कोशोँ के निर्माण के पीछे सामाजिक सांस्कृति उद्देश्य होते हैँ. कई बार ये उद्देश्य धार्मिक और राजनीतिक होते हैँ. सर मोनिअर-विलियम्स ने लिखा है कि संस्क़त के अध्ययन और कोश रचना के लिए आक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय को अनुदान नेटिवों को ईसाई बनाने में सहायता के लिए मिला था. विकसित देश कोशोँ की रचना में विशाल संसाधन लगाते हैँ. एक हम हैँ – कोशोँ के महत्त्व से निपट अनजान…
आदिम काल मेँ शब्द और संवाद केवल तात्कालिक संप्रेषण के लिए हुआ करते थे – जैसे सामूहिक शिकार मेँ परस्पर तालमेल के लिए, या फिर दैनिक परस्पर व्यवहार मेँ संकेतोँ के साथ साथ ध्वनियोँ का उपयोग, जो बाद मेँ सार्थक ध्वनियाँ (शब्द) बनती गईं. जैसे जैसे समाज का विकास होता गया, शब्दोँ से निर्मित वाक्योँ वाली भाषा के उपयोग का क्षेत्र बढ़ता गया. न केवल सामने वालोँ से कुछ कहना होता था, बल्कि जो सामने नहीँ होते थे उन्हेँ भी बताने की आवश्यकता होने लगी. अतः यह अवश्यंभावी था कि भाषा के द्वारा किसी घटना या अनुभव का संप्रेषण देश और काल की सीमा से परे होने लगे. शब्द मानव ज्ञान के संरक्षण का उपकरण बन गए. भाषा का विकास मानव के विकास के लिए एक आवश्यक शर्त बन गया. सच्चे और सही संप्रेषण के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया कि शब्दोँ के उपयोग का मानकीकरण हो. मानकीकरण की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए पहले छोटी छोटी शब्द सूचियाँ बनीं (जैसे वैदिक शब्दोँ वाला प्रजापति कश्यप का निघंटु… बाद मेँ तो हमारे यहाँ औषध आदि विषयोँ के निघंटु हुआ करते थे.) फिर अर्थों के मानक स्थापित करने के लिए शब्द व्याख्या कोश बने (जैसे यास्क का निरुक्त).
देश और काल की सीमाओँ ने भिन्न भाषाओँ को जन्म दिया. भिन्न भाषाओँ के बोलने वालोँ के बीच संप्रेषण के लिए दो लोग आमने सामने होँ तो दुभाषियोँ की, और सामने न होँ तो अनुवादकोँ की आवश्यकता आ पड़ी. इस के लिए द्विभाषी शब्दार्थ कोशोँ की रचना आरंभ हुई.
महत्वपूर्ण और स्मरणीय बात यह है कि कोशोँ का निर्माण समाज की आवश्यकताओँ की पूर्ति के लिए हुआ. कोश अपने युग के समाज का दर्पण थे और हैँ. समाज से तात्पर्य है – कोश का उपयोक्ता वर्ग, जो हमेशा किसी समाज विशेष मेँ स्थित होता है. उपयोक्ता की आवश्यकताओँ को जाने अनजाने समझ कर ही विभिन्न प्रकार के कोशोँ का निर्माण और प्रचलन हुआ. इन के आधार पर ही किसी कोश मेँ शब्दोँ के चुनाव और व्याख्याओँ की विशदता निर्धारित होती है. मोटा सा उदाहरण लें, तो किसी भी तकनीकी कोश और सामान्य कोश के शब्दोँ मेँ चयन का आधार और अर्थ व्याख्या का स्तर. किसी समाज मेँ अच्छे कोशोँ का न होना भी उस समाज का दर्पण है. इस से हमें पता चलता है कि उस समाज के लोग अपनी उन्नति के लिए उत्सुक नहीँ हैँ.
किसे कब किस विषय का कितना गहरा ज्ञान चाहिए – इस से भिन्न कोशोँ की रचना संचालित होती है. पश्चिमी देशोँ के अपनी भाषाओँ के आधुनिक शब्द कोशोँ और थिसारसों मेँ लगभग सारे संसार को समझने के सूत्र होते हैँ. उन मेँ विश्व के ज्ञान, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, दर्शन, साहित्य, राजनीति आदि विषयोँ के उन सभी देशी विदेशी शब्दोँ के साथ साथ उपकरणों, स्थानों और व्यक्तियोँ के वे सभी नाम होते हैँ जो उन भाषाओँ के बोलने लिखने वालोँ को पूरा संसार समझने मेँ मदद करते हैँ. इस के लिए उन देशोँ मेँ कोशकारिता को एक गंभीर गतिविधि के रूप मेँ लिया जाता है, और कोशोँ के नवीकरण की एक सतत प्रक्रिया होती है ताकि उन के देशवासी संसार मेँ पिछड़ न जाएँ. उन के प्रयासों को अपने समाज का पूरा समर्थन मिलता है. वे लोग पूरी तरह सजग रहते हैँ, और बात बात मेँ कोशोँ और थिसारसों का उपयोग करते हैँ.
