नहीं हैं या बड़ी ओपर्चुनिटी आपके इंतज़ार मे है। यह सोचो कि क्या-क्या कर सकते हो?’’

अरविंदजी से बार-बार मिलना होता। उनसे लंबी बातचीत होती और उस बातचीत से निकली- एक संघर्षमय गौरवगाथा।

स्वतंत्रता संग्रामी पिता

अरविंदजी का जन्म 17 जनवरी, 1930 को मेरठ के लाला का बाजार की कानूनगो स्ट्रीट में हुआ। समाज रूढि़वाद की जंजीरों में जकड़ा था। सांप्रदायिकता का विष चारों और फैला था। ऐसे समाज में भी उन्होंने खुद को बचाए रखा तो इसका एक बड़ा कारण उनके पिता लक्ष्मणस्वरूप थे। वह प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारधारा के थे। आर्य समाज और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे।

जब अरविंदजी का जन्म हुआ, लक्ष्मणस्वरूप स्वतंत्रता आंदोलन में जेल चले गए हुए थे। जेल से छूटे तो उन्हें सर्टिफिकेट मिला। उन्होंने उसे फाड़ दिया, ”क्या करना है इसका?’’ उन्होंने बाद में स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन नहीं ली। उनका कहना था कि आजादी की लड़ाई अपनी मर्जी से लड़ी थी, पैसे थोड़े वसूलने थे।

अरविंदजी अपने परिवार में पहले बच्चे थे, जिसने शुरू से ही हिंदी पढ़ी। हालांकि उर्दू उन्होंने भी पढ़ी। दोपहर को मौलवी साहब पढ़ाने आते थे।

उन दिनों प्राय: संपन्न परिवार के लोग बच्चों को घर पर ही ट्यूटर से पढ़वाते थे। टेस्ट होता था। उसी के अनुसार स्कूल में बड़ी कक्षा में एडमिशन मिल जाता था। चौथी में अरविंदजी के बहुत अच्छे नंबर आए। लक्ष्मणस्वरूप ने सोचा कि पढऩे में होशियार है। वह उन्हें स्कूल ले गए। प्रिंसिपल ने टेस्ट लिया और सातवीं में दाखिला दे दिया। यह छलांग अरविंदजी के लिए नुकसानदायक साबित हुई। वह पढ़ाई में फिसड्डी रहने लगे। सातवीं और आठवीं प्रमोशन से पास की।

लक्ष्मणस्वरूप दिल्ली आ गए थे। इस वजह से अरविंदजी का मन पढ़ाई में नहीं लगता। नौवीं में वह फेल हो गए। यह फेल होना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ क्योंकि उन्हें तीन साल का अंतर पूरा करने का मौका मिल गया। नौवीं की परीक्षा देकर वह दिल्ली आ गए। यहां खालसा स्कूल में उन्होंने नौवीं में दोबारा एडमिशन ले लिया।

26 मार्च, 1945 को अरविंदजी का दसवीं का इम्तहान खत्म हुआ। उन्हें 1 अप्रैल से दिल्ली प्रेस में नौकरी करनी पड़ी। प्रेस के मालिक अमरनाथ अरविंदजी के फूफा थे।

दसवीं का इम्तहान देने के बाद अरविंदजी के सामने सवाल था कि आगे पढूं या नहीं। इसका कारण विषम आर्थिक स्थिति थी। ताऊजी पंजाब में पीडब्ल्यूडी में चीफ इंजीनियर थे। उन्होंने अरविंद कुमार को आगे पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। अरविंदजी की मां को किसी का अहसान लेना पसंद नहीं था। उन्होंने प्रस्ताव ठुकरा दिया।

हुनर हाथ में होगा तो भूखो नहीं मरोगे

उस जमाने में लोग मैट्रिक कर प्राय: क्लर्की किया करते थे। लक्ष्मणस्वरूप इसके खिलाफ थे। उनका कहना था कि अरविंद के हाथ में कोई हुनर होना चाहिए। कंपोजिंग भी सीख लेगा तो भूखे नहीं मरेगा। वह कई बार प्रेस लगाकर असफल हो चुके थे। कहीं-न-कहीं मन में आकांक्षा भी रही होगी कि बेटा काम सीख लेगा तो पैसे होने पर प्रेस खोल लेंगे।

दिल्ली प्रेस आकर अरविंदजी की राह आसान नहीं हुई। वह एक से बढ़कर एक मुश्किलों के दौर से गुजरे, असफलताएं भी मिलीं, लेकिन वह घबराए नहीं। अपनी असफलता से सीखा, अपनी कमियों को सुधारा और आगे बढ़ते चले गए हालांकि इसके लिए उन्हें कठोर परिश्रम करना पड़ा।

दिल्ली प्रेस में उनके करियर की शुरुआत डिस्ट्रीब्यूटर के रूप में हुई। लेटर प्रेस का जमाना था। डिस्ट्रीब्यूटरी में टाइप केसों में डाले जाते थे। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि एक मामूली सा डिस्ट्रीब्यूटर सभी पत्रिकाओं के इंचार्ज पद तक कैसे पहुंचा?

अरविंदजी के मन में बचपन से आजादी की लड़ाई के लिए कुछ करने की तमन्‍ना थी। हाईस्कूल का एग्जाम नहीं हुआ था। करोलबाग में कांग्रेस का जुलूस निकला। एग्जाम खत्म हुआ तो वह कांग्रेस के नेता डॉक्टर रतनलाल शारदा से मिले और पार्टी के सदस्य बन गए। साथ ही कांग्रेस सेवादल में भी थे। 1946 में लाल किले में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर मुकदमा चल रहा था। स्वतंत्रता संग्राम की आंधी पूरे जोरों पर थी। नौजवानों को लगता कि कांग्रेस बड़ी धीमी गति से चल रही है। अत: राजसिंह आदि ने लालकिला ग्रुप बनाया, जो सक्रियता से काम करना चाहता था। उसमें अरविंदजी के साथ-साथ यशपाल कपूर आदि थे।

दिल्ली प्रेस का दफ्तर कनॉट प्लेस में था। लौटते समय हरिजन बस्ती पड़ती थी। पूरा सेवादल वाला ग्रुप गांधीजी की प्रार्थना सभा में जाता था। गांधीजी का प्रवचन सुनने के बाद घर जाते। एक बार महीनेभर के लिए हरिजन बस्ती में ड्यूटी लग गई। अरविंदजी ने ऑफिस से छुट्टी ले ली। दिनभर हरिजन बस्ती में रहते। पढ़ते-लिखते भी। तमाम बड़े लोग वहां आते थे। उस समय यशपाल कपूर, चिरंजी भाई, राजमनोहर सिंह आदि मित्र बने। गीताका चलन था। वे लोग गीता पर बहस करते। अरविंदजी का सामाजिक दृष्टिकोण वहीं रहते विकसित हुआ।

डिग्री हासिल कर लो

उनके अधिकांश दोस्त मैट्रिकुलेट थे। इन सबने कोचिंग क्लासों में पढऩा शुरू कर दिया। इनको पढ़ते-पढ़ते एक साल हो गया था। इन्होंने अरविंदजी से भी पढऩे के लिए कहा। उन्होंने एडमीशन ले लिया। शुरुआत की आगरा विश्‍वविद्यालय की इंटरमीडिएट परीक्षा से। उसके लिए शाम को कोचिंग क्लास में जाते थे। सन् 1947 के बाद पंजाब से लाखों विस्थापित लोग आ गए, जिनकी पढ़ाई अधूरी छूट गई थी। विस्थापित नौजवानों के मन में उत्साह था, लेकिन आगे बढऩे के अवसर नहीं मिल रहे थे। उन्हें फिर आगे बढऩे का अवसर देने के लिए तरह-तरह के नए कोर्स शुरू किए गए और उन्हें छूट दी गई कि ये लोग शाम को हिंदी पढ़कर हिंदी रत्न, भूषण और प्रभाकर आदि की परीक्षा पास कर सकते हैं। इसका लाभ यह था कि यदि प्राइवेट तौर पर पंजाब विश्‍वविद्यालय से अंग्रेजी में बीए कर लो तो अंग्रेजी की डिग्री मिल जाती थी, जो नौकरी मिलने में बहुत काम आती थी।

अरविंदजी भी ऐसी क्लासों में दाखिल हुए, लेकिन बात बनी नहीं, बीच में छोड़ दी। इसी तरह हिंदी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा की तैयारी की, लेकिन परीक्षा में इसलिए नहीं बैठे कि किसी अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान चाहिए था। लेकिन यह फायदा हुआ कि बांगला, गुजराती से परिचय हो गया।

यहां से उनके लिए तरक्की की राह खुल गई। वह दिन में ड्यूटी करते, कांग्रेस का काम करते और शाम को पढ़ते। उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ टाइपिंग और हिंदी स्टेनोग्राफी भी सीख ली।

दिल्ली प्रेस में कैश का काम अमरनाथजी और उनके भाई बसेसरनाथजी देखा करते थे। काम बढ़ गया तो उन्हें एक असिस्टैंट की जरूरत पड़ी। अरविंदजी को कैशियर बना दिया गया। लेकिन वह यहां नहीं चल पाए। वह कभी पैसे का हिसाब ठीक नहीं रख पाते। इस बीच एक असिस्टैंट रख लिया गया। अरविंदजी को वहां से हटा दिया। वह टाइपिंग सीख चुके थे इसलिए उन्हें टाइपिंग का काम दे दिया।

वह टाइपिस्ट भी अच्छे साबित नहीं हुए। वह जो पढ़ते उसके अलावा भी टाइप कर देते। उन्हें वहां से हटाकर प्रूफ रीडर बना दिया गया। यहां से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। जो भी चीज छपने के लिए आती, सब पढऩी पड़ती। बहुत-सी बढिय़ा-बढिय़ा किताबें प्रूफ के तौर पर पढ़ीं। जो विषय पढऩे बंद कर दिए थे, उन्हें पढ़ा तो पुन: रुचि होने लगी। प्रूफ रीडिंग हिंदी और अंग्रेजी दोनों की करते थे। इसलिए दोनों भाषाओं का ज्ञान बढऩे लगा। इसके साथ ही भाषा में भी निखार आने लगा। यह प्रूफ रीडिंग उनके लिए संपादक बनने की सीढ़ी साबित हुई।

यह लड़का नहीं चलेगा… चलेगा

सन् 1948 की बात है। प्रिंटिंग के लिए जब पेज बन जाते थे, उसके बाद कई पेजों का फर्मा बनाया जाता था। सरिता में 16 पेज का फर्मा बनता था और कैरेवान का आठ पेज का। फाइनल करेक्शन उसमें होती थी। उसके कम से कम तीन प्रूफ निकाले जाते थे। एक संपादक पढ़ता था, दूसरा सहायक संपादक और तीसरा प्रूफ रीडर। विश्‍वनाथजी तीनों प्रूफ देखते थे। कौन-सा करेक्शन जरूरी है, यह वही तय करते थे। अरविंदजी जो करेक्शन मार्क करते थे, उन्हें देखकर विश्‍वनाथजी को लगा कि यह लड़का संपादन विभाग में जा सकता है। उन्होंने अरविंदजी की तनख्वाह में 15 रुपये की वृद्धि कर उन्हें सरिता मॆं उपसंपादक बना दिया।

