सभी भारतीय छंदोँ के संदर्भ मेँ जब कभी मैँ अँगरेजी भाषा मेँ आयंबिक पैंटामीटर के सफल उपयोग को देखता तो मुझे भारतीय, विशेषकर हिंदी, छंदोँ मेँ एक सीमा नज़र आती. हमारे यहाँ हर छंद का तुकांत होना एक आवश्यक सी शर्त बन गया था. परिणाम यह होता था कि हर चरण के अंत मेँ एक तुक होती थी, जिस का जवाब उस के दूसरे या चौथे चरण मेँ दिया जाना आवश्यक माना जाता था. इस से हर कवि को अपने भाव को एक छंद विशेष की सीमाओँ मेँ पूरा करने की विवशता सी बन गई थी. किसी एक भाव को अगले छंद तक ले जाने का अर्थ होता था, जैसे एक बार फिर उसे शुरू करना.
सब से पहले विक्रम के छंद के बारे मेँ बात करता हूँ. जूलियस सीज़र बी.ए. मेँ मेरे कोर्स मेँ हुआ करता था. उस समय से ही यह मेरे मन पर छाया रहता था. ऐम.ए. मैँ ने अँगरेजी साहित्य मेँ किया. उस मेँ एक पूरा परचा शैक्सपीयर पर था. तब मुझे शैक्सपीयर पर और बहुत कुछ पढ़ने का सुअवसर मिला. शैक्सपीयर के अनेक नाटकोँ के साथ साथ मारलो का डाक्टर फ़ास्टस भी पढ़ा. और मिल्टन के महाकाव्य पैराडाइज़ लौस्ट के अंश भी. तीनोँ की काव्य क्षमता से, और इन के प्रमुख पात्रोँ के संभाषणोँ से, मैँ अभिभूत था. विशेषकर अच्छा लगता था, इन का छंद–आयंबिक पैंटामीटर और उस का अतुकांत प्रयोग यानी ब्लैंक वर्स, और इस के द्वारा भावोँ का उद्दाम, झरने की तरह झरता अनवरत प्रवाह.
आयंबिक पैंटामीटर
आयंबिक पैंटामीटर का शाब्दिक अर्थ है पाँच आयंबोँ वाला छंद. यह छंद प्राचीन ग्रीक और लैटिन भाषाओँ से अँगरेजी तक पहुँचा था. उन भाषाओँ मेँ वज़न की गिनती लघु और गुरु मात्राओँ मेँ होती थी. एक आयंब मेँ एक नघु और एक गुरु मात्रा होती थी. लघु गुरु के अनवरत क्रम से इस मेँ बहुत ही अच्छा उतार चढ़ाव आ जाता था. अँगरेजी मेँ मात्राएँ न होने के कारण वज़न की गिनती सिलेबलोँ मेँ होती है. वहाँ आयंब मेँ पहला सिलेबल लघु या मंद या निराघात होता है और दूसरा गुरु या तीव्र या साघात होता है. निराघात और साघात सिलेबलोँ से यह छंद और भी प्रभावशाली हो जाता है.
इस छंद की विशेषता है उतार चढ़ाव, जब कभी मैँ जूलियस सीज़र मेँ पोँपेई की विजय के नारोँ से टाइबर नदी के ऊपर उठने की बात पढ़ता, तो मुझे जयदेव के छंद याद आ जाते, जिन के बारे मेँ किंवदंति है कि उस का पाठ सुनने के लिए गंगा का पानी ऊपर चढ़ आता था. मैँ सोचता कि उन नारोँ से टाइबर का पानी ऊपर चढता हो या नहीँ, शैक्सपीयर द्वारा अपने पात्रोँ के संभाषणोँ मेँ प्रयुक्त आयंबिक पैंटामीटर सुनने के लिए टेम्स नदी का ऊपर चढ़ता पानी समकालीन लंदनवासियोँ ने ज़रूर देखा होगा.
सभी भारतीय छंदोँ के संदर्भ मेँ जब कभी मैँ अँगरेजी भाषा मेँ आयंबिक पैंटामीटर के सफल उपयोग को देखता तो मुझे भारतीय, विशेषकर हिंदी, छंदोँ मेँ एक सीमा नज़र आती. हमारे यहाँ हर छंद का तुकांत होना एक आवश्यक सी शर्त बन गया था. परिणाम यह होता था कि हर चरण के अंत मेँ एक तुक होती थी, जिस का जवाब उस के दूसरे या चौथे चरण मेँ दिया जाना आवश्यक माना जाता था. इस से हर कवि को अपने भाव को एक छंद विशेष की सीमाओँ मेँ पूरा करने की विवशता सी बन गई थी. किसी एक भाव को अगले छंद तक ले जाने का अर्थ होता था, जैसे एक बार फिर उसे शुरू करना. मुझे लगता कि इसी कारण हमारे यहाँ अनेक उत्कृष्ट महाकाव्योँ के बावजूद किसी शैक्सपीयर के अथैलो, हैमलेट, एंटनी जैसे, या मारलो के फ़ास्ट जैसे, या मिल्टन के सैटन जैसे पात्रोँ के उद्दाम एकल संवाद नहीँ हैँ. (इसी सीमा से मुक्त होने के लिए आधुनिक हिंदी ने मुक्त छंद का अन्वेषण किया है.)
मेरी इच्छा होती कि हिंदी मेँ भी कुछ ऐसा हो, लेकिन जो पूरी तरह छंदबद्ध हो. इस के लिए तब मैँ ने अपनी टूटी फूटी भाषा मेँ कुछ प्रयोग किए. सब से पहले मैँ ने पचासि दशक के मध्य मेँ मारलो के नाटक मेँ से फ़ास्टस के मृत्युकालीन भाषण का काव्यानुवाद किया. मैँ समझता हूँ कि वह बुरा अनुवाद नहीँ था. इस के लिए मैँ ने हिंदी मेँ दस सिलेबलोँ का एक छंद बनाया. (मैँ अपने अनुवाद को मूल के निकटतम रखना चाहता था, और इस के लिए किसी हिंदी छंद का अतुकांत उपयोग करने के बजाए मैँ ने अँगरेजी के दस सिलेबलोँ वाले छंद मेँ ही प्रयोग करना बेहतर समझा.)
सिलेबल और स्वराघात
लोग कहते हैँ कि हिंदी मेँ सिलेबल नहीँ हैँ. मैँ इस धारणा से सहमत नहीँ हूँ. मैँ समझता हूँ कि आजकल जिन्हेँ हम मात्रिक छंद कहते हैँ वे हिंदी के बदले हुए उच्चारण के कारण सच्चे मात्रिक छंद न रह कर एक तरह के सिलेबिक छंद बन गए हैँ, जिन्हेँ मैँ वार्णिक या मात्रिक से हट कर स्वानिक या आंबिक छंद कहना चाहूँगा–स्वन या अंब यानी उच्चारण की एक कड़ी, यानी सिलेबल.
