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स्लमडाग करोड़पती

In Cinema, Culture, Fiction, Reviews by Arvind KumarLeave a Comment

डेविड गोलिएथ हो या (कंस के दरबार मेँ) कृष्ण चाणूर द्वंद्व या वानर सेना की सहायता से संसार के समकालीन सर्वशक्तिशाली सम्राट रावण की सोने की लंका पर राम की विजय… संसार ऐसी कथाओँ से भरा है. परीकथाओँ जैसा स्वप्निल अद्भुत रस हावी होने पर भी फ़िल्म अपने मूल कठोर निर्मम ठोस पर आशावादी आधार से टस से मस नहीँ होती.

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1 कौन बनेगा करोड़पती के मंच पर जमाल (देव पटेल) और क्विज़मास्टर प्रेम (अनिल कपूर)

स्लमडाग करोड़पती

© अरविंद कुमार

 

 

एक साथ कई स्तरोँ पर काम करने वाली, परत दर परत खुलने वाली, मानवीय संवेदनाओँ से लदी, सभी काव्य रसोँ से ओतप्रोत फ़िल्म स्लमडाग करोड़पती को एक नितांत असंभव से, लगभग फ़ैंटेसी से, घटनाक्रम के चारोँ ओर बुना गया है. ऐसे चमत्कारोँ पर आधारित यह कोई पहली कृति नहीँ है. डविड गोलिएथ हो या (कंस के दरबार मेँ) कृष्ण चाणूर द्वंद्व या वानर सेना की सहायता से संसार के समकालीन सर्वशक्तिशाली सम्राट रावण की सोने की लंका पर राम की विजय संसार ऐसी कथाओँ से भरा है. परीकथाओँ जैसा स्वप्निल अद्भुत रस हावी होने पर भी फ़िल्म अपने मूल कठोर निर्मम ठोस पर आशावादी आधार से टस से मस नहीँ होती.

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2 कौन बनेगा करोड़पती के मंच पर जमाल (देव पटेल) और क्विज़मास्टर प्रेम (अनिल कपूर) क्लोज़प

 

शुरूआत होती है टीवी पर कौन बनेगा करोड़पती शो के एक दृश्य से. यहाँ क्विज़ मास्टर न अमिताभ हैँ, न शाहरुख़ ख़ान, बल्कि फ़िल्म मेँ इस शो का संचालन कर रहा है प्रेम (अनिल कपूर – आगे देख कर हमारे मन मेँ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि सचमुच अनिल ने ही मूल शो किया होता तो). सब से बड़ी राशि – दो करोड़ – जीतने से पहली उपांतिम पायदान पर खड़ा है – बी.पी.ओ. काल सैंटर मेँ चाय पिलाने वाला छोकरा 18 साल का सुंदर नौजवान जमाल (देव पाटिल). प्रेम सहित सब को हैरत है कि मुंबई की नाबदान, सब से गंदी और कुख्यात स्लम धारावी मेँ पला बढ़ा अनपढ़ अधपढ़ छोकरा, कुत्तोँ की तरह हरएक से दुरदुराया दुत्कारा जाने वाला कैसे अपटुडेट कपड़े पहने वहाँ पहुँच गया जहाँ बड़े बड़े धुरंघर नहीँ पहुँच पाए. इस के पीछे है अभिजात्य वर्ग का आत्मगौरव-आत्ममौग्धयपूर्ण उपेक्षा या तिरस्कार का, कंडैसैंशन का, नक्कू इनायत का, वह भाव जो वे अपने से नीचे और विशेषकर हाशिए पर रहने वाले हर इनसान के प्रति रिज़र्व रखते हैँ. (याद रहे इसी स्लम ने हमेँ शैलेँद्र जैसा शीर्ष जनकवि और गीतकार दिया था.)

दर्शकोँ को लगता है कि अवश्यंभावना होगी, असंभव होगा, होगा ही, हो कर रहेगा पूरे देश के हर टीवी दर्शक की तरह हम भी चाहने लगते हैँ कि यह चमत्कार हो, अनहोनी हो. अंधे देखेँ, पंगु गिरि लंघेँ, अ-रथी राम रथी रावण का वध करें. जमाल जीते! टीवी कंपनी की जेब से दो करोड़ झटक ले! यह कैसे होगा, जमाल यहाँ तक कैसे पहुँचा–बस यही जानना हमारी उत्सुकता है और यही है फ़िल्म के अनोखे कथानक और मार्मिक दृश्यांकन का सब से रोचक रोमांचक लोमहर्षक उत्साहप्रद मुख्य भाग भी. काश, हिंदी वाले अपने घिसेपिटे नित नए वादोँ सिद्धांतों के माहौल से उठ कर सस्पैंस के साथ सामाजिक या गंभीर विषयोँ पर कथालेखन सीख पाएँ, और एक बार फिर कथा साहित्य को आम आदमी तक पहुँचा सकेँ!