यूरोप के प्रयास
जब यूरोप संसार को (और हमारे अपने संदर्भ मेँ ग्रेट ब्रिटेन हमें) समझने की और हम पर शासन करने की कोशिश कर रहा था तो उस ने हमारी भाषाओँ का सम्यक् ज्ञान पाने के लिए हमारी भाषाओँ के द्विभाषी अँगरेजी कोश बनाए. इन मेँ सब से उल्लेखनीय है – सर मोनिअर मोनिअर-विलियम्स की (बारीक़ टाइप मेँ 8.5"(11.75" आकार के तीन कालमोँ वाले 1,333 पृष्ठोँ की) अद्वितीय संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी. इस का पहला संस्करण 1872 मेँ प्रकाशित हुआ था. इस कोश की रचना मेँ सर मोनिअर-विलियम्स ने संस्कृत भाषा के दो जर्मन विद्वानों – ओटो बोःट्लिंक और रूडोल्फ़ रौथ – के सात खंडों वाले विशाल लेकिन अधूरे संस्कृत-जर्मन थिसारस का आभार प्रकट किया था.
यूरोप के लोग संस्कृत भाषा के साथ साथ हमारी तत्कालीन भाषाओँ मेँ रुचि मात्र यूँ ही नहीँ ले रहे थे. उस युग मेँ यूरोप पूरे विश्व पर छा रहा था, और पूरे विश्व का ज्ञान समेट लेना चाहता था. वे लोग अपनी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओँ की पूर्ति कर रहे थे. हमारी भाषाएँ समझ कर, उन के व्याकरण बना कर वे हमें समझने की कोशिश कर रहे थे और हमारी भाषाओँ पर अधिकार प्राप्त कर के उन मेँ अपने काम की पुस्तकें (जैसे बाइबिल के अनुवाद) बना कर वे हम तक अपना संदेश पहुँचा रहे थे. हम पर शासन करने के लिए उन्हेँ स्थानीय इतिहास और सामयिक सामाजिक परिस्थितियोँ की जानकारी की आवश्यकता थी. वे अपने देशवासी प्रशासकोँ को यहाँ की भाषाओँ मे निष्णात करते थे, दूसरी ओर वे नेटिवों को अपनी प्रशासन की भाषा – अँगरेजी – सिखाते थे. वे जानते थे और जानते हैँ कि शब्द शक्ति संसार की सब से बड़ी शक्ति है.
स्वयं सर मोनिअर-विलियम्स ने 1899 मेँ अपने कोश के नए संस्करण की भूमिका मेँ स्पष्ट लिखा है कि आक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय मेँ जिस पीठ के वह प्राध्यापक थे उस के लिए जो अनुदान मिला था वह कर्नल बोडन ने भारत के नेटिवों को ईसाई बनाने मेँ सहायता पहुँचाने के लिए किया था. सर मोनिअर-विलियम्स ने यह भी कहा है कि उन की भारत यात्राओँ मेँ उन्हेँ अपने उन अँगरेज छात्रों से विशेष सहयोग मिला जो यहाँ उच्च पदों पर आसीन थे.
वर्तमान अमरीकी गतिविधि
आज अमरीका मेँ शिकागो जैसे अनेक विश्वविद्यालय सरकार से प्राप्त विशाल अनुदानों के सहारे भारत की ही नहीँ, पूरे संसार की प्रमुख भाषाओँ को समझने के लिए कोशोँ के संकलन और संवर्धन मेँ लगे हैँ. यह उन की आंतरिक और वैदेशिक आवश्यकता है. आंतरिक इसलिए कि उन के यहाँ विश्व के अनेक देशोँ के लोग आ कर बस गए हैँ. वैदिशिक इसलिए कि आज अमरीका को पूरे विश्व के लोगोँ से संपर्क करना होता है. बिल्कुल वही प्रक्रिया चल रही है जो कभी ब्रिटेन ने चलाई थी. वे संसार की भाषाओँ और समाजों पर शोध कर रहे हैँ, और उन तक अपनी संस्कृति का प्रसार कर रहे हैँ. इस पर उन की सरकारेँ, विश्वविद्यालय और और निजी संस्थान अकूत राशि ख़र्च कर रहे हैँ. आजकल नागरी प्रचारिणई सभा का बाबू श्यामसुंदर दास का हिंदी शब्दसागर अब उन की सहायता से इंटरनैट पर निश्शुल्क उपलब्ध है.