अरविंदजी को अंग्रेजी की कहानी का हिंदी अनुवाद करने को दिया गया। वह कहानी फिल्म स्टार कबीर बेदी की मां फ्रेडा बेदी की थी। इस अनुवाद का एक-एक शब्द काटकर सहायक संपादक स्वदेश कुमार को दोबारा लिखना पड़ा। वह परेशान हो गए। उन्होंने विश्‍वनाथजी से कहा, “यह लड़का नहीं चलेगा।’’

विश्‍वनाथजी ने जोर देकर कहा, चलेगा।’’

अरविंदजी ने कहा, “स्वदेशजी, आज तो आपने जो करना था, कर दिया। मेरी गलतियां हैं। मैं मानता हूं। छह महीने बाद मेरे लिखे का एक कोमा भी नहीं बदल पाओगे।’’

अरविंदजी ने जो कहा, साबित कर दिया। स्थिति यह हो गई कि स्वदेश कुमार उनका लिखा/अनुवाद बिना पढ़े प्रेस में दे देते। उन्हें मालूम था कि कोई गलती नहीं होगी।

संपादकीय विभाग में काम करते हुए अरविंदजी को बहुत लाभ हुआ। हर विषय पर लेख आते। उन्हें पढ़ते। फिर स्वीकृत या रिजेक्ट करने पड़ते। उससे भी सीखने को मिलता कि खराबी या कमी क्या होती है? कमियों को ठीक करते तो पता चलता कि वाक्य कैसा होना चाहिए और बात कैसे कहनी है।

विश्‍वनाथजी ने समझाया कि वाक्य हमेशा छोटे होने चाहिए। उन्होंने कहा कि तुम लिखते ठीक हो, लेकिन तुम्हारी शब्दावली कई बार भारी होती है। आम आदमी समझता नहीं। तुम उसको सुधारो। उन्होंने पूछा कि विद्वान की भाषा तेली-तंबोली समझ सकता है क्या? अरविंदजी ने कहा कि नहीं। उन्होंने दूसरा सवाल किया कि तेली-तंबोली की भाषा विद्वान समझ लेगा? अरविंदजी ने कहा कि हां।

उन्होंने समझाया, ”भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो हर आदमी समझ सके। अपनी बात को सीधे-सादे चित्रात्मक तरीके से कहोगे तो हर आदमी मतलब समझ जाएगा। पाठक के मन में तस्वीर बननी चाहिए। यदि तस्वीर नहीं बनती है तो भाषा अच्छी नहीं है।’’

यह अरविंदजी के लिए गुरुमंत्र बन गया।

स्टडी सर्किलों में बहुत कुछ सीखा

इस बीच वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। वहां स्टडी सर्किल को बहुत महत्व दिया जाता है। वहां मार्क्स और अन्य दूसरे विद्वानों को पढ़ते। फिर उस पर चर्चा होती। इससे उनकी चीजों को समझने और उनका विश्‍लेषण करने की क्षमता बढ़ी।

वह गंधर्व महाविद्यालय में संगीत सीखने गए। लेकिन एक महीने में ही उस्ताद विनय चंद्र मौद्गल्य की आलोचना से वह समझ गए कि संगीत के लिए उनके कान ठीक नहीं हैं। स्वर की पहचान ठीक से नहीं कर पाते।

विश्‍वनाथजी फिल्म रिव्यू करते थे। उन्होंने अरविंदजी से रिव्यू करने को कहा। अरविंदजी को नाटक का शौक था। विश्‍वनाथजी ने कहा कि नाटक का रिव्यू करो। बाद में आर्ट का रिव्यू करने को भी कहा। इन सब चीजों के लिए अरविंदजी आर्टिस्टों से बात करते। नाटककारों से बात करते। नाटक को लेकर डिस्कशन करते। इन सबसे सीखते।

विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, चित्रकार रामकुमार, गोपालदास व्यास आदि लेखक-कलाकारों से उनकी मित्रता बढ़ी। करौलबाग में कई लोगों ने साहित्यिक ग्रुप बनाए हुए थे। अरविंदजी उनकी गोष्ठियों में जाते थे। वहां भी सीखने को मिलता।

इसके अलावा विश्‍वनाथजी विभिन्न विषयों की किताबें लाकर देते थे। टाइप का बैलेंस क्या होता है? पेज में कंट्रास्ट कैसे पैदा किया जाता है? रीडर की आंखों को आराम देने के लिए, मन बदलने के लिए बॉक्स कैसे डाले जाते हैं? उसका विषय क्या होना चाहिए? ये सब बातें भी उन्होंने सिखाईं। उन्होंने एक बात और समझाई, “तुम विद्वान होगे, लेकिन पाठक भी कम नहीं होता। वह दूसरे विषय का विद्वान होता है। वह हमारे आदर का पात्र है। हम उसे जितना समझेंगे, उतना ही हम पत्रिका को बैटर बना सकेंगे।’’

विश्‍वनाथजी प्राय: बड़े लेखकों से नहीं लिखवाते थे क्योंकि उनकी रचना वापस भिजवाई जाती तो वह नाराज हो जाते थे कि क्या मेरी रचना खराब है। कोई नया लेखक अच्छा लिख रहा है और उसमें सीखने की चाह है तो उसे आगे बढ़ाते थे। इस बात को अरविंदजी ने गांठ बांध ली।

राम का अंतर्द्वंद्व – भयानक विस्फोट

अरविंदजी एम.ए. कर रहे थे। उन्होंने एक ऐसा विस्फोट कर दिया, जिससे चारों ओर हलचल मच गई। वह शेक्सपीयर से बहुत प्रभावित थे। शेक्सपीयर के दो करैक्टर, दो सिचवेशन, कुछ लाइनें बहुत प्रभावित करती थीं। हेलमेटमें है- टू बी ओर नोट टू बी। दैट इज ए क्वैश्‍चन। उन्हें यह लाइन बहुत बढिय़ा लगती थी। उन्हें शेक्सपीयर की भाषा भी बहुत पसंद थी। शेक्सपीयर किस तरह से भावों को उच्च स्तर पर ले जाकर नाटक लिखते थे, यह भी उन्हें आकर्षित करता। ओथेलो में डेस्टेमोना को मारता है। उसे अपनी पत्नी के चरित्र पर विश्‍वास नहीं है। वह खलनायक यागो द्वारा नायिका के चरित्र हनन को सच मान लेता है।

अरविंदजी शेक्सपीयर जैसी रचना लिखना चाहते थे, जो पूरी तरह भारतीय संदर्भ में हो और ऐसा विषय हो जो हर भारतीय को छूता हो।

वह बहुत दिनों तक इस तलाश में रहे कि भारतीय साहित्य कथाओं में ऐसा कौन-सा क्षण है जो सबसे नाटकीय और दुविधाजनक है ओथेलो उनके सामने था। उन्हें लिखना वही था जो ओथेलो में था। उनके मन में आया कि जब राम सीता को वनवास देते हैं तो कारण बहुत सारे होंगे। राम के लिए भी तो दुविधा का विषय है कि सीता को कैसे वन में भेज दूं? घटना मिल गई थी- सीता वनवास। यह उधेड़बुन उन का विषय बन गई। उन्हीं दिनों सरिता में रामकुमार वर्मा का नाटक औरंगजेब की अंतिम रातछपा। औरंगजेब ने हिंदुओं पर क्या-क्या अत्याचार किए, उसे याद कर रहा है। उस पर पछता रहा है। यह उनके मन में था।

फरवरी का महीना था। सुबह जल्दी उठे और पूरी कविता आध-पौन घंटे में लिख डाली। सुबह सात बज रहे थे। वह अपने दोस्त संतोष के पास गए। उन्हें कविता सुनाई। उन्होंने कहा, “वाह!’’ अरविंदजी घर वापस आए और तैयार होकर दफ्तर चले गए। वहां अपने सहयोगी सी.पी. खरे को कविता पढ़वाई। उन्होंने भी तारीफ की। दोनों ने मिलकर छह-सात बार रीविजन किया। अरविंदजी ने कविता विश्‍वनाथजी को दे दी। उन्होंने भी कहा, “वाह!’’

विश्‍वनाथजी ने वह कविता जुलाई, 1957 के अंत में सरिता में छाप दी। शीर्षक था- राम का अंतद्वंद्व

कविता का रिएक्शन विस्फोट हुआ। हिंदू संगठनों को ऐसा सब्जेक्ट मिल गया, जिस पर लोगों को भड़का सकें। वीर अर्जुनमें मुख पृष्ठ पर सेवन कॉलम में खबर छपी- सीता माता का अपमान। उसके बाद लगातार कैंपन चलाया गया। कई महीने आंदोलन चला। सरिता के दफ्तर पर हमला हुआ। शीशे तोड़ दिए। आग लगाने की कोशिश की। फिर सरकार को केस करने के लिए मजबूर किया- किसी धर्म की भावनाओं को भड़काने का अनुचित प्रयास। अरविंदजी और विश्‍वनाथजी को अभियुक्त बनाया गया।

विश्‍वनाथजी ने कहा, “हमने कोई चीज सोच-समझकर छापी है तो उस पर अडिग रहें। माफी तो मांगनी नहीं है, जो होगा देखा जाएगा।’’

अरविंदजी ने कहा, “मैंने गलती कर दी। मेरी वजह से आप फंस गए।’’

विश्वनाथजी ने कहा, “छापा तो मैंने। अगर गलती की है तो मैंने की है। और मैंने कोई गलती नहीं की, ठीक किया।’’

इससे अरविंदजी ने अडिगता का पाठ सीखा कि संपादक का दायित्व लेखक से बड़ा होता है। उसने किसी लेखक की कोई चीज छापी तो जनता तक तो उसने पहुंचाया। कानून में भी लेखक से बड़ा दायित्व संपादक का है।

विश्‍वनाथजी बोले, “कुछ भी खर्च हो। कंपनी बंद हो जाए, लेकिन मैं इस बात पर अडिग हूं कि यह मैंने छापा तो इस पर स्टैंड करता हूं।’’

रातोरात लिखा लंबा स्टेटमैंट

सितंबर में केस चालू हो गया। मुकदमा करीब चार साल चला। अरविंदजी ने कोर्ट में स्टेटमैंट दिया। वकील थे करौलबाग के जुगल किशोर गुप्ता। कभी वह खालसा स्कूल में पढ़ाने आए थे। कोर्स की बातें बताने बजाए सापेक्षता सिद्धांत और पदार्थ के कभी नष्ट न होने की बातें ज्यादा करते थे. वह कांग्रेस में भी थे। जब अरविंदजी कांग्रेस सेवादस में गए तो वह अरविंद के शुभचिंतक बन गए थे। मुकदमे में समस्या यह थी कि अरविंदजी सरकारी वकील से जिरह कर पाएंगे या नहीं। दूसरी समस्या यह थी कि समय पर वाल्मीकि रामायण से तथा आधुनिक विद्वानों से रेफरेंस दे पाएँगे या नहीँ। जुगल किशोरजी ने अरविंदजी से कहा कि तुम एक स्टेटमेंट बनाओ और कोर्ट में दाखिल कर दो।