[साठादि दशक मेँ नव सिनेमा, कला फ़िल्म या पैरेलल सिनेमा (जिसे मैँ ने समांतर सिनेमा का नाम दिया था) के अलमबरदारोँ ने काश तब मेरी बात सुनी होती! हम सब तब तथाकथित कमर्शल सिनेमा के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद कर रहे थे, हम फ़्राँसीसी, इतालवी, स्वीडिश, पोलिश महारथियोँ के दीवाने थे. मृणाल सेन, मणि कौल, कुमार शाहनी, दोनोँ बासु (भट्टाचार्य, चटर्जी), बाबूराम इशारा, अरुण कौल, निर्माता के रूप मेँ शैलेँद्र (तीसरी क़सम), ख़्वाजा अहमद अब्बास आदि अपनी अपनी तरह फ़िल्म बना रहे थे. पाठक वर्ग के दर्शकोँ के मन मेँ नई उत्सुकता का माहौल था. लेकिन अन्य सब से मेरा एक मौलिक मतभेद था. वे सब तकनीक पर बल दे रहे थे, मेरा कहना था कि फ़्रांस्वा त्रूफ़ो (Francois Truffaut) की फ़ोर हंड्रेड ब्लोज़ की तरह तकनीक मेँ प्रयोग तो हो, साथ साथ दिल को छूने वाला मानवीय कथ्य भी हो. इतावली वीतोरिओ द सिका (Vittorio De Sica) की बाइसिकिल थीव्ज़ तकनीक और विषय दोनोँ दृष्टि से रोचक आकर्षक और मार्मिक थी. भारतीय फ़िल्म इतिहास मेँ पचासादि दशक के आरंभ मेँ इस का प्रदर्शन परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ था. राज कपूर ने इस से प्रभावित हो कर जो फ़िल्मेँ बनाईं (अब दिल्ली दूर नहीँ, बूट पालिश) उन मेँ केवल मनोरंजन नहीँ था, समाज के सोचने के लिए भी कुछ था, कमर्शल सिनेमा को कला के नज़दीक ले जाने की कोशिश भी थी. (वास्तव मेँ उच्च कला के स्तर पर कमर्शल और शुद्ध कला के भेद मिट जाते हैँ, फ़िल्म सारे दर्शकोँ को एक साथ ले आती है.) सत्यजित राय की फ़िल्मेँ कभी कोरी तकनीक नहीँ थीँ. उन मेँ जीतेजागते इनसान थे. शांताराम की आदमी, पड़ोसी, दो आँखे बारह हाथ किसी तरह कम कला फ़िल्मेँ नहीँ थी. और हाल ही की आमिर ख़ान की लगान और तारे ज़मीन पर उन की माउंटिंग कमर्शल थी, लेकिन वे किसी कलाकार के सपनोँ की साकार सुंदर कलात्मक उपलब्धियाँ थीँ. मुझे तब भी अफ़सोस होता था, और अब भी कि मेरे प्रिय निर्देशक मणि कौल ब्रेसोँ (Bresson) की तकनीक से उलझ कर रह गए. समांतरोँ मेँ बासु चटर्जी और श्याम बेनेगल हमेशा उल्लेखनीय अपवाद रहे सब पुरानी बातेँ हैँ, अब उन का रोना रोने से क्या लाभ!]

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3 इंस्पैटर सलीम (इरफ़ान) जमाल (देव पटेल) को समझ नहीँ पाता.

 

तोटीवी वालोँ को, पुलिस को भी, संदेह है कि जमाल कोई फ़्राड है या उस के हर बार सही उत्तरोँ के पीछे कोई गहरा षड्यंत्र है, गुत्थी है. जमाल को हिरासत मेँ ले लिया जाता है. इंस्पैक्टर सलीम (इरफ़ान ख़ान) अपने सैडिस्टिक सार्जेंट श्रीनिवास (सौरभ शुक्ला) के साथ मिल कर यह गुत्थी सुलझाने मेँ लगा है. तमाम क्रूरतम थर्ड डिगरी हथकंडे जमाल पर अपनाए जा रहे हैँ, मारपीट, बिजली का करंट. जमाल का एक ही जवाब है–उसे उत्तर आता था. यहीँ एक एक कर के वे सब प्रश्न आते हैँ जिन के सही जवाब जमाल ने दिए थे. यही लेखक विकास स्वरूप के उपन्यास क्यू ऐंड ए (Q & A) पर आधारित फ़िल्म स्लमडाग मिलियनेयर (हिंदी मेँ स्लमडाग करोड़पती ) के अद्भुत रस का मूल है. हर प्रश्न के साथ हम देखते हैँ हाशिए पर बीती ज़िंदगियाँ, उन के दुख दर्द, उन के सपने, उन के इरादे. कैसे क्रूरतम समाज, परिस्थितियोँ और संसार का सामना करते, नई नई जुगत जुगाड़ निकालते, वे हँसते खेलते गाते नाचते जीते रहते हैँ और आगे बढ़ते हैँ.

संगम : बीभत्स, वीर और हास्य रस का…

पहला ही सवाल है– ज़ंजीर फ़िल्म का हीरो कौन था? बस यहीँ से शुरू होता हर सवाल के साथ फ़्लैश बैकोँ का सिलसिला. यह सवाल और इस की पृष्ठभूमि हमेँ जमाल का लोमहर्षक बचपन दिखाते हैँ, स्लमोँ मेँ रहने वालोँ की और स्वयं जमाल की मानसिकता की मूल ज़मीन दिखाते हैँ कैसे वे लोग जन्म से ही कठिन दुर्दांत असह्य (और हमारे लिए अकल्पनीय) परिस्थितियोँ मेँ जीना सीखते हैँ, मज़बूत बनते हैँ, मिडिल क्लास मूल्यों को ताक़ पर रख कर आत्मरक्षा के ठोस जीवन मूल्य बनाते हैँ, और स्वयं जमाल किस तरह महानायक अमिताभ की तरह हर कठिनाई से जूझता अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए अपनी निजी ईमानदारी, लगन से अपने उद्देश्य के लिए हर साहस, वीरता, जीवट के लिए तैयार है यह दिखाने के लिए जो दृश्य चुना गया है वह बीभत्स और वीर रसोँ का हास्य रस से अनोखा संगम है

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4 फट्टोँ से बने सामूहिक शौचालय के बक्से मेँ बैठा जमाल

 

