संस्कृत भी आसानी से पढ़ी जा सकती है, अगर…

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गीता संस्कृत के मधुरतम ग्रंथों में से है. वह एक ऐसा गीत है जो स्वयं कृष्ण ने गाया था. उस के श्लोक गाने के लिए रचे गए हैं. लेकिन गाना तो दूर, आज कितने गीता प्रेमी हैं जो उन का सही पाठ तक कर सकें?

प्राचीन ग्रंथों को आज के साधारण हिंदी पाठक तक पहुँचाने के लिए हमें केवल उन के सहज हिंदी अनुवाद करने होंगे, बल्कि उन का मूल पाठ भी आम आदमी के लिए सुगम बनाना होगा. गीता के संदर्भ में यह आवश्यकता और भी अधिक है.

 

क्या आप नीचे लिखी हिंदी की दो अत्यंत प्रसिद्ध काव्य पंक्तियाँ पढ़ और समझ सकते हैं?

अयिदयामयिदेविसुखदेसारदे

इधरभीनिजवरदपाणिपसारदे

नहीं न! इस का कारण यह नहीं है कि हिंदी कोई बहुत कठिन भाषा है या आप को हिंदी नहीं आती. इस का एकमात्र कारण यह है कि इन पंक्तियों में पृथक् शब्दों को अलग अलग नहीं बल्कि मिला कर लिखा गया है.

आजकल शब्दों को अलग अलग लिखने का चलन है. हर दो शब्दों के बीच ख़ाली जगह छोड़ दी जाती है. इस से लाभ यह होता है कि पाठक एक एक शब्द को अलग अलग पढ़ता है. पढ़ते पढ़ते उस का मस्तिष्क एक एक शब्द की ध्वनि और अर्थ को आसानी से आत्मसात करता रहता है.

पुराने ज़माने में शब्दों के बीच ख़ाली जगह छोड़ने का चलन नहीं था. हिंदी की कोई प्राचीन हस्तलिखित पोथी देखने का अवसर मिले तो आप पाएँगे कि उस में पंक्ति के सब शब्दों को आपस में मिला कर लिखा गया है. ऐसी पुस्तकों को पढ़ना टेढ़ी खीर होता था. इस से पहले कि दिमाग़ किसी वक्तव्य का अर्थ समझ पाए, आँखों को शब्दों के व्यक्तित्व और आकार की पहेली हल करनी पड़ती थी. पता ही नहीं चलता था कि एक शब्द कहाँ ख़त्म हुआ और दूसरा कहाँ शुरू.

ऊपर वाली दानोँ पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के अत्यंत लोकप्रिय काव्य साकेत के प्रथम सर्ग की पहली दो पंक्तियाँ हैं. इन का वास्तविक रूप है :

अयि दयामयि देवि सुखदे सारदे

इधर भी निज वरद पाणि पसार दे

अब आप ने देखा शब्दों के बीच ख़ाली जगहें न हों तो हिंदी पढ़ना संस्कृत पढ़ने से कोई बहुत ज़्यादा आसान नहीं है.

शब्दों को मिला कर लिखने की शैली संस्कृत भाषा में इस से कहीं अधिक जटिल है. संधि और समास मिल कर संस्कृत को एक दुरूह भाषा बना देते हैं.

संधि और समास के कारण संस्कृत में शब्दों की लंबी लंबी शृंखलाएँ बनती चली जाती हैं :

शीत और उष्ण में, सुख और दुःख में            = शीतोष्णसुखदुःखेषु

ज्ञान  विज्ञान से तृप्त हो गई है आत्मा जिस की  = ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा

 

ये शब्द शृंखलाएँ लंबी और लंबी होती चली जाती हैं :

युञ्ज्यात्+योगं+आत्म+विशुद्धये = युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये

 

बढ़ते बढ़ते यह शृंखला कई बार पूरी एक पंक्ति बन जाती है. उदाहरण के लिए गीता के अठारहवें अध्याय के अड़तीसवें श्लोक की पहली पंक्ति देखिए :

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोमम्

 

अनभ्यस्त पाठक का मन ऐसी पंक्ति को ग्रहण करने से इनकार कर देता है क्यों कि वह इस के अनेक घटकों को स्वतंत्र रूप से ग्रहण नहीं कर पाता.

