अक्षरम् द्वारा आयोजित छठे अंतरराष्ट्रीय उत्सव 1-2-3 फ़रवरी 2008 नई दिल्ली के
हिंदी अध्ययन और अनुसंधान सत्र के लिए
मैट्रिक मेँ नवीं कक्षा वाले शास्त्रीजी का नाम मुझे याद नहीँ. उन का पांडित्य मुझे याद है. उन के बाद उसी वर्ष आए हरभजन सिंह जी. पहली बार अध्यापन कर रहे थे, बाद मेँ उन्होँ ने डाक्टरेट की, ख़ालसा कालिज मेँ अँगरेजी के विभागाध्यक्ष बने, और पंजाबी कविता पर अमिट छाप छोड़ गए. मुझे उन्होँ ने जो दिया वह मैँ नहीँ भूल सकता. हिंदी शब्द संपदा मेँ मेरी रुचि उन्हीँ की देन है…
आजकल स्कूलोँ मेँ बच्चोँ को नहीँ बताया जाता कि उन्हेँ कोश देखने चाहिएँ. हिंदी के कई शिक्षक न कोश देखते हैँ न विद्यार्थियोँ को कोश देखना सिखाते हैँ. मैट्रिक तक तो क्या, कालिज स्तर तक यही हाल है,
सब से पहले मैँ अध्यक्ष महोदय प्रो. हरमन वान आलफ़न को नमस्कार करता हूँ. मैँ कह नहीँ सकता कि उन्हेँ अध्यक्ष के रूप मेँ देख कर मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है. इस का एक ख़ास कारण है–हमारे नवीनतम कोश द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी पर लगभग एक साल तक काम टैक्सस मेँ हुआ–डैलस मेँ. एक साल टैक्सस के उत्तरवर्ती राज्य ओक्लाहोमा के टुलसा नगर मेँ हम ने इस पर काम किया. हम लोग टैक्सस की राजधानी आस्टिन भी गए थे. वहाँ हम ओ’ हेनरी की पदचर्या पर चले. विश्वविद्यालय परिसर मेँ कार द्वारा घूमे भी. काश, मुझे पता होता कि वहाँ हिंदी पीठ है, और उस के अध्यक्ष पद पर आलफ़न जैसे सुहृद विराजमान हैँ. तब मैँ उन से अवश्य मिलता. ख़ैर, देर आयद दुरुस्त आयद. अब उन के दर्शन हो गए. तब मेरे पास दिखाने के लिए समांतर कोश तक की प्रति नहीँ थी, और नए द्विभाषी कोश के डाटा का काम ही चल रहा था.
इस के बाद मैँ नमस्कार करता हूँ श्री महेंद्र वर्मा को. पहली तारीख़ को सुबह वाले सत्र मेँ हम लोग आसपास की कुरसी पर थे. वह हम लोगोँ की पहली मुलाक़ात थी. उन के काम के बारे मेँ पता चला. मैँ आभारी हूँ कि आज वह मुख्य अतिथि के रूप मेँ इसी मंच पर हैँ.
प्रो. श्रीशचंद्र जैसवाल और मैँ आजकल सहकर्मी हैँ. मुझे गर्व है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के लिए मुझे उन की हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना के संपादन का आनरेरी भार सौंपा गया है. मुझे विश्वास है कि हम लोग हिंदी परिवार की ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी से ले कर पहाड़ी, गढ़वाली आदि भाषाओँ के बिल्कुल नई तरह के 48 कोश बन पाएँगे. अभी हम लोग एक तरह से ज़मीन परख रहे हैँ और चार कोशोँ पर फ़ील्ड मेँ डाटा संकलन कर रहे हैँ. कोशिश है कि इस साल के अंत तक दो तीन कोश हम ले आएँ. देखेँ क्या होता है! (नोट- इस के अगले वर्ष मैँ ने केंद्रीय हिंदी संस्थान से संबंध समाप्त कर दिया. तब तक भोजपुरी कोश प्रकाशित हो चुका था.)