अगले दिन तारीख थी। शाम के चार बज गए थे। अरविंदजी रेफरेंस के लिए कुछ किताबें लेकर दफ्तर से घर चले गए। स्टेटमेंट लिखना शुरू कर दिया। रात करीब बारह बजे खत्म हुआ। उन्हें दो बात साबित करनी थी। एक तो हम हिंदू हैं। हम क्यों करेंगे हिंदुओं की भावनाओं को आहत। हमारी कोई दुश्मनी नहीं। हमारी नीयत खराब नहीं है, लेकिन जो लिखा है, सही लिखा है। और उन्हें रामायण की कहानी बदलने का अधिकार है। इसके लिए रामकथा के कई उदाहरण दिए। उनमें रामायण का जो पहला रूप है- दशरथ जातक, उसका जिक्र किया। इसमें घटनास्थल अयोध्या न होकर, काशी है। राजा दशरथ की तीन रानियां हैं। उसके चार बच्चे हैं- राम, सीता, लक्ष्मण, भरत। भरत की मां के कारण वनवास होता है। वनवास में राम, सीता और लक्ष्मण जाते हैं। यह 12 साल का होता है। वहां से लौटते हैं तो राम और सीता शादी कर लेते हैं। स्टेटमेंट में यहां से शुरू कर लिखा कि यह कहानी तो लगातार बदलती रही है। वाल्मीकी की रामायण में यह है, बंगाल की रामायण में यह है, जैनियों की रामायण में यह है। जैनियों की रामायण में अवतार राम नहीं, लक्ष्मण हैं। राम महत्वपूर्ण हैं, लेकिन हीरो लक्ष्मण हैं। इस तरह की बातें कोट कीं।

स्टेटमैंट में अरविंदजी ने यह भी लिखा कि रामायण की कथा राम के कारण लोकप्रिय नहीं, बल्कि सीता के कारण है। और वह औरतों में लोकप्रिय है। बेचारी पतिव्रता है। बहुत दुख सहे। रामायण सीता के दुखों की गाथा है। स्टेटमैंट इंग्लिश में लिखा था।

अरविंदजी दफ्तर आए। स्टेटमैंट बहुत लंबा बन गया था। टाइप करने की समस्या आ गई। पांच-छह अलग-अलग सफे काटकर टाइपिस्टों को दे दिए। दो कॉपी करवाई। स्टेटमेंट कोर्ट में दाखिल किया। अब डिस्कशन का प्वाइंट वह स्टेटमेंट हो गया। सेशन कोर्ट पार्लियामेंट स्ट्रीट में थी। उन्हें सजा हुई। तीस हजारी में अपील की। सेशन कोर्ट ने बरी कर दिया। फिर सरकार ने अपील नहीं की।

चिट्ठियां आती थीं कि आप हिंदू समाज की बुराइयां ही बुराइयां बता रहे हो, कोई अच्छाई तो आप बता नहीं रहे। इसके लिए अरविंदजी ने दो पेज की विज्ञप्ति बनाई कि हम घर के जाल-झंखाड़ मिटा रहे हैं तो यह भी क्रिएटिव काम है। घर की सफाई कर रहे हैं तो कोई बुरा नहीं कर रहे। इसमें हम बुराई नहीं समझते।

अरविंदजी के पास भाषण देने के लिए निमंत्रण आया करते। वह विश्वनाथजी से पूछते, “मैं जाऊं?’’

विश्‍वनाथजी ने कहा, “नहीं। हमें कोई नया सेक्ट पैदा नहीं करना। हमें लीडरी नहीं करनी। हमें जो बात कहनी है, पत्रिका के माध्यम से कहेंगे। तुम भाषण करते फिरोगे तो एक सेक्ट बन जाएगा। अरविंद की, विश्‍वनाथ की शाखा बन जाएगी। फिर हम एकांकी रह जाएंगे। हमें सारे समाज पर असर डालना है।’’

यह विश्‍वनाथजी का दूरगामी दृष्टिकोण था। अरविंदजी कहीं भाषण देने नहीं गए। उन्होंने पूरा ध्यान केवल पत्रकारिता की ओर लगाए रखा।

अरविंदजी और विश्‍वनाथजी के संबंध अटूट हो गए थे। कई वर्ष बाद ऐसे कारण बने कि दोनों में मन-मुटाव हो गया।

अरविंदजी जब कैरेवान में आए, विश्वनाथजी उसे बंद करना चाहते थे। वह बहुत परेशान थे कि अरविंद यह काम देख रहा है। मैं इसे बंद करूंगा तो यह बेरोजगार हो जाएगा। पत्रिका बंद करना उनकी शान के खिलाफ भी था।

अरविंदजी ने कहा, ”आप हर तरह से कोशिश कर चुके हैं, लेकिन कैरेवान नहीं चल रहा है। सरिता पहले अंक से ही चल रही है। कैरेवान भी चल रहा था। अब चलना बंद हो गया है। कारण क्या है? आपने इस पर विचार किया? मैंने विचार किया- आप कैरेवान की नीति हर तीसरे महीने बदल देते हो। कभी लेडिज होम जनरल बनाना चाहते हो तो कभी लाइफ मैगजीन बनाना चाहते हो, कोई और पत्रिका आपको पसंद आ गई तो आप कहते हो कि वैसी बना दूंगा। जिसे वैसा साहित्य चाहिए तो उन पत्रिकाओं में पढ़ लेगा। हम देखें कि वह क्या चीज दें जो ये पत्रिका नहीं दे सकतीं, उसको हम दें। वह थोड़ा रुके और बोले, ”ये पत्रिकाएं भारत के बारे में सामग्री देने के बारे में कंपीट नहीं कर सकतीं। हम बजाए शानदार ले-आउट के, आधे-आधे या पौने-पौने पेज के इलस्ट्रेशन देने के, सीधा-सादा, स्टैंडर्ड ले-आऊट बना लें और उसमें भारतीय विषयों पर सामग्री छापें तो पत्रिका चर्चा का विषय बन जाएगी।’’

विश्‍वनाथजी ने जवाब दिया, ”तुम्हारी जो मर्जी आए करो, मुझे कोई मतलब नहीं।’’

कैरेवान का कायाकल्प

अरविंदजी को अपनी मर्जी से काम करने की छूट मिल गई। उन्होंने विभिन्न विषयों से संबंधित अपने मित्रों को ढूंढऩा शुरू कर दिया। कोई इकोनोमिस्ट था तो कोई फिलासफर। उनके दोस्त थे- देशराज गोयल। किरोड़ीमल में पढ़ाते थे। वह सामाजिक विषयों पर अच्छा लिखते थे। उनसे कहा, ”भई देशराज, तुम्हें हर अंक में लिखना है। विषय हम डिस्कश करेंगे।’’

इसी तरह हरदेव थे। वह इकोनोमिस्टमें काम करते थे। एडिटोरियल में उनके लेख छपते थे। उनसे लिखने को कहा।

अरविंदजी कैंप कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ रहे थे। जर्नलिज्म का कोर्स किया था। वहां उनके संपर्क बन रहे थे। जरूरत के मुताबिक उन लोगों से लिखवाते।

उन्होंने सोचा कि हम लोगों की निगाह में कैसे आएं? राज्यों के बारे में विशेषांक निकालने की योजना बनाई, जिसमें वहां की कला, संस्कृति, साहित्य, जन-जीवन के बारे में हो। सबसे पहला अंक केरल के बारे में निकला। बाद में गुजरात के बारे में। इसके लिए भी वह अपने मित्रों की सहायता लेते। जैसे- उनके मित्र गुलजार सिंह संधु थे। कैंप कॉलेज में उनके साथ एम.ए. किया था। उन्होंने संधु से कहा कि मुझे पंजाब पर अंक निकालना है। इस बारे में जानकारी दो। गुजरात पर अंक निकाला तो वहां के लेखक को चिट्ठी लिखी कि और लेखकों के नाम बताओ तथा यह भी बताओ कि कौन-कौन किस-किस विषय पर लिख सकता है।

ये अंक बहुत पॉपुलर होने लगे। 1962 तक कैरेवान दस हजार बिकने लगी। उन्होंने एक फीचर शुरू किया- अराउंड द स्टेट्स। कायदे से हर जगह रिपोर्टर रखना चाहिए था। लेकिन विश्‍वनाथजी पैसा खर्च नहीं करना चाहते थे। अरविंदजी ने हर राज्य का अंग्रेजी का अखबार खरीदना शुरू कर दिया। वह उनमें छपी खबरों के आधार पर करीब 700-800 वर्ड्स में रिपोर्ट तैयार करवाते।

एक सज्जन इंडियन एक्सप्रेस में काम करते थे। वह चाहते थे कि विश्‍वनाथजी को इतना प्रभावित करें कि अरविंदजी से नाराज रहने लगें। वह सज्जन रोज कोई-न-कोई गलती निकालकर विश्‍वनाथजी को बताते थे। प्रूफ की कुछ गलतियां होती भी थीं।

समतल मैदान और जहाज की स्पेलिंग प्लेनका उच्चारण एक है। इत्तेफाक से एडिटोरियल के पहले ही पैराग्राफ में स्पेलिंग गलत चली गई। उन्होंने विश्‍वनाथजी को सुबह फोन कर बता दिया।

उन दिनों विश्‍वनाथजी परेशान थे। उन्हें जब गुस्सा आता था तो बहुत आता था। वह कंट्रोल नहीं कर पाते थे। फौरन केबिन से निकले। सबसे पहले अरविंदजी का टेबिल पड़ता था। वह सहयोगी के साथ बैठकर काम के बारे में डिस्कशन कर रहे थे।

अब नहीं चलेगा यह नहीं चलेगा

विश्‍वनाथजी गुस्से में बोले,  अरविंद, अब नहीं चलेगा। यह नहीं चलेगा।’’

अरविंदजी ने कहा, “यह नहीं चलेगा तो इसमें तकलीफ की क्या बात है? मैं छोड़ देता हूं।’’

विश्वनाथजी ने कहा, “छोड़ दो।’’

अरविंदजी ने कहा, “मैं छोड़ देता हूं। लेकिन आप मेरी ग्रेच्युटी दिलवा दीजिए। उसके बिना मैं जाऊंगा नहीं।’’

विश्‍वनाथजी सैद्धांतिक रूप से ग्रेच्युटी के खिलाफ थे। वे बोले, “ग्रेच्युटी तो मैं मरते दम तक नहीं दूंगा। चाहे तुम सुप्रीम कोर्ट तक चले जाओ।’’

अरविंदजी ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट तक जाने की मेरी हिम्मत नहीं, लेकिन यह कह सकता हूं कि आप जब तक ग्रेच्युटी नहीं देंगे, नौकरी नहीं छोड़ूंगा। आप वायदा कर दो। मेरे लिए इतना ही काफी है। देते रहना बाद में।’’

विश्‍वनाथजी बोले, “वह तो मैं नहीं दूंगा।’’

उनकी नीति थी कि आदमी को आइसोलेट कर दो। वह बोर हो जाएगा तो खुद ही छोड़कर चला जाएगा। अरविंदजी की मेज उन्होंने छीन ली। नीचे एक खाली कोठरी थी। उन्होंने अरविंदजी से कहा, “अब तुम यहां बैठा करोगे।’’

अरविंदजी ने कहा, “कोई बात नहीं। जहां भी बैठाओगे मैं तो काम करूंगा। आप काम नहीं दोगे तो भी मुझे कोई चिंता नहीं।’’