मैँ इस दृश्य का वर्णन करने मेँ अपने को असमर्थ समझता हुआ भी अपर्याप्त शब्दोँ मेँ कहने को कोशिश करता हूँ. बच्चा जमाल (आयुष महेश खेडेकर) फट्टो से बने सामूहिक शौचालय के बक्से मेँ बैठा है. देर लग रही है. बाहर और लोग भी खड़े हैँ, अपनी बारी के इंतज़ार मेँ. चिढ़ कर एक बच्चा दरवाज़ा बाहर से बंद कर देता है तभी हेलिकाप्टर की आवाज़ आती है शोर मचता है शूटिंग के लिए अमिताभ आ रहा है, अमिताभ अमिताभ जमाल का हीरो! कुछ भी कर दिखा सकने वाला महानायक! जिस का फ़ोटो जमाल चौबीसोँ घंटे अपने साथ रखता है शौचालय से बाहर निकलने का दरवाज़ा बंद है, और जमाल को आटोग्राफ़ लेने हैँ. लेने हैँ तो लेने हैँ! फ़िल्मी अमिताभ की तरह उसे भी हर हालत मेँ अपना मक़सद पूरा करना है. अमिताभ के फ़िल्मी करतबोँ के दृश्य उस की आँखोँ के सामने घूम रहे हैँ. कोई रास्ता नहीँ मिल रहा ऊपर उड़ वह नहीँ सकता, किवाड़ टूटेगा नहीँ आव देखता है न ताव एक हाथ मेँ अमिताभ का फ़ोटो ऊपर उठाए, दूसरे से नाक बंद कर जमाल नीचे मल और विष्ठा के गहरे डुबाऊ कुंड मेँ कूद पड़ता है बाहर निकलता है सड़ाँध भरे मल से लथपथ, भीड़ को धकेलता (लोग तो उस की यह गँधाती गंदी हालत देख कर स्वयं ही रास्ता दे रहे हैँ) अमिताभ तक पहुँच जाता है और आटोग्राफ़ ले कर ही लौटता है हर दर्शक उस के जीवट से, साहस से, दृश्य की बीभत्सता के साथ उस मेँ निहित ऐब्सर्ड, विद्रूप, विचित्र हास्यप्रद कृत्य से चमत्कृत भी है, उस पर हँस भी रहा है, और उस की लगन को सराह भी रहा है यह डैनी बायल का करिश्मा है कि वह पूरी फ़िल्म के कई दृश्यों मेँ अनेक रसोँ का सुसंगत सम्मिश्रण कर पाए, और लगातार दर्शकोँ को अपने साथ रख सके.

हमारी ही तरह चाल मेँ रहने वाले लोगोँ का ज़िंदगी मेँ पूरा भरोसा है. एक समीक्षक घनश्याम कुमार देवांश का इंटरनैट (भारतीय पक्षhttp://bhartiyapaksha.com) पर कहना है–

" यहाँ फ़र्क यह है कि आप स्वर्गसे बाहर की ज़िंदगी का अस्तित्व मानते ही नहीँ लेकिन इनके नरकमेँ भी ज़िंदगी के लिए जितनी बड़ी जगह है उतनी अलीशान बहुमंज़िला इमारतों मेँ भी नहीँ. बात इनमेँ भी सिर्फ़ साँस लेने तक सीमित नहीँ है, बात है ज़िंदगी मेँ साँस लेने और हर साँस मेँ ज़िंदगी तलाशने की.

" हम हार्बर रोड पर रहेँगे एक बड़े से बंगले मेँ. तू मेरे साथ डांस करेगी न?”

" इसी तरह एक नन्हा लड़का दूसरे नन्हे लड़के से कहता है, भाई, अब अपने दिन बदलने वाले हैँ, भाई,”

" मासूम आँखेँ लेकिन ऊँचे सवाल और ऊँचे सपने. यहाँ कहीँ दो मुट्ठी चावल मेँ ज़िंदगी गुज़ार देने की तमन्ना है तो कहीँ आकाश को तौलने वाले नन्हे पंख हैँ. परवाह नहीँ कि पंख जलेँगे कि टूटेँगे, कि किसी शिकारी के जाल मेँ उलझा दिए जाएँगे."

मेरी राय मेँ भाई देवांश ने कम शब्दोँ मेँ फ़िल्म को पूरी तरह बता दिया है.

मुमताज़ बेगम डाइड इन ट्रैफ़िक ऐक्सीडैंट…

सांप्रदायिक दंगोँ से उखड़ने का बाद घटनाक्रम दृश्य और स्थान परिवर्तन की ओर बढ़ता है माँ दंगोँ की भेँट चढ़ गई बच्चे दरबदर हो गए एक रात मूसलाधार बारिश से बचने के लिए सलीम और जमाल किसी खोखे मेँ शरण लिए थे, दूर अनाथ बच्ची लतिका (रूबियाना अली) दबी ठिठुरती बारिश मेँ बैठी है बेसहारा, कठोर सलीम के मना करने पर भी दयालु जमाल उसे भी उस तंग सी जगह मेँ बुला लेता है– आ जा, आ जा. तब से तीनोँ साथ साथ रहते हैँ.

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5 चमचम आँखोँ वाली दुखियारी लतिका (रूबियाना अली) नितांत अभाव मेँ भी हँसना जानती है

 

 

शराफ़त और दया के पुतले कुछ लोग सांप्रदायिक दंगोँ के शिकार लावारिस बच्चोँ को गाड़ियोँ मेँ लाद कर ले जा रहे हैँ पूरी सेवा कर रहे हैँ, आवभगत कर रहे हैँ. बच्चे ख़ुश हैँ वे सोचते हैँ ये कोई बहुत भले लोग हैँ, सौभाग्य से हम बच्चे इन के पास पहुँच गए देखो ना कैसे भजन गवा रहे हैँदरशन दो भगवान नाथ मेरी अँखियाँ प्यासी रे ऐसे लोग तो भाग्य से ही मिलते हैँ

तो बाद मेँ ऐसा क्यों होता है कि एक रात जमाल और बड़ा भाई सलीम (अज़हरुद्दीन मोहम्मद इस्माइल) गुंडोँ से बचते भागते चलती ट्रेन मेँ चढ़ पाते हैँ, लतिका पीछे छूट जाती है जमाल लतिका के बग़ैर आगे जाने के पक्ष मेँ नहीँ है. सलीम दिलासा देता है, भूल जा, उसे भूल जा वह ठीक रहेगीउस का कुछ नहीँ होगा.