इस बात को थोड़ा खोल कर कहना होगा. हम ने एक सर्वस्वीकृत सा नारा बना रखा है कि हिंदी मेँ हम जैसा बोलते हैँ वैसा ही लिखते हैँ. इस का उलटा कर के कहेँ, तो–हिंदी मेँ जैसा हम लिखते हैँ वैसा ही बोलते हैँ. लेकिन ऐसा है नहीँ. हिंदी के किसी भी व्यंजन मेँ जो अकार छिपा रहता है, उस का उच्चारण हम अब किसी भी स्वन के अंत मेँ नहीँ करते. लिखते राम हैँ, बोलते राम् हैँ. मात्राओँ की गिनती करेँ तो राम मेँ तीन मात्राएँ हैँ–एक गुरु और एक लघु, यदि राम का उच्चारण राम ही हो. लेकिन जैसा हम बोलते हैँ, उस मेँ केवल दो मात्राएँ हैँ–एक गुरु. इसी प्रकार लिखित राम मेँ दो वर्ण हैँ–एक गुरु और एक लघु, जबकि उच्चरित राम् मेँ केवल एक वर्ण है–गुरु. संस्कृत भाषा मेँ जहाँ राम का उच्चारण राम ही है, ये परिभाषाएँ उचित हैँ. हिंदी के सभी जीवित छंदोँ मेँ मात्राओँ की गणनाएँ अशुद्ध हैँ. हमारे पास अब जो बचा है वह है सिलेबल या स्वन या अंब.
इस स्वन के अस्तित्व के बावजूद हिंदी और अँगरेजी मेँ एक भारी अंतर है. अँगरेजी मेँ स्ट्रैस या स्वराघात की सुस्थिर प्रणाली है, और यह उस के छंदोँ का, प्रवाहशीलता का, आधार है. हिंदी गायन मेँ स्वराघात है, लेकिन उस का संबंध ताल के सम से है. लेकिन हिंदी मेँ हम निराघात और साघात सिलेबलोँ के स्थान पर अविस्तार और सविस्तार स्वनोँ को रख सकते हैँ. यहाँ मात्रा के स्थान पर उच्चारण मेँ ध्वनि के अविस्तृत और विस्तृत उपयोग को देना होगा. जैसे गायन शब्द ही लेँ. इस मेँ गा को हम उतना विस्तार नहीँ देते जितना यन को. या सीज़र को लेँ, या विक्रम को. इन मेँ पहला स्वन अविस्तृत है और दूसरा विस्तृत. लेकिन किसी भी कव्य पंक्ति मेँ इन के स्थान के आधार पर यह विस्तार कम या अधिक या परिवर्तित भी हो सकता है. एक और उदाहरण लेँ–उन्नति. इस मेँ तीन स्वन हैँ–उन् न ति. इन मेँ केवल पहला विस्तृत है, शेष दोनोँ अविस्तृत.
(प्राचीन संस्कृत मेँ तीन वर्णोँ के गण ही नहीँ, दो वर्णोँ वाले युगलक भी हुआ करते थे. गुरु लघु क्रम से दो वर्णोँ वाले युगलक को ध्वजा कहते थे. हिंदी मेँ हम इस छंद को पंचध्वज या ध्वजापंचक कह सकते हैँ. ध्वजा मेँ मात्राओँ का गुरुलघु क्रम आयंब के लघुक्रम से उलटा है. लेकिन हिंदी मेँ हमारे छंद मेँ किसी भी प्रकार का सुनिश्चित आघात या मात्रा क्रम न होने के कारण उसे ये नाम दिए जा सकते हैँ.)
यहाँ मैँ जूलियस सीज़र के इस रूपांतर विक्रम सैंधव से एक काव्यांश उदाहरण के रूप मेँ प्रस्तुत करना चाहूँगा. पहले मैँ वे पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ, और उस के बाद उस का आयंबोँ या ध्वजाओँ मेँ विभाजन. हर आयंब या ध्वजा को ओब्लीक या आड़ी रेखा से अलग किया गया है. एक आयंब या ध्वजा मेँ जो दो स्वन हैँ वे दिखाने के लिए उन के बीच मेँ हाइफ़न डाला गया है–
भव्य वीरता की विशाल प्रतिमा
बन विक्रम आज धरा को रौँद रहा
है. उस के विकराल डगों के नीचे
हम सैंधव जन चूहोँ जैसे दुबक
रहे हैँ, काँप रहे हैँ… कायर हैँ
जो अपनी किस्मत को कोसा करते
हैँ. है नरवीर वही अपने हाथोँ
जो निज भाग्य बनाता. शतमन्यु,
यह पतन हमारा–भाग्य नहीँ लाया,
हम लाए हैँ.
भव् – य/ वीर – ता/ की – वि/शाल – प्र/ति – मा/
बन – विक्/रम – आज/ ध – रा/ को – रौँ/द – रहा/
है. – उस/ के – विक/राल – ड/गों – के/ नी – चे/
हम – सैं/धव – जन/ चू – होँ/ जै – से/ दु – बक/
र – हे/ हैँ, – काँ/प – र/हे – हैँ…/ का – यर/
ही – अप/नी किस्/मत – को/ को – सा/ कर – ते/
हैँ. – है/ नर – वीर/ व – ही/ अप – ने/ हा – थोँ/
जो – निज/ भाग् – य/ ब – ना/ता. – शत/मन्- यु,/
यह – प/तन – ह/मा – रा–/ भाग् – य/ न – हीँ/ ला – या,/
हम – ला/ए – हैँ./
जब मैँ ने दस सिलेबलोँ वाला हिंदी छंद बनाया और फ़ास्टस वाले अनुवाद मेँ उस का उपयोग किया तब भी मेरे पास स्वराघात का कोई सुस्थिर क्रम नहीँ था, और आज चालीस साल बाद भी नहीँ है, जब कि मैँ इस छंद मेँ कई प्रयोग कर चुका हूँ. यह भी संभव था, पर उस के लिए वार्णिक छंद रचना के जैसा प्रयास या अनुभव चाहिए, वह मेरे बस मेँ नहीँ ही था.
संप्रेषण: सांस्कृतिक समस्या
फ़ास्टस के अनुवाद से मैँ ने देखा कि एक ओर तो उस छंद की स्वीकार्यता थी, तो दूसरी ओर भारतीय मानस के उस की भावभूमि से न जुड़ पाने की समस्या थी. मूल अँगरेजी मेँ एक जर्मन पात्र के कथ्य मेँ यूरोपीय सांस्कृतिक उद्धरण थे, जो हमारे पाठकोँ के लिए अर्थहीन थे. मुझे लगा कि जब हम भारतीय पाठक से अभिमुख होँ तो हमारी भावभूमि मेँ भारतीय संदर्भ होने चाहिएँ, जिन से वह सहज तादात्म्य स्थापित कर सके.