जहाँ तक हमारा सवाल है, हमें आज के तकनीकी युग के अनुरूप अपने को बनाना है, देश की सभी उपसंस्कृतियोँ और भाषाओँ को आपस मेँ जोड़ना है, और विश्व मेँ अपने लिए स्थान बनाना है. हम चाहते हैँ कि हमें सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल जाए, और विश्व रंगमंच पर हम सक्रिय भूमिका निभाएँ. इस के लिए हमें अपनी भाषाओँ के विकास के साथ साथ पूरे विश्व को समझना होगा. हमें सभी विदेशी भाषाओँ की अच्छी जानकारी चाहिए. उचित ही है कि हमारे कई विश्वविद्यालयोँ मेँ रूसी, अरबी, फ़्राँसीसी, जर्मन, चीनी, जापानी जैसी अनेक विदेशी भाषाएँ पढ़ाई जा रही हैँ. हमें पूरे विश्व का ज्ञान हिंदी मेँ समेटने मेँ अँगरेजी हमारे लिए सुनहरी सीढ़ी का काम देगी. सौभाग्य से हमारे पास अँगरेजी जानने वालोँ का एक बड़ा समुदाय है.
स्वाधीनता संग्राम मेँ हमने अँगरेजी विरोध को संघर्ष का माध्यम बनाया. यह उस समय की हमारी राजनीतिक आवश्यकता था. आज हमें अँगरेजी विरोध की आवश्यकता क़तई नहीँ है. हम मानें या न मानें – आज अँगरेजी विश्व की प्रथम भाषा है. अँगरेजी की पुश्तैनी दुश्मन फ़्राँसीसी तक उस का महत्व स्वीकार कर चुकी है. और हम हैँ कि तोतोँ की तरह नारे लगाते रहते हैँ. पुराने ज़माने मेँ रहने वाले नेता आज भी हिंदी के नाम पर वोट माँगते हैँ. लेकिन जहाँ तक हमारे देश के आम आदमी का सवाल है वह अँगरेजी सीखने के लिए उतावला है. उस की यह उतावली अनुचित नहीँ है. हिंदी उसे उस के काम की जानकारी उपलब्ध नहीँ करा पाती, तो वह अँगरजी क्यों न सीखे? केवल राजभाषा घोषित हो जाने से तो हिंदी आम आदमी की आवश्यकताएँ पूरी नहीँ कर पाएगी!
हमारै यहाँ कोश कल्चर का अभाव
हमें हिंदी मेँ अभी बहुत कुछ करना है? मेरी यह राय लोगोँ को बुरी लग सकती है लेकिन यह कटु सत्य है कि अभी तक हिंदी मेँ विश्व स्तर का एक भी अच्छा और संपूर्ण कोश नहीँ है – न हिंदी-हिंदी कोश, न अँगरेजी-हिंदी और न हिंदी-अँगरेजी. जहाँ तक संदर्भ सामग्री का सवाल है - वह तो है ही नहीँ. यदि मथुरा या काशी का कोई नौजवान चेन्नई या थिरुअनंतपुरम या दिल्ली या फिर हरिद्वार जाता है, तो उस की सहायता के लिए हिंदी मेँ क्या कोई काम की नगर पुस्तिकाएँ हैँ? हार कर उसे अँगरेजी की शरण मेँ जाना पड़ेगा. इस दिशा मेँ जो थोड़ा बहुत काम हुआ है वह घटिया है. अपने आम लोगोँ को ज्ञानविज्ञान से संपन्न बनाए बिना हम आज के संसार मेँ कैसे खड़े रह सकते हैँ? ख़ासकर ऐसे संसार मेँ जो दिन प्रति दिन बिजली की, इलैक्ट्रौनिकी की, गति से छलाँगता बढ़ रहा है.
विकसित देशोँ मेँ कोशोँ पर जितना काम हो रहा है, इस के लिए जिस प्रकार के स्थायी संस्थान उन्होंने बनाए हैँ, उस से मुक़ाबला करेँ, तो… साफ़ है कि हमें अभी मीलोँ दूर जाना है.