वह ग़लत नहीँ कह रहा था वह जानता था वे लोग लड़कियोँ का क्या करते हैँ

हुआ यह था कि मामन (अंकुर विकल) के गुरगे–वे भले लोग–दुष्टोँ के सरताज निकले उन का काम था अनाथ बच्चोँ को बहका कर भिखमंगई के धंधे मेँ डालना सलीम स्वभाव से ही तेज़ है, आसानी से दबता नहीँ है. उसे दुष्टोँ ने अपना हुकम मनवाने वाला बना लिया था उस का काम था जिस बच्चे को जब वे कहेँ अपाहिज या अंधा करने के लिए ज़बरदस्ती ले आना बिना हिचके वह उन का कहना करता है. जब जमाल की बारी आई तो बस,हीँ से उस का विद्रोह शुरू हो गया आँखोँ ही आँखोँ मेँ इशारा कर के उस ने जमाल को मेज़ पर लिया दिया भट्टी पर बड़ी कलछी मेँ तेल गरम किया जा रहा था सलीम सही वक़्त के इंतज़ार मेँ था बिजली की तेज़ी से उस ने कलछी छीन कर तेल डालने वाले पर ही छिड़क दिया सलीम, जमाल और लतिका बच निकले. भागे, दौड़े, इधर गए, उधर गए, रेल की पटरियोँ पर जा पहुँचे. अँधेरा कभी इस डिब्बे मेँ चढ़ते, कभी उस मेँ चूहा दौड़ बिल्ली आई का खेल हो रहा था.. मौक़ा देख कर सलीम ट्रेन के आख़िरी डिब्बे मेँ चढ़ने मेँ सफल हो गया, किसी तरह जमाल भी चढ़ गया लतिका पीछे पीछे दौड़ रही थी पर वह छूट गई

 

ट्रेन की छत पर, डिब्बों के बीच की जगह मेँ, खाना चुराते कई हास्यपूर्ण दृश्यों के बाद एक जगह रात मेँ टिकट कलक्टर उन्हेँ पटरी पर धकेल देता है. ढलान पर पटकनियाँ खाते वे बेहोश से बेदम से हो जाते हैँ. सुबह होश आने पर जमाल पूछता है क्या हम बहिश्त मेँ हैँ? सामने जो है वह बहिश्त से कम है भी नहीँ –ताज महल–संसार का आश्चर्य. अज्ञानी बच्चे अपनी तरह समीकरण निकालते हैँ कि यह कोई फ़ाइव स्टार होटल है. यहाँ से कहानी नया मोड़ लेती है. तो कौ.ब.क. (कौन बनेगा करोड़पती) के उपांतिम ऐपिसोड तक पहुँच कर ही दम लेती है.

लेकिन पहले ताजमहल की बात करें. यहाँ दोनोँ के लिए अधकचरा ज्ञान और खरा धन अर्जित करने के ढेरोँ मौक़े हैँ. पहले तो जूते चुरा कर बेचना, फिर कुछ कमा कर कामचलाऊ कपड़े ख़रीदना, ताज का गाइड होने का नाटक करना विदेशी मुद्रा, डालर आदि कमाना विदेशियोँ को टूटी फू़टी हिंदी इग्लिश मेँ वे क्या बताते हैँ उस के सवाल जवाब का नमूनाशाहजहाँ बिल्डिंग फ़ाइव स्टार होटल फ़ौर वाइफ़ वाइफ़ डाइड इन ट्रैफ़िक ऐक्सीडैंटहम ने तो सुना था वह चाइल्ड बर्थ मेँ मरी यही तो, गाइड नो टैल करक्ट स्टोरी शी गोइंग टु हास्पिटल, डाइज़ इन ऐक्सीडैंट

जमाल को लगातार लतिका की रट है. सलीम को मज़बूर कर के और साथ ले कर वह मुंबई आ जाता है हर जगह लतिका को खोज रहे हैँ सलीम सही निकला. लतिका ठीक थी, कालगर्ल बन चुकी थी. दोनोँ भाई लतिका को बचा निकालना चाहते हैँ, पर एक बार फिर मामन उन के रास्ते मेँ आ जाता है पिस्तौलबाज़ी मेँ सलीम ने मामन को मार डाला. मामन से भी बड़ा सरताज़ जावेद (महेश मांजरेकर) उसे दाहिना हाथ बना लेता है. सलीम ने लतिका को हथिया लिया लतिका भाग्य को ननुकर किए बग़ैर स्वीकारने की आदी हो चुकी थी. अपराध जगत मेँ अब सलीम का दबदबा है. उस ने मामन जैसे गुंडोँ के सरताज़ को ढेर कर दिया

यहाँ घटनाक्रम जमाल औऱ सलीम के रास्ते अलग कर देता है. जमाल बिछुड़ जाता है. दोनोँ को एक दूसरे के बारे मेँ कुछ नहीँ पता. काल सैंटर मेँ काम करते करते जमाल अच्छी इंग्लिश बोलना सीख गया है, कंप्यूटर पर पते सर्च करने मेँ माहिर हो गया है. वह पता लगा ही लेता है कि सलीम अब लतिका के साथ कहाँ रहता है मिलते हैँ. फिर वे बिछुड़ जाते हैँ.

और कहानी कौ.ब.क. के उपांतिम प्रश्न तक आ पहुँची है सब दम साधे बैठे हैँ. वातावरण मेँ, टीवी स्टूडियो मेँ, दर्शकोँ मेँ तनाव है, सस्पैंस है कुछ फ़्लैश बैकोँ से हमेँ पता चलता है कि कौ.ब.क. ने उसे एक बार फिर लतिका से मिला दिया है. अब वह धनी भाई जावेद की रखैल है.