आहिस्ता आहिस्ता, रुक रुक कर, इस के एक एक अक्षर पर आँख टिका कर, उस का उच्चारण करते हुए आगे बढ़ें, तो इस पंक्ति को पढ़ा जा सकता है. इस का सस्वर पाठ भी किया जा सकता है. लेकिन साधारण जनों के लिए यह भारी काम है. ऐसी ही पेचीदगियों ने संस्कृत भाषा को जन साधारण से दूर कर दिया. परिणाम यह हुआ कि संस्कृत में ज्ञान विज्ञान का जो विशाल भंडार है, वह जनता की पहुँच से बाहर होता चला गया.

अब हम यह कर सकते हैं…

हम अब ऐसा क्या कर सकते हैं कि एक बार फिर पाठक संस्कृत के नज़दीक पहुँच सके? सब से अच्छा रास्ता तो यही है कि पाठक एक बार फिर संस्कृत का पंडित बन जाए. लेकिन यह रास्ता आज संभव नहीं मालूम पड़ता. हम कितनी ही कोशिश करें, अब आम आदमी संस्कृत नहीं पढ़ेगा.

दूसरा रास्ता यह है कि स्वयं संस्कृत आज के पाठक के पास किसी सहज सुलभ रूप में पहुँचे.

स्पष्ट है कि सहजीकरण की किसी भी प्रकिया में हम संस्कृत की शब्दावली और उस के व्याकरण को नहीं बदल सकते. न ही हम संधि और समास के नियमों से छुट्टी पा सकते हैं. वे संस्कृत की रचना प्रक्रिया का अभिन्न अंग हैं.

साथ ही यह भी स्पष्ट है कि आज के पाठक की अनभ्यस्त आँखें ऐसी दुरूह पंक्तियों को नहीं पढ़ सकतीं.

अगर संस्कृत की ऐसी पंक्तियों को आम आदमी से पढ़वाना है तो उन्हें नागरी लिपि में इस प्रकार लिखना होगा कि जहाँ तक संभव हो वहाँ पाँच छः वर्णों के बाद पाठक की आँख को कोई राहत मिल जाए–या तो उसे दो शब्दों के बीच में ख़ाली जगह मिल जाए या कोई ऐसा चिह्न आ जाए कि उस की आँख को टिकने का अवसर मिल जाए और वह उन शब्दों को आसानी से पढ़ सके. यह सब इस प्रकार करना होगा कि मूल संस्कृत पाठ की ध्वनियों में कहीं परिवर्तन न हो, व्याकरण के सभी नियमों का पालन हो और संस्कृत की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ न हो.

इस पंक्ति को पाठक से पढ़वाने का एक सहज रास्ता यह है कि हम इस की संधियों और समासों का विग्रह कर दें. तब हमें यह ऐसी मालूम पड़ेगी :

विषय इन्द्रिय संयोगात् यत् तत् अग्रे अमृत उपमम्

(विषय और इंद्रिय के संयोग से जो है वह आरंभ में अमृत के समान है.)

इस प्रकार लिखें तो यह पंक्ति पढ़ने में आसान हो जाती है. लेकिन गीता के मूल श्लोक में अनेक दोष पैदा हो जाते हैं.

गीता महर्षि वेद व्यास जैसे महाकवि की रचना है. इसे उन्हों ने भगवान कृष्ण के मुख से निकले गीतमय उपदेश के तौर पर रचा है. इस में उन का काव्य सौष्ठव अपने चरमोत्कर्ष पर है. इस के एक भी शब्द को बदलने से या ध्वनि के क्रम में परिवर्तन लाने से बड़ा अनर्थ हो सकता है. अतः आज के पाठक के लिए गीता के श्लोकों का सहज संस्करण करने के नाम पर न तो इस के किसी शब्द का रूप बिगाड़ा जा सकता है न इस के उतार चढ़ाव में परिवर्तन किया जा सकता है.

ऊपर संधि समास विच्छेद कर के गीता की पंक्ति को जिस प्रकार लिखा गया है वह पढ़ने में कितनी ही आसान हो, उस से छंद को बहुत भारी नुक़सान पहुँचा है. आप स्वयं देखें :

मूल ध्वनि          विकृत ध्वनि 

विषयेन्द्रिय         विषय इंद्रिय 

संयोगाद्यत्         संयोगात् यत् 

तदग्रेऽमृतोपमम्      तत् अग्रे अमृत उपमम्    

 

गीता के श्लोक के प्रवाह में इतना परिवर्तन पूरी तरह अस्वीकार्य है.