जैसा कि मैँ ने कहा कि मेरे मन पर मारलो, शैक्सपीयर और मिल्टन के उद्दाम एकल संभाषण थे, जिन मेँ उन पात्रोँ के मन मेँ चलने वाले अंतर्द्वंद्व थे. मैँ भी वैसा ही कोई भारतीय संभाषण लिखना चाहता था अपने नए छंद मेँ. एक ऐसा संभाषण जिस के पीछे एक नाटकीय दुविधा हो, करूँ या न करूँ का कठिन ऊहापोह हो. बचपन से ही भारतीय, विशेषकर रामायण और महाभारत की, कहानियाँ सुनते पढ़ते बड़ा हुआ था. हमारे पाठकोँ के लिए भी वे कहानियाँ उतनी ही सहज थीँ
भारतीय मिथक मेँ सब से अधिक नाटकीय संभावनाओँ से पूर्ण अवसर वह है जब राजा राम अपनी पत्नी सीता को बनवास देने का निर्णय लेते हैँ. विजय भट की महान फ़िल्म रामराज्य मेँ राम के सामने आए इस दुविधापूर्ण अवसर का निपटारा इस वाक्य के द्वारा किया गया था–भावना से कर्तव्य ऊँचा है. बताया गया था कि राम ने रामराज्य का एक आदर्श उपस्थित करने के लिए न्याय की बलिवेदी पर अपनी निजी भावनाओँ और सीता का परित्याग कर दिया.
बचपन से मैँ भी इसी वाक्य को रटता आया था. लेकिन क्या यही अंतिम सत्य था? एकमात्र संभावना है? विचारो तो सीता बनवास का संबंध न्याय से क़तई नहीँ मालूम पड़ता. अगर मात्र न्याय की बात होती तो एक निष्पक्ष राजा के रूप मेँ राम सीता को स्पष्टीकण का अवसर देते. हम जानते हैँ कि सीता को ऐसा कोई मौक़ा नहीँ दिया गया. हम यह भी जानते हैँ कि सीता को बताया तक नहीँ गया कि उन को निर्वासित किया जा रहा है. तो कुछ और भी कारण हो सकते हैँ. क्या इन मेँ कुछ निजी कारण भी थे? हमेँ पता नहीँ.
राम एक कथा के पात्र हैँ. बहुत सी बातेँ जो उस कथा का लेखक जानता है, उस का पात्र नहीँ जानता. अगर राम को पता होता कि रावण के षड्यंत्र के अंतर्गत मारीच स्वर्ण मृग बन कर आया है, तो क्या वे उस का आखेट करने जाते? तो क्या लक्ष्मण सीता को अकेली छोड़ कर राम की रक्षा के लिए जाते? यह षड्यंत्र वाल्मीकि को पता था, तुलसी दास को पता था, उन के श्रोताओँ/पाठकोँ को पता था – लेकिन राम, सीता और लक्ष्मण को पता नहीँ था, क्योँकि वे कथा के पात्र थे, कथाकार या कथापाठक नहीँ. इसी प्रकार सीता बनवास के निर्णय के समय कई बातेँ कथाकार और कथापाठकोँ को पता थीँ, राम को नहीँ. उन्हेँ तो कथापात्र की ही तरह सोचना था. और उस अवसर पर उन के मनोमंथन का काल्पनिक और नाटकीय वर्णन करने के लिए, मैँ ने नाटकीय शिल्प का सहारा लिया और एक सौ तीस पंक्तियोँ का एकल संभाषण राम का अंतर्द्वंद्व लिखा. उस के छंद को माँजने के लिए कई संस्कार किए. सन ५७ मेँ यह कविता सरिता मेँ प्रकाशित हुई. यह मेरे लिए खेद की बात थी और अब भी है कि उस की कुछ पंक्तियोँ को संदर्भ से अलग कर के उस कविता के विरुद्ध एक आंदोलन छेड़ दिया गया. वह एक भिन्न विषय है. मैँ उस मेँ अब नहीँ जाना चाहता. केवल सरिता के संपादक-प्रकाशक श्री विश्वनाथ के प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपने संपादकीय अधिकार के लिए मेरे साथ डटे रहे, कहना चाहिए कि जो मुझे उस आँधी के सामने डटे रहने का मनोबल देते रहे.
यहाँ जो असल बात मैँ कहना चाहता हूँ, वह उस अतुकांत आयंबिक पैंटामीटर के संबंध मेँ है.
हम कोई भी विदेशी या नई तकनीक या विधा तकनीक लेँ, जैसे नाटक या फ़िल्म या नाटक/फ़िल्म मेँ कोई शैली, उस मेँ हमारी कृति की संप्रेषणात्मक सार्थकता को बल प्रदान करने के लिए बेहतर यह है कि वह हमारे समसामयिक और समदेशीय समाज से जुड़ी हो. फ़िल्मोँ मेँ यह दादा फाल्के ने सिद्ध किया था. ईसा मसीह की फ़िल्म से प्रेरणा ले कर उन्होँ ने भारत का पहला कथाचित्र बनाया, लेकिन उस की कहानी पूरी तरह भारतीय रखी–राजा हरिश्चंद्र की कहानी.
यह बात मेरे संदर्भ मेँ राम का अंतर्द्वंद्व के प्रयोग से सिद्ध हो गई थी. उस के बाद उसी छंद मेँ मैँ ने एक कविता और लिखी थी–सीता की अंतर्ज्वाला. यह भी लगभग तभी लिखी गई थी. लेकिन उस आंदोलन के बाद न तो मैँ ने बहुत कुछ लिखा, और न वह दूसरी कविता कई वर्षोँ तक प्रकाशित करवाई. लगभग पंदरह साल बाद उस का एक कटाफटा संक्षिप्त रूप सरिता के रजत जयंती अंक (जनवरी १९७०) मेँ प्रकाशित हुआ था. यह काटछाँट मैँ ने स्वयं की थी, क्योँकि दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है. निश्चय ही मैँ एक बार फिर विवाद मेँ पड़ना नहीँ चाहता था. सीज़र मेँ उत्तेजित भीड़ ने कवि सिन्ना को मार डाला था. किसी आदर्श या सिद्धांत का प्रश्न हो तो आत्मबलि देना कोई अर्थ रख सकता है. लेकिन न सिन्ना के सामने कोई आदर्श था, न मैँ ने वह कविता किसी सैद्धांतिक विचार के प्रतिपादन के लिए लिखी थी. वह मेरे लिए एक काव्य कृति ही थी, एक प्रयोग थी, जिस के माध्यम से मैँ हिंदी पाठकोँ को, उन की औेर मेरी अपनी भावभूमि पर, एक अच्छी विदेशी शैली की अनुभूति कराना चाहता था, जो मेरी नज़र मेँ अनुकरणीय थी. मेरा विचार था, और है कि हिंदी को सारे विश्व के साहित्य से प्रेरणा ले कर अपने को समृद्ध करते रहना चाहिए. इस के साथ ही मेरा उद्देश्य था–एक कथाबिंदु पर मेरे नायक के मन मेँ जो मंथन हो रहा है, उस के द्वारा एक कालातीत अनुभूति का संप्रेषण. लेकिन जो कुछ मेरे साथ हुआ उस ने मेरा उत्साह भंग हुआ था–यह मैँ निस्संदेह कह सकता हूँ. जो समाज कवियोँ/कलाकारोँ को चिंतन की स्वतंत्रता न देता हो, या जिस मेँ धर्म के नाम पर नेता पाठकोँ को भीड़ बना देँ, उस मेँ विचारोँ का स्वतंत्र उन्मेष कब तक चल सकता है? सीता की अंतज्र्वाला का अविकल रूप अब तक अप्रकाशित है. अस्तु.