कथा तथा फ़िल्म मेँ जो असंभव का संभव होना है वह यह है कि अज्ञानी जमाल को हर प्रश्न का सही उत्तर इसलिए पता है कि हर सवाल का सीधा संबंध उस के अपने जीवन की किसी घटना के साथ रहा है जो एक दो सवाल उसे नहीँ आते उन का उत्तर वह या तो लाइफ़ लाइन का सही उपयोग कर के दे पाता है, कुछ मेँ वह तत्काल बुद्धि से काम लेता है एक बार तो कौ.ब.क. का प्रश्नकर्ता प्रेम इशारे से उसे ग़लत उत्तर बता कर प्रतियोगिता से बाहर निकालना चाहता है. जमाल चाल भाँप जाता है और ऐन वक़्त पर जवाब उलट देता है. दो करोड़ रुपए के आख़िरी सवाल पर जमाल अब तक जीते पूरे एक करोड़ दाँव पर लगा देता है (वह पैसोँ के लिए तो खेल ही नहीँ रहा, बचपन की सहेली लतिका को फिर खोज पाने के लिए खेल रहा है, जीने भर के लिए पैसा तो वह हर हाल मेँ बना ही लेता है) सवाल है थ्री मस्केटियर्स उपन्यास का तीसरा मस्केटियर कौन था? यह जमाल और सलीम ने एक बार सीखा था जब किसी स्कूल मेँ ज़बर्दस्ती दाखि़ल किए गए थे.) जमाल को उत्तर याद नहीँ है. केवल सलीम उस की सहायता कर सकता है.

फ़िल्म के हर दर्शक की साँस अटक जाती है देश मेँ सब की आँखेँ टीवी पर गड़ी हैँ, जमाल के लिए पूजा पाठ हो रहे हैँ अनसुना अनहुआ होने को हैहोगा या नहीँ होगा, नहीँ होगा होगा, नहीँ होगा गोएथे के फ़ाउस्ट की नायिका ने इस विडंबना का उत्तर खोजा था गुलाब की पंखड़ियोँ से जमाल को उत्तर नहीँ पता हाँ, अंतिम लाइफ़ लाइनफ़ोन ए फ़्रैंड मेँ वह सलीम को फ़ोन लगवाता है. पर सलीम तो जावेद को मार कर मर चुका है. फ़ोन कोई नहीँ उठाता. सलीम फ़ोन लतिका को दे गया था. दूर कार मेँ रखा है. कोई फ़ोन नहीँ उठाता. प्रेम प्रश्न पर पटाक्षेप करने को तैयार है. तभी लतिका फ़ोन उठाती है. उत्तर देती है– मुझे नहीँ पता…” यही बहुत है लतिका मिल गई दो करोड़ क्या करने हैँ इस पार या उस पार वह एक उत्तर चुन लेता है

दम सध गए चुप्पी.. चारोँ ओर चुप्पी असह्य सस्पैंसकमालस्त बूदम कमाल हो गया जमाल जीत गया…!!!

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6 मीठी मुलाक़ात का गीत जय हो जिसे निर्देशक कभी भरी भीड़ का समूह गीत बना देता है कभी पूरी मानवता की दुखोँ से बीती ज़िंदगी के सुखांत का उद्घोष

 

लेकिन जमाल को कुछ नहीँ पड़ी थी. शो छूटते ही वह हर मुसीबत से जूझता चल देता है बोरीबंदर (आजकल छत्रपति शिवाजी टर्मिनल) स्टेशन की ओर… लतिका भी तमाम मुसीबतेँ झेलती वहीँ जा रही है… रास्ते मेँ लोग जमाल की जीत का जशन मनाने मेँ मशग़ूल हैँ… रास्ता मिलना कठिन है… देर रात है, आती जाती ट्रेनोँ के पार वे दोनोँ एक दूसरे को देखते….. लाइनें कूदते फाँदते मिलते हैँजय हो का गीत संगीत भरा उद्घोष आसमान की ओर उठता है, मनोँ को सीमित दायरोँ से निकालता, विस्तृत विराट महान से मिलाता है. इस उद्घोष मेँ उस नरक की भी याद है (रत्ती रत्ती सच्ची मैँ ने जान गँवाई है/नच नच कोयलोँ पे रात बिताई है/अँखियोँ की नींद मैँ ने फूँकोँ से उड़ाई है/गिन गिन तारे मैँ ने उँगली जलाई है) जिस से बचने के लिए आवारा फ़िल्म के स्वप्न दृश्य मेँ राज कपूर पुकार उठा था, मुझ को यह नरक न चाहिए मुझ को चाहिए बहार…”

परिवर्तन का उद्घोष

स्लमडाग को हम ग्लोबल संसार मेँ भारत की कड़वी मीठी काली उज्ज्वल तस्वीर कह सकते हैँ.

मेरी यह समीक्षा स्लमडाग मिलिनेयर की भी हो सकती थी, पर मैँ ने लिखी है स्लमडाग करोड़पती की. हिंदी स्लमडाग का लगभग सारा सेहरा बँधता है भारतीय कलाकारोँ के सिर, स्लमोँ से लिए गए बच्चोँ से ले कर शीर्ष पर बैठे अनिल कपूर तक… मँजे कलाकार सधे निर्देशक के हाथोँ तप कर कुंदन जैसे निकलते हैँ. कहीँ कोई कमी नहीँ… किसी एक का नाम लेना निरर्थक होगा.

 

किसी भी अच्छी फ़िल्म मेँ सब ठीक होता है, परफ़ैक्ट होता है, कहीँ कोई कमी हो तो वह नज़रअंदाज़ हो जाती है… जैसे दरशन दो घनश्याम भजन सूरदास का लिखा नहीँ है, गीतकार गोपालदास नेपाली का है. देवेंद्र गोयल की फ़िल्म नरसी भगत (1957) के लिए लिखा गया था. साथ ही यह भी सही है कि यदि सही उत्तर नेपाली होता तो जमाल ठीक जवाब नही दे सकता था. ऐसी अनेक ग़लतियाँ अकसर हर फ़िल्म मेँ रह जाती हैँ. इन्हेँ आलोचना का मुख्य आधार नहीँ बनाया जा सकता.