विश्‍वनाथजी ने कहा, “काम तो तुम्हें दूंगा ही नहीं।’’

अरविंदजी बॉस थे। सब उनका कहना मानते थे। उन के नए कमरे से बड़ी शानदार मेज निकाली जा रही थी। कर्मचारी गलत तरीके से निकाल रहे थे। अरविंदजी ने बताया कि ऐसे करोगे तो मेज निकल जाएगी। विश्‍वनाथजी कोने में खड़े देख रहे थे। अरविंदजी को भी मालूम था कि वह खड़े हैं। अरविंदजी रस लेकर निर्देश दे रहे थे ताकि विश्‍वनाथजी देख सकें कि कर्मचारी उनकी कितनी बात मानते हैं।

विश्‍वनाथजी ने कहा, “इनसे कहो कि चुप रहें।’’

अरविंदजी ने जवाब दिया, “ठीक है। आपका हुक्म है।’’

वहां पर एक टूटी-फूटी सी मेज-कुर्सी रखवा दी गई। विश्‍वनाथजी ने कहा, “अरविंद, तुम यहां बैठोगे।’’

अरविंदजी ने कहा, “कोई बात नहीं।’’

अरविंदजी पढऩे के लिए घर से किताबें लाने लगे। विश्‍वनाथजी ने आदेश दिया कि घर से किताबें नहीं लाओगे। तुम्हें पढऩे के लिए कुछ भी नहीं मिलेगा। लंच टाइम में बाहर जाना भी बंद कर दिया।

टाइम काटने के लिए कुछ तो करना था। वह आधी सिगरेट पीकर फर्श पर उल्टी रख देते। उसे जलता हुआ देखते रहते। उसमें करीब दस मिनट बीत जाते थे। वह घर से अनार लाने लगे। अनार छीलते और एक दाना खा लेते। थोड़ी देर बाद फिर एक दाना खा लिया।

उन्होंने टाइम काटने का एक और तरीका निकाला। उस कमरे की एक खिड़की झंडेवालान रोड पर खुलती थी। उन दिनों झंडेवालान सूनी जगह थी। कभी कभार कोई साइकिल-तांगा या कोई वाहन आता था। वह देखा करते कि कौन-सी सवारी किधर से आ रही है, कितनी आ रही है। फिर उन्होंने अपने आप से शर्त लगानी शुरू कर दी कि अगली सवारी बाएं ओर से आएगी या दाएं ओर से। धीरे-धीरे उनका अनुमान सही निकलने लगा। फिर शर्त लगाते कि तांगा आएगा या बस आएगी। उनका यह अनुमान भी सही निकलने लगा।

विश्‍वनाथजी ने सोचा कि इसकी सेहत पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा है। उल्टा यह तो मजे कर रहा है। मेन गेट पर एक सोफा पड़ा था। उन्होंने कहा, “तुम यहां बैठा करो।’’

अरविंदजी ने कहा, “ठीक है। जैसी आपकी मर्जी।’’ वह वहां बैठने लगे।

दिल्ली प्रेस में दो शिफ्ट होती थी। मौर्निंग शिफ्ट का लंच टाइम दस बजे होता था। उस समय सामने कुर्सी पर विश्‍वनाथजी बैठे होते थे। अरविंदजी बैठे होते थे सोफे पर। वर्कर और कंपोजिटर लंच के लिए निकलते थे तो विश्‍वनाथजी की ओर पीठ कर लेते। वे अरविंदजी के पास आकर उन्हें सलाम कर बाहर निकल जाते।

सोफे से स्टूल पर

अरविंदजी जिन लेखकों से लेख लिखवाया करते थे, सब उनके दोस्त थे। कुछ को ही मालूम था कि उनका झगड़ा चल रहा है। कोई लेखक आता तो उनके पास आकर बैठ जाता। वह उसे लेख असाइन कर देते और कह देते कि इसे विश्‍वनाथजी को देना। सब्जेक्ट अच्छा होता था, लेख अच्छा होता था। विश्‍वनाथजी उन लेखों को छापते थे। लेखक उन्हें बता देता कि इसे अरविंदजी ने लिखवाया है। इससे वह साइकलोजॉकली बहुत तंग होते थे।

विश्‍वनाथजी ने देखा कि सोफे पर भी इस पर असर नहीं हो रहा है। दरवाजे के पास चौकीदार का स्टूल था। उन्होंने कहा कि अब तुम यहां बैठोगे।

अरविंदजी ने कहा, “ठीक है।’’

अब फिर वही हुआ। कर्मचारी विश्‍वनाथजी की तरफ कमर कर अरविंदजी को सैल्यूट मारकर बाहर जाते।

अब विश्‍वनाथजी की बुरी हालत हो गई। अगस्त का महीना था। अरविंदजी को पांच बजे के करीब पर्सनल मैनेजर की चिट्ठी मिली। इसमें विश्‍वनाथजी की ओर से कहा गया था कि अगर आप छोड़ेंगे तो ग्रेच्युटी दी जाएगी।

अरविंदजी फौरन विश्‍वनाथजी के केबिन में गए और बोले, “थैंक्यू वैरी मच। आपका लैटर मेरे लिए काफी है। आप हिसाब बनवाते रहिए। मैं कभी आकर ले जाऊंगा।’’

अरविंदजी का माधुरी में जाना अकस्मात नहीं था। उनके सहयोगी सीपी खरे कभी पहले जैनेंद्र कुमार की डिक्टेशन किया करते थे। उनकी अक्षय कुमार जैन से भी जान-पहचान थी। वह अरविंदजी को अक्षयजी के पास ले गए। इससे पहले भी एक बार अरविंदजी उनसे मिल चुके थे। जब राम का अंतर्द्वंद्व विवाद चल रहा था तो अरविंदजी अखबारों के संपादकों से मिले थे कि आप हमारे खिलाफ छाप रहे हैं, हमारा पक्ष भी तो छापो। दैनिक हिंदुस्तान के संपादक मुकुटबिहारी वर्मा थे। उन्होंने लताड़ दिया कि तुम क्या छापते हो? क्या लिखते हो? सब बकवास है। दूसरी ओर अक्षय जैन ने कहा, मैं यह मानता हूं कि हर आदमी को अपनी बात कहने का अधिकार है। तुम्हारे विरोधियों की बात छाप रहे हैं। तुम भी कहो, तुम्हारी भी छाप देंगे। हमें इसमें कोई ऐतराज नहीं है।’’

टाइम्स में प्रवेश

दिल्ली प्रेस में संसाधन कम थे। कभी-कभी छत्तीस-छत्तीस घंटे काम करना पड़ता था। गर्मी के दिन थे। अरविंदजी का पसीने के मारे बुरा हाल था। सीपी खरे ने कहा, ऐसे तो मर जाएंगे। मेरे साथ चलो।’’ वह अरविंदजी को अक्षयजी के पास ले गए। यह नौकरी छोडऩे से करीब दो-ढाई साल पहले की बात है। अक्षय कुमार अरविंदजी से प्रभावित थे। उन्होंने कहा कि तुम लोग चाहते हो तो अच्छी बात है। एक महिला और एक फिल्म पत्रिका की योजना बनाओ। फिल्मफेयर और फेमिना बहुत पॉपुलर थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप में इनका हिंदी संस्करण निकालने की बात चल रही थी।

अरविंदजी और सीपी खरे ने योजना बनाई। अक्षयजी के जरिए रमा जैन के पास योजना गई। उन्हें योजना पसंद आई। उन्होंने मिलने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने अक्षयजी को मैसेज किया कि हम लोग आ रहे हैं। उन लड़कों से मिलवाना। रमाजी ने एक-एक कर कंपनी के हर प्रमुख आदमी से मुलाकात करवाई। ग्यारह-बारह बार मीटिंग हुई। एक मीटिंग शांतिप्रसाद जैन के साथ भी हुई। सब तय हो गया था, लेकिन महाप्रबंधक ने कहा कि हम पत्रिका नहीं निकाल पाएंगे, कागज नहीं मिल रहा है।

कुछ महीने बाद हुआ कि हम फिलहाल एक पत्रिका निकालेंगे। अरविंदजी ने सीपी खरे से कहा, “तुम ने बात शुरू कराई थी, तुम पहले जाओ।’’ खरे ने एप्लीकेशन दी। तब तक टाइम्स वाले फैसला कर चुके थे कि कोई संपादक रखेंगे तो मिनिमम ग्रेजुएट रखेंगे। वहां से खरे की एप्लीकेशन रिजेक्ट हो गई कि तुम ग्रेजुएट नहीं हो। अरविंदजी ने पहले ऑफर खरे को दिया, यह बात सब जानते थे। अक्षयजी भी जानते थे। इस बात से वह प्रभावित भी हुए।

अरविंदजी रमाजी की ओर से जा रहे थे। इसलिए काफी लोग उनके खिलाफ हो गए। फिर तय हुआ कि पहले फिल्म मैगजीन निकालेंगे, लेडीज मैगजीन बाद में निकालेंगे।

दिल्ली में मीटिंग हो रही थी। जे.सी. जैन और तमाम मैनेजर मौजूद थे। जे.सी. जैन इस पक्ष में थे कि फिल्मफेयर का हिंदी अनुवाद छापा जाए।

अरविंदजी ने कहा, “जैन साहब, ऐसा करेंगे तो पत्रिका चलेगी नहीं।’’

वह बोले, “क्यों नहीं चलेगी? ’’

अरविंदजी ने जवाब दिया, “हिंदी का पाठक अलग है। अंग्रेजी का पाठक अलग है। दोनों की आकांक्षा और रुचि अलग-अलग हैं।’’

जे.सी. जैन बोले, “कोई बात नहीं। हम ऐसा करेंगे कि तस्वीर वही रखेंगे और मैटर हिंदी में करा लेंगे। इससे हमारी बचत होगी।’’

अरविंद जी ने कहा, “आपको क्या बचेगा? तीन सौ रुपये पर इश्यू। क्या बचत है यह?’’ वह आगे बोले, “मैंने मान लिया कि हम अनुवाद छाप देंगे तो विज्ञापन का क्या होगा?’’

जे.सी. जैन चिढ़कर बोले, “वे अंग्रेजी में छाप देंगे।’’

अरविंद जी ने कहा, “एक बात बताएं कि आपका जो ले-आउट होता है, उसमें शीर्षक तो सारे अंग्रेजी के होते हैं। कलर में होते हैं। कलर को काटकर दूसरी प्लेट बनाएंगे तो उनके लिए प्लेट दोबारा बनानी पड़ेगी। इससे केवल फोटोग्राफ्स का खर्चा बचेगा।’’

अरविंदजी ने जे.सी. जैन की बात काटी थी। इसलिए वह चिढ़ गए। उन्होंने बाद में पंग लगा दी कि हमें उसके लिए न्यूज प्रिंट चाहिए। न्यूज प्रिंट तो हमें एलाऊ नहीं है और मिल भी नहीं रहा है। उन्होंने कहलवा दिया कि हमें कागज नहीं मिल रहा है। हम पत्रिका नहीं निकालेंगे।

अरविंदजी का जाना रुक गया। इस बीच सारिका के लिए ऑफर आया। रमाजी की नजर में अरविंदजी चढ़ चुके थे। उन्होंने पी.के. राय को दिल्ली भेजा। राय ने अरविंदजी से कहा कि तुम सारिका के संपादक बन जाओ। सारिका में मोहन राकेश संपादक थे। वह छोड़कर जा रहे थे।

अरविंदजी ने इनकार कर दिया,  मैं सारिका का संपादक नहीं बनूंगा।’’

पी.के. राय ने पूछा, “क्यों?’’