देशकाल
जैसा कि मैँ ने पहले भी कहा, मैँ इस नतीजे तक पहुँच चुका था कि भारतीय पाठक के लिए भावभूमि का स्थानीय होना श्रेयस्कर है. जब मुझ पर सीज़र का भूत सवार हो गया (इस के बारे मेँ मैँ कुछ बाद मेँ बात करूँगा), मैँ ने निर्णय लिया कि मैँ सीज़र का अनुवाद नहीँ, बल्कि उस का भारतीय रूपांतर करूँगा. मैँ ने यह भी तय किया कि यह रूपांतर शैक्सपीयर के मूल नाटक की तरह काव्य मेँ होगा और उस मेँ वही पुराना आज़माया हिंदी का अतुकांत आयंबिक पैंटामीटर एक बार फिर आज़माया जाएगा.
अनुवाद मेँ सब से बड़ी समस्या वही थी–भारतीय दर्शकोँ के यूरोपीय संदर्भोँ को न समझ पाने की समस्या. दूसरी समस्या थी दर्शक द्वारा यूरोपीय नामोँ को याद न रख पाने की समस्या. अगर नाटक को केवल पुस्तक तक सीमित रखना हो, तब तो पाठक पन्ने पलट कर नामोँ को दोहरा सकता है. लेकिन नाटक मूलतः मंचन के लिए होता है. सभागार मेँ बैठे दर्शक के पास पन्ने पलट कर नामोँ को एक बार फिर समझने की सुविधा नहीँ होती.
अब मैँ ने सोचना शुरू किया कि रूपांतर के लिए कौन सा ऐतिहासिक काल चुना जाए. किसी भी सुज्ञात ऐतिहासिक काल या पात्र के साथ सीज़र का रूपांतर पाठकोँ के मन मेँ अनेक भ्रम पैदा कर सकता था. बहुत सोच समझ कर मैँ ने रूपांतरण के लिए सिंधु घाटी की सभ्यता का काल चुना. उस के बारे मेँ हम आज कुछ नहीँ जानते. हमेँ उस के किसी नायक का नाम ज्ञात नहीँ है. उस की राज्यव्यवस्था के बारे मेँ भी हम कुछ नहीँ जानते. जो कुछ हम जानते हैँ वह है उस का उन्नत नागरिक जीवन. इसलिए हम बड़ी आसानी से उस मेँ एक ऐसे काल्पनिक गणतंत्र की कल्पना कर सकते हैँ, जिस मेँ व्यक्तिवाद के संकट मँडरा रहे होँ. इस पार्श्वभूमि मेँ रूपांतर से दर्शक के मन मेँ किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश नहीँ रहेगी.
मैँ ने सिंधु घाटी मेँ बसे जिस काल्पनिक सैंधव गणराज्य की परिकल्पना की है. वह आज के ही भारत की तरह यह एक बहुजातीय समाज है. इन मेँ आर्य प्रमुख हैँ. पुरातत्व की नवीनतम खोजेँ इसी धारणा को पुष्ट करती मालूम पड़ती हैँ.
आसपास के देशोँ से इस गणराज्य के सजीव संबंध हैँ. ये युद्धोँ के भी हैँ और व्यापार के भी. एक ओर हिमालय के उस पार गांधार, सुमेरु, चीन, तुर्की आदि, तो दूसरी ओर अरब सागर के साथ साथ नीचे ही लाट देश. इन देशोँ के लोग भी इस गणराज्य मेँ रहते हैँ. शतमन्यु के निजी मित्रोँ मेँ एक ओर नागराज मणिभद्र हैँ, तो निजी सेवकोँ मेँ वासुकि, तुरुष्क, चीनक, शंबूक हैँ. शंबूक से दर्शक को राम द्वारा दंडित शूद्र शंबूक की याद आ सकती है. अंत मेँ, शतमन्यु के साथ यह स्वामीभक्त शूद्र ही रहता है, जैसे महाभारत मेँ युधिष्ठिर के अंतिम क्षणोँ का साथी कुत्ता है. इन लोगों मेँ से कई पुरानी विजय यात्राओँ मेँ दास बना कर लाए गए थे. कंक का सेवक/दास उशीनर गांधार से आया है.
सीज़र मेँ मेटेलस सिंबर के भाई (वहाँ उस का कोई नाम नहीँ है) के निर्वासन का कोई कारण नहीँ बताया गया है. रूपांतर मेँ महीधर वर्मन के भाई पुष्पदंत के बनवास का कारण सुमेरु के सार्थवाह से व्यापार मेँ धोखा बताया गया है, जिस से सारे देश की साख को बट्टा लगा है.
सभी पात्रोँ के भारतीय नामोँ पर चर्चा करना उचित नहीँ होगा, लेकिन कुछ प्रमुख पात्रोँ के नामोँ का ज़िक्र करना चाहता हूँ. पहले सीज़र. उस का नाम है विक्रम सैंधव. नाम से उस की वीरता का, अहंभाव का आभास होता है, और इस बात का भी कि उसे अपने गणराज्य पर गर्व है. लैटिन मेँ ब्रूटस का शब्दार्थ है बलभद्र या बलिष्ठ, भारतीय परंपरा मेँ उसे ऋषभ भी कह सकते हैँ. मैँ ने उस का नाम रखा है शतमन्यु, महाभिमानी. उसे भी अपने वंश पर और अपने उच्च आदर्शोँ पर गर्व है. कैसियस है कंक. कंक श्वेत गिद्ध को कहते हैँ, महा आखेटक. अज्ञातवास काल मेँ युधिष्ठिर ने अपना यही नाम रखा था.