 

स्लमडाग पूरी तरह बंबइया फ़िल्म है–यहाँ तक तो इसे हम अंतरराष्ट्रीय सिनेमा को भारत को योगदान कह सकते हैँ. उस पर हमारे कमर्शल सिनेमा का सीधा प्रभाव है. सहनिर्देशिका लवलीन टंडन ने तो उसे हिंदी कमर्शल सिनेमा को हौलिवुड का सलाम कहा है. पटकथा लेखक सीमोन ब्यूफ़ौय (Simon Beaufoy) ने सलीम जावेदी मार्का सिनेमा को अच्छी तरह आत्मसात करने की कशिश की थी. स्वयं निर्देशक बायल ने दीवार, सत्या, कंपनी, सलाम बांबे, तारे ज़मीन पर जैसी हिंदी फ़िल्मोँ का प्रभाव स्वीकार किया है.

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7 डैनी बायल

भारत और संसार को समृद्धि के हाशिए पर जीवन के क्रूर सत्यों की तस्वीर दिखाने वाले निर्देशक

 

 

निर्देशक डैनी बायल ने कैरियर की शुरूआत रंगमंच के कला निर्देशक, सहनिर्देशक और निर्देशक से की थी. 1980 से वह टीवी प्रोड्यूसर के तौर पर पहुँचे. निर्देशन इस का अगला स्वाभाविक क़दम था. शैलो ग्रेव (Shallow Grave), इर्विन वैल्श (Irwin Welsh) के उपन्यास ट्रेन स्पौटिंग (Trainspotting) पर उन की उल्लेखनीय फ़िल्म है. टीवी के लिए कुछ फ़िल्म बना कर बीच (Beach) बनाई. 2007 मेँ उन की भयोत्पादक हारर फ़िल्म 28 डेज़ (अट्ठाइस दिन) (28 Days) रिलीज़ हुई. और अब स्लमडाग के ज़रिए वह संसार को ही नहीँ शाइनिंग इंडिया और भारत की जैननैक्स्ट (GenNext) को जीवन का क्रूर निर्मम सत्य देखने को मज़बूर करने मेँ सफल हुए हैँ. ऐसा सत्य जो आज के बड़े बड़े मालोँ से कई सपनोँ दूर है, लेकिन जो पीछे कहीँ आसपास छिपा है… जिसे कभी सर्राटे से दौड़ती कार मेँ बैठे वे देख नहीँ पाते. जिस की कल्पना भी कभी उन के सपनोँ मेँ नहीँ आती. उस की जो झलक यहाँ दिखाई गई है, शायद हज़ारोँ मेँ से किसी एक को वह झकझोरने मेँ सफल हो.

जिस तरह बाइसिकिल थीव्ज़ हमारी फ़िल्मोँ मेँ परिवर्तनकारी तत्त्व सिद्ध हुई थी, लगता है उसी तरह स्लमडाग भी होगी. इस के अनेक कारण हैँ…

स्लमडाग ऐसे समय आई है जब भारतीय सिनेमा एक और क्रांति की कगार पर खड़ा है. मल्टीप्लैक्सोँ ने दर्शकोँ के दो वर्ग पैदा कर दिए हैँ–एक तो वही जो पुरानी तरह के असुविधाजनक सिनेमाघरोँ मेँ जाने को मज़बूर हैँ, जहाँ किसी एक फ़िल्म को सफल देखने के लिए दर्शकोँ की भारी संख्या चाहिए. दूसरे वे मध्यमवर्गीय और उच्चवित्त दर्शक जो अपनी पसंद की थोड़ी उच्च कोटि की सेमी-कला फ़िल्मोँ पर ऊँचा पैसा ख़र्च करने को तैयार हैँ, और जहाँ माइनरिटी फ़िल्मेँ चल सकती हैँ और सफल हो सकती हैँ. जो फ़िल्म इन दोनोँ वर्गों के मन को छू लेगी वह अपार सफलता प्राप्त करेगी. लेकिन यह कोई आसान काम नहीँ है… कोई कोई फ़िल्म ही ऐसा कर पाती है. ऐसी फ़िल्म बनाई नहीँ जा सकती, बन जाती है… सफलता दोहराई नहीँ जा सकती, मिल सकती है… जैसे हम आप के हैँ कौन की पारिवारिक मस्ती बाद मेँ सूरज बड़जात्या नहीँ दोहरा पा रहे, जैसे बरसात की रात दोहराई नहीँ जा सकी, जैसे सिप्पी परिवार शोले दोबारा नहीँ बना सके… जैसे महल को कोई फिर से नहीँ बना सका… बिमल राय ने मधुमती मेँ महल ली तो लेकिन बिल्कुल नए तरीक़े से…

आज हालिवुड की कंपनियाँ बड़े पैमाने पर भारत मेँ प्रवेश कर चुकी हैँ. उन के पास पैसे की कमी नहीँ है. वे नए विषयोँ पर दाँव लगाना जानती हैँ. हमारी अपनी बड़ी कंपनियाँ भी उन से होड़ मेँ पीछे नहीँ हैँ. पिछले चार दशकोँ मेँ हमारे तकनीशियनोँ, निर्देशकोँ, पटकथा लेखकोँ ने बहुत कुछ सीखा है. आज वे विश्व सिनेमा से तकनीकी स्तर पर टक्कर लेने को तैयार हैँ. फ़िल्मकार नए नए विषय उठा कर नए से नए प्रयोग कर रहे हैँ. इस समय वे एक बिल्कुल नई तरह की फ़िल्म बनाने की नई जुगत के लिए तैयार हैँ. यही समय है जब हमारी फ़िल्मेँ मेँ एक और उड़ान भर सकती हैँ.