अरविंदजी ने जवाब दिया, “इसमें कई पेच हैं। रमाजी की साहित्य में रुचि है। पता नहीं वह कितने प्रयोगवादियों से घिरी हैं। मैं उनकी कहानियां नहीं छापूंगा। मैं अपनी पसंद की कहानियां छापूंगा। यह रमाजी को पसंद नहीं आएगा। इससे झगड़ा होगा। वह कहेंगी कि बिक्री क्यों नहीं बढ़ रही है? मैं कहूंगा कि बिक्री इसलिए नहीं बढ़ रही है कि आपकी पसंद की कहानियां छाप रहा हूं। मैं अपनी पसंद की छापूंगा तो बिक्री बढ़ेगी, लेकिन आपको साहित्य नहीं मिलेगा। इसलिए विरोधाभास है। लेकिन यह बात रमाजी से मत कहना। उनसे कहना कि वह नहीं आ रहे हैं।’’

फ्रीलांसिंग

अरविंदजी ने जब नौकरी छोड़ी, उनके पास एम्पलाइमेंट का कोई इंतजाम नहीं था। उन्होंने कहीं एप्लाई भी नहीं किया। मॉडल टाउन में अपना मकान था, पत्नी की नौकरी थी।

उन्होंने फ्रीलांसिंग करना तय किया। यह अनुभव अच्छा नहीं रहा। कलकत्ता के अखबार में लेख भेजा। पूरे संपादकीय पृष्ठ पर दो अंकों में लेख छपा। उसका पैमेंट कुल आठ रुपये हुआ। इससे गुजारा तो हो नहीं सकता था। दैनिक हिंदुस्तान का पेमेंट कुछ सही था।

उनके मित्र मुनीश नारायण सक्सेना हिंदी ब्लिट्ज के संपादक थे। उन्होंने अरविंदजी से हर अंक के लिए किसी प्रसिद्ध मुकदमे के बारे लिखने को कहा। यह सब्जेक्ट अरविंदजी के लिए बिल्कुल नया था। यह उनके लिए मुश्किल भरा काम था, लेकिन कोई काम ऑथेंटिक न हो, यह वह नहीं चाहते थे। उनके घर से कुछ मील की दूरी पर दिल्ली यूनिवर्सिटी थी। उन्होंने लायब्रेरी में जाने के लिए किसी के नाम से परमिशन ले ली। वह लॉ लायब्रेरी में जाते। वहां कोर्ट केस की किताबें थीं। केस का जजमैंट पूरा होता। आमतौर पर जज भी घटना बयान करता है। उसके आधार पर उन्होंने लेख लिखने शुरू किए। एक लेख कई अंकों में छपता था। एक अंक का पेमेंट 150 रुपये करते थे। इससे चार-पांच सौ रुपये महीने आमदनी हो जाती।

अरविंदजी ने सोचा कि हिंदी वाले पेमेंट कम करते हैं तो बाहर लिखूं। सिंडिकेट बनाया। घर पर टाइप राइटर नहीं था। टाइप करवाने करीब तीन मील दूर किंग्सवे कैंप जाना पड़ता। उन्होंने जर्मनी और आस्ट्रेलिया के अखबारों में लेख भेजे। उन लेखों का पेमेंट भी ज्यादा नहीं आता था। फिर भी सौ-दो सौ रुपये का एवरेज बैठ जाता था। इस तरह कई महीने काम किया।

उनकी सास को टी.बी. हो गई थी। वह उन्हें देखकर भुवाली से लौटे तो खबर मिली कि टाइम्स वाले ढूंढ़ रहे हैं। अक्टूबर-नवंबर, 1963 की बात है। उन्होंने पी.के. राय को फोन किया। पी.के. राय ने कहा कि कल मुझसे मिल लो। रमाजी भी मिलेंगी।

अरविंदजी सुबह आठ बजे रमाजी से मिलने गए। ड्राइंग रूम में रमाजी एक गोरे-चिट्टे सज्जन से बात कर रही थीं। किसी पत्रिका की प्लानिंग पर बात हो रही थी। कुछ देर वह सुनते रहे। उन्होंने सोचा कि मेरा तो टाइम बरबाद हो रहा है। उन्होंने रमाजी से कहा, “आप डिटेल में बात कर रही हैं। इसमें पता नहीं कितना समय लगेगा। आप मुझसे बात करें तो मैं जाऊं।’’

रमाजी ने कहा, “आपसे क्या बात करनी? फिल्म पत्रिका निकालने का फैसला हो गया है। आपको ज्वाइन करना है। इतनी सी बात आपसे करनी है। प्रताप (पी.के. राय) मुंबई से आपको अपाइंटमेंट लैटर भेज देगा।’’

अरविंदजी ने पूछा, “पत्रिका निकालनी कब है?’’

रमाजी ने जवाब दिया, “26 जनवरी, 1964 को पहला अंक निकलेगा, जो 20 जनवरी तक आउट हो जानी चाहिए। प्रताप बंबई से आपाइंटमैंट वैटर भेज देगा.’’

अरविंदजी ने कहा, “कब राय साहब मुंबई जाएंगे? कब भेजेंगे? कब डाक से मुझे मिलेगा? फिर मैं कब जवाब दूंगा? मैं तो पहली एवलेबल ट्रेन से मुंबई जा रहा हूं।’’

रमाजी ने जवाब दिया, “बात बिल्कुल ठीक है। प्रताप को बता देना कि कब जा रहे हो।’’

मैं आ गया हूं

अरविंदजी सीधा रेलवे स्टेशन गए। सीटिंग वाली डिलक्स ट्रेन लगती थी। उसमें लेटने की व्यवस्था नहीं थी। शाम को चार बजे लगती थी। सुबह दस बजे के करीब मुंबई पहुंचती थी। उसकी जो अर्लिएस्ट तारीख मिली, उसमें सीट ले ली। वह दिन दीवाली का दिन था। घर आकर बताया कि मैं मुंबई जा रहा हूं, फिल्म पत्रिका का संपादन करने के लिए। खास-खास दोस्तों को भी बता दिया।

अरविंदजी ने मुंबई पहुंचकर पी.के. राय को फोन किया कि मैं आ गया। कब मिलूं आपसे? शनिवार था। राय ने कहा कि तुम सोमवार को दफ्तर आ जाओ।

अरविंदजी दफ्तर पहुंचे। राय ने बिजनेस मैनेजर हिंगोरानी से कहा कि इन्हें सभी डिपार्टमेंट में मिलवा दो। कमरे का इंतजाम करवा दो। और जो सामान चाहिए दिलवा दो।

एक छोटा-सा कमरा सैकेंड फ्लोर पर खाली था। अरविंदजी वहां जाकर बैठ गए। उन्होंने कहा, “मुझे संपादक विभाग में एक ऐसा आदमी चाहिए जो जानता हो कि टाइम्स ऑफ इंडिया में कौन-सा विभाग कहां है और सारा प्रोसेस जानता हो कि कहां क्या होता है। दूसरा ऐसा दिला तो जो टाइम्स की किसी पत्रिका के संपादन विभाग में हो। आदमी ऐसा चाहिए जो फिल्म पत्रकारिता कर रहा हो। नया आदमी दिला दो ताकि मैं उसे अपने तरीके से ढाल सकूं।’’

पर्सनल मैनेजर ने कहा, ”यह कोई समस्या नहीं है। हिंदी वालों से पूछ लेते हैं कि उनके पास कौन स्पेयर है?’’

अरविंदजी को स्पेयर करके जैनेंद्र जैन मिले। वह धर्मयुग में थे। धर्मवीर भारती उनसे नाराज रहते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे। उन्हें अरविंदजी को दे दिया। दो आदमी ट्रेनिंग डिपोर्टमेंट से दे दिए गए। एक थे विनोद तिवारी, दूसरे थे रमेश जैन। अरविंदजी के समाने समस्या आई कि फिल्म वाला कौन हो? उन्होंने मित्र मुनीष नारायण सक्सेना की मदद ली। फिल्मों के बारे में वह काफी जानते थे। अब्बास उनके साढ़ू थे। उन्होंने एक आदमी दिया- महेंद्र सरल।

फिल्मों की घनी जानकारी नहीं थी

अरविंदजी माधुरी के संपादक तो बन गए, लेकिन फिल्मों के बारे में उन्हें कोई खास जानकारी नहीं थी। दो-तीन बड़े-बड़े लोगों के नाम पता थे। उनके लिए मशहूर एक्टर थे- देवानंद, दिलीप कुमार, राजकपूर, अशोक कुमार, हिरोइन में वैजेयंती माला, मीना कुमारी आदि, जो टॉप में थे। बाकि कौन हीरो कौन है, कौन क्या है उन्हें नहीं पता था।

ज्वाइन करने के अगले ही दिन फिल्मालय स्टूडियो में एक पार्टी थी। केंद्र सरकार में लाला श्यामलाल इंर्फोमेशन मिनिस्टर थे। उनके सम्मान में पार्टी थी। पीके राय अरविंदजी को भी साथ ले गए। पार्टी में कई हीरो-हिरोइन थे। राय पूछते कि यह कौन है? अरविंदजी ने कहा, ”राय साहब, मुझे नहीं पता कि कौन-कौन एक्टर क्या है? लेकिन छह महीन में मास्टर हो जाऊंगा।’’

उन्होंने टाइपिस्ट से कहा कि जितनी फिल्म पत्रिकाएं निकल रहीं, इनमें जितने हीरो-हिरोइन के नाम आ रहे हैं, सभी की लिस्ट बनाओ। उन्होंने फार्मूला इजात किया कि जिसका नाम ज्यादा बार आ रहा है, वह बड़ा एक्टर।

उन्होंने अपने सहयोगियों को बुलाया और कहा, ”मैं एडिटर हूं और तुम सब एडिटर। यह अवसर की बाद है। मालिक जिसे चाहे एडिटर बना दे। मुझे अपना बॉस मत समझो। अपनी टीम का कैप्टन या लीटर समझ सकते हो। तुम अपनी बात कहो, मैं अपनी बात कहूंगा। बुरा मानने की कोई जरूरत नहीं है। मिलजुलकर काम करना है।’’

अरविंदजी ने सोचा कि पत्रिका आम पाठक के लिए निकाल रहा हूं। वह नहीं जानता कि फिल्म कैसे बनती है? फिल्म के लोग कैसे होते हैं? फिल्मों में क्या-क्या विभाग होते हैं? मैं यह जानकारी पाठकों को दूंगा तो उसकी रुचि इसमें बढ़ेगी। दूसरी बात यह तय थी कि उन्होंने एक पारिवारिक फिल्म पत्रिका निकालनी है।

उन दिनों जो फिल्मी पत्रिकाएं निकल रही थीं, उनमें घटिया नंगी तस्वीरें होती थीं, फिल्मी कहानी और एक्टर तथा एक्ट्रेस के बारे में भरा होता। रमाजी ने अरविंदजी से पहले ही कह दिया था कि मुझे एक स्तरीय पत्रिका चाहिए, जिसे परिवार के सभी लोग पढ़ सकें। अरविंदजी की भी यही नीति थी। माधुरी में अश्‍लील फोटो उन्होंने बाद तक नहीं छापे। लेकिन एक ओर समस्या थी कि फिल्म पत्रिका में क्या हो?