भोला भाला कास्का यहाँ चाणूर है. बातचीत से वह पूरा बटुक मालूम पड़ता है. पर उस के नाम का एक पौराणिक संदर्भ भी है. चाणूर वह पहलवान है, जिस से कंस ने कृष्ण को मरवाने की कोशिश की थी. विक्रम पर पहला वार कास्का करता है. इस लिए उस का नाम मेँ ने चाणूर रख दिया.
सीज़र का खिलंदड़ा मित्र और भक्त एंटनी अपने गुणोँ के कारण आनंदवर्धन है. लेकिन सीज़र का पुत्र आक्टेवियस दुष्यंत के शकुंतला पुत्र और उत्तराधिकारी के नाम पर भरत सैंधव है.
षड्यंत्र मेँ शामिल बीमार लिगारियस जो ब्रूटस के आवाहन पर कुछ भी करने को तैयार है यहाँ नागराज मणिभद्र है. षड्यंत्रकारी सिन्ना का नाम चंडीचरण रखा है, क्योँकि उस का नाम ऐसा रखना था जो किसी कवि का हो. विक्रम मेँ भीड़ द्वारा मारे गए कवि का नाम है चंडीचारण. इसलिए सिन्ना का नाम है चंडीचरण. ऐसे नामोँ से उस काल के धार्मिक विश्वासोँ की झलक भी मिलती है.
विक्रम के आरंभ मेँ ही प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुकूल जन समुदाय को उत्सव के समय कीर्तन के रूप मेँ नारे लगाते दिखाया गया है. जन साधारण का धर्म मुख्यतः शैव और शाक्त है. वैष्णव जन भी हैँ. (अपने अंतिम क्षणोँ मेँ शतमन्यु हरि ओम् तत्सत मंत्र का पाठ करता है.) प्राचीन भारत की ही तरह प्राचीन रोम मेँ बहुदेववाद था, और होम आदि होते थे, और शासकोँ मेँ पुरोहितोँ से शकुन पता करवाने का प्रचलन था. आपदाओँ के समय वे तरह तरह के अपशकुनोँ से प्रभावित होते थे. इस लिए इस स्तर पर कोई विशेषकठिनाई नहीँ हुआ. षड्यंत्र की तूफ़ानी रात के अनेक अनोखे लक्षण मूल सीज़र से ही लिए गए हैँ. कहीँ कहीँ उन का भारतीयकरण मात्र किया गया है.
भाषा और मंच भाषा
यहाँ कुछ शब्द रूपांतर और अनुवाद की भाषा के बारे मेँ लिखना समीचीन होगा. इस विषय पर मैँ दो कोणोँ से विचार करना चाहता हूँ.
१. हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी का सवाल या प्रचलित शब्दावली का सवाल.
२. मंच के लिए संवादोँ के लिए शब्दोँ मेँ विस्तार की गुंजाइश का सवाल.
पहले हिंदी उर्दू का सवाल लेँ. इसे नाहक़ राजनीतिक रूप दे दिया गया है. यह राजनीतिक रूप ऊपरी तौर पर तो पिछले कुछ दशकोँ से हिंदी उर्दू पर चली आ रही बहस मेँ दिखाई देता है. हिंदी को हिंदुओँ की और उर्दू को मुसलमानोँ की भाषा मान लिया गया है. जिसे हम हिंदी कहते हैँ, वह खड़ी बोली का विकसित रूप है. उस रूप के विकास मेँ उन लोगों का आरंभिक योगदान कम नहीँ है जिन्हेँ मुसलमान कहा जाता है. हिंदी शब्द भी उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है, और उस का आरंभिक संदर्भ केवल भौगोलिक था. जो साधु संत हिंदू धर्म का प्रचार करते थे, उन की भाषा आधुनिक हिंदी या खड़ी बोली न हो कर ब्रजभाषा और अवधी हुआ करती थी. उर्दू के आरंभिक नामोँ मेँ हिंदवी प्रमुख है. हिंदी शब्द को हम हिंदवी का ही एक रूप कह सकते हैँ. इस के विकास मेँ अमीर खुसरो ने बहुत बड़ा काम किया. इस भाषा मेँ एक ओर पर ग़ालिब जैसे कवि हैँ जो अरबी फ़ारसी शब्दावली का प्रचुर उपयोग करते हैँ, तो दूसरी ओर मीर और नज़ीर अकबराबादी हैँ, जो जन सधारण मेँ बोले जाने वाले शब्दोँ का प्रयोग करते हैँ, और एक अन्य ओर आधुनिक हिंदी के अनेक कवि हैँ जो संस्कृतनिष्ठ शब्दावली लिखते हैँ.
ऐसे लोग भी कम नहीँ हैँ जो नारा लगाते रहते हैँ कि हिंदी उर्दू एक ही भाषा हैँ. यह नारा भी केवल राजनीतिक नारा ही बन कर रह जाता है, जब हम यह देखते हैँ कि किसी भी हिंदी पाठ्यक्रम मेँ ग़ालिब तो क्या, मीर तकी मीर और नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ भी सम्मिलित नहीँ हैँ और किसी भी हिंदी पीठ मेँ इन जैसे कवियोँ पर शोध को प्रोत्साहन नहीँ दिया जाता.
यह सब लिखने का एक कारण यह भी है कि जूलियस सीज़र के मेरे रूपांतर और अनुवाद को संस्कृतनिष्ठ माना जाता है. यह संस्कृतनिष्ठ भाषा मेरी अपनी सामान्य शैली नहीँ है. मैँ ने यह जान बूझ कर लिखी थी. मैँ इस बात पर भी कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ.
मैँ समझता हूँ कि हमारे लेखक अकारण ही, और बिना सोचे समझे, यह सिद्ध करते आ रहे हैँ कि उर्दू कोई विदेशी भाषा है. मान लेँ सिकंदर पर कोई नाटक या फ़िल्म बनाई जा रही है. सिकंदर ग्रीक था और उस की भाषा भी ग्रीक थी, जो संस्कृत की सहभाषा है. लेकिन सिंकदर पर नाटकोँ मेँ पुरु से संस्कृतनिष्ठ भाषा बुलवाई जाती है और सिकंदर से उर्दू. क्योँ? क्या सिकंदर अरबी था, या फ़ारसी था? अपरोक्ष रूप से क्या हम यह संप्रेषित नहीँ कर रहे कि उर्दू विदेशी भाषा है.