संस्कृत ही नहीं अन्य अनेक भाषाएँ हैं, जहाँ संधि अनिवार्य है. उदाहरण के लिए आधुनिक फ्रांसीसी भाषा. अंतर केवल इतना है कि संस्कृत में संधिगत ध्वनियों को आपस में मिला कर लिखने का नियम है, जब कि आधुनिक फ्रांसीसी भाषा में सब शब्द अलग अलग लिखे जाते हैं. बोलते समय पाठक उन की संधि करता जाता है और संधिगत ध्वनियों का संयुक्त उच्चारण करता रहता है.

मूल संस्कृत पाठ का सहज संस्करण बनाने के लिए संस्कृत और फ़्रांसीसी भाषाओं के बीच का एक तीसरा रास्ता भी हो सकता है.

जैसा कि मैं ने पहले भी कहा–हम यह तो चाहते ही हैं कि गीता के श्लोकों को पढ़ना आसान हो जाए, पर इस के साथ साथ हम यह भी चाहते हैं कि उन की मूल ध्वनियाँ जैसी की तैसी बनी रहें, छंद के प्रवाह में कहीं परिवर्तन न हो, और संस्कृत के व्याकरण और उस की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ न हो.

इन सब पाबंदियों को पूरी तरह निबाहते हुए, अब हम उसी पंक्ति को इस तरह लिखते हैं :

विषयेन्द्रिय-संयोगाद् यत् तद् अग्रेऽमृतोपमम्

 

इस तरह लिखने की शैली को हम सहज संस्कृत शैली कह सकते हैं. इस में संधि और समास का वैयाकरणिक विग्रह नहीं किया गया है, बल्कि उन के आधार पर यथासंभव तथा यथोचित स्थानों पर समीचीन ध्वनि विच्छेद किया गया है. इस ध्वनि विच्छेद का, और कहीं कहीं बीच में डाले गए हाइफ़न आदि चिह्नों का, उद्देश्य मात्र इतना है कि शब्दों के बीच में ख़ाली जगह छोड़ने की गुंजाइश निकाली जा सके. जहाँ यह गुंजाइश न मिले, वहाँ आधुनिक पाठक की आँख को राहत देने के लिए कोई चिह्न डाला जा सके.

सिर्फ़ उच्चारण की सहजता का ध्यान रखना हो, तो किसी भी शब्द को कहीं से भी मन माने तौर पर तोड़ कर ध्वनि विच्छेद किया जा सकता है. लेकिन वैसा करना भाषा के साथ खिलवाड़ करना होगा.

उदाहरण के लिए विषयेन्द्रिय या तच्छ्रुत्वा को लीजिए. इन्हें विषय् एन्द्रिय या तच् छ्रुत्वा लिखें तो हम छंदों का सही सही पाठ कर सकते हैं. पर संस्कृत भाषा के शब्दों को इस प्रकार बिगाड़ कर हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते.

संस्कृत में न तो किसी प्रकार विषय् बन पाता है (विषयशब्द के किसी भी रूप में या किसी भी संधिगत विकार से (‘विषय् प्राप्त नहीं होता), न ही कोई एन्द्रियशब्द बनता है. के साथ संधि होने पर तत् के त् का च् और श्रुत्वा के श् का छ् अवश्य हो जाता है लेकिन छ्रुत्वा का कोई स्वतंत्र आधार नहीं है. एन्द्रिय और छ्रुत्वा शब्दों को किसी सहज पाठ में देख कर अनभिज्ञ पाठक को संस्कृत शब्द संपदा के बारे में ग़लत अनुमान होगा, और संस्कृत ज्ञाताओं की भावनाओं को ये विकृत और आधारहीन शब्द ठेस पहुँचाएँगे. इन में से कोई भी प्रतिक्रिया हमें वांछनीय नहीं है. हमारी इच्छा तो बस यही है कि आज पाठक संस्कृत से कतराना बंद कर दे. वह संस्कृत के नज़दीक आए, उसे पसंद करे, उस के ग्रंथों का आनंद ले, और धीरे धीरे शास्त्रीय संस्कृत की ओर आकर्षित हो.

सहज गीता में ध्वनि विच्छेद बस वहीं किया गया है : जहाँ वह पूरी तरह व्याकरणसम्मत था, जहाँ केवल पहले शब्द की अंतिम ध्वनि के संधिगत विकार को बरक़रार रख कर काम चल सकता था, और जहाँ दूसरे शब्द की पहली ध्वनि में विकार नहीं होता. एक दो उदाहरण प्रस्तुत हैं.