बाप बेटी की पत्रिका

उन दिनों फिल्म देखना बुरा माना जाता था। जो फिल्म देखता था, उसे एक तरह से पापी माना जाता था और फिल्म पत्रिका पढऩे वाले को घोर पापी। लोग छिप-छिपकर फिल्म पत्रिका पढ़ा करते थे।

अरविंदजी ने एक स्लोगन दिया- एक ऐसी पत्रिका जो बाप और बेटी एक साथ पढ़ सकते हैं। इससे ज्यादा पारिवारिकता का कोई और संबंध उनके दिमाग में नहीं आया।

उन की सोच थी कि पाठक अज्ञानी नहीं है, मूर्ख नहीं है। वह इंजीनियर है, अध्यापक है, व्यापारी है। वह जानना चाहता है फिल्म क्या है, कैसे बनती है, उस में कला के तत्त्व क्या हैं. कैसे वह सामाजिक परिवर्तन का साधन बनती रही है, बनती रह सकती है। हम उसे बताएंगे।

उन दिनों जब लड़की को देखने आते थे तो यह लाजिमी था कि कहीं गूंगी तो नहीं। चलाकर देखा जाए, कहीं लंगड़ी तो नहीं। घूंघट उठाकर देखा जाए कि काणी या चेहरे पर दाग तो नहीं। उससे गाना सुना जाए। अब यह तो नहीं कहा जा सकता था कि आपकी बेटी के लिए गाना की स्वरलिपि छाप रहे हैं। लेकिन स्वरलिपि छाप तो सकते थे। स्वरलिपि ऐसी हो, जो आसानी से पढ़ी जा सके। इसके लिए एक स्तंभ तय कर दिया।

फिल्म पत्रिका में संगीत या संगीतकार के बारे में नहीं छपता था। अरविंदजी ने इसकी शुरुआत की। हर अंक में चार पेज संगीत के होते थे। संगीत निदेशक के बारे में, बैकग्राउंड म्यूजिक के बारे में, सिंगर के बारे में उसमें जानकारी होती थी। जो बड़े-बड़े लेखक थे, वे फिल्म पत्रिका में लिखते नहीं थे। अरविंदजी ने इन सभी को साथ लेने की कोशिश की। पहले ही अंक से चर्चित लेखक कृशन चंदर की लेख माला शुरू की।

एक और समस्या थी कि फोटोग्राफ कहां से आएंगे। जैनेंद्र जैन संगीत निदेशक आरके नैयर के अस्सिटेंड रह चुके थे। उन्हें फिल्मों के बारे में काफी जानकारी थी। धर्मयुग में भी फिल्म के बारे में लिखते थे।

21 नवंबर में अरविंदजी ने ज्वाइन किया था। नवंबर का अंतिम सप्ताह चल रहा था। पहली जनवरी से पहले ही अंक प्रेस में देना था। इससे पहले लेख लिखवाने हैं, कंपोज करवाने हैं, फोटोग्राफ इकट्ठा करने हैं, ले आउट बनाना है।

जैनेंद्र जैन ने कहा, ”अरविंदजी, यह नहीं हो पाएगा क्योंकि हमारे पास कुछ भी नहीं है।’’

अरविंदजी ने विश्‍वास से कहा, ”होगा, जरूर होगा। मेरे पास सांचा है, उसमें माल ढालना है बस।’’

फिल्मफेयर में आईएस जौहर के क्वेश्‍चन-आसंर आते थे। अरविंदजी ने इसी तर्ज पर पहले अंक से ही क्वेश्‍चन-आसंर देने का नि‍श्‍चय किया। समस्या थी कि इतनी जल्दी कौन तैयार होगा? मुनीश नारायण सक्सेना ने पड़ोसी बलराज साहनी थे। उनके पुराने मित्र भी थे। वह बोले, “बलराज से करा लेंगे।’’ वह अरविंदजी को बलराज साहनी के पास ले गए।

बलराज साहनी ने इनकार कर दिया, “मैं लिखूंगा नहीं। तुम्हारी पत्रिका हिंदी की है। मैं सिर्फ पंजाबी में लिखता हूं। पहले पंजाबी में छपवाऊंगा।’’

मुनीश नारायण सक्सेना ने एक और बढिय़ा आदमी से अरविंदजी की मुलकात कराई, वह थे पत्रकार उमेश माथुर। माथुर ने देवानंद को क्वेश्‍चन-आंसर के लिए राजी कर लिया, लेकिन जौहर तो जौहर थे। हाजिर-जवाबी में वह ह्यूमर तो कोई और पैदा नहीं कर पाया। माथुर ने पत्रिका के लिए भी बहुत लिखा।

कटी उंगली से श्रीगणेश होते होते बचा

फोटोग्राफ्स के लिए फिल्मफेयर के संपादक बी के करंजिया ने सहयोग का वायदा किया था। अरविंदजी कवर पर बैजयंती माला या मीना कुमारी में से किसी एक को लेना चाहते थे। करंजिया अफसरशाही किस्म के थे। उन्होंने एक्टर-एक्ट्रेस को चि‍ट्ठी लिख दी कि हमारी फिल्म की पत्रिका निकल रही है। उसके लिए आप फोटोग्राफ्स भिजवाएं। ऐसे तो कोई फोटो भिजवाता नहीं। उधर से सहयोग का रास्ता बंद हो गया।

अरविंदजी की राम औरंगाबादकर से मुलाकात हुई। वह बातचीत करने में दबंग और हेकड़ी वाले थे। उनका इतना रौब था कि सभी एक्टर-एक्ट्रेस अपना काम छोड़कर उनसे बात करते थे। उन्होंने अरविंदजी की समस्या हल कर दी। बैजयंती माला बाहर गई हुई थी। मीना कुमारी को फोन किया। उनके सैक्रेटरी-कम-पब्लिकसिटी मोबीन अंसारी थे। उन्होंने फौरन समय दे दिया। उन्होंने कहा कि पूनमकी शूटिंग चल रही है। वहां आ जाओ। सैट पर मीना कुमारी के फोटो किए। एक फोटो कवर पर छापा।

पहले अंक में एक गलती होते-होते बची। बहुत कम लोगों को मालूम था कि मीना कुमारी की एक उंगली कटी हुई है। यह बात अरविंदजी को भी मालूम नहीं थी। जब फोटो लिए थे तो मीना कुमारी ने पूछा था कि मेरा फोटो कितना छपेगा। उसी हिसाब से पोज दूं। फोटोग्राफर महाजन ने कहा कि बस्ट छपेगा। वह निश्चिंत होकर बैठ गईं। उनका हाथ ऊपर आ गया। बस्ट ने नीचे के हिस्से में उनकी कटी हुई उंगली दिखाई दे रही थी।

कवर पेज बन गया था। कलर प्रूफ सामने रखे थे। बाइचांस कृशन चंदर वहां आ गए। उन्होंने कहा कि यह क्या कर रहे हो? यह तो कहर हो जाएगा। एक तो पहले ही अंक में कटी उंगली छप रही है। अपशगुन हो जाएगा। दूसरा मीना कुमारी से तुम्हारे संबंध बिगड़ जाएंगे।

सारी प्लेटें बन चुकी थीं। अरविंदजी ने फोटोग्राफर के इंचार्ज से रिक्वेस्ट की, उसने मीना कुमारी का दोबारा क्लोजअप बनाया।

माधुरी का पहला अंक समय से निकला। अरविंदजी ने स्टाफ वालों को एक्सट्रा कॉपियां दी। उनसे कहा कि फिल्म वालों से मिलो, उन्हें कॉपी दो और कमैंट्स लो। सभी ओर से तारीफ मिली।

व्ही. शातांराम के पास विनोद तिवारी गए।

शांताराम ने कहा, ”एक पर्सनल बात कह रहा हूं। इसे छापना मत। तुमने पत्रिका क्या निकाली है। यह फिल्मफेयर की कोपी है। कुछ चीजें अलग है, लेकिन इसकी अलग पर्सैनेलटी नहीं है।’’

कवर पर शांताराम, महमूद, ओमप्रकाश, लता मंगेशकर, अशा भोंसले

यह बात अरविंदजी के लिए गुरुमंत्र बन गई। उन्होंने शांताराम को फोन किया, ”अन्ना साहब, आपने जो कहा, बिल्कुल सही कहा। छह महीने बाद जब आप संतुष्ट हो जाएंगे, तब आपसे मिलूंगा।’’

अरविंदजी ने धीरे-धीरे पत्रिका को बदलना शुरू कर दिया। करीब छह महीने बाद शांताराम जी का फोन आया, ”हां, अब ठीक है।’’

शांताराम का फिल्म इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन उन्हें किसी पत्रिका ने कवर पर नहीं छापा था। पत्रिकाएं दारा सिंह, महमूद, ओमप्रकाश, कन्हैयालाल जैसे कलाकारों के बारे में नहीं छापती थीं। एक्सट्रा कलाकरों पर लेख नहीं छपते थे। शांताराम की कंपनी के पचास साल पूरे होने पर अरविंदजी ने उन्हें माधुरी के कवर पर छापा। शीर्षक था – चित्रपति शांताराम। अन्य कलाकारों के बारे में लेख छापे।

अरविंदजी हर अंक में कुछ नया करने की कोशिश करते। मार्च का अंक तैयार हो रहा था। अधिकांश पत्रिका वाले किसी फिल्म का सीन डाल देते थे। अरविंदजी ने निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के घर के बाहरी लान में रंग, गुलाल, खाने-पीने का सामना लेकर चार एक्ट्रेसों से होली कराई, चित्र लिवाए, और उन में छाँट कर फोटोग्राफ्स छापे। इसी तरह बाल दिवस आया तो चाइल्ड आर्टिस्ट का फोटो छापा। फिल्म पत्रिका वाले इस सब की तो कल्पना भी कर सकते थे।

ए रोज इज ए रोज इज ए रोज…

माधुरी का नाम पहले सुचित्रा था। दिल्ली से चित्रा नाम की उर्दू पत्रिका निकलती थी। उसके मालिक ने स्टे ले लिया जब तक फैसला न हो नाम सुचित्रा नहीँ रखा जा सकता। पांचवां अंक निलने वाला था। संशय बना हुआ था कि अंक छप भी पाएगा या नहीं। जब तक नया नाम मिले, तब तक के लिए पत्रिका बंद भी हो सकती थी। पत्रिका ऐस्टेबलिश हो चुकी थी। टाइम्स वालों ने तय किया कि पत्रिका बंद नहीं करनी। उन्होंने जो नाम रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज को दिए, उनमें से माधुरी मिला।

माधुरी नाम अरविंदजी को पसंद नहीं था। इसके कई कारण थे। पहला कारण तो यह था कि माधुरी के नाम से एक सस्ती फिल्म पत्रिका कभी पहले निकलती थी। दूसरी माधुरी नाम की एक्ट्रेस भी हो चुकी थी। तीसरा प्रमुख कारण था कि इस नाम से साहित्यिक पत्रिका निकलती थी, जिसके संपादक प्रेमचंद थे। उन्हें यह सोच कर बुरा निकलता था कि इतनी पड़ी साहित्यिक पंरपरा की पत्रिका का नाम लेकर मैं फिल्मी पत्रिका निकालूं। पर उनके हाथ में तो कुछ था नहीं।