इसी प्रकार मैँ ने कई विदेशी नाटकोँ के अनुवाद और रूपांतर देखे हैँ, जैसे स्वयं शैकसपीयर के कुछ नाटक या मौलियर के हास्य नाटक. इन अनुवादकोँ और रूपांतरकारोँ मेँ से कई ऐसे लेखक हैँ जो अपने आप को धर्मनिरपेक्षता का ध्वजी मानते रहे हैँ. जब उन्हेँ लगता है कि यह घटनाक्रम हमारे समाज मेँ फ़िट नहीँ बैठेगा तो वे पात्रोँ को मुसलमान बना देते हैँ. या पात्रोँ की भाषा को तथाकथित उर्दू टच दे देते हैँ. क्या वे अनजाने ही उर्दू को एक पराई भाषा नहीँ बना देते?
इस मनोवृत्ति से अलग चलने के लिए ही मैँ ने सीज़र के अनुवाद और रूपांतर मेँ भाषा को संस्कृतनिष्ठ रखा है, उन पात्रोँ के लिए भी जो स्पष्टतः तुर्की या गांधारी हैँ.
अब हम आते हैँ उन शब्दोँ की ओर जो मंच पर संवाद के रूप मेँ बोले जाते हैँ.
शब्द की शक्ति अमूर्त है, लेकिन गंभीर है. उस के द्वारा श्रोता-पाठक के मन के तारोँ को झंकृत किया जाता है. तब किसी भी काव्य कृति (यहाँ काव्य शब्द से तात्पर्य संस्कृत परंपरा मेँ सभी साहित्यिक विधाओँ से है, जिस मेँ नाटक भी है) की पुनर्सृष्टि सुहृदोँ के मन मेँ होती है. जो कृति ऐसा नहीँ कर पाती, वह निष्प्रभ रह जाती है. महत्व इस बात का नहीँ होता कि शब्द सामान्य हैँ या असामान्य, निरलंकार हैँ या अलंकृत. असली बात है कि क्या वे अपने लक्ष्य समाज के मन को जगा पाते हैँ? वास्तव मेँ शब्द की शक्ति किसी भी चित्र से बड़ी होती है, क्योँ कि चित्र स्थूल होता है, और कल्पना सूक्ष्म.
आधुनिक संदर्भ मेँ देखेँ, तो रंगमंच पर, फ़िल्म मेँ नहीँ, वातावरण और दृश्योँ की, बिंबोँ और प्रतिबिंबोँ की सृष्टि केवल शब्दोँ के माध्यम से की जाती है. इसी प्रकार मंच पर किसी कथानक की सभी घठनाएँ नहीँ दिखाई जातीं. अनेक का वर्णन किसी न किसी पात्र के द्वारा शब्दोँ से ही करवाया जाता है, ताकि दर्शक वह जान सके, जो मंच से बाहर हुआ है या हुआ था. इस जानने मेँ एक तीव्रता और आँखोँ देखी उपस्थिति का आभास करवा पाना आवश्यक होता है. इन की सफलता शब्दोँ के चयन पर करती है, और कलाकारोँ की वाणी पर, हावभाव पर. शब्दोँ मेँ यह शक्ति होनी चाहिए कि उन्हेँ सुन या पढ़ कर दर्शक-श्रोता-पाठक के मन मेँ वे दृश्य सजीव होने लगें. दृश्य की सृष्टि तो श्रोता के मन मेँ होगी, लेकिन इस सृष्टि का साधन तो शब्द ही रहेँगे.
जैसे स्वयं सीज़र मेँ कैसियस/कंक द्वारा उस होड़ का वर्णन जो टाइबर/सिंधु नदी के तूफ़ानी जल मेँ उस के और सीज़र/विक्रम के बीच हुई थी–
सुनो… एक दिन शीत पवन चलता था.
हरहरा रही थी महासिंधु
की धारा. विक्रम ने तौला मेरी
आँखोँ को. बोला: है हिम्मत, तो चल
कूदेँ इस उन्मत्त सलिल मेँ. देखेँ–
कौन पहुँचता है पहले उस तट पर.
बस, कूद पड़ा मैँ, जो भी पहने था,
और कहा विक्रम से: हिम्मत है, तो
आ! कूद पड़ा था वह भी… लहरेँ ही
लहरेँ लरज रही थीँ. हम ने उन्हेँ
थपेड़ा. बाँहोँ के बल से हम ने
उन्हेँ घकेला. लहरोँ के मस्तक पर
चढ़ कर हम ने अपने बल को तौला.
लेकिन तट था दूर… विक्रम ने हिम्मत
हारी. वह चिल्लाया, कंक, बचा.
मैँ डूबा!
या कास्का द्वारा उस दृश्य का वर्णन जिस मेँ एंटनी/आनंदवर्धन ने सीज़र/विक्रम को मुकुट पहनाने की कोशिश की थी.
इन वर्णनोँ की सजीव कल्पना श्रोता केवल शब्दोँ से और कलाकारोँ की भाव और स्वर भंगिमा से ही कर सकते हैँ. ऐसे वर्णनोँ मेँ या पात्रोँ द्वारा अपने मन मेँ चलने वाले द्वंद्वोँ के वर्णन मेँ शब्द का महत्व स्पष्ट है.
इस के साथ साथ मंच के लिए उन शब्दोँ का चयन किया जाना चाहिए जिन मेँ वे ध्वनियाँ होँ जिन का उच्चारण करते समय कलाकार शब्दोँ को आवश्यकतानुसार विस्तार दे सके. शैक्सपीयर के नाटकोँ मेँ तो यह बात और भी आवश्यक हो जाती है, क्योँकि महाकवि ने शब्दोँ का चुनाव और उन की क्रम स्थापना बड़ी मार्मिकता से की थी. मैँ ने कोशिश की है कि हर संवाद मेँ ऐसे शब्द चुन चुन कर रखे जाएँ, जो कलाकार और दर्शक दोनोँ के दृष्टिकोण से उपयुक्त होँ.
रूपांतर और अनुवाद प्रक्रिया
समांतर कोश की रचना के दौरान नवंबर १९८८ मेँ जब मुझे दिल का भारी दौरा पड़ा. तीन महीने बाद बाईपास सर्जरी के होने तक डाक्टरोँ ने आराम करने का कहा और मेज़ पर बैठ कर कार्डों पर श्रमसाध्य काम करने की मनाही कर दी. यह भी पता था कि आपरेशन के बाद भी कुछ महीनोँ तक समांतर कोश के कार्डों पर काम नहीँ हो पाएगा. तो समय काटने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही था. मेरे मन मेँ वही पुराना जूलियस सीज़र उसी भूत की तरह मँडराने लगा जो सार्डिस की छावनी मेँ रात को ब्रूटस को दिखाई दिया था. वह भूत मेरे मन पर भी हावी हो गया.
मुझे अनुवाद पूरा करने की कोई जल्दी नहीँ थी. मेरे पास छः महीने थे. मैँ अपने किसी भी अनुवाद को ऐसा बनाना चाहता हूँ कि वह अनुवाद का आभास न दे कर हिंदी की मौलिक कृति जैसा लगे. इस के लिए मेरी अनुवाद प्रक्रिया कुछ भिन्न है. कोई भी अनुवाद छःसात स्टेजों से गुजरता है.