मित्रो, विशेषकर विमलेश जी, गिरिराज जी, नवीन चंद जी, बल्गेरिया से आई मोना कौशिक जी और संचालक राजेश जी–तथा सभागार मेँ बैठे मेरे सभी मित्रो—
आप सब हिंदी शिक्षण मेँ, अध्ययन और अनुसंधान मेँ दिग्गज हैँ. मैँ अपने आप को केवल एक छोटे से विषय पर केंद्रित करूँगा—कोशोँ और थिसारसोँ का शिक्षण मेँ उपयोग. हिंदी और अँगरेजी शिक्षण से मेरा संबंध सत्तर साल पुराना है, लेकिन एकतरफ़ा. मैँ कक्षा मेँ बैठ कर शिक्षकोँ से सीखता था, कुछ शिक्षक शिष्योँ पर अमिट छाप छोड़ जाते हैँ और भाषा के संस्कार दे जाते हैँ. मैट्रिक मेँ नवीं कक्षा वाले शास्त्रीजी का नाम मुझे याद नहीँ. उन का पांडित्य मुझे याद है. उन के बाद उसी वर्ष आए हरभजन सिंह जी. पहली बार अध्यापन कर रहे थे, बाद मेँ उन्होँ ने डाक्टरेट की, ख़ालसा कालिज मेँ अँगरेजी के विभागाध्यक्ष बने, और पंजाबी कविता पर अमिट छाप छोड़ गए. मुझे उन्होँ ने जो दिया वह मैँ नहीँ भूल सकता. हिंदी शब्द संपदा मेँ मेरी रुचि उन्हीँ की देन है. वह छात्रोँ को पर्यायवाची बनाने के गुर सिखाया करते थे, एक भी भाव वाले नए से नए शब्द एकत्रित करने की लालसा जगाते थे. इसी प्रकार दिल्ली मेँ सायंकालीन कैंप कालिज मेँ इंग्लिश डिपार्टमैँट के हैड ज़ुत्शी साहब को नहीँ भूल सकता. वह महापंडित थे, हर छात्र को प्रोत्साहित करते थे… भाषा शिक्षण मेँ मैँ उन्हेँ अपना आदर्श मानता हूँ.
मैँ यह पूरे ज़ोर के साथ कहना चाहता हूँ कि भाषा सिखाने का कोई भी उपकरण हो–कोश या थिसारस या पाठ्य पुस्तक–वे सब तभी तक सहायक हैँ जब तक कोई गुरु है. गुरु के बिना ज्ञान नहीँ मिलता. कहा है गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाय, बलिहारी गुरु आप की गोविंद दिए दिखाय. किसी भी कोश से ऊपर है गुरु.
कोशकारिता का जाज्वल्यमान इतिहास
हमारे यहाँ कोशकारिता का, ख़ासकर थिसारसोँ का लंबा और जाज्वल्यमान इतिहास है. संसार का पहला थिसारस वैदिक काल वाला निघंटु था. इस मेँ कुल 1800 वैदिक शब्दोँ का संकलन है. इस की रचना का श्रेय प्रजापति कश्यप को दिया जाता है. इस छोटे से ग्रंथ ने संस्कृत भाषा के छात्रोँ को सदियोँ तक रुलाया और हँसाया है. आप जानते हैँ कि उस ज़माने मेँ हर कोश को कंठस्थ करना होता था. गुरुओँ के डंडे खाना आम बात थी. लेकिन इस पर मास्टरी कर लो तो पौ बारह!
इसी परंपरा मेँ कंठस्थ करना पड़ता था छठी सदी का 8000 शब्दोँ वाला अमर कोश. यह पूरे संसार मेँ प्रसिद्ध था. कहते हैँ कि इस का अनुवाद चीनी भाषा तक मेँ हुआ था. इसी की प्रेरणा से बना अमीर खुसरो का ख़ालिक़ बारी. यह संसार का पहला द्विभाषी थिसारस माना जा सकता है. इस मेँ हिंदी के साथ साथ अरबी फ़ारसी के शब्द समूह विषय क्रम से आते थे.
अगर कोशोँ की, यानी शब्दार्थ कोशोँ की बात करें तो हम महर्षि यास्क के निरुक्त को संसार का पहला कोश और ऐनसाइक्लोपीडिया मान सकते हैँ. यह निघंटु की व्याख्या था. शब्दोँ के वैदिक अर्थ के साथ साथ वैसी सब जानकारी पूरी तरह विस्तार से दी गई थी जैसी कि आजकल ऐनसाइक्लोपीडिया मेँ होती है.