अरविंदजी ने फौरन कवर का नाम बदला। सुचित्रा की जगह माधुरी का लोगो लगवा दिया। उन्होंने संपादकीय लिखा। इसमें अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध उक्ति- ए रोज इज ए रोज इज ए रोज और शेक्सपीयर की पंक्ति- नाम कुछ भी हो गुलाब तो गुलाब ही रहने वाला है, को कोट कि‍या। उन्‍होंने लि‍खा कि‍ इस अंक से पत्रिका का नाम माधुरी है। हम पर इस तरह केस चल रहा है। अगर जीत गए तो पहले वाला नाम दोबारा कर देंगे। बाद में केस जीत गए। तब तक माधुरी नाम इतना पॉपुलर हो गया था कि इसे बदला नहीं गया।

अच्छी फिल्मों को फिल्म पत्रिका वाले सपोर्ट नहीं करते थे। ज्यादा से ज्यादा रिव्यू करा देते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की शहर और सपनाबन रही थी। इसके बारे में माधुरी के हर अंक में छपता। सेंटर स्प्रेड भी छापा। तीसरी कसमबन रही थी। उसके बारे में लगातार छापा।

उस समय माना जाता था कि उर्दू नाम वाली फिल्में ही चलती हैं। इक्का-दुक्का फिल्मों के नाम ही हिंदी में होते थे। यह बात अरविंदजी को बुरी लगती थी। उन्होंने तय किया कि साबित करूंगा कि उर्दू को आज लोग समझते नहीं हैं। शेर पसंद करते हैं, लेकिन पूरा समझते नहीं। एक गाना पॉपुलर हुआ था- बर्क सी लहराई तो। उन्होंने रिपोर्टरों से कहा कि फिल्म इंडस्ट्री में तमाम लोगों से बर्क का मतलब पूछो। अधिकतर को इसका मतलब नहीं पता था। आम लोगों से पुछवाया तो किसी को मालूम नहीं था। उन्होंने साबित कर दिया कि भाषा वह चलेगी जो आसान हो, फिर चाहे वह उर्दू हो या हिंदी, लेकिन बर्क जैसा शब्द नहीं चलेगा।

क्या मैं इसलिए पैदा हुआ हूं?  

अरविंदजी को माधुरी में काम करते हुए करीब दस साल हो गए थे। उनके मन में रह-रहकर खयाल आता कि क्या मैं फिल्मी पत्रिका में काम करने के लिए पैदा हुआ हूं? तब उन्हें थिसारस की याद आई।

असल में बीए में पढ़ते हुए अरविंदजी ने 1952 में सबसे पहले थिसारस देखा था। वह था इंग्लैंड के पीटर मार्क रोजेट का अंग्रेजी थिसारस। उनके मन में आया कि हिंदी का भी अपना थिसारस होना चाहिए। लेकिन होगा कैसे यह महत्वपूर्ण सवाल था। फिर सोचा कि इतने सारे कोश बनाए जा रहे हैं, कोई-न-कोई विद्वान हिंदी में थिसारस भी बनाएगा।

अब अरविंदजी के मन में आया कि हिंदी में किसी ने थिसारस नहीं बनाया तो इसका मतलब मुझे बनाना है। इच्छा मेरी है तो मैं ही पूरी करूंगा।

वह सुबह घूमने के लिए हैंगिंग गार्डन जाते थे। 26 दिसंबर, 1973 की सुबह उन्होंने अपनी पत्नी कुसुम कुमार से योजना का जिक्र किया। वह इसके लिए तुरंत तैयार हो गईं। तभी दोनों ने तय कर लिया कि यह काम उन्हें ही करना है। यह भी तय हुआ कि आवश्यकता हुई तो अरविंदजी नौकरी छोड़ देंगे और पूरा परिवार अपने घर दिल्ली चला जाएगा। उन्होंने योजना बनाई कि दो लाख रुपये हो जाएं तो दो हजार रुपये महीना ब्याज आता है। इससे घर का काम चल जाएगा। बेटे सुमीत की डाक्टरी की पढ़ाई और बेटी मीता की पढ़ाई भी हो जाएगी। काफी सोच-समझकर तय किया कि मार्च-अप्रैल, 1978 का समय ठीक रहेगा।

इस बीच शांताराम के यहां कोई कार्यक्रम था। वह बहुत शान-शौकत से रहते थे। स्टूडियो की मेन बिल्डिंग में फर्स्‍ट फ्लोर पर उनका आफिस था। फर्स्‍ट फ्लोर तक जाने के लिए भी लिफ्ट लगाई हुई थी, जबकि ऊपर कोई मंजिल नहीं थी। लिफ्ट की दीवारों पर मखमल लगी थी। बीच में नक्काशीदार टेलीफोन रखा था।

उन्होंने अरविंदजी को अपने कमरे में बुलाया और कहा, अरविंद, तुम यह जो माया देख रहे हो, मेरी बनाई हुई है। लेकिन मैंने पैसे कमाने के लिए कभी कुछ नहीं किया। मैं जो फिल्म बनाता हूं, अपने मन की बात कहने के लिए बनाता हूं। नहीं चलती तो नुकसान मेरा होता है, किसी डिस्ट्रीब्यूटर का नहीं होता। और चलती है तो मेरा फायदा होता है। हां, मैं पैसे को बर्बाद नहीं करता। मैं चाहता हूं कि मरते दम तक इसी तरह मन पसंद काम करता रहूं।’’ इस बात से अरविंदजी के निश्‍चय को दृढ़ता मिली कि अब मन का ही काम करना है और वह है थिसारस तैयार करना।

थिसारस पर काम करने का निश्‍चय तो कर लिया, लेकिन केवल तय करने से तो कोई काम होता नहीं। उन्होंने एक पल गंवाए बिना इसके लिए तैयारी शुरू कर दी। स्वतंत्र अर्थव्यवस्था खड़ी करने के लिए पहली जरूरत अधिक बचत की थी। फालतू खर्च बंद कर दिए। भविष्य निधि 10 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कटाने लगे।

श्रीगणेश नासिक में – और सिर मुँढाते ओले नहीं बाढ़!

श्रीगणेश करने के लिए वे सपरिवार नासिक गए। वहां 19 अप्रैल, 1976 की सुहावनी सुबह गोदावरी नदी में स्नान करने के बाद पहला कार्ड बनाया और काम शुरू कर दिया। अरविंदजी पूरे मन से कोश के काम में जुट गए।

अरविंदजी माधुरी से त्यागपत्र देकर मई, 1978 को सपरिवार दिल्ली चले आए। इस समय उनके पास दो लाख रुपये इस रूप में थे कि प्रोविडेंट फंड मिलना था। ग्रेच्युटी मिल गई थी। कुछ महीने की तनख्वाह बकाया थी। जब यहां आए तो खयाल आया कि बेटी की शादी का तो कोई इंतजाम किया ही नहीं। इसलिए तैंतीस हजार रुपये निकालकर डाकखाने में जमा करा दिए।

वह दिल्ली पहुंचकर काम में जुट गए। कुसुम जी कंधे से कंधा मिलाकर काम में लग गईं। छह फुट ऊंची एक छोटी-सी मियानी थी। दोपहर में आग बरसती थी। वे यहीं काम करते। गरमी से बचने के लिए पानी में भिगोकर अंगोछा सिर पर बांध लेते। उससे थोड़ी ठंडक मिलती।

सितंबर, 1978 में मॉडल टाउन में भयानक बाढ़ आई। दो मीटर पानी चढ़ आया। घर का सारा सामान बाढ़ की चपेट में आकर खराब हो गया। कुछ बचा तो मियानी में रखे समांतर कोश के कार्ड। पांच दिन पूरा परिवार इस छोटी-सी मियानी में रहा। उन्हें लगा कि यमुना के कोप से जो नष्ट हुआ, वह उनका विगत था और यमुना की कृपा से जो बचा है, वह है उनका भविष्य। और भविष्य है समांतर कोश जो होकर रहेगा।

वह मुंबई से यह सोचकर आए थे कि मॉडल टाउन में अपना मकान है। उसमें रह कर काम करेंगे। दाल-रोटी से गुजारा करेंगे, लेकिन पिताजी ने मकान बेच दिया। उन्होंने कहा कि अपना मकान बनाओ। प्रोविडेंट फंड मिला नहीं था। एक लाख रुपये बचे थे, जो कंपनियों में डिपाजिट के रूप में थे। जमीन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया वालों को पत्र लिखा कि मेरा प्रोविडेंट फंड पहले भेज दो। उन्होंने बकाया में से चालीस हजार रुपये भेज दिए।

चंद्रनगर की तैयारी – समांतर कोश कैसे बना…

अरविंदजी ने 32 हजार रुपये में चंद्रनगर, गाजियाबाद में जमीन खरीद ली। वह छोटे भाई सुबोध कुमार के साथ सूर्यनगर में रह रहे थे। अब मकान बनाना था, लेकिन इसके लिए पैसे नहीं थे। लोन मिलने की कहीं से उम्मीद नहीं थी।

एक दिन वह मॉडल टाउन के पुराने मकान में गए। वहां उन्हें अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह का लिखा पोस्टकार्ड मिला। लिखा था कि रीडर्स डाइजेस्ट वाले उसका हिंदी संस्करण निकालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि इसका संपादन अरविंद कुमार करें।

अरविंद जी ने नाम रखा सर्वोत्तम। डाइजेस्ट वाले सर्वोत्तम को बंबई से निकालना चाहते थे। अरविंदजी ने इनकार कर दिया। वह दिल्ली मेँ अपना काम छोड़कर कहीं जाने के लिए तैयार नहीं थे। अंतत: करीब छह महीने बाद वे लोग सर्वोत्तम को दिल्ली से निकालने के लिए सहमत हो गए। पहले से तय निजी कार्यक्रम के मातहत पांच साल उन्होंने वहां काम किया। मकान बन गया था। जब लगा कि अब स्वतंत्र रूप से रह सकते हैं तो 1985 में नौकरी छोड़ दी। माधुरी के बाद सर्वोत्तम दूसरी पत्रिका थी, जिसकी अरविंदजी ने शुरुआत की और उसे भी सफलता के शिखर पर पहुंचाया।

समांतर कोश का डाटा सुनियोजित करने के लिए हर शब्दकोटि के लिए एक कार्ड बनाया जाता। धीरे-धीरे कार्डों की संख्या बढ़ती गई। उनके चारों ओर मेजों पर समांतर कोश के कार्डों की ट्रे रखी रहतीं। हर ट्रे में अलग-अलग विभाग बने थे। उनमें भी कई उप- विभाग थे। प्रमुख विषय, उसके शीर्षक, उपशीर्षक- सब अलग-अलग विभागों में। इनमें भी व्याकरण के कारकों के अनुसार उपशीर्षक, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि के थे।