पहले चरण मेँ मैँ केवल शाब्दिक अनुवाद करता हूँ, वह कितना ही अधकचरा क्योँ न लगे. इस का अर्थ है कि टूटे फूटे अनगढ़ वाक्योँ मेँ मूल के भावोँ को हिंदी मेँ लिख भर देना. कई जगह यह मूल भाव भी सही नहीँ होता. इस से मुझे मूल कृति को नजदीक से देखने समझने का मौक़ा मिलता है. दूसरे चरण मेँ उस के शब्दार्थ का पुनरीक्षण होता है. कहीँ कोई अर्थ ग़लत तो नहीँ लिख दिया? कहीँ कोई भाव, कोई प्रभाव, कोई संदर्भ छूट तो नहीँ गया, ग़लत तो नहीँ आ गया? इस चरण मेँ ये अशुद्धियाँ ठीक करने की कोशिश की जाती है. तीसरे चरण मेँ मैँ मूल रचना को उठा कर एक तरफ़ रख देता हूँ, और अपने अनगढ़ वाक्योँ को फिर से लिखना शुरू करता हूँ, अपने शब्दोँ मेँ.
दूसरा चरण पूरा होने तक बाईपास सर्जरी का समय आ गया था. जब मैँ आपरेशन के लिए अस्पताल जा रहा था, तो मन मेँ केवल एक आशंका थी–यदि किसी कारण अस्पताल से न लौटा और किसी के हाथ इस रूपांतर की यह प्रति पड़ गई तो वह समझेगा कि मुझे वाक्य भी ठीक से लिखना नहीँ आता था. कोई पंदरह दिन बाद फ़रवरी १९८९ मेँ अस्पताल से लौटा. कुछ दिन बाद फिर रूपांतर के पन्ने हाथ मेँ उठाए–तीसरे चरण के लिए.
सीज़र, नहीँ तब उस का नाम विक्रम सैंधव था, तो विक्रम सैंधव मेँ मैँ ने अब अनेक भावोँ के भारतीयकरण के साथ साथ आरंभिक काव्य पंक्तियोँ का परिष्कार शुरू किया. चौथे चरण मेँ तीसरे संस्करण का परिष्कार किया गया. जो भी ऐंग्लीसिज्म या आंग्ल प्रभाव बचे थे, वे निकाले गए, पंक्तियोँ का संस्कार किया गया, छंद की भूलोँ को सुधारा गया. जो थोड़े बहुत नाम रूपांतर के लिए बचे थे, उन का भारतीयकरण भी इसी चरण मेँ हुआ. अब पांडुलिपि पहली टाइपिंग के लिए तैयार थी. मैँ अपनी टाइपिंग स्वयं करता रहा हूँ. लेकिन आरोग्यलाभ के इस दौर मेँ वह बाहर देनी पड़ी.
पाँचवा चरण इस टाइप लिपि के संपादन का था. इस मेँ भी काफ़ी संशोधन करने होते हैँ. इसी चरण मेँ एक बार फिर रूपांतर को मूल रचना से मिलाया गया. जहाँ आवश्यक समझा गया वहाँ मूल के निकट जाने की कोशिश की गई. अब एक प्रकार से अंतिम लिपि एक बार फिर टाइपिंग के लिए तैयार थी. यह रूपांतर का छठा संस्करण थी. टाइप हो कर जो चीज़ सामने आई, वह पूरी तरह मेरे संतोष के लिए पर्याप्त नहीँ थी. अब उस मेँ जो संशोधन करने थे, कहीँ कोई शब्द बदलना था, कहीँ कई पूरी पंक्तियाँ फिर से लिखनी थीँ. वे मैँ ने अपने टाइपराइटर पर स्वयं टाइप कीं, और बाहर से कराई गई लिपि पर उन की चिप्पियाँ लगा दीं और इस अंतिम पांडुलिपि की फ़ोटोस्टैट प्रतियाँ बनवा कर फ़ाइल बना ली.
रूपांतर से अनुवाद
इस के बाद हम लोग–मैँ और मेरी पत्नी कुसुम–एक बार फिर समांतर कोश के कार्डोँ मेँ लग गए. विक्रम सैंधव की टाइपलिपि घर पर आलमारी मेँ रख दी गई–अपने तमाम संस्करणोँ के साथ. हमारे पास उस के प्रकाशन के लिए न तो किसी से बात करने का बहुत समय था, न मंचन के लिए किसी नाट्य संस्था से बात करने का.
एक प्रकाशक को उस लिपि की फ़ोटोस्टैट प्रति अवश्य दी थी. कोई छः महीने बाद उन्होँ ने वह वापस लौटा दी. कारण तो कोई नहीँ बताया. शायद उन्हेँ अनुवाद पसंद नहीँ आया या उन्हेँ इस का प्रकाशन लाभप्रद नहीँ लगा. मैँ ने सुना है कि बिकरी कम होने के भय से आजकल प्रकाशक लोग नाटकोँ को हाथ मेँ नहीँ लेते. मैँ तो यही मानता हूँ कि यह अंतिम संभावना ही रही होगी. एक अन्य प्रकाशक ने कहा कि वह शैक्सपीयर के किसी एक नाटक का अनुवाद प्रकाशित नहीँ करना चाहेँगे. अगर प्रकाशन करेँगे तो उन्हेँ पूरी सीरीज़ चाहिए होगी. मेरे पास न इस का समय था, न कोई इच्छा. यह रूपांतर तो परिस्थिति विशेष मेँ मन बहलाव के लिए किया गया था. इस की टाइपलिपियाँ घर की आलमारी मेँ दबी रहीँ.
काफ़ी महीने बीत जाने के बाद कहीँ बंधु राम गोपाल बजाज से मुलाक़ात हो गई. यह मुलाकात कई साल बाद हुई थी–अनायास. उन दिनोँ वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की रैपरटरी कंपनी के निदेशक थे. उन्होँ ने कहा कि हम लोग उन की ओर से प्रस्तुत होने वाला नाटक यमगाथा अवश्य देखेँ. नाटक के मंचन से मैँ बहुत प्रभावित था.
नाटक के बाद मैँ बज्जू भाई से (सब लोग उन्हेँ इसी नाम से पुकारते हैँ) अपने रूपांतर का ज़िक्र कर बैठा. उन्होँ ने कहा कि वे इस की पांडुलिपि देखना चाहेँगे. उन्हेँ वह बहुत पसंद आया. वह अपनी रैपरटरी कंपनी के लिए इसे स्वयं निर्देशित और मंचित करना चाहते थे. उन का कहना था कि इस के काव्य की भाषा और प्रवाह के साथ वही न्याय कर पाएँगे. लेकिन परिस्थितियोँ ने न बज्जू भाई को इस का निर्देशन करने दिया और न इसे रूपांतर रहने दिया.