गीता के पहले अध्याय के 21 वें श्लोक में यह शब्द समूह आता है :

सेनयोरुभयोर्मध्ये

इस का संधि विग्रह और ध्वनि विकार क्रमशः इस प्रकार हैं :

सेनयोः + उभयोः + मध्ये

सेनयोर् + उभयोर् + मध्ये

संधि करते समय सेनयोः और उभयोःके विसर्गों का रेफ अर्थात र् हो जाता है, जिसे हम हिंदी में आधा र कहते हैं. यह र् अपने सामने वाले शब्दों की प्रारंभिक = ध्वनियों के साथ मिल कर पहली बार रु बन जाता है, और दूसरी बार के ऊपर का जा कर र्म लिखा जाता है. हम इस विकार यानी विसर्ग के नए रूप र् को यथावत् स्वीकार कर लेते हैं, क्यों कि यहाँ समास के लिए उन में संबंध स्थापना की आवश्यकता नहीं है, और उन्हें अलग लिखना व्याकरण के नियमों के अनुरूप भी है. अब हमें इस शब्द समूह का निम्न रूप मिलता है :

सेनयोर् उभयोर् मध्ये

इसे पढ़ने में कोई दिक़्क़त नहीं है. इस रूप से न शब्द ग़लत ढंग से टूटते हैं, न व्याकरण को चोट पहुँचती है, न छंद भंग होता है.

इस प्रकार के कुछ और उदाहरण देखिए :

मूल गीता में        संधि विग्रह                सहज गीता में     

पाण्डवाश्चैव         पाण्डवाः च एव            पाण्डवाश् चैव

प्राणांस्त्यक्त्वा       प्राणान् त्यक्त्वा             प्राणांस् त्यक्त्वा

पापादस्मान्निवर्तितुम् पापात् अस्मात् निवर्तितुम्               पापाद् अस्मान् निवर्तितुम्

प्रवदन्त्यविपश्चितः   प्रवदन्ति अविपश्चितः       प्रवदन्त्य् अविपश्चितः

 

ये सब उदाहरण ऐसे हैं जहाँ शब्द शृंखलाओं को सहज पठनीय शब्दों या शब्द समूहों में विभाजित करने के लिए ध्वनि विच्छेद करना अपेक्षाकृत आसान था. इन में समास और संधि एक साथ उपस्थित नहीं थे.

संस्कृत में अकसर विशेषण और विशेष्य को मिला कर एक शब्द बना दिया जाता है. फिर उसे एक शब्द मान कर उस के रूप चलाए जाते हैं. ऐसे स्थलों पर अगर हम उन शब्दों को, विशेषण और विशेष्य को, अलग अलग कर दें, तो संस्कृत के व्याकरण की हानि होती हैक्यों कि अलग अलग रखे होने पर विशेषण में अपनी विभक्ति का लगना आवश्यक होता है. इसी प्रकार की कई अन्य व्याकरणीय समस्याएँ हैं जिन के कारण समास का विच्छेद करना अनुचित हो जाता है. अगर विच्छेद न करें तो कई बार इतने सारे वर्ण इकट्ठा हो जाते हैं कि हिंदी पाठक के लिए उन से जूझना कठिन हो जाता है.

इस संकट से उबरने के लिए आजकल हमारे पास हाइफ़न का चिह्न है. इसे समासों के बीच में डाल कर हम किसी भी लंबी शब्द शृंखला को छोटे छोटे सहज खंडों में विभक्त कर सकते हैं. इस से पाठक की आँख को राहत के स्थान मिल जाते हैं और व्याकरण की आत्मा की भी रक्षा हो जाती है.

इस प्रकार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैंं :

पाण्डु-पुत्राणाम्

द्रुपद-पुत्रेण

नाना-शस्त्र-प्रहरणाः

कुल-क्षय-कृतम्

उत्सन्न-कुल-धर्माणाम्

राज्य-सुख-लोभेन

 

संस्कृत के अपने कई ऐसे चिह्न हैं जो स्वाभाविक रूप से शब्दों के बीच उपस्थित होते हैं. इस से भी हमारा काम आसान हो जाता है.