सबसे बड़ी समस्या थी कि 60 हजार कार्ड और करीब ढाई लाख शब्द हो गए थे।

टाइप के लिए देंगे तो क्रम तय करना होगा। हाथ से नंबर डालेंगे। टाइपिस्ट कोई कार्ड गायब कर देगा। कई जगह उसमें गड़बड़ कर देगा। टाइप स्क्रिप्ट की करेक्शन की जाएगी। फिर दोबार टाइप। फिर गलती होगी। किताब प्रेस में जाएगी। वहां गलती होगी। इतना काम कैसे होगा? यह सोचकर अरविंद कुमार दंपती परेशान थे।

बेटा सुमीत मुंबई में डॉक्टरी कर रहा था। वह राममनोहर लोहिया अस्पताल में काम कर रहा था। उसने कहा, ”पापा, इसका एक रास्ता है कि इसे कंप्यूटराइज किया जाए।’’

उन दिनों कंप्यूटर डेढ़ लाख में आता था। वे किफायत में गुजारा कर रहे थे। दिनभर काम करते रहते। इतना होश नहीं रहता कि खाना बना सकें। माता-पिता और बेटी साथ में थे। कंप्यूटर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। इसके लिए सुमीत ने ईरान में नौकरी कर कंप्यूटर लाइक पैसे जुटाए और दिल्ली आ गया। कंप्यूटर खरीदा गया।

कंप्यूटर जी का आगमन – पूरा खाना बनाने का समय था कहाँ

समांतर कोश को कंप्यूटराइज करने के बारे में 1990 में सोचना शुरू किया था। इससे पहले कंप्यूटर पर समांतर कोश बन ही नहीं सकता था। तब हिंदी के आरंभिक प्रोग्राम वर्ड प्रोसेसिंग के थे। डाटा बेस संभव नहीं था। डाटाबेस संभव हुआ जिस्ट (जीआईएसटी gist) कार्ड बनने के बाद। जिस्ट कार्ड ऐसी सुविधा है, जिसका संबंध इस बात से है कि उसके जरिए डाटाबेस बनाया जा सकता है, लेकिन इसमें बर्ड प्रोसेसिंग नहीं होती। इसकी खोज 1989 में हुई थी। उनकी एक रिश्तेदार योजना आयोग में कंप्यूटर में काम करती थीं। उसने बताया कि जिस्ट कार्ड आया है। जिस्ट कार्ड को खरीद लिया, लेकिन प्रोग्रामिंग के लिए पैसे नहीं थे। सुमीत ने कहा कि वह प्रोग्रामिंग सीखेगा। उसने किताब पढ़-पढ़कर सीखा और प्रोग्राम बनाया।

1993 में कंप्यूटर पर काम शुरू हो गया। उन्हें जो टाइपिस्ट मिला उसका नाम दलीप था। वह सुबह आठ बजे आता। तुरंत कंप्यूटर पर बैठ जाता। अरविंद जी उसे कार्ड देते रहते। वह टाइप करता रहता। वह आधे घंटे के लिए लंच पर जाता। फिर पांच बजे तक काम करता। उसने साठ हजार कार्ड ग्यारह महीने में फीड कर दिए। अरविंद दंपती को चाय पीने तक के लिए समय नहीं मिलता। एक बार चाय पीकर कुसुमजी अगली बार के लिए पानी का भगौना चूल्हे पर रख आतीं ताकि केवल आग जलानी पड़े। दलीप लंच में जाता तो जल्दी-जल्दी खिचड़ी बनाकर दोनों खा लेते। फिर काम में लग जाते। शाम को दलीप के जाने के बाद देखते कि क्या काम हुआ है। आठ-नौ बज जाते। कुछ और करने की फुरसत नहीं मिलती। प्रिंट निकालते। अरविंदजी देखते कि कहां गलती हुई। कुसुम जी रात को प्रफू रीडिंग करतीं।

अरविंद कुमार दंपती बेटे के पास बंगलौर चले गए। वहां करीब ढाई साल तक डाटा ऐंटरी की।

काम पूरा होते-होते एक दुर्घटना हो गई। डिस्क नष्ट हो गई। सौभाग्य से दो दिन पुराना बैकअप मिल गया। जान में जान आई।

1991 में  हंस में अरविंदजी की लेखमाला छपी थी कि आजकल मैं क्या कर रहा हूं, थिसारस के विषयों की विविधता का विस्तृत वर्णन… इसे पढ़कर  नेशनल बुक ट्रस्टके निदेशक अरविंद कुमार ने थिसारस प्रकाशित करने में रुचि दिखाई। अरविंदजी ने पत्र लिख दिया कि अभी किताब देने की स्थिति में नहीं हूं। दो-तीन साल लगेंगे।

बंगलौर में काम लगभग पूरा हो गया तो उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के अरविंद कुमार को पत्र लिखा। उनका तुरंत फोन आ गया। 10 सितंबर को अरविंदजी ने समांतर कोश की भूमिका लिखी, उसमें राजेंद्र यादव को याद करना नहीं भूले।  10 अक्टूबर को वे दिल्ली आ गए। उस दिन समांतर कोश के बारे में खुशवंत सिंह का लेख हिंदुस्तान टाइम्स में छपा था। उन लोगों ने 11-12 अक्टूबर को किताब के प्रिंटआउट नेशनल बुक ट्रस्ट को दे दी। 13 दिसंबर, 1996 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा ने इसका विमोचन किया। इस तरह मेहनत, लगन और असीम धैर्य से अरविंदजी ने अपना महत्वाकांक्षी सपना साकार किया।

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3 तत्कालीन ऱाष्ट्रपति डा, शंकर दयाल शर्मा को समांतर कोश की पहली प्रति भंट करते अरविंद कुमार और श्रीमती कुसुम कुमार

 

समांतर कोश का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इसकी पांच हजार प्रति प्रकाशित की थीं। सभी प्रतियां दो महीने में बिक गईं। तुरंत 20 हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा।

रुकना तो था नहीं – बीच बीच में ब्रेक भी

इस बड़ी सफलता से अरविंदजी रुके नहीं। उन्होंने एक कदम और आगे बढ़ाया और हिंदी डाटा को द्विभाषी बानने में जुट गए।

अरविंदजी के बारे में मैं ने कादम्बनी में एक लेख लिखा था। उन्हें अंक नहीं मिल पाया था। मैं देने गया।

उसे पढ़ कर अरविंदजी ने मुझे समझाया था, किसी रचना का, कहानी या लेख का हैडिंग उसका पहला विज्ञापन होता है, जो पढऩे के लिए आकर्षित करता है। दूसरा विज्ञापन होता है रचना का पहला पैराग्राफ। इस में पाठक को पता चल जाना चाहिए कि वह उसे क्यों पढ़े? उसे इसे पढ़कर क्या फायदा होगा? रचना वर्तमान से शुरू होनी चाहिए, बीच में भूतकाल की बात होनी चाहिए और अंत भविष्य की बात से करना चाहिए कि आगे क्या होगा या क्या होना चाहिए।’’

जो काम कोई संस्था भी मुश्किलों से वर्षों में कर पाती, उसे अरविंद कुमार दंपति ने इतने सहज ढंग से कर लिया, तो इसके लिए उन्होंने तपस्वी जैसा जीवन जीया। आमतौर पर वे पांच बजे उठ जाते हैं और काम शुरू कर देते हैं। चाय पीने की इच्छा हुई तो थोड़ी देर के लिए ब्रेक ले लेते हैं। जितना काम किया, उसका बेकअप लेते हैं। शेव करने, नहाने, नाश्ता करने के लिए थोड़ी देर रुकते हैं और फिर काम पर लग जाते हैं। इस तरह ब्रेक के साथ शाम छह-सात बजे तक काम करते हैं। दोपहर को डेढ-दो बजे खाना खाते हैं और फिर उसके बाद आधा घंटा आराम।

शाम को कोई दिमागी काम नहीं करते। समाचार सुन लिए या कोई मनोरंजक सीरियल देख लिया। दिनभर के काम में दिमाग इतना थक जाता है कि गंभीर काम करने की स्थिति में रहते भी नहीं। पढऩे-लिखने में भी जो चीज सामने आई पढ़ ली। किसी पत्र-पत्रिका को आधे घंटे से अधिक समय नहीं दे पाते। कोई बड़ी किताब मुश्किल से ही पढ़ते हैं क्योंकि उसे पढ़ेंगे तो सारा काम रुक जाएगा।

अरविंदजी की आंख का आपरेशन हुआ। डॉक्टर ने कंप्यूटर पर काम करने से मना कर दिया था। उन्हें कंपोजिंग के लिए कंप्यूटर आपरेटर की जरूरत थी। मैं अपने मित्र केवल तिवारी को ले गया।

अरविंदजी ने पूछा,  ”तुम आओगे कैसे?’’

केवल ने कहा,  ”बस से।’’

नयों का सलाह

अरविंदजी बोले,  ”तब नहीं चल पाएगा। यहां कोई बस स्टैंड डेढ-दो किलोमीटर से नजदीक नहीं है। तुम्हें आने में दिक्कत होगी।’’

उन्होंने केवल से कंप्यूटर के बारे में दो-तीन तकनीकी बातें पूछीं। केवल ने कहा कि उसे इसके बारे में जानकारी नहीं है। अपने मतलब भर के लिए कंप्यूटर पर काम कर लेता हूं।

अरविंदजी बोले,  ”अपने को सीमित क्यों करते हो? ज्यादा से ज्यादा सीखो। अपना टारगेट तय करो। तरक्की वही करता है, जो वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट रहता है और आगे के लिए प्रयास करता है, लेकिन वर्तमान स्थिति से दुखी नहीं होना चाहिए।’’

मेरा मित्र गौरव त्यागी पत्रकारिता में आए बदलाव पर पीएचडी करना चाहता था। उसे अरविंदजी से मिलावाया। वह देर तक पत्रकारिता में आए परिवर्तन और उसके सूत्रधारों के बारे में बताते रहे। अचानक बोले, ”यदि मेरी कोई बात गलत लगे तो टोक देना। मेरा क्या नुकसान होगा? मुझे तो कुछ सीखने को मिलेगा।’’

मई, 2007 में बाइलिंग्वल थिसारस प्रकाशित हुआ। इसमें ए-4 साइज में, चार कॉलम के 3,140 पेज हैं। इसमें 9088 शीर्षक के अंतर्गत करीब 29000 कोटियां हैं। संसार में किसी के पास इतना समृद्ध बाइलिंग्वल डाटा नहीं है।

इसके बाद भी अरविंदजी के कदम रुके नहीं। वह केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की हिंदी लोक शब्दकोश योजना से जुड़ गए। इसमें 1951 की जनगणना के अनुसार 48 भाषायें जो हिंदी क्षेत्र में बोली जाती हैं, उनका लोक शब्दकोश तैयार किया जाना है। इसका फायदा यह होगा कि लोक संस्कृति, भाषा, गीत, नाट्य, रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कार आदि का डॉक्यूमेंटेशन हो जाएगा। अरविंदजी इसके प्रधान संपादक बनाए गए। काम के प्रति जुनूनी अरविंदजी को सरकारी ढर्रा पसंद नहीं आया और उन्होंने खुद को योजना से अलग कर लिया।

अब एक और चमत्कारी कार्य में जुटे हैं। उम्मीद है कि मई तक यह काम लोगों के समाने होगा।

अरविंदजी के लिए मंजिल पड़ाव नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत होती है।

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