हमारी सब से पहली आवश्यकता थी एक तकनीकी शब्दावली का निर्माण औऱ विकास. इस सिलसिले मेँ आज़ाद होते ही हम ने पंडित नेहरू की सक्रिय प्रेरणा से तत्पर क़दम उठाए. तमाम सीमाओँ के रहते हिंदी मेँ नई शब्दावली के विकास मेँ जो काम हुआ, वह पिछले पचास वर्षों को नई हिंदी के निर्माण का स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी बनाता है.
लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर हमारे वर्तमान समाज मेँ कोश कल्चर का नितांत अभाव है. हमारे यहाँ न तो कोशकारिता की कोई सतत नवीकरणशील प्रक्रिया है, न कोशोँ के प्रति सम्यक् जागरूकता है. हमारे पास आर्क्स्फ़ड यूनिवर्सिटी प्रैस, वैब्स्टर, मैकमिलन, चैंबर्स जैसे कितने संस्थान हैँ जो कोशोँ के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया मेँ संलग्न होँ? भारत सरकार के विभागोँ की बात छोड़ दीजिए. वे नए नए कोश (ये परिभाषा कोश नहीँ होते) बनाते रहे हैँ. लेकिन उन कोशोँ मेँ नए शब्द जोड़ने के प्रति वे भी उत्सुक नहीँ हैँ. इस के लिए उन के पास न मानसिकता है, न संसाधन.
आरंभ मेँ हिंदी साहित्य सम्मेलन और नागरी प्रचारिणी सभा ने, बाद मेँ ज्ञान मंडल ने, कोशोँ के निर्माण मेँ बाक़ायदा संस्थागत स्तर पर काम किया. खेद की बात है कि वह प्रक्रिया सामूहिक या संस्थागत स्तर पर आगे नहीँ बढ़ सकी. कई व्यावसायिक प्रकाशक कोश प्रकाशित करते हैँ. लेकिन उन मेँ से कितने हैँ जो सुनिश्चित आधार पर अच्छे कोश बनवाते, उन पर अपनी जेब से ख़र्च करते और उन का सतत नवीकरण करते हैँ? जो भी गतिविधि है, उसे कोई सुनियमित और सुनियोजित प्रक्रिया नहीँ कहा जा सकता.
कोश रचना की प्रक्रिया हमारे यहाँ कुटीर उद्योग बन कर रह गई है. कुछ कटिबद्ध लोग अपनी कल्पना के अनुरूप कोश बनाते हैँ और प्रकाशकोँ को देते हैँ. हिंदी मेँ आजकल अधिकांश अच्छे कोश डाक्टर हरदेव बाहरी या डाक्टर बदरीनाथ कपूर जैसे मेहनती कोशकारों की अपनी लगन के परिणाम हैँ. इन जैसे जो भी लोग सक्रिय हैँ, वे सब पूरे समाज की उपकार भावना के अधिकारी हैँ. कई अन्य लोगोँ ने अपने बलबूते पर, और कई बार संबद्ध विदेशी संस्थानों से सहायता पा कर, अँगरेजी-इतर भाषाओँ के अनेक द्विभाषी हिंदी कोश बनाए हैँ.
कोशकारोँ को मिलता ही कुल कितना है
मुझे पता नहीँ कि दिन रात मेहनत कर के बड़ी लगन के साथ बनाए अपने कोशोँ के लिए उन्हेँ कितनी राशि मिलती है. हमारे प्रकाशकोँ के पास संसाधन जितने कम बताए जाते हैँ, सच्ची उद्यमशीलता उस से भी कम है, और रचेताओँ लेखकोँ को कुछ देने की इच्छा तो और भी कम है. इस संदर्भ मेँ इस तथ्य का उल्लेख अनुचित न होगा कि निजी प्रकाशकोँ से समुचित रायल्टी मिलने की प्रत्याशा छोड़ कर डाक्टर बाहरी ने अपने कोश एकमुश्त राशि पर देना शुरू कर दिया था. जहाँ तक हमारे (मेरे और श्रीमती कुसुम कुमार के) समांतर कोश–हिंदी थिसारस का सवाल है, सौभाग्य से उस का प्रकाशन भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया है, और साधारण पाठक तक उसे पहुँचाने के उद्देश्य से उस का मूल्य भी बहुत कम रखा है. (दो सुंदर सजिल्द खंडों मेँ 1,768 पृष्ठोँ वाले कोश का मूल्य कुल रु. 600 है.) उस के लिए हमें नियमित रायल्टी मिलती है – क्योंकि सरकार मेँ कुछ भी कमियाँ होँ, वह रायल्टी मेँ चोरी नहीँ करती!