प्राचीन और आधुनिक भारतीय कोशोँ की संख्या कई हज़ार तक जाती है. वे सभी अब मिलते होँ, ऐसा नहीँ है. लेकिन उन का उल्लेख अनेक ग्रंथोँ मेँ मिलता है. ये सभी कोश भाषा शिक्षण मेँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैँ.
अब मैँ अपने अनुभव से बताना चाहता हूँ कि मुझे एकल भाषा के या द्विभाषी शब्दार्थ कोशोँ से और थिसारसोँ से भाषाएँ सीखने मेँ सहायता कैसे मिली…
आजकल स्कूलोँ मेँ बच्चोँ को नहीँ बताया जाता कि उन्हेँ कोश देखने चाहिएँ. हिंदी के कई शिक्षक न कोश देखते हैँ न विद्यार्थियोँ को कोश देखना सिखाते हैँ. मैट्रिक तक तो क्या, कालिज स्तर तक यही हाल है, वे यह भी नहीँ बताते कि जो बारहखड़ी (अ आ इ ई आदि) उन्हेँ पाठ्यक्रम मेँ पढ़ाई जाती है, कोशोँ मेँ क्रम उस से थोड़ा भिन्न होता है. यहाँ तक कि आम बच्चा समझता है कि क्ष त्र ज्ञ का स्थान ह के बाद होता होगा, जब कि ऐसा नहीँ है. परिणाम यह होता है कि हिंदी मेँ छपे संदर्भ ग्रंथ जैसे टेलिफ़ोन डायरैक्टरी भी हिंदी वाले नहीँ देख पाते. इन मेँ आरंभ के किसी पेज पर बड़े छोटे अक्षरोँ मेँ यह क्रम दरशा दिया जाता है. पर कई शिक्षकोँ तक को यह याद नहीँ होता. नतीज़ा यह होता है कि इन ग्रंथोँ का उपयोग आम आदमी नहीँ कर पाता, बदनाम हिंदी होती है!
ख़ैर, बात हो रही थी कि मुझे कोशोँ और थिसारसोँ से भाषाएँ सीखने मेँ क्या सहायता मिली.
कोशोँ ने बढ़ाया मेरा ज्ञान
मेरी हालत आम छात्र से थोड़ी भिन्न थी. एक तो यह कि हमारे घर मेँ कोश थे. अँगरेजी का भी और अँगरेजी-हिंदी का भी. अँगरेजी हिंदी का जो कोश था, भार्गव वाला, वही चलता था, वह पूरी तरह काम नहीँ दे पाता था. पर था तो!
सब से अलग बात यह थी कि मेरी उच्चतर पढ़ाई लिखाई काम करते करते हुई–वह भी एक छापेख़ाने मेँ. पहले मैँ हिंदी अँगरेजी प्रूफ़ रीडर था. शाम को ऐफ़ए यानी 11वीं 12वीं मेँ पढ़ रहा था. बात बात मेँ हिज्जे चैक करने के लिए कोश देखने पड़ते थे, अर्थ भी समझ मेँ आने लगते थे. इस से शिक्षा मेँ और पेशे मेँ काम आने वाला मेरा भाषा ज्ञान बढ़ रहा था. फिर हिंदी मेँ उप संपादक बन गया. हिंदी कोश तो थे, वे हिज्जे चैक करने के काम आते थे. उन से शब्दोँ के अर्थ मी मिलते थे. अँगरेजी से अनुवाद भी करना होता था. अँगरेजी हिंदी कोश का काम हर दिन पड़ता था.