स्लमडाग उन्हेँ नए रास्ते दिखाती है. अपने विषय का गहन अध्ययन करो, जीवन के सच्चे पात्रों से मिलो, उन्हेँ समझो, तब पटकथा लिखने को क़लम उठाओ. साहित्यिक रचना हो तो पूरी तरह उस का अनुकरण मत करो. साहित्य, नाटक और फ़िल्म की भाषाएँ बहुत भिन्न हैँ, पर वे सब अपने तरीक़े से वही बात कहने मेँ सक्षम होती हैँ. एक उदाहरण स्वयं हमारी फ़िल्म ओंकारा है. मैँ उसे संसार की सर्वोत्तम शैक्सपीरियन फ़िल्मोँ मेँ गिनता हूँ–कारण निर्देशक पटकथाकार संगीत निर्देशक विशाल भारद्वाज ने अथैलो के मूल को आत्मसात कर के पूरी तरह आधुनिक भारतीय परिवेश मेँ उतारने मेँ, डेस्डेमोना, अथैलो, इयागो को फ़िल्मी जामे पहनाने मेँ, बीड़ी जलाइले जिगर से पिया मेँ इयागो के नाच और गीत को जिस तरह जीवित किया है, वह अथैलो के मुझ जैसे दीवाने ही समझ सकते हैँ. कभी मैँ उस का काव्य अनुवाद और भारतीय रूपांतर करना चाहता था, अब हिम्मत तक नहीँ कर सकता. (मेरी निजी जानकारी है कि कई हिंदी साहित्यकारोँ ने किस तरह मूल से ज़रा से भी परिवर्तन की भी इजाज़त न दे कर स्वयं अपनी महान रचनाओँ का ख़ून किया है.)

बंबइया या बौलीवुड शैली को हौलीवुड से जोड़ दो. यथार्थ मेँ जाने से मत हिचको… सस्ती अश्लीलता से बचते मानव सपनोँ को राज कपूराना अंदाज़ देते सजावटों से भरते दर्शकोँ को चौंकाने के लिए तैयार रहो…

मैँ जानता हूँ मुंबई के महारथी स्लमडाग को तरह तरह से धुन रहे होँगे, मथ रहे होँगे, मंथन कर रहे होँगे. यह तय करने मेँ लगे होँगे कि इसी की तरह बाक्स आफ़िस पर वारे न्यारे कैसे किए किए जाएँ. जो नए निर्देशक हैँ, जिन्हेँ आज अंतरराष्ट्रीय फ़ाइनैंशल बैकिग भी मिल सकती है, वे दाँव खेलेँगे… सौ मेँ से दस-पंदरह सफल होँगे, और फिर नए लोग नए रास्ते तलाशेँगे.

लवलीन टंडन

करोड़पती का सब से महत्त्वपूर्ण पक्ष है हिंदी संवाद और उन की शानदार डबिंग इस की जिम्मेदार हैँ लवलीन टंडन. दिल्ली मेँ जनमी हिंदू कालिज मेँ पढ़ीं और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से मास कम्यूनिकेशन (mss communication) का कोर्स किया. उन्होंने दीपा महता के साथ अर्थ (Earth), मानसून वैडिंग (Monsson Wedding) और वैनिटी फ़ेअर (Vanity Fair), तथा द नेमसेक (The Namesake) मेँ कई पदोँ पर काम किया. ब्रिक लेन (Brick Lane) फ़िल्म मेँ वह सह कास्टिंग डाइरैक्टर रहीँ.

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8 लवलीन टंडन और फ़रीदा पिंटो

 

स्लमडाग करोड़पती मेँ सहनिर्देशिका के रूप मेँ लवलीन टंडन का प्रवेश संयोगवश हुआ. फ़िल्मोँ मेँ कौन कलाकार किस पात्र के लिए उपयुक्त रहेगा इस की आरंभिक जाँच करने का काम एक अलग पेशा बन गया है. इसे कास्टिंग डाइरैक्शन (casting direction) कहते हैँ. इस के लिए प्रत्याशी को एक ओर कथावस्तु की पूरी समझ होनी चाहिए तो दूसरी ओर उपलब्ध टेलैंट की जानकारी होनी चाहिए. नए कलाकार चाहिएँ तो उन्हेँ खोजना होता है. विदेशोँ मेँ खोज शुरू की गई अमेरिका से, ख़त्म हुई इंग्लैंड मेँ देव पटेल पर. भारत मेँ शुरू मेँ पाँच भारतीय यह काम कर रहे थे. अंत मेँ खोज का पूरा ज़िम्मा डाला गया लवलीन टंडन पर. लवलीन ने ही निर्देशक बायल को सलाह दी कि कुछ संवाद हिंदी मेँ होना बेहद ज़रूरी है. अंत तक फ़िल्म के तीस प्रतिशत संवाद हिंदी मेँ हो गए. हिंदी संवाद लिखने का ज़िम्मा भी उन के सिर आ गया. धीरे धीरे अपनी क्षमता के बल पर वह सहनिर्देशक बन गईँ. हिंदी मेँ डबिंग का काम भी उन्हेँ सौँपा गया. मुंबई मेँ रह चुकने के कारण वे धारावी की भाषा मेँ बाल कलाकारोँ के संवाद लिख और बुलवा पाईँ. देव पटेल इंग्लैंड मेँ जनमे और पढ़े हैँ. हिंदी ठीक से नहीँ बोल सकते. उन की हिंदी आवाज़ के लिए लवलीन ने एक नई आवाज़ खोजी.

इतनी सारी ज़िम्दारियाँ निभाने वाली लवलीन को स्लमडाग के आस्कर पुरस्कार के लिए बायल के साथ नामित किया जाना चाहिए–यह माँग उठी शिकागो की एक फ़िल्म समीक्षक यान लीसा हटनर (Jan Lisa Huttner) की ओर से. तर्क था कि यदि फ़िल्म मेँ लवलीन का नाम सहनिर्देशक को तौर पर दिया गया है तो लवलीन पुरस्कार की पूरी हक़दार हैँ. यह भी पूछा गया कि आस्कर मेँ कितनी महिलाओँ को यह पुरस्कार मिल पाता है, इसलिए यह अवसर खोना नहीँ चाहिए. लेकिन लवलीन ने इस माँग का पूरा विरोध किया.