इन में से एक चिह्न है विसर्ग (ः). विसर्ग का उपयोग संस्कृत में महाप्राण उच्चारण के संकेत के तौर पर किया जाता है. जैसै : सर्वः. इस में हमें सर्व के के बाद का हल्का सा पुट देना होता है. कई बार यह चिह्न समासगत शब्दों के बीच में आ जाता है :

नभःस्पृशम्

यहाँ बीच में हाइफ़न डालना न तो उचित है, न संभव ही. अगर डालेंगे तो यह कोलन डैश जैसा मालूम पड़ेगा :- . इस की ज़रूरत भी नहीं है, क्यों कि विसर्ग के ये दो बिंदु हमारी आँखों को कुछ राहत तो दे ही रहे हैं.

इसी प्रकार का एक चिह्न हैप्लुत या गुरु का चिह्न (ऽ). संस्कृत में यह { या { की मात्राओं वाले उन शब्दांतों में मिलता है जहाँ अगला शब्द + से शुरु हो रहा हो, लेकिन + का लोप दर्शाना अभिप्रेत हो. जैसे :

अग्रेऽमृतोपमम्

ईश्वरोऽपि

यह चिह्न भी हम जैसे पाठकों की आँखों को राहत देने का काम करता है. कई बार तो यह बड़े आड़े वक़्त काम आता है. एक उदाहरण देखिए :

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो

इन चिह्नों के बावजूद कभी कभी लंबे शब्द समूह उपस्थित हो जाते हैं. उन्हें घटकों में बाँटने का कोई सहज और स्वीकार्य रास्ता नज़र नहीं आता. अगर उन शब्द शृंखलाओं को टुकड़ों में न बाँटें, तो पढ़ने मे सहजता प्राप्त नहीं होती. यह समस्या अधिकतर ऐसी जगहों पर पैदा होती है जहाँ दो समान स्वर आपस में मिल कर एक संयुक्त दीर्घ स्वर को जन्म देते हैं

इन्द्रियाणि + इन्द्रियार्थेभ्यः    =          इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः

र्वत्म + अनुवर्तन्ते                  =          र्वत्मानुवर्तन्ते

ऐसी संधि वाले शब्द समूहों को टुकड़ों में बाँटने के लिए हमें ध्वनि विच्छेद से कोई ऐसी सहायता नहीं मिलती जो हमारी मूल आवश्यकता को पूरा कर सके, जो गीता की मूल ध्वनियों की और छंद की रक्षा करे और इन्हें पढ़ने में सहज बना सके.

ऐसे स्थलों पर आँखों को राहत देने के लिए मैं ने डबल प्लुत के चिह्न (ऽऽ) का उपयोग किया है. यह प्रयोग कोई नया नहीं है. दीर्घ अकार (आ) वाली संधियों के अवसर पर इस का प्रयोग पहले से चला आता है. उदारणार्थ : शंकराचार्य का गीता भाष्य और स्वामी दयानंद सरस्वती का सत्यार्थ प्रकाश. मैं ने इस डबल प्लुत के उपयोग क्षेत्र का विस्तार कर दिया है, और अनेक अवसरों पर इस की सहायता ली है. जैसे :

र्वत्माऽऽनुवर्तन्ते

इन्द्रियाणीऽऽन्द्रियार्थेम्यः

जहाँ तक संभव था वहाँ शब्दों के बीच ख़ाली जगह छोड़ने का, और जहाँ यह संभव नहीं था, वहाँ आवश्यकता पड़ने पर शब्दों के बीच में कोई चिह्न लगाने का उद्देश्य बस इतना है कि पाठक संस्कृत भाषा से कतराना बंद कर दे. वह गीता जैसे अपने प्रिय ग्रंथों को स्वयं पढ़े, शौक़ से पढ़े. लंबी लंबी शब्द शृंखलाएँ आएँ तो डरे नहीं, ऊबे नहीं, उन्हें पढ़ ले.

इसी उद्देश्य से गीता से इस सहज संस्करण में गीता के तमाम श्लोकों को इस शैली में उतारा गया है. इस से

1.       कहीं किसी श्लोक की किसी ध्वनि में कोई दोष नहीं आया है.

2.       किसी श्लोक का छंद नहीं टूटा है, प्रवाह और उतार चढ़ाव नहीं बदला है.

3.       कहीं किसी शब्द का आरंभिक रूप नहीं बदला है.

4.       संस्कृत की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ नहीं हुई है.

5.       व्याकरण का कोई नियम भंग नहीं हुआ है.

आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ

©अरविंद कुमार

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