आप समझ सकते हैँ कि नवीनतम साहित्य पढ़ने के साथ साथ शब्दार्थ कोश से काम लेने पर मेरा भाषा ज्ञान किस क़दर बढ़ रहा होगा. लेकिन असली क्रांति आई बीए मेँ दाख़िला लेने के बाद. संपादक विश्वनाथ जी ने मुझे अँगरेजी पत्रिका कैरेवान मेँ उपसंपादक बना दिया. शामत आनी थी, आई. हर दिन मैँ अपने आप को अँगरेजी उपसंपादन मेँ और हिंदी से अँगरेजी अनुवाद मेँ कमज़ोर पाने लगा. तभी 1952 मेँ मेरे हाथ लगा– रोजट का महान ग्रंथ रोजेट्स थिसारस आफ़ इंग्लिश वर्ड्स ऐँड फ़्रेज़ेज़. मेरी तो आँखेँ खुल गईं. भाषा ज्ञान मेँ तेज़ी से बढ़ोतरी होने लगी. मेरा काम भी बेहतर होने लगा,
वह कोई आजकल का बृहद इंटरनेशनल संस्करण नहीँ था. जेबी साइज़ से कुछ बड़ा दो सौ ढाई सो पेजों वाले 1852 के मूल संस्करण का थाड़ा सा परिवर्धित रूप था. मेरे हाथोँ मेँ यह कारूँ का ख़ज़ाना था. भाषा का पारस मणि! मैँ एक दिन के उपयोग से ही कृतकृत्य हो गया. शब्द ज्ञान तेज़ी से बढ़ने लेगा. कालिज मेँ, दफ़्तर मेँ मैँ चमकने लगा. एक तरफ़ प्राध्यापक ख़ुश, दूसरी तरफ़ संपादक ख़ुश! और मैँ? मैँ तो सातवेँ आसमान पर था, या अँगरेजी मेँ कहें तो क्लाउड नाइन पर था.
आम छात्र थिसारस का इस्तेमाल नहीँ करते थे. पर मुझे समझ आ गया था कि भाषा को सँवारने का, लेखन को, अनुवाद को, सुधारने का यह महामंत्र है. लोगबाग अकसर थिसारस का उपयोग सिर्फ़ काम पड़ने पर करते हैँ. मैँ ने थिसारस पढ़ते रहना अपना मनोरंजन बना लिया. किसी भी भाव के शब्द देखने होँ तो इंडैक्स मेँ जाओ, वहाँ से उस का पता मालूम करो… फिर उस के पर्याय औऱ विपर्याय (यह शब्द मेरा बनाया है, आम तौर पर इसे लोग विपरीत या विलोम शब्द कहते हैँ) पढ़ते रहो, आसपास की सभी कोटियोँ को पढ़ डालो. रटता नहीँ था, लेकिन पढ़ते रहने से शब्द मन मेँ पैठते जाते थे.
तब मैँ ने चाहा था कि हिंदी मेँ भी कोई ऐसी किताब हो, कोश हो. उन दिनोँ भारत सरकार ने हिंदी कोशोँ को प्रोत्साहन देने के लिए कई आयोग बनाए थे, कई लोगोँ को विशाल आर्थिक अनुदान दिए थे. मैँ सोचता था–इस समुद्र मंथन मेँ से कभी हिंदी का कोई थिसारस भी निकलेगा. तब मैँ 22 साल का था. यह काम कभी मैँ करूँगा–यह मैँ सोच ही नहीँ सकता था.
जो भी हो, मेरी भाषा संपन्न होती गई, मैँ उन्नति करता गया. घीरे घीरे उसी संस्थान मेँ हिंदी अँगरेजी की सभी पत्रिकाओँ का सहायक संपादक बन गया. और संयोगवश नवंबर 1963 मेँ टाइम्स आफ़ इंडिया जैसे संस्थान के लिए बंबई से माधुरी नाम की पत्रिका का प्रथम संपादक बनने जा पहुँचा… मैँ तब 33 साल का था और टाइम्स मेँ सब से कम उम्र का संपादक था. दस ही सालोँ मेँ मुझे लगने लगा कि मैँ बँध गया हूँ. मुझे कोई बड़ा काम करना है, और 1973 की 25-26 दिसंबर की रात को मुझे सूझ गया कि मैँ तो हिंदी का पहला थिसारस बनाने के लिए जन्मा हूँ!
और मैँ बन गया कोशकार
आगे की कहानी सब जानते हैँ. पत्रकार से मैँ कोशकार बन गया था. जो काम करने का संकल्प मेरी पत्नी कुसुम और मैँ ने 1973 के अंत मेँ लिया था, उस की पूर्ति 1996 के दिसंबर मेँ समांतर कोश के रूप मेँ हुई. हमेँ प्रसन्नता है कि कोश का स्वागत खुले दिल से हुआ. पेशेवर भाषाकर्मियोँ के साथ साथ शिक्षकोँ और छात्रोँ ने इसे उपयोगी पाया.