चक दे से जय हो तक

पिछले दशकोँ से हम मेँ नया आत्मविश्वास जगा है. हम जानते हैँ कि हम दुनिया से बहुत पीछे रहे हैँ. पर अब भारत संसार मेँ सबल आर्थिक शक्ति के रूप मेँ उबर रहा है. हम पूरे भरोसे से सिर उठाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैँ. हमारे कंप्यूटर कर्मी, इंजीनियर, वैज्ञानिक संसार मेँ नाम कमा रहे हैँ. उन का आत्मविश्वास नई पीढ़ी मेँ व्याप रहा है. थकी हारी दुत्कारी स्त्रियोँ की हाकी टीम की आस्ट्रेलिया मेँ असंभव सी लगने वाली जीत दिखा कर चक दे इंडिया ने हमारे मनोबल को सहारा दिया. चीन मेँ ओलिंपिक से हमारे खिलाड़ी पहली बार इतने सारे पदक जीत लाए. क्रिकेट टीम कई मैचों मेँ लगातार जीत रही है. ये सब मिल कर हम मेँ आत्मक्षमता, आत्मनिर्भरता, आत्मबल, आत्माभिमान, इच्छाशक्ति, हिम्मत के साथ साथ संकल्पशीलता, दुबिधाहीनता, दृढ़ावलंबन, धुन, लगन पैदा कर रहे हैँ. हमेँ नई दुनिया मेँ अपनी सफलता की अवश्यंभावना पर विश्वास हो चला है. कल तक हम पूछते थे कि क्या हम यह कर सकते हैँ? आज हम कहने लगे हैँ, हाँ, हम कर सकते हैँ, कर के रहेँगे.

 

सर रिचर्ड ऐटनबरो की गाँघी के बाद स्लमडाग ने पहली बार संसार के जनमानस का ध्यान हमारी ओर ख़ीँचा है. ऐसे मेँ स्लमडाग के आठ आस्कर पुरस्कारोँ मेँ से तीन हमेँ मिले हैँ–संगीतकार रहमान, गीतकार गुलज़ार और साउंड मिश्रक रसूल कुट्टी को. यह हम सब को वैस ही गर्वोन्नत कर देता है, जैसे रवींद्र ठाकुर को मिला नोबेल पुरस्कार. हम सब का मन जय हो गाने को करता है, लेकिन यही गीत हमेँ हमारे निर्धन वर्ग को न भूल जाने की ताक़ीद भी करता है.

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स्लमडाग करोड़पती का आस्कर विजेता गीत–

 

9 साधारण शब्दोँ मेँ चमत्कारोक्तिपूर्ण मनोभाव साकार करने वाले कवि गुलज़ार

 

जय हो

- गुलज़ार

 

जय हो
आ जा जिंद शामियाने के तले
आ जा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो !


रत्ती रत्ती सच्ची मैँ ने जान गँवाई है
नच नच कोयलोँ पे रात बिताई है
अँखियोँ की नींद मैँ ने फूँकोँ से उड़ाई है
गिन गिन तारे मैँ ने उँगली जलाई है
एह, जा जिंद शामियाने के तले
जा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो !


चख ले, हाँ चख ले, ये रात शहद है
चख ले हाँ चख ले
दिल है, दिल आख़िरी हद है
काला काल काजल तेरा
कोई काला जादू है ना?
जा जिंद शामियाने के तले
जा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो !

कब से हाँ कब से जो लब पे रुकी है
कह दे कह दे हाँ कह दे
अब आँख झुकी है
ऐसी ऐसी रोशन आँखेँ
रोशन दोनोँ हीरे हैँ क्या?
जा जिंद शामियाने के तले
जा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो !

 

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स्लमडाग मिलिनेयर – स्लमडाग करोड़पती

 

निर्माता           क्रिस्चियन कोलसन

निर्देशक           डेविड बायल

सहनिर्देशक        लवलीन टंडन

संगीत निर्देशक       ए आर रहमान

गीतकार           गुलज़ार

भाषा             अंगरेजी/हिंदी

 

मुख्य कलाकार और उन की भूमिका

प्रेम कुमार (प्रश्न कर्ता) अनिल कपूर              

जमाल के. मलिक     देव पटेल                 

जमाल (बचपन)       आयुष महेश खेडेकर        

जमाल (बीच की उम्र)  तनय छेदा                

लतिका              फ़रीदा पिंटो               

लतिका (बचपन)      रूबियाना अली             

सलीम              मधुर मित्तल

सलीम (बचपन)       अज़हरुद्दीन मोहम्मद इस्माइल

सलीम (बीच की उम्र)  आशुतोष लोबो गज्जीवाला   

इंस्पैक्टर सलीम       इरफ़ान ख़ान              

सार्जेंट श्रीनिवास       सौरभ शुक्ला              

मामन               अंकुर विकल

जावेद               महेश मांजरेकर            

दृश्य मिश्रक          जीवन तलवार             

निर्देशक (स्वयं)       राजेंद्र नाथ जुत्शी          

 

Directed by Danny Boyle

Written by Simon Beaufoy

 

Starring

Dev Patel
Freida Pinto
Madhur Mittal
Anil Kapoor
Ayush Mahesh Khedekar
Tanay Chheda
Rubina Ali
Tanvi Ganesh Lonkar
Azharuddin Mohammed Ismail
Ashutosh Lobo Gajiwala

 

Music by A. R. Rahman

Cinematography Anthony Dod Mantle

Editing by Chris Dickens

Studio Pathé Pictures InternationalCelador FilmsFilm4

Distributed by Fox Searchlight PicturesWarner Bros.

 

Running time 121 min.

Country United Kingdom

 

Language

English
Hindi


 

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