हुआ यह कि तभी प्रसिद्ध मंच निर्देशक इब्राहिम अलकाज़ी का अनुबंध राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से हो गया–एक साथ तीन नाटकोँ को प्रस्तुत करने का. उन मेँ विक्रम सैंधव भी था. और एक दम अंत मेँ, मंचन से लगभग दो सप्ताह पहले, उन्होँ ने कहा कि वह इस का रूपांतर नहीँ अनुवाद प्रस्तुत करना चाहेँगे. चुनौती के तौर पर मैँ ने रातोरात (लगभग तीन दिन मेँ) रूपांतर को फिर से अनुवाद मेँ बदला. उसी का मंचन फ़रवरी १९९१ मेँ हुआ. अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तत्त्वाधान मेँ विक्रम सैंधव प्रकाशित हो रहा है–यह मेरे लिए हर्ष का विषय है.
शैक्सपीयर बनाम शेक्सपीयर
और अंत मेँ– शैक्सपीयर के हिंदी हिज्जोँ पर एक संक्षिप्त सी टिप्पणी.
हिंदी मेँ अधिकतर लोग शैक्सपीयर को शेक्सपीयर लिखते हैँ. मैं ने हर स्थान पर शैक्सपीयर लिखा है, ऐसा ही लिखता हूँ, और ऐसा लिखना सही समझता हूँ. इस का संबंध एक बार फिर उस प्रश्न से है कि क्या हम हिंदी/देवनागरी मेँ वैसा ही लिखते हैँ जैसा बोलते हैँ.
वर्तमान देवनागरी मेँ कुल बारह स्वर चिह्न हैँ. अँगरेजी मेँ स्वर चिह्नोँ की संख्या तो कुल पाँच है, लेकिन इन के तमाम संयुक्त रूपोँ से और इन के सामने रखे जाने वाले व्यंजनोँ से कम से कम १७ स्वर बनते हैँ. इन मेँ से कई को लिखने के लिए हमारे पास उपयुक्त चिह्न नहीँ हैँ.
जब अँगरेजी के शब्दोँ को देवनागरी मेँ लिखने की आवश्यकता पड़ी, तो समस्याएँ सामने आने लगीँ. सौभाग्यवश doctor को डोक्टर नहीँ लिखा गया. लेकिन बोलचाल की हिंदी मेँ डागदर, डाक्टर, दागदर जैसे प्रयोग सामने आए. बिल्कुल सही होने की कोशिश मेँ डॉक्टर लिखने के लिए एक नया चिह्न बना लिया गया.
लेकिन उन अँगरेजी शब्दोँ को ले कर काफ़ी समस्याएँ आईँ जिन्हेँ लिखने के लिए ए या ऐ के विकल्प हो सकते थे. ऐसे कुछ शब्द और प्रयोग हैँ–प्रेस/प्रैस, ड्रेस/ड्रैस… या रोमन लिपि के अक्षरोँ के नाम, जैसे, एम/ऐम, एन/ऐन, ज़ेड/ज़ैड…
प्रेस/प्रैस, ड्रेस/ड्रैस मेँ तो ग़लतफ़हमी की गुंजाइश बहुत कम है. समस्या तब बढ़ती है जब हम एम (निशाना) और ऐम (अक्षर का नाम या हूँ) मेँ या लेस (फ़ीता) और लैस (कम) या मेट (सहयोगी) और मैट (चटाई या मिले) भेद करना चाहेँ. इस समस्या से निपटने के लिए actor को ऍक्टर लिखने के लिए भी एक नया स्वरचिह्न बना लिया गया.
मैं समझता हूँ कि हमेँ इन नए चिह्नोँ की आवश्यकता ही नहीँ है. हमारे पास पहले से ही ौ और ै चिह्न हैँ. कभी ऐसे का उच्चारण अइसे होता था, अब नहीँ. अब वह ठीक उस तरह बोला जाता है, जैसे ऐक्टर मेँ अँगरेजी का a बोला जाता है. तो कोई कारण नहीँ कि हम Shakespeare को शैक्सपीयर न लिख कर शेक्सपीयर लिखते रहेँ.
प्रसंगवश मैं यहाँ टाइपोग्राफ़ी की कुछ समस्याओँ की ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूँ. जब छपाई के लिए हाथ से कंपोज़िंग होती थी, तो टाइपोँ के केस मेँ किसी भी नए चिह्न के लिए कम से कम एक अतिरिक्त ख़ाना बनाना पड़ता. मोनोटाइप या लाइनोटाइप मशीनोँ पर कंपोज़िग मेँ भी मैट्रिक्स बौक्स मेँ एक अतिरिक्त मैट्रिक्स लगाने के लिए जगह ढूँढ़नी पड़ती. या टाइपराइटर मशीन पर एक अलग कुंजी की जगह बनानी पड़ती. यह आसान नहीँ है.
फिर बात किसी एक मात्रा के चिह्न की नहीँ रहती, उस मात्रा के साथ जो अनुस्वार या रेफ़ा लगते हैँ, उन के लिए भी अतिरिक्त टाइप बनाने पड़ते हैँ. और यह समस्या भी होती है कि इन नए चिह्नोँ के साथ ये कहाँ रखे जाएँ. जैसे मान लें हमेँ वर्टैक्स लिखना है, तो ै के बाद रेफ़ा लगा दिया, लेकिन ॉ के बाद कहाँ लगाएँगे? और यदि रेफ़ा के साथ चंद्रामस्ते भी लगानी हो जैसे वर्णोँ मेँ , तो… जो लोग टाइप डिज़ाइन करते हैँ, वे इस समस्या से भली भाँति परिचित हैँ. आधुनिक कंप्यूटरजनित कंपोज़िंग मेँ यह तो संभव कर दिखाया गया है, जब कि हिंदी की अपनी अनेक गंभीर समस्याएँ अटकी पड़ी हैँ. उदाहरण के लिए यदि हमेँ सही तरह से हैँ लिखना हो तो ऐसे लिखा जाना चाहिए, और नहीं को नहीँ. अभी तक हम यह नहीँ कर पाए हैँ.
यही कुछ कारण हैँ कि इन चिह्नोँ का प्रयोग हिंदी मेँ बहुत लोकप्रिय नहीँ हो पाया. डॉक्टर तो मिल जाता है, लेकिन ऍक्टर हिंदी मेँ नहीँ है. हो तो कोश क्रम मेँ इन्हेँ कहाँ रखेँ – इस का समाधान किसी के पास नहीँ है.
©अरविंद कुमार
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