हमारी आकाँक्षाएँ बढ़ चुकी थीँ. हमारा काम डाटाबेस पर था. हमारे बेटे सुमीत ने समांतर कोश के लिए फ़ाक्सप्रो मेँ डाटाबेस की प्रविधि लिखी थी. उसी ने अब अँगरेजी डाटा जोड़ने की प्रविधि लिखी. अब हम ने हिंदी डाटा मेँ समकक्ष अँगरेजी अभिव्यक्तियाँ डालनी शुरू कर दीँ. समांतर कोश का काम हम ने नासिक मेँ शुरू किया था, बंबई से दिल्ली, गाज़ियाबाद होता यह काम कर्नाटक मेँ बेंगलूरु मेँ पूरा हुआ... द्विभाषी थिसारस के डाटा का काम मलेशिया से शुरू हुआ, गाज़ियाबाद आया, फिर चेन्नई होते, अमरीका, पौंडी, औरोवील मेँ पिछले साल पूरा हुआ.
हिंदी पर आधारित द्विभाषी डाटा किसी भी हालत मेँ दोनोँ भाषाओँ का प्रतिनिधि नहीँ हो सकता था. दूसरे चरण मेँ हम ने अँगरेजी कोश को ए से ले कर ज़ैड तक छान मारा. अनेक नए भावों के लिए जगह बनानी पड़ी. परिणाम यह है कि आज के ग्लोबल संसार मेँ यह भारतीय और अँगरेजी-भाषी समाजों की संस्कृतियोँ का संगम बन गया है. अधिक कहना अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना कहलाएगा. फिर भी यदि आप केवल सुंदरता और सुंदर के संदर्भ देखेँ तो दोनोँ भाषाओँ की शब्द संपदा की जो विविधता मिलती है, और जो अंतरसांस्कृतिक संबंध स्थापित किए गए हैँ, वे दोनोँ भाषाओँ का शब्द ज्ञान बढ़ाने मेँ मेरी राय मेँ आप अद्वितीय पाएँगे. मैँ यह भी बताना चाहता हूँ कि जहाँ तक मेरी जानकारी है पूरे विश्व मेँ इतना बृहद द्विभाषी थिसारस नहीँ है.
अब अंत की ओर बढ़ते हुए मैँ नई संभावनाओँ की ओर इशारा करना चाहता हूँ--
हमारे पास अब 12 लाख से ऊपर अभिव्यक्तियोँ का डाटाबेस हैँ. (अब तक हमारे पास कोई अनुदान नहीँ था.) इस के आधार पर कहीँ से कोई आर्थिक अनुदान मिले, सही लोगोँ का साथ मिले, प्रोग्रामिंग मेँ सहायता मिले तो–
हिंदी के ज़रिए भारत की सभी प्रमुख भाषाओँ का समावेश डाटा मेँ कर सकते हैँ,
इंग्लिश की सहायता से संसार की प्रमुख भाषाओँ को भी इस मेँ जोड़ सकते हैँ.
कल्पना कीजिए, कुछ सालोँ बाद, निश्चय ही हमारे बहुत बाद, संसार के पास एक ऐसा डाटाबेस होगा जिस की सहायता से हम किन्हीँ भी दो या तीन भाषाओँ के संयुक्त थिसारस बना सकेंगे, जैसे हिंदी-अँगरेजी-फ़्रैंच, या फिर हिंदी-बांग्ला-जरमन, या फिर हिंदी-गुजराती-तमिल, आदि. संभावनाएँ अनंत हैँ. आप सोचते रहिए. इस विचार का प्रचार कीजिए. क्या पता कब कहाँ किस रूप मेँ नारायण मिल जाएँ.
(पुनश्च : तब के तीन साल बाद—अब 13 जनवरी 2011. हम लोगोँ का विशाल ई-कोश अरविंद लैक्सिकन इंटरनैट पर जाने को तैयार है. यह अपनी तरह का पहला इंटरैक्टिव द्विभाषी कोश है. इस का ब्योरा हमारी इसी नाम की वैबसाइट arvindkumar.me पर उपलब्ध है… और साथ ही साथ हम लोग अपने डाटा मेँ भारतीय भाषाओँ मेँ से सब से पहले तमिल और विदेशी भाषाओँ मेँ से चीनी भाषा का डाटा सम्मिलित करने की तैयारियाँ कर रहे हैँ. –अरविंद)
आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
©अरविंद कुमार
Comments