अभी हाल मेँ पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित हमारे नवीनतम कोश The Penguin English-Hindi/Hindi-English Thesaurus and Dictionary द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश डिक्शनरी ऐंड थिसारस का मूल्य ज़रूर 3,9999.00 रु है. लेकिन बड़े मज़बूत सुंदर महँगे डिब्बे मेँ सजिल्द तीन भारी भरकम वौल्युमोँ की क़ीमत इस से कम रखना प्रकाशकोँ के लिए संभव न हो सका. यहाँ यह बात भी ध्यान रखने की है कि इस के ए-4 साइज़ के तीनों खंडों मेँ बारीक़ टाइप मेँ छपे चार चार कालमोँ मेँ बहुमूल्य और उपयोगी सामग्री ठसी पड़ी है. इस अंततराष्ट्रीय प्रकाशक की ख्याति रोयल्टी के भुगतान मेँ त्रुटिहीन है. (ख़ुशी की बात यह है कि अब हमारी अपनी कंपनी अरविंद लिंग्विस्टिक्स ने इस के सर्वाधिकार और वितरण अधिकार अपने पास ले लिए हैँ, और कम क़ीमत पर बेच पा रही है.)
कोशकार को कुल 20-25 हज़ार रुपए मिले!
दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध हिंदी सेवा संस्था ने बड़ी शान से अपनी पत्रिका मेँ यह सूचना दी है कि उन्होंने अपना लोकप्रिय कन्नड़-हिंदी कोश उस के रचेता को 20-25 हज़ार रुपए की विशाल (!) राशि दे कर प्रकाशित किया था. अब तक इस कोश के कई संस्करण निकल चुके हैँ. लेकिन इस के रचेता को बस उतने ही रुपए मिले हैँ. वाह!
स्पष्ट है कि इस प्रकार कम आय पर कोशोँ की रचना और उन के सतत नवीकरण का कोई महत् प्रयास नहीँ किया जा सकता. अपने निजी अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि समांतर कोश की रचना मेँ हमें कहीँ से किसी प्रकार की कोई सहायता नहीँ मिली. कहा जा सकता है कि अपनी तरह के इस अनोखे कोश पर, जो आज बहुचर्चित है, तीस साल पहले जब हम ने उस पर काम शुरू किया था, तो हिंदी संस्थानों और प्रकाशकोँ को उस जैसे कोश की संभावनाओँ का अनुमान नहीँ था. लेकिन अब…? है कोई ऐसा संस्थान जो उसे आगे बढ़ाने मेँ अपना पैसा लगाएगा? हाँ, हम (हम ही नहीँ, सभी सक्रिय कोशकार) अपने बलबूते पर इस दिशा मेँ अब भी काफ़ी कुछ कर रहे हैँ.
और बहुत कुछ है जो शब्दावलियोँ के संकलन मेँ किया जा सकता है. जनभाषा के अधिकांश तकनीकी शब्द हमारे कोशोँ मेँ अभी तक नहीँ पहुँचे हैँ. दम और संसाधन होँ, तो हम इन शब्दोँ का सुनियोजित संकलन कर सकते हैँ और वह कृत्रिमता दूर कर सकते हैँ जो हमारे कोशोँ मेँ दिखाई देती है.
अभी तक हमारी हिंदी परिवार की ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, गढ़वाली जैसी भाषाओँ मेँ कोश नहीँ हैँ, हैँ तो वे अच्छे नहीँ हैँ. ये भाषाएँ ही नहीँ, हम चाहेँ तो कंप्यूटर पर न सिर्फ़ हिंदी परिवार की ये भाषाएँ, बल्कि सारे भारत की सभी भाषाओँ के कोश एक लड़ी मेँ पिरोए जा सकते हैँ. और उन सभी भाषाओँ के शब्दोँ का परस्पर संबद्ध विशाल डाटाबेस या महाविश्वकोश तैयार कर सकते हैँ, और उसे विश्व की सभी भाषाओँ से जोड़ सकते हैँ. इस के लिए एक दो वर्ष नहीँ बल्कि कई दशक, दो तीन आदमी नहीँ बल्कि एक पूरी बड़ी टीम चाहिए.
(फ़ुटनोट – अब अरविंद लैक्सिकन इस दिशा मेँ कुछ ठोस क़दम उठाने वाली है. सब से तमिल और चीनी भाषाएँ जोड़ने की प्रक्रिया पर विचारविमर्श हो रहा है.)
आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
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